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सोमवार, 29 जून 2009

हस्या लोककथा: अक्खड़ स्वभाव - नथमल केडिया


राजस्थान प्रदेश में राजपूत जाति के लोग बहुत अक्खड़ स्वभाव के होते हैं। चलती पून (पवन) से लड़ाई करना उनका स्वभाव है। मिनटों में सिर फुड़ोबल तथा मरने-मारने को तैयार। वैसे जबान के एकदम पक्के, जो मुँह से बोल दिया वह लोहे की लकीर। पर जल्दी से कोई क्यों उलझे इसलिये बनिये आदि उनसे व्यवहार करने में कतराते है। हाँ तो एक बार जंगल में एक राजपूत तथा एक बनिया साथ-साथ जा रहे थे। वे एक दूसरे से थोड़े बहुत परिचित तो पहले से थे और रास्ता आपस में परिचय को बहुत जल्द पनपा भी देता है। इसलिये आपस में बातचीत शुरु हो गई।
एकाएक राजपूत सज्जन बोले-देखो वह जो बहुत दूर पर पेड़ दिखाई देता है, रास्ते के दाँयी ओर बड़ा-सा घेर घुमेरदार, वह पीपल का पेड़ है। बणिये ने स्वाभाविक रूप से ही कह दिया-नहीं, ठाकर साब! वह तो बड़ का पेड़ है। पर राजपूत को यह कहाँ गवारा था कि वे कोई बात बोले और दूसरा उसको काटे। वे थोड़ी अक्खड़ आवाज में बोले-मेरे हिसाब से तो वह पीपल का पेड़ है पर
इधर बनिये को स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि पेड़ बड़ का है। उसने भी कह दिया-नहीं यह बड़ का पेड़ है। बस इतनी-सी बात हुई कि राजपूत सज्जन तेश में आकर बोले-देख! यदि पीपल का पेड़ हुआ तो मैं तुम्हारी गरदन उतार लूँगा और बड़ का निकला तो तुम मेरी गरदन उतार लेना। बेचारे बनिये ने ऐसी शर्त कभी तीन पुश्त में नहीं की थी पर उसके आगे सिवाय हाँ भरने के कोई चारा नहीं था। उसको मंजूरी देनी पड़ी। और वे जब पेड़ के पास आये तो वह पेड़ बड़ का निकला। तब राजपूत ने कहा-सेठ! मैं होड़ (शर्त) हार गया। यह लो मेरी तलवार और मेरी नाड़ काट लो। पर बनिये बेचारे को कहाँ किसी का सिर काटना था उसने कहा-ठाकराँ! मुझे तो आपका सिर काटना नहीं है। आप राजी खुशी घर जायें। पर उस राजपूत ने कहा-देखो! जो होड़ हुई है वह पक्की है। अब तुम मेरा सिर नहीं काटते हो तो कोई बात नहीं है पर अब से मेरे गले का ऊपर का सब हिस्सा तुम्हारा हो गया। यह तुम्हारी अमानत मेरे पास है। बनिये बेचारे ने हाँमी भर ली और अपना पिण्ड छुड़ाया।
पर महीना भर भी नहीं बीता होगा कि उसे पता चला कि उसका पिण्ड कहाँ छूटा है? वह तो और ज्यादा शिकंजे में कस गया है। उस दिन उसने अपनी दुकान खोली ही थी और बोहनी के लिये ग्राहक की बाट जोह रहा था, ये महाशय ऊँट पर चढ़े हुए पहुँचे। खूब बढ़िया तेल फुलेल लगाये हुए तथा सिर पर कीमती साफा (पग्गड़) पहने हुए थे। आकर दुकान पर शान से बैठ गये। बणिये ने जब उनकी ओर देख कर जिज्ञासा की तो गरजती सी आवाज में बोले-सेठ बताओ, यह मुंड (गले के ऊपर का हिस्सा) मेरा है या तुम्हारा? तब बनिये के ध्यान में आया कि यह जंगल में होड़ में हारा वही राजपूत है। बिचारा, हिचकिचाते हुए बोला-मेरा! सुनकर ठाकर बोला-तो इसको साफ सुथरा रखने में इतने का साबुन लगा इतने का तेल-फुलेल लगा और कंघी चोटी में इतना लगा, कुल 80/- रुपये लगे सो दो। सेठ बिचारा क्या करे यदि ना-नू करे तो अभी यहाँ सीन खड़ा कर दे। गल्ले से चुपचाप 80/- रुपये निकाल कर दे दिये।
