आपणी भासा म आप’रो सुवागत
अब तक की जारी सूची:
-
▼
2008
(41)
-
▼
मई
(9)
- Kanhaiyalal Sethia Visheshank
- समाज का आधार साहित्य एवं आत्मा साहित्यकार
- कन्हैयालाल सेठिया समग्र साहित्य
- Kanhaiyalal Sethia / कन्हैयालाल सेठिया
- Kanhaiyalal Sethia / कन्हैयालाल सेठिया
- Kanhaiyalal Sethia / कन्हैयालाल सेठिया:
- तसलीमा नसरीन की कविताएं
- प्रो. कल्याणमल जी लोढ़ा
- समाज विकास का अप्रैल-2008 का अंक
-
▼
मई
(9)
शुक्रवार, 30 मई 2008
Kanhaiyalal Sethia Visheshank
Please Visit the May 2008 Issue Of Samaj Vikas
" Kanhaiyalal Sethia Visheshank "
http://samajvikas.in
And All photos on:
http://samajvikas.blogspot.com/
Yours
Shambhu Choudhary
Co-editor
http://www.samajvikas.in/
गुरुवार, 29 मई 2008
समाज का आधार साहित्य एवं आत्मा साहित्यकार
किसीने सही कहा है कि किसी समाज विशेष को जानना है तो उसका साहित्य पढ़ना चाहिए । साहित्य से ही उस समाज का सही चित्रण हो जाता है। समाज में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उसके विकास, उनमें बसे मनुष्यों चिंतन, उनकी सभ्यता पर साहित्य का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता हैं। वहीं साहित्यकारों को समाज का प्राण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । समाज बिना साहित्यकारों के उस देह के समान हैं जिसमें सब कुछ हैं परन्तु प्राण नहीं । समाज की सोच, संस्कृति, विकास व कला को साहित्यकार ही अग्रणी हो मार्गदर्शन करते हैं । साहित्य चाहे किसी भाषा व मजहब का हो वह महान ही होता हैं और सदैव वंदनीय है । साथ ही समाज उनके अति महत्वपूर्ण योगदान का सदैव ऋणी ही रहता है । राजस्थानी पीपुल्स गजट के संपादक श्री तेजकरण हर्ष के इस प्रयास को हम एक कदम अरगे बढ़ाते हुए एवं इसी मानसिकता से ओतप्रोत हो हम यह अंक श्री कन्हैयालाल सेठिया को समर्पित कर रहे हैं। वैसे तो राजस्थान-हरियाणा में कला, संस्कृति और साहित्य की खान हैं यहाँ साहित्यकार रूपी मूर्तियों से पूर्ण रूपेण भरा समुद्र बसता है, परन्तु जैसे ही हम प्रवासी राजस्थानी-हरियाणवीं की तरफ नजर घुमाते हैं, हमें बड़ी निराशा हाथ लगती है। ऐसा नहीं कि प्रवासी राजस्थानी-हरियाणवीं जिन्हें हम ‘मारवाड़ी’ शब्द से जानते हैं। इनमें साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति कोई लगाव नहीं है, जिन्हें है, उनकी समाज में कद्र नहीं । यह लिखने में मुझे दर्द महसूस होता है, कि इस प्रवासी समाज में कला-साहित्य के प्रति रुचि समाप्त सी हो गयी है। धन और सिर्फ धन कमाने में खोया हुआ यह समाज साथ ही साथ अपनी संस्कृति को भी खोते जा रहा है, संस्कृति के नाम पर आडम्बर, धर्म के नाम पर दिखावा, कला के नाम पर अश्लीलता, समाजसेवा के नाम पर व्यवसाय, साहित्य के नाम पर प्रचार को माध्यम बनाने की नाकाम कोशिशें जारी है।
