पिछले दिनों स्तंभकार मनजीत कृपलानी ने एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया। उन्होंने लिखा है कि भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का असर यह हुआ है कि ब्राह्मण धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता से अलग हटते गए हैं। भारत में हमेशा से हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखने वाले ब्राह्मणों ने अब राजनीतिक सत्ता को छोड़कर उद्यम में अपने पैर जमाने शुरू कर दिए हैं। इसलिए आज हम यह ट्रेंड देख रहे हैं कि ब्राह्मण युवा (और अन्य तथाकथित ऊंची जातियों के) डिग्रियों से लैस होकर, खासकर इंजीनियरिंग की, उद्यमों में आ रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी में भारत को एक महाशक्ति बनाने के पीछे इस युवा वर्ग का बड़ा हाथ है।
इस विचारोत्तेजक लेख से इस बात की ओर भी ध्यान गया कि मारवाड़ी समाज के लोग तो संख्या के लिहाज से ब्राह्मणों से भी कम हैं। थोड़ी सी संख्या में राजस्थान और हरियाणा से निकले बनिये और ब्राह्मण आज सारे भारत में बिखरे हैं। लेकिन चुनाव क्षेत्रों के आधार पर बंटे देश में क्या वे कभी भी राजनीति में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे? यह सवाल हम इसलिए उठा रहे हैं कि मारवाड़ी समाज के संगठनों में ( दो ही हैं - मारवाड़ी सम्मेलन और मारवाड़ी युवा मंच) अक्सर इस बात पर चिंता व्यक्त की जाती है कि राजनीति में मारवाड़ियों की उपस्थिति बिल्कुल नगणय है। इस चिंता का भी एक बिल्कुल ही अलग कारण है। मारवाड़ी इसलिए राजनीति में नहीं आना चाहते कि उन्हें आरक्षण चाहिए, या अपना कोई होमलैंड चाहिए, या सरकारी नौकरियों में उनके साथ कोई भेदभाव होता है (बहुत ही कम लोग सरकारी नौकरियों में हैं) या उद्यम लगाने के रास्ते में सरकारें रोड़े अटकाती हैं।
लेकिन उनलोगों ने देखा है कि पूरी प्रशासनिक मशीनरी कानून के अनुसार नहीं बल्कि राजनेताओं के इशारों पर चलती है। कहीं कोई गुंडागर्दी हो जाए तो पुलिस वाले साफ कहेंगे कि वे कार्रवाई नहीं कर सकते, अमुक विधायक या तमुक मंत्री का आदेश है। जिसे आप गुंडा कह रहे हैं वह अमुक मंत्री का "आदमी' है। पूर्वी भारत के राज्यों, बिहार, बंगाल, उड़ीसा और असम में अक्सर चंदा उगाही को लेकर लफड़ा होता रहता है। असम में उग्रवाद का दंश भी सबसे पहले मारवाड़ी समाज को ही झेलना पड़ा। कोई जिला उपायुक्त या एसपी पक्षपात करता है, तब मंत्री-विधायक की चिरौरी करनी पड़ती है कि "भैया इस डीसी को हटाइए'। हर समुदाय के लोगों को करनी पड़ती है, लेकिन मारवाड़ी को छोड़कर बाकी सबकी बात कमोबेश मान ली जाती है।
मारवाड़ियों ने दूसरी एक चीज अपने अनुभव से सीखी है कि उनकी नगण्य संख्या के कारण कोई भी राजनीतिक दल उनकी परवाह नहीं करता। उल्टे कई बार मारवाड़ियों के बारे में अंट-शंट बककर सभी दलों के राजनेता वोटरों को लुभाने की कोशिश करते हैं। (तरुण गोगोई ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ऐसा किया था) इसलिए मारवाड़ी संगठनों के नेताओं को यह पीड़ा होती है कि मारवाड़ी लोग वोटर लिस्ट में अपना नाम लिखाने को लेकर जागरूक नहीं रहते। उनका सोचना है कि वोटर लिस्ट में मारवाड़ियों की संख्या बढ़ जाने पर यह उपेक्षा कम हो जाएगी।
इन्हीं दोनों मुद्दों को कई बार राजनीति में प्रवेश करने के इच्छुक व्यक्ति बड़े जोर-शोर से उठाते हैं। अक्सर राजनीति में जाने की यह इच्छा व्यक्तिगत महत्त्वााकांक्षा से परिचालित होती है और इसमें समाजहित जैसी किसी बात का मुख्य स्थान नहीं होता। लेकिन मारवाड़ी समाज का एक आम आदमी सोचता है कि चलो अपना एक प्रतिनिधि सत्ता के गलियारों में घूमता रहेगा तो आड़े वक्त पर काम आएगा। यह सोचना सिर्फ सोचने के स्तर पर ही सीमित रहता है। बड़े परिदृश्य पर देखें तो न तो मारवाड़ी समाज ऐसे व्यक्तियों की कोई खास मदद कर पाता है, और न ही ऐसे व्यक्ति सत्ता के गलियारों में पहुंचकर अपने मूल समाज के लिए मददगार साबित हो पाते हैं। आखिर क्यों?