अब महीना सवा महीना बीतते न बीतते राजपूत महाशय सेठ की दुकान पर आ बिराजे और मूंड को खिलाने-पिलाने, रख-रखाव के 80/- - 100/- ले जाय। सेठ बिचारा इससे छुटकारा कैसे मिले इस चिन्ता में घुलकर आधा रह गया। इस तरह छह-आठ महीने बीत गये। बार-बार ठाकर का आना सेठ के पड़ोसी दुकानदार भी देख रहे थे और ताज्जुब करते थे कि क्या बात है? यह ठाकर-ठाठ से ऊँट पर आता है और मूँछों पर ताव देते हुए घड़ी आध घड़ी में लौट जाता है। एक दिन उनमें से एक ने सेठ से पूछा-भाइजी! मुझे पूछना तो नहीं चाहिये पर आपने इससे कोई रकम उधार ले रखी है क्या? सेठ ने माथे पर हाथ रखते हुए अपनी सारी पीड़ा खोल कर बताई। सुनकर पहले तो पड़ोसी दुकानदार सोच में डूब गया पर दो-चार दिन के बाद ही दोनों ने कानों कान सलाह मशविरा किया। उस दिन पहली बार इस सेठ के मुँह पर कुछ मुस्कान नजर आई। हाँ तो अपने समय पर राजपूत महोदय को तो आना ही था। सदा की तरह आकर बड़े रोब से ऊँट से उतरे और दुकान के गद्दे पर बैठ गये और अपना डॉयलाग बोलना चालू किया पर आज सेठ ने कहा-ठाकराँ! अभी जल्दी क्या है? आये हैं तो बैठिये। हमारे इस मूंड को जल व चिलम तम्बाकू पिलाइये फिर इतमिनान से ले जाइयेगा। और उनको बैठे आठ दस मिनट ही हुई होंगी कि बगलवाला दुकानदार आया और बोला-भाइसाहब! आज एक ग्राहक अजीब चीज माँग रहा है। दाम भी आकरा (बहुत अच्छा) देने को तैयार है। मुझे तो नहीं पता यह कैसे-कहाँ मिलेगा? मैंने कहा-मेरे पास नहीं है तो बोला-मुझे अरजेन्ट चाहिये कहीं से भी जोगाड़ कर के ला दो। सेठ ने पूछा-क्या चीज? तो संकोचवश सेठ के कान में बताया पर सेठ जोर से बोला-यह तो मैं ही दे सकता हूँ पर 200/- लगेंगे। दुकानदार 150/- देने पर राजी हुआ। आखिर में 175/- में सौदा पटा। फिर इस बनिये ने राजपूत महोदय की ओर मुखातिब होकर कहा-ठाकराँ यह मूंड मेरा है कि आपका? ठाकर ने कहा-आपका। इसीलिए तो रख-रखाव में 90/- लगे वे लेने आया हूँ। वे इतनी बात कर रहे थे कि अगल-बगल के दो-चार लोग और आ गये और बात सुनने लगे। अब इस बनिये ने बगल की दुकानवाले से कहा-आपको एक कान चाहिये तो? उसने कहा-हाँ। उसके हाँ बोलने के साथ उसे छुरी देते हुए कहा-इस ठाकर का एक कान काट कर ले जाओ और 175/- नगदी रख जाओ। अब ठाकर की चमकने की बारी थी, बोला-यह क्या? बात पूरी की पूरी मूंडी काटने की थी। सेठ बोला-ठाकराँ हम तो दुकानदार हैं। हमलोग बोरे के बोरे चीजों के थोक में खरीदते हैं और सेर-आध सेर, पाव, खुदरा में बिक्री करते हैं। आज एक कान का ग्राहक आया है तो उसे कान दे देवेंगे, कल यदि नाक का ग्राहक आया तो उसको नाक दे देंगे। भगवान करे कोई आँख का ग्राहक मिल जावेगा तो इस मूंड का बहुत अच्छा दाम मिल जावेगा। इतनी बात बोलते-बोलते उस दुकानदार की ओर देखकर बोला-देखते क्या हो मैं कहता हूँ ना एक कान काट कर ले जाओ और रोकड़ी 175/- रुपये रख जाओ। अब ठाकर हाय तोबा करने लगा। कुछ देर में गिड़गिड़ाने लगा। आखिर में लोगों ने बीच-बचाव किया और ठाकर को अपना 2000/- रुपये की कीमत का ऊँट देकर सेटलमेन्ट करना पड़ा।
संपर्क: -4ए, शम्भूनाथ पण्डित स्ट्रीट, कोलकाता-20 मो. - 9331042827

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