परन्तु हम इनके इन प्रयासों को बदल देगें, ‘समाज विकास’ सही रूप में समाज की परम्परा को बचाये रखने में आपके साथ है। आयें हम सब मिलकर समाज की सोच को बदल डालें, समाज विकास के इन्टरनेट संस्करण में हम राजस्थान-हरियाणा से जुड़े वासी-प्रवासी साहित्यकारों का परिचय एकत्र करें । आप सभी से मेरा अनुरोध रहेगा कि आप इस यज्ञ में अपनी सहभागिता जरूर लेवें । योग्य राष्ट्रीय, प्रान्तीय, और स्थानिक साहित्यकारों, कलाकारों को उनकी योग्यतानुसार नेट पर प्रकाशित किया जायेगा ।
मुझे पूर्ण वि’वास हैं कि हमारा यह प्रयास आपको जरूर पसन्द आएगा ।
- शम्भु चौधरी, सह-संपादक
कन्हैयालाल सेठिया समग्र साहित्य
राजस्थानी एवं हिन्दी के जनप्रिय कवि साहित्य मनीषी पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया जी के सम्पूर्ण साहित्य को ‘समाज विकास’ के पाठकों को रियायती मूल्य में उपलब्ध कराया जा रहा है, हमारी समाज के सभी वर्गों से अनुरोध है कि कम से कम एक पूरा सेट अपने लिए या किसी पुस्तकालय को अपनी तरफ से जरूर भेंट करें। - सम्पादक
1. कन्हैयालाल सेठिया समग्र (राजस्थानी) पृष्ठ 704 मूल्य 600/- 2. कन्हैयालाल सेठिया समग्र (हिन्दी -I) पृष्ठ 704 मूल्य 600/- 3. कन्हैयालाल सेठिया समग्र (हिन्दी -II) पृष्ठ 720 मूल्य 600/- 4. कन्हैयालाल सेठिया समग्र (अनुवाद खंड) पृष्ठ 784 मूल्य 700/- ( पूरा सेट एक साथ रियायती मूल्य 1500/- डाक खर्च 200/- अलग से । विदेषी मुद्रा $200 डाक खर्च सहित ) ( सम्पादकः जुगलकिषोर जैथलिया) अपना आदेश ड्राफ्ट के साथ निम्न पते पर भेजें: अपना आदेश निम्न पते पर दें:-
राजस्थान परिषद, 2-बी, नन्दो मल्लिक लेन, कोलकात्ता - 700006
फोन नम्बर: 0-9830341747
सोमवार, 19 मई 2008
Kanhaiyalal Sethia / कन्हैयालाल सेठिया
कन्हैयालाल सेठिया द्वारा लिखित "अग्निवाणी" की वह मूल प्रति जिस पर मुकदमा चला था।
शनिवार, 17 मई 2008
Kanhaiyalal Sethia / कन्हैयालाल सेठिया:
किसने ‘धरती धौरां री...’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ की रचना की थी!
कुछ देर बाद श्री सेठिया जी को बिस्तर से उठाकर बैठाया गया, तो उनका ध्यान मेरी तरफ मुखातिफ हुआ, मैंने उनको पुनः अपना परिचय बताने का प्रयास किया, कि शायद उनको याद आ जाय, याद दिलाने के लिये कहा - शम्भु! - मारवाड़ी देस का परदेस वालो - शम्भु....! बोलने लगे... ना... अब तने लोग मेरे नाम से जानगा- बोले... असम की पत्रिका म वो लेख तूं लिखो थो के?, मेरे बारे में...ओ वो शम्भु है....तूं.. अपना हाथ मेरे माथे पर रख के अपने पास बैठा लिये। बोलने लगे ... तेरो वो लेख बहुत चोखो थो। वो राजु खेमको तो पागल हो राखो है। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती बोल रही हो । शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा लगता है। फिर अपनी बात बताने लगे- ‘आकाश गंगा’ तो सुबह 6 बजे लिखण लाग्यो... जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी। हम तो बस उनसे सुनते रहना चाहते थे, वाणी में सरस्वती का विराजना साक्षात् देखा जा सकता था। मुझे बार-बार एहसास हो रहा था कि यह एक मंदिर बन चुका है श्री सेठियाजी का घर । यह तो कोलकाता वासी समाज के लिये सुलभ सुयोग है, आपके साक्षात् दर्शन के, घर के ठीक सामने 100 गज की दूरी पर सामने वाले रास्ते में नेताजी सुभाष का वह घर है जिसमें नेताजी रहा करते थे, और ठीक दक्षिण में 300 गज की दूरी पर माँ काली का दरबार लगा हो, ऐसे स्थल में श्री सेठिया जी का वास करना महज एक संयोग भले ही हो, परन्तु इसे एक ऐतिहासिक घटना ही कहा जा सकता है। हमलोग आपस में ये बातें कर रहे थे, परन्तु श्री सेठियाजी इन बातों से बिलकुल अनजान बोलते हैं कि उनकी एक कविता ‘राजस्थान’ (हिन्दी में) जो कोलकाता में लिखी थी, यह कविता सर्वप्रथम ‘ओसवाल नवयुवक’ कलकत्ता में छपी थी, मानो मन में कितना गर्व था कि उनकी कविता ‘ओसवाल नवयुवक’ में छपी थी। एक पल मैं सोचने लगा मैं क्या सच में उसी कन्हैयालाल सेठिया के बगल में बैठा हूँ जिस पर हमारे समाज को ही नहीं, राजस्थान को ही नहीं, सारे हिन्दुस्थान को गर्व है।
मैंने सुना है, कि कवि का हृदय बहुत ही मार्मिक व सूक्ष्म होता है, कवि के भीतर प्रकाश से तेज जगमगता एक अलग संसार होता है, उसकी लेखनी ध्वनि से भी तेज रफ्तार से चलती है, उसके विचारों में इतने पड़ाव होते हैं कि सहज ही कोई उसे नाप नहीं सकता, श्री सेठियाजी को देख ये सभी बातें स्वतः प्रमाणित हो जाती है। सच है जब बंगलावासी रवीन्द्र संगीत सुनकर झूम उठते हैं, तो राजस्थानी श्री कन्हैयालाल सेठिया के गीतों पर थिरक उठता है, मयूर की तरह अपने पंख फैला के नाचने लगता है। शायद ही कोई ऐसा राजस्थानी आपको मिल जाये कि जिसने श्री सेठिया जी की कविता को गाया या सुना न हो । इनके काव्यों में सबसे बड़ी खास बात यह है कि जहाँ एक तरफ राजस्थान की परंपरा, संस्कृति, एतिहासिक विरासत, सामाजिक चित्रण का अनुपम भंडार है, तो वीररस, श्रृंगाररस का अनूठा संगम भी जो असाधारण काव्यों में ही देखने को मिलता है। बल्कि नहीं के बराबर ही कहा जा सकता है। हमारे देश में दरबारी काव्यों की रचना की लम्बी सूची पाई जा सकती है, परन्तु, बाबा नागार्जुन, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान, निराला, हरिवंशराय बच्चन, भूपेन हजारिका जैसे गीतकार हमें कम ही देखने को मिलते हैं। श्री सेठिया जी के काव्यों में हमेशा नयापन देखने को मिलता है, जो बात अन्य किसी में भी नहीं पाई जाती, कहीं कोई बात तो जरूर है, जो उनके काव्यों में हमेशा नयापन बनाये रखने में सक्षम है। इनके गीतों में लय, मात्राओं का जितना पुट है, उतना ही इनके काव्यों में सिर्फ भावों का ही नहीं, आकांक्षाओं और कल्पनाओं की अभिनव अभिव्यक्ति के साथ-साथ समूची संस्कृति का प्रतिबिंब हमें देखने को मिलता है। लगता है कि राजस्थान का सिर गौरव से ऊँचा हो गया हो। इनके गीतों से हर राजस्थानी इठलाने लगता हैं। देश-विदेश के कई प्रसिद्ध संगीतकारों-गीतकारों ने, रवींद्र जैन से लेकर राजेन्द्र जैन तक, सभी ने इनके गीतों को अपने स्वरों में पिरोया है।
