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सोमवार, 29 जून 2009

स्मरण: भागीरथ कानोड़िया - कुसुम खेमानी

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता की स्थापना में जिन दो लोकसेवियों ने निर्णायक भूमिका निभाई उनमें स्वर्गीय सीताराम सेक्सरिया और स्वर्गीय भागीरथ कानोड़िया का योगदान ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है। भारतीय भाषा परिषद की मंत्री डॉ. कुसुम खेमानी की यह रचना उन्हीं में से एक स्वर्गीय भागीरथ कानोड़िया की स्मृति को समर्पित है। -संपादक


‘पीड़ पराई जाणै सोई भागीरथो.....सोई कानूड़ियो’ - यह कोई लोकोक्ति नहीं, मुकुंदगढ़, सीकर, चूरू आदि के गांव वालों के आपसी बातचीत के उद्गार हैं। ...हाँ घटता है कभी ऐसा भी कि कोई व्यक्ति जीते जी कहावत बन जाता है.... छिपता रहता है वह कि लोग उसे पहचानें नहीं, पर कस्तूरी की गंध छिपे कैसे? सैकड़ों व्यक्तियों और संस्थाओं का अभिन्न अंग ‘भागीरथ कानोड़िया’ हमेशा ऐसी स्थिति से तो बच निकलता था कि कहीं भूले से भी उसका फोटो न उतर जाए-पर लोगों के मनों से कैसे बचता?
जब कभी प्रयास किया गया कि उनका अभिनन्दन किया जाए तो उनका एक ही उत्तर होता, ‘मनै जीते जी क्यूँ मारो।’ अपने गुण और दान का दिखावा तो बहुत दूर, शायद उन्होंने पैदाइशी इन्हें छिपाना ही सीखा था। क्या मजाल कि बन्दे का कोई फोटो किसी सार्वजनिक सभा में भी खींच जाए...किसी जादुई कला से वे अपने आपको वहाँ से नदारद कर लेते थे।
करुणा और दया के महीन स्पर्श को समझना हो तो भागीरथजी को देखना चाहिए। जैन साधु जैसे राह चलते कीड़े-मकोड़ों को हटा देते हैं कि वे कुचलकर मर न जाएँ कुछ ऐसी ही संवेदना...। करुणा एक सहज उद्रेक की तरह स्थायी भाव था उनका, जो उनके कार्य-कलापों में छलछलाता रहता था। राहत कार्य हज़ारों होते हैं और नहरें भी मजदूरी हेतु खोदी ही जाती हैं, पर क्या कभी किसी ने देखा-सुना है कि एक प्रौढ़ कृशकाय धनी व्यक्ति हाथों में चप्पलों की जोड़ियाँ उठाए राजस्थान की तपती बालू में चल रहा है, और उन्हें नहर खोदते मजदूरों के पैरों में पहना रहा है।
क्या कभी किसी ने देखा है कि कोई लाखों का दान गर्दन झुकाकर, नज़रें नीची कर, मुट्ठी बंद कर और चेहरे पर सारी दुनिया की शर्म बटोरकर करता है? जिसका एकमात्र लक्ष्य होता है कि औरों की तो ‘खैर सल्ला’ खुद लेने वाले को भी पता न चले कि उसे कुछ दिया गया है। ये बातें सुनी हुई नहीं आँखों देखी हैं।
देखने में एक साधारण किसान जैसे निरीह भाव वाले कानोड़ियाजी दर्शन-शास्त्र के सार-तत्त्व को अपनी जीवनचर्या में कैसे ढाल चुके थे, इसकी एकाध बानगी....
