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बुधवार, 7 मई 2008

तसलीमा नसरीन की कविताएं

बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन जब दिल्ली में किसी अज्ञात जगह पर बंदी थीं तब उस जीवन की यंत्रणा पर उन्होंने बांग्ला में साठ कविताएं लिखीं । हर कविता के अंत में तारीख और सेफ हाउस, दिल्ली अंकित है । ये कविताएं उन्होंने अपने मित्र व हिंदी के लेखक-पत्रकार डॉ. कृपाशंकर चौबे को भेजी थी । जिनमें से पांच कविताएं समाज विकास द्वारा जारी किया जा रहा हैं ।


जिस घर में रहने को मुझे बाध्य किया जा रहा है
इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूँ,
जिसमें एक बंद खिड़की है,
जिसे खोलना चाहूँ, तो मैं खोल नहीं सकती,
खिड़की मोटे पर्दे से ढँकी हुई है,
चाहूँ भी तो मैं उसे खिसका नहीं सकती।
इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूँ
चाहूँ भी तो खोल नहीं सकती, उस घर के दरवाजे़,
लाँघ नहीं सकती चौखट।
एक ऐसे कमरे में रहती हूँ मैं,
जिसमें किसी जीव के नाम पर, दक्षिणी दीवार पर,
चिपकी रहती हैं, दो अदद छिपकलियाँ।
मनुष्य या मनुष्यनुमा किसी प्राणी को
इस कमरे में नहीं है प्रवेशाधिकार।
हाँ, इन दिनों मैं एक ऐसे कमरे में रहती हूँ,
जहाँ मुझे साँस लेने में बेहद तकलीफ़ होती है।
चारों तरफ न कोई आहट, न सुनगुन
सिर्फ़ और सिर्फ़ सिर टकराने की आवाज़ें।
नहीं देखतीं, दुनिया के किसी मनुष्य की आँखें
गड़ी रहती हैं, सिर्फ दो छिपकलियों की आँखें।
आँखें फ़ाड़-फ़ाड़कर निहारती रहती हैं,
पता नहीं, वे दुखी होती हैं या नहीं
क्या वे भी रोती हैं मेरे साथ? जब मैं रोती हूँ?
मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूँ, जहाँ रहना मैं एकदम नहीं चाहती।
मैं ऐसे एक कमरे में असहाय कैद हूँ।
हां, ऐसे ही एक कमरे में रहने को, मुझे विवश करता है लोकतंत्र
ऐसे एक कमरे में , ऐसे अँधेरे में
ऐसी एक अनिश्चयता, एक आशंका में
मुझे रहने को लाचार करता है लोकतंत्र
एक कमरे में तिल-तिल मेरी हत्या कर रही है- धर्मनिरपेक्षता।
एक कमरे में मुझे असहाय-निरुपाय किये दे रहा है- प्रिय भारतवर्ष।
भयंकर व्यस्त-समस्त मानस और मानसनुमा प्राणी,
पता नहीं, उस दिन भी, उन्हें पल-दो पल की फु़र्सत होगी या नहीं,
जिस दिन कोई जड़-वस्तु, कमरे से बाहर निकलेगी
जिस दिन सड़ा-गला एक लोथड़ा या हड्डी-पसली लाँघेगी दहलीज़।
आखिरकार, क्या मौत ही मुक्ति देगी?
मौत ही शायद देती है आज़ादी, चौखट लाँघने की
उस दिन भी मुझे टकटोरती रहेंगी, छिपकिली की दो जोड़ी आँखें
दिन भर
वे भी शायद होंगी दुखी। उस दिन।
गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में,
कोई मुझे दफन कर देगा। शायद कोई सरकारी मुलाजि़म।
खैर, वहाँ भी मुझे नसीब होगी, एक अल्प कोठरी।
उस कोठरी में लाँघने के लिए, कोई दहलीज नहीं होगी,
वहाँ भी मिलेगी मुझे एक अदद कोठरी,
लेकिन, जहाँ मुझे साँस लेने में कोई तकलीफ नहीं होगी।