इसका कारण बताने के लिए कोई ईनाम नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि चुनाव संख्या का खेल है। देश भर में छितरे मारवाड़ियों के पास संख्या बल नहीं है। इसके सदस्य किसी व्यक्ति विशेष के लिए जुलूस और जनसभा की तैयारियां भले कर दें, लेकिन जुलूस और जनसभा सफल तभी होते हैं जब उनमें आम जनता (पढ़ें गैर-मारवाड़ी) की भागीदारी होती है। एक मजेदार बात का अनुभव चुनावी राजनीति से जुड़ने वाले हर व्यक्ति को जल्दी ही हो जाता है। वह यह है कि चुनावी मैदान में कूदने वाला मारवाड़ी व्यक्ति जल्दी ही अपनी मारवाड़ी छवि से छुटकारा पाना चाहता है। कहीं वह अपनी उपाधि बदलकर यह काम करता है, कहीं वह मारवाड़ियों के घरों पर खुलेआम जाना बंद करके करता है, कहीं वह सार्वजनिक स्थल पर लोगों के सामने मारवाड़ी भाषा में बात करने से परहेज के द्वारा करता है, कहीं वह कहता है कि मैं तो इतने सालों से इस प्रदेश में रहता आया हूं - मैं मारवाड़ी हूं ही नहीं। इसमें उसका दोष नहीं है, जिस खेल में वह शामिल हुआ है उस खेल के नियमों के अनुसार चलना उसकी नियति है।
अब आते हैं इस बात पर कि जीतने के बाद ये नेता क्या करते हैं। हमने आज तक नहीं देखा कि कहीं किसी निर्वाचित मारवाड़ी जनप्रतिनिधि ने जीतने के बाद भी अपनी मारवाड़ी छवि को गर्व के साथ स्वीकार किया हो। क्योंकि वह तब भी खेल में शामिल रहता है। जीतने का यह मतलब नहीं कि वह खेल से बाहर हो गया। उसे आगे भी चुनाव लड़ना है। वह बंद कमरे में मारवाड़ियों के विरुद्ध पक्षपात करने के लिए डीसी-एसपी को भले फटकार दे, खुले मंच से आप कभी भी उसे मारवाड़ियों के पक्ष में कुछ बोलते नहीं सुन सकते।
आखिर ऐसा होना ही है। यहां हम इस संदर्भ में असम की पृष्ठभूमि से कुछ अनुभव बांटना चाहेंगे। असम में हम देखते हैं कि कुछ असमिया नेता अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ कुछ भी बोलने से कतराते हैं, ऐसा कोई भी काम करने से परहेज करते हैं जो बांग्लादेशी मूल के लोगों के हितों पर चोट पहुंचाने जैसा लगे। ऐसा इसलिए कि उनके चुनाव क्षेत्र में बांग्लादेशी मूल के लोगों की बहुतायत होती है। जब इतनी बड़ी आबादी वाले असमियाभाषी समुदाय को वे जनप्रतिनिधि नजरंदाज कर सकते हैं तो गिने-चुने मारवाड़ियों की क्या बिसात है। अब आपके सौ फीसदी लोग वोटर लिस्ट में नाम लिखाते हैं या अस्सी फीसदी इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
जनप्रतिनिधि बना मारवाड़ी व्यक्ति मारवाड़ी समाज की कोई महत्त्वपूर्ण मदद नहीं कर सकता, साथ ही यह भी सत्य है कि मारवाड़ी समाज भी ऐसे राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा वाले व्यक्तियों की कोई मदद नहीं कर सकते। यह प्रवासियों के रूप में देश भर में बिखरे होने की अनिवार्य सजा है। एक हद तक हमारी स्थिति एंग्लो-इंडियन या पारसी समुदाय की तरह है,जो चुनावी राजनीति में अपने जौहर नहीं दिखला सकता। संविधान निर्माताओं ने एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए शुरुआत में ही दो नामांकित सीटों का प्रावधान कर दिया था।
कई बार इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया जाता है कि व्यापार और उद्यम के क्षेत्र में इतनी कामयाबी हासिल करने वाला मारवाड़ी समाज राजनीति में फिसड्डी क्यों है? ठीक है कि इसके बहुत ही कम लोग मैदान में उतरते हैं, लेकिन जो उतरते हैं वे भी अक्सर गिरते हुए पाए जाते हैं। उनकी योग्यता भारतीय जनप्रतिनिधियों की औसत योग्यता से कम नहीं होती, बल्कि काफी अधिक होती है। फिर भी वे हारते हैं। इसका सीधा सा कारण यह है कि इस खेल के नियम उनके विरुद्ध है। इसमें कोई कामयाबी पाता है तो वह अपवाद स्वरूप ही। या फिर अपवाद स्वरूप वैसे चुनाव क्षेत्रों में जहां मारवाड़ियों की घनी आबादी है(जैसे कोलकाता के कुछ चुनाव क्षेत्र)। बाकी जगह उसका हारना नियम है और जीतना अपवाद।
रास्ता किधर से है?