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ बड़ा रूमानी और खूबसूरत ख्याल है, पर आज यह सिर्फ ख्याल ही रह गया है, इसे हकीकत में सिर्फ भागीरथजी सरीखे ही जीते हैं।....1976 के फरवरी महीने में, मंडावा (झंुझुनू के पास का एक गाँव) की घटना है यह। ड्याोढ़ी से ‘ठाकराँ जी’ दौड़ते से आए और बोले, ‘मुकुन्दगढ़ से कानोड़िया आया है।’
‘काकोजी ! यहाँ कैसे? ‘उनसे पूछा तो बोले, ‘यहाँ से गुज़र रहा था, पता चला तुम आई हो तो मिलने आ गया।’ बात खत्म.
पर दूसरे दिन फिर पता चला कि काकोजी मंडावा आए हैं। पूछा तो फिर वही हँसी भरा उत्तर...कि तुम...यहाँ...।
मैंने कहा-‘काकोजी, साची बात बताओ। क्यूँ रोज-रोज मंडावा आओ हो?’
वे थोड़ा ठहर कर बोले...‘अमुक सेठ सै बात होई है, बै मंडावा में स्कूल बणा देसी। सोचूँ हूँ जमीन देखकर काम शुरू करा देऊँ तो स्कूल बण जासी।’
अस्वस्थ काया और स्वस्थ मन लिए भागीरथजी जीप का डंडा पकड़े मुकुन्दगढ़ से आते और घंटो ‘खटराग’ झेलते। हाई स्कूल तो उन्होंने बनवा ही दिया, यह बात इतर है कि उसमें पढ़ने वाला और उसे देखने वाला कोई भी यह नहीं जानता कि इसमें भागीरथजी का भी योगदान है। मुकुन्दगढ़ का बाशिंदा मंडावा के लोगों की चिंता में घुला जाए-यह बात क्या विश्वसनीय लग सकती? पर धरती का कण-कण जिसे अपना घर लगता हो उसके बारे में क्या कहा जाए।
काकोजी और बाबूजी
पता नहीं क्यों काकोजी की बात करते ही सीताराम बाबूजी की याद आ जाती है। काकोजी और बाबूजी जब तक जीवित थे, तब हर वक्त ऐसा नहीं होता था, पर काकोजी (उनका निधन बाबूजी से पहले हो गया था) के जाने के बाद तो जैसे यह आदत ही पड़ गई। बाबूजी के जीते जी ही ऐसा घटने लगा था कि हरेक मुलाकात में किसी न किसी बात पर काकोजी की चर्चा होती है।
बाबूजी की स्नेहभाजन बनने के बाद शुरूआती दिनों में मैं दोनों को एक दूसरे के अच्छे दोस्त के रूप में तो जानती थी पर उनके सम्बन्धों की अथाह गहराई का अन्दाज मुझे नहीं था।
घटना 1971 के जनवरी महीने की है। बाबूजी के पैर की हड्डी टूट जाने के कारण उनको अस्पताल में भर्ती किया गया था, पर हड्डी से ज़्यादा सबकी चिन्ता का विषय था उनका रक्त-चाप। पन्ना बाई (उनकी बड़ी बेटी) कुछ ज़्यादा ही उद्विग्न और आकुल व्याकुल सी लगीं, जैसे वे किसी विशेष बात के लिए छटपटा रही हों। मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला- ‘बाई, मामाजी (अशोक सेकसरिया, सीतारामजी के बड़े बेटे) दिल्ली हैं, इसीलिए इतना घबड़ा रही हैं? आप बिलकुल चिंता मत कीजिए, एमरजेंसी कहने से एक टिकट तो मिल ही जाएगा और वे जरूर आ जाएँगे।’ बाई ने उसी सांस भरे स्वर में कहा- ‘अरे एक टिकट भी मिल जाए तो कम से कम चाचाजी (भागीरथ जी) तो आ जाएँ?’
