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सोमवार, 29 जून 2009

आंचलिक समरसता और मारवाड़ी समाज

- महेश जालान, पटना -


Mahesh Jalan, Patnaपरिचयः श्री महेश जालान बिहार प्रान्तीय मारवाड़ी युवा मंच के संस्थापक अध्यक्ष और अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। अनेक सामाजिक और आध्यात्मिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं और एक प्रखर वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। -संपादक


भारत अनेकताओं में एकता का देश है। विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, जाति और भाषा के लोग यहाँ रहते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कामरूप तक, अलग-अलग बोली, पहनावा खान-पान, रहन-सहन और रस्मों-रिवाज, देश फिर भी एक। यह बहुत बड़ी विशेषता है जो भारत को दुनियाँ के अन्य देशों से अलग और विशिष्ट बनाती है। इस विशेषता को बनाए रखने के लिए सबसे आवश्यक है आंचलिक समरसता। सौभाग्य से मारवाड़ी समाज में आंचलिक समरसता का गुण कूट-कूट कर भरा है।
आंचलिक समरसता का अर्थ है प्रदेश के स्थानीय (मूल) निवासियों से घुल-मिल जाना, उनके सुख-दुःख में भागीदार बनना, उसकी बोली और संस्कृति को अपनाना एवं उनके धर्म का सम्मान करना। राजस्थान की भूमि शौर्य और संघर्ष की जननी है। जिस किसी ने भी भारत को गुलाम बनाकर उस पर शासन करना चाहा, उसे सबसे पहले राजस्थान के राजपूतों ने नाकों चने चबवाए। भारत का इतिहास लगभग सात सौ वर्षों तक राजस्थान के इर्द-गिर्द घूमता रहा। देश की आजादी और विकास में महाराणा प्रताप, राजा हम्मीर, दुर्गादास राठौर, राजा मानसिंह, राणा सांगा, रानी पद्मिनी के योगदान और बलिदान की गाथा आज किसी भारतवासी से छिपी नहीं है। राष्ट्रीय चेतना के संदेशवाहक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सेठ जमनालाल बजाज, गोविन्द दास, डॉ. राम मनोहर लोहिया, हनुमान प्रसादजी पोद्दार, भागीरथ कानोड़िया जैसे नाम और उनका काम कौन नहीं जानता?
लगातार आक्रमणों से खिन्न और अपने प्रदेश की भौगोलिक स्थिति से विवश होकर मारवाड़ी विस्थापित होेने लगे। आजीविका की खोज में मारवाड़ी विभिन्न स्थानों पर फैल गए। दूर-दराज के छोटे-छोटे गाँवों में, पहाड़ी बस्तियों में, बीहड़ों और जंगलों में, जहाँ भी ये गए, उद्यमी और संघर्षशील होने के कारण वहीं पर बस गए। कहते भी हैं कि ‘‘जहाँ न जाए बैलगाड़ी वहाँ जाए मारवाड़ी।’’
प्रवासी मारवाड़ियों की यह सबसे बड़ी विशेषता रही है कि जिस प्रकार चीनी अपनी मिठास को कायम रखते हुए दूध में घुल जाती है उसी प्रकार ये अपनी संस्कृति और संस्कारों का पालन करते हुए जिस प्रदेश में भी बसे, वहाँ के स्थानीय निवासियों की संस्कृति में शामिल हो गए। इतना ही नहीं, उनके सुख-दुःख के साथी बनकर मारवाड़ियों ने लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त किया। लोकोपकार और सांस्कृतिक उदारता की यह प्रवृत्ति न केवल व्यापार की समृद्धि का कारण बनी बल्कि इससे सम्पूर्ण देश की भावनात्मक एकता को भी बल मिला।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के शब्दों में, ‘‘मारवाड़ी भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। वे जिस प्रदेश में बसते हैं, वहाँ की तरक्की के लिए बहुत कुछ करते हैं और साथ ही अपनी मातृभूमि को भी नहीं भूलते। मारवाड़ी अपनी मेहनत और बुद्धि से सम्पन्न होते हुए भी घमण्ड नहीं करते, यह इनकी खूबी है।’’