‘समाज विकास’ का यह अंक यह प्रयास करेगा कि हम समाज की इस अमानत को सुरक्षित रख पाएं । श्री कन्हैयालाल सेठिया न सिर्फ राजस्थान की धरोहर हैं बल्कि राष्ट्र की भी धरोहर हैं। समाज विकास के माध्यम से हम राजस्थान सरकार से यह निवेदन करना चाहेगें कि श्री सेठियाजी को इनके जीवनकाल तक न सिर्फ राजकीय सम्मान मिले, इनके समस्त प्रकाशित साहित्य, पाण्डुलिपियों व अन्य दस्तावेजों को सुरक्षित करने हेतु उचित प्रबन्ध भी करें। - शम्भु चौधरी
बुधवार, 7 मई 2008
तसलीमा नसरीन की कविताएं
जिस घर में रहने को मुझे बाध्य किया जा रहा है
इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूँ,
जिसमें एक बंद खिड़की है,
जिसे खोलना चाहूँ, तो मैं खोल नहीं सकती,
खिड़की मोटे पर्दे से ढँकी हुई है,
चाहूँ भी तो मैं उसे खिसका नहीं सकती।
इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूँ
चाहूँ भी तो खोल नहीं सकती, उस घर के दरवाजे़,
लाँघ नहीं सकती चौखट।
एक ऐसे कमरे में रहती हूँ मैं,
जिसमें किसी जीव के नाम पर, दक्षिणी दीवार पर,
चिपकी रहती हैं, दो अदद छिपकलियाँ।
मनुष्य या मनुष्यनुमा किसी प्राणी को
इस कमरे में नहीं है प्रवेशाधिकार।
हाँ, इन दिनों मैं एक ऐसे कमरे में रहती हूँ,
जहाँ मुझे साँस लेने में बेहद तकलीफ़ होती है।
चारों तरफ न कोई आहट, न सुनगुन
सिर्फ़ और सिर्फ़ सिर टकराने की आवाज़ें।
नहीं देखतीं, दुनिया के किसी मनुष्य की आँखें
गड़ी रहती हैं, सिर्फ दो छिपकलियों की आँखें।
आँखें फ़ाड़-फ़ाड़कर निहारती रहती हैं,
पता नहीं, वे दुखी होती हैं या नहीं
क्या वे भी रोती हैं मेरे साथ? जब मैं रोती हूँ?
मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूँ, जहाँ रहना मैं एकदम नहीं चाहती।
मैं ऐसे एक कमरे में असहाय कैद हूँ।
हां, ऐसे ही एक कमरे में रहने को, मुझे विवश करता है लोकतंत्र
ऐसे एक कमरे में , ऐसे अँधेरे में
ऐसी एक अनिश्चयता, एक आशंका में
मुझे रहने को लाचार करता है लोकतंत्र
एक कमरे में तिल-तिल मेरी हत्या कर रही है- धर्मनिरपेक्षता।
एक कमरे में मुझे असहाय-निरुपाय किये दे रहा है- प्रिय भारतवर्ष।
भयंकर व्यस्त-समस्त मानस और मानसनुमा प्राणी,
पता नहीं, उस दिन भी, उन्हें पल-दो पल की फु़र्सत होगी या नहीं,
जिस दिन कोई जड़-वस्तु, कमरे से बाहर निकलेगी
जिस दिन सड़ा-गला एक लोथड़ा या हड्डी-पसली लाँघेगी दहलीज़।
आखिरकार, क्या मौत ही मुक्ति देगी?
मौत ही शायद देती है आज़ादी, चौखट लाँघने की
उस दिन भी मुझे टकटोरती रहेंगी, छिपकिली की दो जोड़ी आँखें
दिन भर
वे भी शायद होंगी दुखी। उस दिन।
गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में,
कोई मुझे दफन कर देगा। शायद कोई सरकारी मुलाजि़म।
खैर, वहाँ भी मुझे नसीब होगी, एक अल्प कोठरी।
उस कोठरी में लाँघने के लिए, कोई दहलीज नहीं होगी,
वहाँ भी मिलेगी मुझे एक अदद कोठरी,
लेकिन, जहाँ मुझे साँस लेने में कोई तकलीफ नहीं होगी।
किसी कवि को क्या कभी, किसी ने किया था नजरबंद ?