मैं दंग...सोचने लगी-बाबूजी और काकोजी के सम्बन्धों की इन्तहा। अशोक मामा और बाबूजी का एक दूसरे से मोह और टकराव भी किसी से छिपा नहीं था। हम सब इसे नजदीक से अनुभव करते थे कि अशोक मामा की अपने साथ की गई ज़्यादतियों से बाबूजी किस तरह आहत हो जाया करते थे। दरअस्ल बाबूजी, उस माँ की तरह थे जो अपने कमजोर बेटे को ज़्यादा प्यार करती है....और उन्हीं अशोक मामा के लिए बाई फिर किसी से कह रही थीं, ‘पोपी’ (अशोक मामा के घर का नाम) छोड़ तो चाचाजी ही नहीं आ पा रहे, देखो क्या होता है? अरे भाई! एक टिकट भी मिल जाए तो कम-से-कम चाचाजी तो आ जाएँ।’
प्रभु की कृपा से कालांतर में बाबूजी के नजदीक आने पर पन्ना बाई के उस उद्गार का अर्थ एक छवि की तरह मेरे सामने साफ होता चला गया।
रोज़मर्रा के जीवन में यह वाक्य हम अक्सर दुहराते रहते हैं, ‘वे तो दो शरीर एक आत्मा हैं।’ वैसे इस वाक्य को भी हमने एक तरह की ंिकंवदंती ही मान लिया है। कई शब्द और वाक्य समाज में इसलिए चल पड़ते हैं कि ऐसा हो तो सकता नहीं अतः जहाँ थोड़ी अर्थछाया भी दिखे इसे जड़ दो, लेकिन बाबूजी और काकोजी को देख मुझे लगा कि नहीं, यह मात्र मुहावरा या किंवदंती नहीं, ऐसा घट भी सकता है। हालांकि अभी मुझे दो-चार बातें ही याद आ रही हैं पर यदि आप भी उन्हें जानें तो शायद मेरा यह कहना आपको अतिशयोक्तिपूर्ण न लगे।
बाबूजी को सन् 1972-73 के आसपास एक ‘झख’ चढ़ी (उनके लिए तब यही शब्द हमलोग बोला करते थे) कि कलकत्ते में सभी भाषाओं के साहित्य के प्रसार के लिए एक संस्था स्थापित करनी चाहिए। अब तक बाबूजी मातृ सेवा-सदन, मारवाड़ी बालिका विद्यालय और श्री शिक्षायतन स्कूल-कॉलेज जैसी संस्थाएँ स्थापित कर चुके थे। नई परिकल्पना के लिए लोगों से चन्दा जुटाना, जमीन खोजना, भवन बनाना आदि के बारे में सोचकर अच्छे-अच्छे जवान भी घबरा जाते हैं; पर बाबूजी थे कि 80 साल की उम्र में भी एक नौजवान की तरह ख़म ठोककर तैयार थे और पूरी तरह भरोसेमन्द कि काम तो होगा ही।
उनके घर-बाहर के आत्मीय-स्वजन थोड़े चिंतित भी थे। कोई कहता- ‘इतनी मेहनत इस उम्र में?’ कोई कहता-‘समाज में चंदे का मानस ही नहीं रहा’, तो कोई कहता- ‘बाबूजी, लोग कहेंगे आप ‘जक’ (चैन) नहीं लेने देते, कुछ न कुछ अडं़गा करते ही रहते हैं’ पर बाबूजी की चिन्ता में भी एक निश्ंिचतता थी काम के पार पड़ने की।
और लोगों की तरह मैंने भी चक्की पीसने वाले (बाबूजी की कल्पनाओं की रोटियों के लिए आटा तैयार करने वाले काकोजी) से पूछ ही लिया, ‘काकोजी, के सांच्याईं बाबूजी नई संस्था बणावैगा? बण ज्यासी?’