राजस्थान के विभिन्न इलाकों से विस्थापित हुए बिड़ला, सिंघानिया, बजाज, गाड़ोदिया और कानोड़िया आदि घराने आज भारत के विभिन्न प्रान्तों में अपने उद्योगों एवं व्यवसाय के द्वारा एक ओर जहाँ रोजगार की समस्या को हल करते हुए राष्ट्रीय उत्पादन में अपना योगदान दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर स्थानीय नागरिकों के कल्याण हेतु करोड़ों-अरबों का सेवा कार्य भी कर रहे हैं।
बड़े-बड़े महानगरों में ही नहीं अपितु छोटे-छोटे शहरों, गाँवों और पहाड़ी इलाकों में भी सार्वजनिक स्थान, स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय, अस्पताल, धर्मशाला, प्रशिक्षण केन्द्रों का निर्माण एवं संचालन यह साबित करता है कि मारवाड़ी समाज आज के भोगवादी युग में भी लोकहित की बात सोचता है और परहित के कार्यों में खर्च करता है। देश में जितने भी छोटे-छोटे स्वैच्छिक समाजसेवी संगठन और गैर-सरकारी कल्याणकारी प्रकल्प चल रहे हैं उनमें से अधिकांश या तो मारवाड़ी समाज द्वारा स्थापित हैं या उनमें बहुत बड़ा योगदान इस समाज का है।
मारवाड़ी समाज की इस अनूठी और अन्यत्र दुर्लभ सेवा-भावना का आकलन करते हुए सोशलिस्ट नेता श्रीकृष्णन ने कहा है कि ‘‘मारवाड़ी समाज के लोग अगर वापिस राजस्थान की ओर मुड़ते तो वह मरुभूमि नहीं रहता, राजस्थान की काया-पलट हो जाती, लेकिन ऐसा नहीं है। ये प्रवासी मारवाड़ी जहाँ भी गए वहीं उद्योग-धंधा शुरु किया, वहीं के करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी के साधन बने, जहाँ गए हमेशा वहीं की भलाई और विकास के लिए चिन्ता की, मारवाड़ी समाज की यह विशेषता अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है।’’ भारत की विशेषता है कि यहाँ हर सौ किलोमीटर पर बोली बदलती है। मारवाड़ी समाज के लोग आज विभिन्न ग्रामीण, शहरी और पहाड़ी इलाकों में वहाँ की स्थानीय बोली इस कदर बोलते पाए जाते हैं कि उन्हें स्थानीय निवासियों से अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को प्रवास में रहकर भी यह समाज नहीं भूलता है बिहार की छठ-पूजा, पंजाब की बैसाखी, आसाम के बिहू, तमिल के पोंगल, केरल के ओणम, कर्नाटक के उगाड़ी और महाराष्ट्र के गणपति की खुशी में झूमते मारवाड़ी आंचलिक समरसता के पर्याय कहे जा सकते हैं। ग्रामीण अंचलों में विशेषकर अपने ग्राहकों और कर्मचारियों से स्थानीय बोली में धारा-प्रवाह वात्र्तालाप करते, स्थानीय पर्व-त्यौहारों को उत्साह और श्रद्धापूर्वक मनाते मारवाड़ी भारत की विविधता में रंग भरती कूची हैं।
आज जबकि देश की एकता और अखंडता को अपने ही देशवासियों से खतरा है, ऐसी विकट परिस्थिति में यह अनिवार्य हो जाता है कि अन्य समुदाय भी मारवाड़ी समाज का आंचलिक समरसता का यह गुण अपने आचरण में उतारें ताकि देश को मिल सके सम्पूर्ण एकता का वह कवच जिसपर कोई भी विघटनकारी, अलगाववादी या आतंकवादी तत्त्व प्रहार करने की हिम्मत नहीं कर सके और हम कह सकें कि ‘‘हम सब सुमन एक उपवन के।’’

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