वैसे कवि को लेकर उछाले गये हैं ईंट-कंकड़-पत्थर,
आगजनी भी हुई है,
लेकिन कवि को किसी ने गृहबंदी नहीं किया। किसी भी देश ने।
हिन्दुस्तान ने इस सभ्यता, इस इक्कीसवीं शती से
ग्रहण किया था कवि को,
हाँ अगले ही पल उसे वर्जित भी कर दिया
उसके बचपन जैसे धर्म ने, उसकी निष्ठुर राजनीति ने।
कवि ने कोई गुनाह नहीं किया,
फिर भी कवि है, आज गृह-बंदी।
कवि भूल गया है - आसमान कैसा होता है,
कह गये हैं, अब वे यहाँ फिर कभी कदम नहीं रखेंगे।
आज एक सौ पचास दिन हुए, कवि गृह बंदी है
गुजर गये एक सौ पचास दिन,
कवि का यह अहसास भी छोड़ गया था,
कि धरती पर रहता है, ऐसा कोई इंसान,
जिसके पास मौजूद है दिल,
ऐसा कौन है, जिससे कह वापस माँगे अपने दिन?
अँधेरा समेटे कवि सोच में डूबा है-
कवि को कम से कम तसल्ली तो दे इंसान
आज से पहले, जो लोग गृह-बंदी थे,
अधिकांश ही कवि थे,
मन ही मन, कुछ तो मिले उसे राहत,
नि:संगता से,
निपट अकेलेपन से
रीत रहे दिनों से।
नजरबंद
कभी, किसी दिन, अगर तुम्हें होना पड़े नज़रबंद,
अगर कोई पहना दे पाँवों में बेड़ियाँ,
मुझे याद करना।
जिस कमरे में तुम हो, अगर किसी दिन,
उस कमरे का दरवाज़ा, अन्दर से नहीं,
बाहर से बंद करके, कोई जा चुका हो,
मुझे याद करना।
पूरे मंजि़ले में कोई न हो, जो सुने तुम्हारी आवाज़,
जुबान ताला-बंद, होंठ कसकर सिले हुए
तुम बात करना चाहते हो, मगर कोई नहीं सुनता,
या सुनता है, मगर ध्यान नहीं देता,
मुझे याद करना।
मसलन तुम शिद्दत से चाहते हो, कोई खोल दे दरवाज़ा,
खोल दे तुम्हारी बेड़ियाँ,
मैंने भी चाहा था,
गुजर जायें महीने-दर-महीने, कोई रखे नहीं कदम इस राह,
दरवाज़ा खोलते ही जाने क्या हो-न हो,
इसी अंदेशे में अगर कोई खोले नहीं दरवाजा,
मुझे याद करना।
जब तुम्हें हो खूब-खूब तकलीफ़
याद करना, मुझे भी हुई थी तकलीफ,
बेहद डरे-सहमे, सतर्कता के साथ, नाप-तौलकर चलता हो जीवन,
एकदम से अचानक, हो सकता है नज़रबंद, कोई भी! तुम भी!
अब, तुम-मैं, सब एकाकार, अब नहीं कोई फ़र्क़ रत्ती भर भी!
मेरी तरह तुम भी! इंतज़ार करना तुम भी, इंसानों का!