काकोजी का बिना अटके सीधा-सपाट जवाब था, ‘इन्नाक जची है तो बणाणी तो पड़सी ई। हो सकै है पार भी पड़ ज्यावै।’
वह संस्था (भारतीय भाषा परिषद) बनी ही नहीं बाबूजी के सपनों के अनुरूप ही बनी। पर जरा उस व्यक्ति के बारे में सोचिए जिसका एकमात्र ध्येय था सीतारामजी के कहे हुए को, सोचे हुए को, पूरा करना-बिना किसी दुविधा के, बिना किसी देर के।
और यही बाबूजी जो परिषद के लिए लाखों जुटा लाए थे काकोजी के बिना कैसे हो गए थे?
काकोजी को गए (मृत्यु हुए) थोड़े ही दिन हुए थे। मैं बाबूजी के पास बैठी थी। एक पत्र आया, ‘दुर्लभ पाण्डुलिपियों के लिए जो आलमारियाँ आप खरीदवाना चाहते थे, उनके बारे में छानबीन की, तो पता लगा, दस हज़ार की जगह साढ़े सात हज़ार में ही काम हो जाएगा। आप जैसे ही रुपए भेजेंगे आलमारियाँ लखनऊ से आ जाएँगी।
बाबूजी ने हताशा से पत्र एक ओर रख दिया और बोले, ‘भागीरथ जी तो रहे नहीं और लन्द-फन्द इतने बढ़ा लिए! कैसे करें? क्या हो?’ मैं हैरान। एक ओर तो हाल ही में बनाई गई लाखों की संस्था और दूसरी ओर बाबूजी को चिन्तित कर दिया, इस सामान्य सी राशि ने?
वह काम कैसे पूरा हुआ यह अलग बात है; पर उनकी यह एक उक्ति ही व्याख्या कर देती है उस पूरे सम्बन्ध की। एक ऐसा
सम्बन्ध, जिसमें कुछ कहना तक न पड़े और दूसरा बिना कहे ही पूरी बात समझ ले।
यों भी बाबूजी को जब किसी बात का उदाहरण देना होता तो वे काकोजी के जीवन से दे देते, चाहे वह ‘उस’ भिखारिन की घटना हो जिसे काकोजी महीना दिया करते थे, और एक बार न मिलने पर उसे कहाँ-कहाँ ढूँढ़ते फिरे थे, चाहे सत्रह वर्ष की आयु में रिश्तेदारों की पंचायती के फैसले पर- ‘भोत आयो युधिष्ठिर की औलाद’ जैसा फतवा सुनने की बात हो।
नहीं, नहीं करते भी काकोजी की दिनचर्या से सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। हालाँकि मैंने उनको बहुत नहीं जाना फिर भी शायद एक पूरी रात काफी न रहे यदि भागीरथ कानोड़िया का जिक्र छिड़ जाए। कई बार तो ऐसा लगता है कि उनका हरेक दिन अपने आप में एक अलग बानगी लिए रहता होगा और स्वाभाविक तौर पर अनुकरणीय।
मैंने सीकर में काकोजी द्वारा स्थापित टी.वी. अस्पताल से लौट कर एक घटना बाबूजी को सुनाई, कि कैसे काकोजी इतने बड़े चिकित्सा-शिविर, जो अस्पताल में लगाया गया था, जिसमें पूरे भारत से नामी-गिरामी सर्जन आए थे, की सारी उपलब्धियों को भूल कर एक बणजारे की शिकायत की शोध में लग गए। पूरा वर्णन खत्म कर मैं गद्गद् कण्ठ से कह बैठी, ‘बाबूजी, सच पूछें तो मुझे काकोजी आपसे भी महान लगे।... बहुत बड़े।’ बाबूजी थोड़ा चौंंके...क्योंकि वे मुझे बचपन से जानते थे और यह भी जानते थे कि मेरी आँखों के अंतिम क्षितिज वे ही थे। वे कुछ रुके फिर बोले- ‘ठीक कहती हो तुम!....अरे! भागीरथजी की क्या बात!...वे तो ‘फड़द’ हैं, ‘फड़द’ (मारवाड़ी में फड़द का अर्थ होता है, जिसका जोड़ न बना हो, जो एकदम अनोखा, अनूठा, बेजोड़ हो)।’