किसी कवि को क्या कभी, किसी ने किया था नजरबंद ?
वैसे कवि को लेकर उछाले गये हैं ईंट-कंकड़-पत्थर,
आगजनी भी हुई है,
लेकिन कवि को किसी ने गृहबंदी नहीं किया। किसी भी देश ने।
हिन्दुस्तान ने इस सभ्यता, इस इक्कीसवीं शती से
ग्रहण किया था कवि को,
हाँ अगले ही पल उसे वर्जित भी कर दिया
उसके बचपन जैसे धर्म ने, उसकी निष्ठुर राजनीति ने।
कवि ने कोई गुनाह नहीं किया,
फिर भी कवि है, आज गृह-बंदी।
कवि भूल गया है - आसमान कैसा होता है,
कह गये हैं, अब वे यहाँ फिर कभी कदम नहीं रखेंगे।
आज एक सौ पचास दिन हुए, कवि गृह बंदी है
गुजर गये एक सौ पचास दिन,
कवि का यह अहसास भी छोड़ गया था,
कि धरती पर रहता है, ऐसा कोई इंसान,
जिसके पास मौजूद है दिल,
ऐसा कौन है, जिससे कह वापस माँगे अपने दिन?
अँधेरा समेटे कवि सोच में डूबा है-
कवि को कम से कम तसल्ली तो दे इंसान
आज से पहले, जो लोग गृह-बंदी थे,
अधिकांश ही कवि थे,
मन ही मन, कुछ तो मिले उसे राहत,
नि:संगता से,
निपट अकेलेपन से
रीत रहे दिनों से।


नजरबंद
कभी, किसी दिन, अगर तुम्हें होना पड़े नज़रबंद,
अगर कोई पहना दे पाँवों में बेड़ियाँ,
मुझे याद करना।
जिस कमरे में तुम हो, अगर किसी दिन,
उस कमरे का दरवाज़ा, अन्दर से नहीं,
बाहर से बंद करके, कोई जा चुका हो,
मुझे याद करना।
पूरे मंजि़ले में कोई न हो, जो सुने तुम्हारी आवाज़,
जुबान ताला-बंद, होंठ कसकर सिले हुए
तुम बात करना चाहते हो, मगर कोई नहीं सुनता,
या सुनता है, मगर ध्यान नहीं देता,
मुझे याद करना।
मसलन तुम शिद्दत से चाहते हो, कोई खोल दे दरवाज़ा,
खोल दे तुम्हारी बेड़ियाँ,
मैंने भी चाहा था,
गुजर जायें महीने-दर-महीने, कोई रखे नहीं कदम इस राह,
दरवाज़ा खोलते ही जाने क्या हो-न हो,
इसी अंदेशे में अगर कोई खोले नहीं दरवाजा,
मुझे याद करना।
जब तुम्हें हो खूब-खूब तकलीफ़
याद करना, मुझे भी हुई थी तकलीफ,
बेहद डरे-सहमे, सतर्कता के साथ, नाप-तौलकर चलता हो जीवन,
एकदम से अचानक, हो सकता है नज़रबंद, कोई भी! तुम भी!
अब, तुम-मैं, सब एकाकार, अब नहीं कोई फ़र्क़ रत्ती भर भी!
मेरी तरह तुम भी! इंतज़ार करना तुम भी, इंसानों का!
हरहराकर घिर आता है अँधेरा, मगर नहीं आता कोई इंसान।