हरहराकर घिर आता है अँधेरा, मगर नहीं आता कोई इंसान।
नो मेन्स लैंड
अपना देश ही अगर तुम्हें न दे देश,
तो दुनिया का कौन-सा देश है, जो तुम्हें देगा देश, बोलो।
घूम-फिरकर सभी देश काफी कुछ ऐसे ही होते हैं,
हुक्मरानों के चरित्र भी ऐसे ही।
तकलीफ देने पर आयें, तो ऐसे ही देते हैं तकलीफ।
इसी तरह उल्लास से चुभोएँगे सूइयाँ
तुम्हारी कलाई के सामने, पत्थर-चेहरा लिए बैठे,
मन ही मन नाच रहे होंगे।
नाम-धाम में भले हो फर्क
अँधेरे में भी पहचान लोगे उन्हें,
सुनकर चीत्कार, खुसफुस, चलने-फिरने की आहट,
तुम समझ जाओगे कौन हैं वे लोग।
हवा जिस तरह, उनके लिए, उधर ही दौड़ पड़ने का समय।
हवा भी तुम्हे बता देगी, कौन हैं वे लोग।
हुक्मरान आखिर तो होते हैं हुक्मरान।
चाहे तुम कितनी भी तसल्ली दो अपने को,
किसी शासक की जायदाद नहीं- देश।
देश होता है आम-जन का , जो देश को प्यार करते हैं,
देश होता है उनका।
चाहे तुम जितना भी किसी को समझाओ- यह देश तुम्हारा है,
इसे तुमने रचा-गढ़ा है, अपने अन्तस में,
अपनी मेहनत और सपनों की तूली में आँका है इसका मानचित्र।
अगर शासक ही तुम्हे दुरदुराकर खदेड़ दें, कहाँ जाओगे तुम?
कौन-सा देश खड़ा मिलेगा, खोले दरवाजा?
किसको देने को पनाह?
कौन-सा देश, किस मुँह से देगा तुम्हें-देश, बोलो।
अब तुम कोई नहीं हो,
शायद इंसान भी नहीं हो।
वैसे भी अब क्या है तुम्हारे पास खोने को?
अब दुनिया को खींच लाओ बाहर, कहो-
तुम्हें वहीं खड़े होने की जगह दे, वहीं दे शरण,
जहाँ खत्म होती है देश की सरहद,
जहाँ की माटी किसी की भी नहीं होती,
फिर भी जितनी-सी माटी मौजूद,
वह अवांछित माटी ही, उतनी-सी जमीन,
चलो, आज से तुम्हारी हो।
भारतवर्ष
भारतवर्ष सिर्फ भारतवर्ष नहीं है।
मेरे जन्म के पहले से ही,
भारतवर्ष मेरा इतिहास।
बगावत और विद्वेष की छुरी से द्विखंडित,
भयावह टूट-फूट अन्तस में सँजोये,
दमफूली साँसों की दौड़। अनिश्चित संभावनाओं की ओर, मेरा इतिहास
रक्ताक्त इतिहास। मौत का इतिहास।
इस भारतवर्ष ने मुझे दी है, भाषा,
समृद्ध किया है संस्कृति से,
शक्तिमान सपनों में।
इन दिनों यही भारतवर्ष अगर चाहे, तो छीन सकता है,
मेरे जीवन से, मेरा इतिहास।
मेरे सपनों का स्वदेश।
लेकिन नि:स्व कर देने की चाह पर,
भला मैं क्यों होने लगी नि:स्व?