जाहिर है रास्ता गैर-चुनावी राजनीतिक सक्रियता की तरफ जाता है। यहां समझाने के लिए हम असम के छात्र संगठन आसू का उदाहरण रखना चाहेंगे। आसू ने कभी चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन असम में उसका दबदबा किसी भी राजनीतिक पार्टी से ज्यादा है। यह सच है कि मारवाड़ी संगठन आसू नहीं बन सकते, लेकिन यह सिर्फ संख्या के लिहाज से ही सही है। इज्जत और असर के लिहाज से वे यह ऊंचाई हासिल कर सकते हैं। एक हद तक हासिल की भी है, लेकिन यह अनायास हुआ है। इसी काम को सायास प्रयत्न के साथ करें तो और भी अच्छे नतीजे सामने आएंगे इसमें कोई शक नहीं है।
जरूरत देश के स्तर पर मारवाड़ी की छवि में बदलाव लाने वाले काम करने की है। एंबुलेंस सेवा के द्वारा मारवाड़ी युवा मंच ने इस काम में काफी सफलता हासिल की है। फिर भी यह सही है कि अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचने वाले लोग अपने आपको मारवाड़ी कहने में सकुचाते हैं। यह छवि के कारण है। ऐसे लोगों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करने की जरूरत है। उनमें से कई यह कहते पाए जाते हैं कि मैं भारतीय हूं। इससे किसी को क्या इनकार हो सकता है। लेकिन जब एक बंगाली या एक मराठी एक भारतीय होने के साथ-साथ अपनी बंगाली या मराठी पहचान से इनकार नहीं करता तो मारवाड़ी क्यों इनकार करते हैं। इसका कारण है उनकी हीनता ग्रंथि। मारवाड़ियों की राजनीतिक सक्रियता इसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, न कि अपने आपको मारवाड़ी कहने से सकुचाने वाले एक दो व्यक्तियों को संसद या विधानसभाओं में पहुंचाने की दिशा में।
यहां हम कुछ बिंदु दे रहे हैं जो इस मामले में आगे बढ़ने के लिए एक निर्देशक का काम कर सकते हैं। आगे चर्चा के माध्यम से ऐसे बिंदुओं की संख्या बढ़ाई जा सकती है।
1. मारवाड़ी संगठनों को अपने-अपने राज्य में गैर-चुनावी युवा-छात्र-सांस्कृतिक संगठनों के साथ प्रगाढ़ संबंध बनाने चाहिए। इसे एक लक्ष्य के रूप में लेना चाहिए। उनके नेताओं को सेमिनारों, अधिवेशनों, सभाओं में बुलाने को प्राथमिकता देनी चाहिए।
2. राजनीतिक रूप से जागरूक सदस्यों की पहचान कर उन्हें अलग से संगठित करना चाहिए। उनका मंच, फोरम जैसा कुछ बनाया जाना चाहिए।
3. देश भर के प्रभावशाली मारवाड़ी उद्यमियों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों का नेटवर्क बनाने की दिशा में काम होना चाहिए। इसकी शरुआत उन्हें मंच के अधिवेशनों, सभाओं में बुलाने से हो सकती है, लेकिन वही इसका अंत नहीं होना चाहिए।
4. व्यस्त उद्यमियों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों के साथ नेटवर्क बनाने के लिए संवाद के नए माध्यमों (ई-मेल, ब्लाग, वेबसाइट) का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होना चाहिए।
5. मारवाड़ी संगठनों (सम्मेलन, युवा मंच) में रिटायरमेंट का नियम खत्म करना चाहिए। परिपक्व हो चुके नेतृत्व को समाज सेवा, स्वयंसेवा जैसे ग्रासरूट के कामों के भार से मुक्त कर अखिल भारतीय नतीजे देने वाले कामों में लगाना चाहिए।
6. ऐसे मारवाड़ी व्यक्तियों की शिनाख्त की जानी चाहिए जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में (उद्यम, साहित्य, मीडिया, शिक्षा आदि) महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। उन्हें मारवाड़ी संगठन अपने ब्रांड एंबेसेडर के रूप में इस्तेमाल करे। उन्हें अपने संगठन से जोड़े, आगे बढ़ाए, मुख्यमंत्रियों-जनप्रतिनिधियों के साथ उन्हें मिलाएं और मारवाड़ी के रूप में उन्हें प्रोजेक्ट करे।
विनोद रिंगानिया
Father day
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-*शंभु चौधरी*-
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
चाँद को वो खिलौना बना
खिलाते थे हमें,
हम खेलते ही रहे,...
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