नो मेन्स लैंड
अपना देश ही अगर तुम्हें न दे देश,
तो दुनिया का कौन-सा देश है, जो तुम्हें देगा देश, बोलो।
घूम-फिरकर सभी देश काफी कुछ ऐसे ही होते हैं,
हुक्मरानों के चरित्र भी ऐसे ही।
तकलीफ देने पर आयें, तो ऐसे ही देते हैं तकलीफ।
इसी तरह उल्लास से चुभोएँगे सूइयाँ
तुम्हारी कलाई के सामने, पत्थर-चेहरा लिए बैठे,
मन ही मन नाच रहे होंगे।
नाम-धाम में भले हो फर्क
अँधेरे में भी पहचान लोगे उन्हें,
सुनकर चीत्कार, खुसफुस, चलने-फिरने की आहट,
तुम समझ जाओगे कौन हैं वे लोग।
हवा जिस तरह, उनके लिए, उधर ही दौड़ पड़ने का समय।
हवा भी तुम्हे बता देगी, कौन हैं वे लोग।
हुक्मरान आखिर तो होते हैं हुक्मरान।
चाहे तुम कितनी भी तसल्ली दो अपने को,
किसी शासक की जायदाद नहीं- देश।
देश होता है आम-जन का , जो देश को प्यार करते हैं,
देश होता है उनका।
चाहे तुम जितना भी किसी को समझाओ- यह देश तुम्हारा है,
इसे तुमने रचा-गढ़ा है, अपने अन्तस में,
अपनी मेहनत और सपनों की तूली में आँका है इसका मानचित्र।
अगर शासक ही तुम्हे दुरदुराकर खदेड़ दें, कहाँ जाओगे तुम?
कौन-सा देश खड़ा मिलेगा, खोले दरवाजा?
किसको देने को पनाह?
कौन-सा देश, किस मुँह से देगा तुम्हें-देश, बोलो।
अब तुम कोई नहीं हो,
शायद इंसान भी नहीं हो।
वैसे भी अब क्या है तुम्हारे पास खोने को?
अब दुनिया को खींच लाओ बाहर, कहो-
तुम्हें वहीं खड़े होने की जगह दे, वहीं दे शरण,
जहाँ खत्म होती है देश की सरहद,
जहाँ की माटी किसी की भी नहीं होती,
फिर भी जितनी-सी माटी मौजूद,
वह अवांछित माटी ही, उतनी-सी जमीन,
चलो, आज से तुम्हारी हो।


भारतवर्ष
भारतवर्ष सिर्फ भारतवर्ष नहीं है।
मेरे जन्म के पहले से ही,
भारतवर्ष मेरा इतिहास।
बगावत और विद्वेष की छुरी से द्विखंडित,
भयावह टूट-फूट अन्तस में सँजोये,
दमफूली साँसों की दौड़। अनिश्चित संभावनाओं की ओर, मेरा इतिहास
रक्ताक्त इतिहास। मौत का इतिहास।
इस भारतवर्ष ने मुझे दी है, भाषा,
समृद्ध किया है संस्कृति से,
शक्तिमान सपनों में।
इन दिनों यही भारतवर्ष अगर चाहे, तो छीन सकता है,
मेरे जीवन से, मेरा इतिहास।
मेरे सपनों का स्वदेश।
लेकिन नि:स्व कर देने की चाह पर,
भला मैं क्यों होने लगी नि:स्व?
भारतवर्ष ने जो जन्म दिया है महात्माओं को।
उन विराट आत्माओं के हाथ
आज, मेरे थके-हारे कन्धे पर,
इस असहाय, अनाथ और अवांछित कन्धे पर।
देश से भी ज्यादा विराट हैं ये हाथ,
देश-काल के पार ये हाथ,
दुनिया भर की निर्ममता से,
मुझे बड़ी ममता से सुरक्षा देते हैं-
मदनजित, महाश्वेता, मुचकुन्द-
इन दिनों मैं उन्हें ही पुकारती हूँ- देश।
आज उनका ही, हृदय-प्रदेश, मेरा सच्चा स्वदेश।
Posted By shambhu choudhary : - By Taslima Nasrin

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