वैश्वीकरण और भौतिकवाद की दौड़ में मानवीयता कहीं दूर छूटती जा रही है कल जो भाई चारा था विगत तीन चार दशक में एक दम जड़ हो गया है बहनत्व की भावना पनपी है अच्छा है किन्तु इससे जो खूनी रिश्ते फिके पड़े वो चिन्ताजनक है। हर रिश्ते में स्वार्थ का रंग चढ़ गया है समीकरण शारीरिक व आर्थिक लाभ तक सीमित हो गये वैसा जो भारतीय संस्कृति के एकदम विरूद्ध है। आज महिलाओं को जितनी सुविधा आजादी अधिकार प्राप्त है कल शायद नहीं थे परन्तु सदियों से संघर्षरत शोषित पीड़ित नारियाँ जो सुविधायें सत् पुरुषों ने नारियों को दिलवाई क्या वो बरकरार रहेंगी ऐसा नहीं लगता। संकीर्ण अनैतिक विचारों के कारण कुछ प्रतिशत लोग व संस्थायें इसका दुरूपयोग कर रही है हर एक जगह स्वेच्छाचार बढ़ रहा है। इसे तुरंत वैचारिक मंथन कर रोकना होगा। देखा देखी परिणाम जाने बिना बढ़ते तलाक इसका उदाहरण है। मनुष्य विचारवादी है इसी कारण श्रेष्ठतम जीव की श्रेणी में खड़ा है। कल बाजार मनुष्य के लिए था, किन्तु आज बाजार के लिये मनुष्य है ऐसा प्रतीत होता है। भारतीय समाज की संरचना में कल मानवीय मूल्यों की प्रधानता थी न कि भौतिकता की। हाँ! यह बात सही है कि भौतिकता कोई निषिद्ध अथवा नकारात्मक नहीं, लेकिन आज उसका चरम् विकास आसुरी आडम्बरयुक्त होता जा रहा है। जिसके परिणाम भी सामने दिखाई देने लगे है। पारिवारिक विघटन, घरेलू हिंसा, भारी असंतोष, आतंकवाद, सामाजिक असुरक्षा, अनैतिकता और भ्रष्ट राजनीति सर चढ़कर बोलने लगी है। येन-केन प्रकारेण धन का प्रर्दशन हमारी नियत बन गई है। हमारा चिंतन इसके नये-नये तर्क प्रस्तुत कर अपनी बातों को सही ठहराने की भरसक कोशिश की जा रही है। कल तक जो चिंतन दीर्घकालिक व सुधारात्मक था आज ठीक इसके विपरित हो चुका है। विखरते परिवारों को काउंसिलिंग की बात कही जाने लगी। ससुराल बदलने की जगह स्वभाव को बदलने की बातें समझाई जा रही है। परन्तु अभी भी सकारात्मक नहीं हो पाया है। शिक्षा, चिकित्सा सेवा केन्द्र जो कि समाज और राष्ट्र उत्थान के आधार है पूर्णतः व्यापारिक होते जा रहे हैं। कल हमारी शिक्षा और चिकित्सा का दृष्टिकोण बहुत व्यापक ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनं’’ था। जनकल्याणकारी संस्थाओं में आत्मप्रचार व व्यक्ति प्रधानता को महत्व दिया जाने लगा है जो बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। समय रहते हमें पुनः जागरण की तुरन्त आश्यकता है।
हवायें जोरमय है, सम्भलना होगा।
कह दो चिरागों से जलना होगा।।
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