भारतवर्ष ने जो जन्म दिया है महात्माओं को।
उन विराट आत्माओं के हाथ
आज, मेरे थके-हारे कन्धे पर,
इस असहाय, अनाथ और अवांछित कन्धे पर।
देश से भी ज्यादा विराट हैं ये हाथ,
देश-काल के पार ये हाथ,
दुनिया भर की निर्ममता से,
मुझे बड़ी ममता से सुरक्षा देते हैं-
मदनजित, महाश्वेता, मुचकुन्द-
इन दिनों मैं उन्हें ही पुकारती हूँ- देश।
आज उनका ही, हृदय-प्रदेश, मेरा सच्चा स्वदेश।
Posted By shambhu choudhary : - By Taslima Nasrin
शुक्रवार, 2 मई 2008
प्रो. कल्याणमल जी लोढ़ा
विद्यार्थी जीवनः अपने विद्यार्थी जीवन में प्रो. लोढ़ाजी एक प्रतिभाशाली छात्र रहे। यद्यपि उनके ज्येष्ठ और कनिष्ठ भ्राताओं ने अपने लिए वकालत व न्याय का क्षेत्र चुना और उन दोनों ने इन क्षेत्रों में अपूर्व सफलता और यश अर्जित किया, तथापि प्रो. लोढ़ा ने अपने लिये शिक्षा और साहित्य की सास्वत अराधना का जीवन चुना, कोलकाता के विश्वविद्यालय में उच्चतम पद प्राप्त किया एवं राजस्थान विश्वविद्यालय के भी कुलपति मनोनीत हुए। व्यवसाय के क्षेत्र में कोलकाता में प्रवासी राजस्थानियों का वर्चस्व तो सर्वविदित है, किन्तु शिक्षा साहित्य और शोध के क्षेत्र में प्रो. लोढ़ा ने स्वयं जो कीर्तिमान बनाया है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। प्रो. लोढ़ा अपने लेखों में संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत, बंगला, अंग्रेजी सभी के विमर्शात्मक वाङ्मय से उद्वरण देकर अपने कथ्य को पुष्ट करते हैं। उनका कोई भी ग्रन्थ लें, वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वाक् को प्रथम पद बनाकर जिनका शीर्षक दिया गया है, ऐसे उनकेग्रन्थों की लम्बी श्रृंखला हैं- वाक्पथ, वाक्तत्व, वाग्विभव, वाग्दोह, वाक्सिद्धि- उन्हें देख लें। वाक् के उल्लेख से ग्रन्थों को अभिधान देकर उन्होंने अपनी पहचान को ही सार्थकता दी हैं। यह बात सभी जानते हैं कि वे स्फीत और प्रखर वग्मिता के, वाकशक्ति के, अभिव्यक्ति कौशल के, संप्रेषण रक्षता के धनी हैं। किन्तु समाज और संस्कृति के बड़े केनवस पर हिन्दी के आचार्य, विभागाध्यक्षा और कुलपति होने के साथ-साथ बल्कि उससे भी अधिक सुर्खियों में प्रो. लोढ़ा की छवि एक सुधी समीक्षक और पहचान एक साहित्य चिन्तक, और सहृदय सास्वत साधक के रूप में है। यह बात किसी भी प्रकार से अतिशयोक्ति नहीं लगती कि प्रो. लोढ़ा विश्वविद्यालीय हिन्दी जगत के गिने-चुने हुए प्रपितामह कोटि के वयोवृद्ध और वरि”ठ आचार्यों में अग्रगण्य हैं तथा साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में प्रतीक पुरुष के तुल्य बन चुके हैं। बंगाल में हिन्दी के पण्डित और भाषिक महत्व का सिक्का जमाना आसान नहीं। यह भूमि विद्वानों और बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं की भूमि रही है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि मारवाड़ी समाज ने इस भूमि पर मेहनत की, संघर्ष किया, परन्तु जो सम्मान इन्हें, बंगाल की धरती में मिलना चाहिए था वह आज तक नहीं मिला। इस शहर में समाज के जितने उद्योगपति हैं यदि उसके अनुपात में एक प्रतिशत भी इनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान रहा होता, तो समय-समय पर इनको जो हीन भावना से ग्रसित होना पड़ता है वह शायद नहीं होता। समाज द्वारा जितना सेवाकार्य इस शहर में