बाबूजी और काकोजी इतने अभिन्न थे कि एक की बात करते हुए दूसरे का जिक्र न हो यह संभव ही नहीं। यह मैंने उनके रहते हुए भी स्वयं देखा जाना है। महाभारत में एक प्रसंग है, धृतराष्ट्र के मरने की खबर सुनते ही उसके प्राणसखा संजय के प्राण पखेरू उड़ गए। कुछ-कुछ वैसी ही काकोजी की बीमारी के समय (उनके तरह-तरह के परीक्षणों के समय) बाबूजी की दशा थी। मरना तो उनके वश में नहीं था पर अधमरे तो वे हो ही गए थे।
उन्हें बड़ा बताते वक्त क्या बाबूजी का कद और ऊँचा नहीं हो जाया करता है? दोनों का स्नेह सम्बन्ध देख भगवान देवी (सीतारामजी की पत्नी) काकोजी के लिए यों ही नहीं कहा करती थी कि ‘भागीरथजी तो इन्नाकी भू है (भागीरथ जी तो इनकी पुत्र वधू हैं)।’ इसमें ध्वनि उस आज्ञाकारी बहू की होती थी जिसका एकमात्र ध्येय अपनी सास की सारी आज्ञाओं का पालन करना हो। काकोजी और बाबूजी के सम्बन्धों की और काकोजी की निस्पृहता की एक झाँकी-साक्षी-कुसुम खेमानी।
बाबूजी घर से बाहर निकल ही रहे थे कि काकोजी घुसे। बाबूजी बोले, ‘भागीरथजी! मैं कुसुम कै सागै जा रह्यो हूँ, काल मिलाॅगा।’
‘ठीक है’ कह कर काकोजी मुड़ लिए। तभी बाबूजी ने कुछ याद आया ऐसी मुद्रा में आवाज दी- ‘भागीरथजी!... कै होयो आज ट्रस्ट में?’
‘कोई खास बात कोनी,काल कर लेस्याँ’-काकोजी ने कहा।
बाबूजी बोले- ‘फेर भी, कुछ तो होयो ई होसी।’
‘मैं ट्रस्ट छोड़ दियो।’...(काकोजी)
‘कै?....के बोल्या थे? ट्रस्ट छोड़ दियो?....यो थे के कर्या?’ कहते हुए बाबूजी ने अपना रुख वापस भीतर की ओर कर लिया। उनके संगमरमरी रंग पर क्रोध की गुलाबी आभा कनपटी तक खिंच गई।
‘छोड़ आया? इतै बड़े ट्रस्ट नै एक मिनट में छोड़ दियो? बरसाँ तक खट्या, मर्याँ थे और अब दूसराँ कै भरोसै छोड़ दियो? कोर्ट थानैं सम्हलायो थो यो ट्रस्ट....थे या कै करी?..’ बाबूजी के चेहरे पर क्षोभ और हताशा का भाव छाया था। काकोजी चुपचाप, उनकी बातें सुनते रहे-अंत में एक ही वाक्य बोले, ‘सीतारामजी, आदमी मर भी तो जावै, समझ लो मैं ई ट्रस्ट के लिए मरग्यो।’
आज छोटी से छोटी संस्था में पदों को लेकर खींचातानी चलती रहती है। बिना कुछ किए धरे ही हम सरीखे लोग बहुत सा नाम और पद पा लेना चाहते हैं। ऐसे घटाटोप में भागीरथ कानोड़िया जैसे लोग बेजोड़ ही कहे जाएँगे। हाँ, बेजोड़-उस ‘फड़द’ की तरह जिसे बुनकर जुलाहा अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर कह देता है कि, इस नमूने का जोड़ा बनाना मेरा बूते से बाहर है।
- साभार: वागर्थ, मई-09

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