किया गया है उतना कार्य देश के किसी भी शहर में दिखाई नहीं पड़ता। इसी दौर में इस अंधकार भरे वातावरण के बीच एक आशा की किरण के रूप में प्रो. कल्याणमलजी लोढ़ा का पदार्पण एवं कोलकाता विश्वविद्यालय में इनकी सेवा ने आशा की एक ज्योत जला दी। आपका जन्म 28 सितम्बर 1921 को जोधपुर में हुआ। आपके पिता श्री चन्दमलजी लोढ़ा तत्कालीन जोधपुर राज्य में उच्च अधिकारी थे। इनकी माता का नाम सूरज कंवर था जो एक मध्यवित्त परिवार की गृहिणी महिला थी। आपका परिवार जैन धर्म का अनुयायी रहा है। साथ ही हिन्दू धार्मिक पर्व जैसे नवरात्री, जन्माष्टमी, शिवरात्री का भी पालन करतें हैं।
उच्च मध्यवित्त परिवार में आपका पालन-पोषण बड़े ही सम्मानपूर्वक हुआ। नैतिक मूल्यों में आस्था थी। परिवार में प्रातःकाल उठकर सभी को प्रणाम करना पड़ता, पूजा करनी पड़ती थी।आप जसवन्त कॉलेज के विद्यार्थी थे। आचार्य सोमनाथ गुप्त एवं अन्य अध्यापकों का उन्हें काफी स्नेह प्राप्त रहा। कॉलेज के समय से ही आपके आलेख प्रकाशित होने लगे।22 जुलाई 1945 को आप कलकत्ता आ गए। आप तीन भाई है। इनके बड़े भाई उच्च न्यायालय मे उच्च न्यायाधीश एवं विचारपति रह चुक हैं एवं इनके अनुज भी न्यायालय में न्यायपति रह चुके हैं। इनका परिवार राजकीय सेवा में रहते हुए इनका ध्यान शिक्षा जगत की ओर ही रहा।आप बताते हैं कि जोधपुर से मेरा बहुत लगाव हैं क्योंकि वह मेरी जन्मभूमि है। बंगाल मेरी कर्म भूमि है, प्रयाग मेरी मानसभूमि है तो जन्मभूमि, कर्मभूमि और मानस भूमि - यही इनके जीवन का त्रिकोण रहा। 1945 में आप कोलकाता स्थित सेठ आनन्दराम जयपुरिया कॉलेज में प्राध्यापक के रूप मे जुड़े, 1948 में आपको कलकत्ता विश्वविद्यालय में अल्पकालिक अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली। सन् 1953 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग को मान्यता मिली। एक प्रकार से धीरे-धीरे कोलकाता महानगर के प्रायः सभी कॉलेजों में हिन्दी विभाग की व्यवस्था कराने में आपका सक्रिय योगदान रहा।
कोलकाता महानगर सरस्वती का मंदिरःआप बताते हैं कि बंगाली समाज में अपनी भाषा के प्रति जो लगाव हैं, लगन है वह या वो महाराष्ट्र में है या दक्षिण में। आपको बंगाल में बंकिमचन्द्र, रवीन्द्र एवं शरदचन्द्र की रचनावलियां मिलेंगी। यहाँ के लोग आपस में इन रचनाओं पर विचारो का आदान-प्रदान करते कहीं भी देखे जा सकते हैं।वर्ष 2003 में आपको भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार-2003 से सम्मानित किया गया। श्री लोढ़ाजी को गुरुवर आचार्य लोढ़ा जी के नाम से सभी जानते हैं । कोलकाता महानगर में हिन्दी की जितनी सेवा आपने की वह आज एक शोध का विषय बन गया है। जिन लोगों ने आचार्य लोढ़ा के वक्तव्यों को सुना है, जिनको इनकी कक्षा में पढ़ने का सौभाग्य मिला है, वे सभी जानते हैं कि श्री लोढ़ाजी के जीवन में कविताओं का बहुत बड़ा स्थान रहा है।
पतझड़ के अभिशाप, तुम वसन्त के श्रृंगार हो ।
जीवन के सत्य और असत्य दोनों के प्रतिरूप ।
मैं तुम्हारी ही कहानी सुनना चाहता हूँ ।
पतझड़ की झकझोर आँधियों में क्या तुम्हारा हृदय निराश नहीं हुआ ।
एक के बाद एक अपनी लालसाओं को मिटते देख-क्या तुम हताश नहीं हुए । - शम्भु चौधरी
गुरुवार, 1 मई 2008
समाज विकास का अप्रैल-2008 का अंक
http://samajvikas.in/hindifile/april08.pdf