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रविवार, 28 जून 2009

मातृभाषा की मान्यता से होगा संस्कृति का संरक्षण


- डॉ. राजेश कुमार व्यास


ओबामा सरकार की कार्यकारी शाखा के लिये जारी नौकरियों के आवेदन के लिए दुनियाभर की जिन 101 भाषाओं को चुना गया है, उनमें 20 क्षेत्रीय भाषाओं की जानकारी रखने वालों को आवेदन हेतु पात्र माना गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन 20 क्षेत्रीय भाषाओं में मारवाड़ी का स्थान भी है। भले ही भारतीय संविधान की 8 वीं अनुसूची में सम्मिलित 22 भाषाओं में राजस्थानी का स्थान नहीं है परन्तु विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र ने राजस्थानी को मान्यता देकर यह साबित कर दिया है कि राजस्थानी विश्व की किसी भी अन्य भाषा से कमतर नहीं है। राजस्थानी के साथ यह विडम्बना ही है कि बोलियों की राजनीति में अभी भी यह राज-काज की भाषा के रूप में संविधान की आठवी अनुसूची में स्थान नहीं पा सकी है, बावजूद इसके कि इसका समृद्ध प्राचीन साहित्य है, समृद्ध शब्द कोश है और सबसे बड़ी बात व्यापक स्तर पर इसकी मान्यता के लिए समय-समय पर भाषाविदों ने भी एकमत राय व्यक्त की है।
जो लोग राजस्थानी की मान्यता के विरोधी हैं, उन्हें इस बात को समझ लेना चाहिए कि राजस्थानी की मान्यता से किसी और भाषा का अहित नहीं होने वाला है और जो लोग बोलियों के नाम पर राजस्थानी की मान्यता पर प्रश्न उठाते हैं, उन्हें भी भाषाविदों की इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी भाषा की जितनी अधिक बोलियां होती हैं, वह भाषा उतनी ही अधिक समृद्ध मानी जाती है। राजस्थानी के साथ यही है।
याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कमलेश्वर पर राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की पत्रिका ‘जागती जोत’ में एक संस्मरण वर्ष 2000 में लिखा था। संस्मरण कमलेश्वर को पढ़ने के लिए भेजा गया। संस्मरण पढ़ने के बाद इन पंक्तियों के लेखक को कमलेश्वर ने जो पत्र लिखा, उनकी पंक्तियां देखें, ‘कृपणता हूं तो राजस्थानी समझ में आती है। आखिर हिन्दी को अपना रक्त संस्कार राजस्थानी, शौरसेनी और ब्रज ने ही दिया है। अपनी मातृभाषाओं के विसर्जन से हिंदी प्रगाढ़ और शक्तिशाली नहीं होगी, हमें अपनी मातृभाषाओं को जीवित रखना पड़ेगा, जहां से हिंदी की शब्द सम्पदा संपन्न होगी। यह बिटिया बेटे को ब्याहने वाला रिश्ता है-जो नाती-पोतों में हमें अपनी निरंतरता देता है।’
कमलेश्वर ही क्यों विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगौर ने भी राजस्थानी के दोहे सुनकर कभी कहा था, ‘‘रवीन्द्र गीतांजली लिख सकता है, डिंगल जैसे दोहे नहीं।’ भाषाशास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी, आशुतोष मुखर्जी राजस्थानी भाषा के समृद्ध कोश और इसकी शानदार परम्परा के कायल होते हुए समय-समय पर राजस्थानी की मान्यता की हिमायत करते रहे हैं। यही नहीं भाषाओ के विकास क्रम के अंतर्गत राजस्थानी का प्रार्दुभाव अपभ्रंश में, अपभ्रंश की उत्पत्ति प्राकृत तथा प्राकृत का प्रारंभ संस्कृत और वैदिक संस्कृत की कोख में परिलक्षित होता है। इन सबके बावजूद राजस्थानी को मान्यता नहीं मिलना क्या समय की भारी विडंबना नहीं है?
यहां यह बात गौरतलब है कि आरंभ में संविधान की आठवी अनुसूची में जिन 14 भाषाओं का उल्लेख किया गया, उनका स्पष्टतः कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था परन्तु राजस्थानी की मान्यता का तो आरंभ से ही वैज्ञानिक आधार रहा है। इसे बोलने वालों की संख्या के साथ ही भाषा की क्षमता और साहित्य की समृद्धि को ही यदि आधार माना जाए कि राजस्थानी प्रारंभ में ही संविधान की आठवी अनुसूची में सम्मिलित हो जानी चाहिए थी। ऐसा भी नहीं है कि राजस्थानी की मान्यता के लिए प्रयास नहीं हो रहे हैं। राजस्थान विधानसभा में वर्ष 1956 से ही राजस्थानी को राज-काज और शिक्षा की भाषा के रूप में मान्यता के प्रयास हो रहे हैं परन्तु इन प्रयासों को अमलीजामा पहनाने की दिशा में कोई समर्थ स्वर नहीं होने के कारण यह भाषा राजनीति की निरंतर शिकार होती रही है। राज्य विधानसभा में पहली बार 16 मई 1956 को विधायक शम्भुसिंह सहाड़ा ने राजस्थानी भाषा प्रोत्साहन के लिए जो अशासकीय संकल्प रखा उसमें राजस्थान की पाठशालाओं में राजस्थानी भाषा और तत्संबंधी बोलियों की शिक्षा देने पर जोर देने हेतु तगड़ा तर्क दिया गया था। संकल्प में कहा गया था कि बच्चे घरों मंे अपने माता-पिता के साथ जिस भाषा में बात करते हैं, उसी में शिक्षा दी जानी चाहिए, इसी से वे पाठ्यपुस्तकों में वर्णित बातों को प्रभावी रूप में ग्रहण कर पाएंगे।
तब से आज 53 वर्ष हो गए हैं, राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए अब भी यही तर्क है। मैं तो बल्कि यह भी मानता हूं कि शिक्षा क्षेत्र में राजस्थान का तेजी से विकास नहीं होने का प्रमुख कारण भी यही है कि यहां की भाषा व्यवहार और शिक्षा की भाषा नहीं बन पायी। यह कितनी विडम्बना की बात है कि लगभग 1 हजार ई. से 1 हजार 500 ई. के समय के परिपे्रक्ष्य को ध्यान में रखकर जिस भाषा के बारे में गुजराती भाषा एवं साहित्य के मर्मज्ञ स्व. झवेरचन्द मेघाणी ने यह लिखा कि व्यापक बोलचाल की भाषा राजस्थानी है और इसी की पुत्रियां फिर ब्रजभाषा, गुजराती और आधुनिक राजस्थानी का नाम धारण कर स्वतंत्र भाषाएं बनी। उस भाषा की संवैधानिक स्वीकृति के बारे में निरंतर प्रश्न उठाए जा रहे हैं।
एक प्रश्न यह हो सकता है कि संविधान की मान्यता के बगैर क्या कोई भाषा अपना अस्तित्व बनाकर नहीं रह सकती। यह सच है कि भाषा सरकारें नहीं बनती, वे लोग बनाते हैं जो इसका प्रयोग करते हैं परन्तु इसका व्यवहार में प्रयोग तो तब होगा न जब यह शिक्षा का माध्यम बनेगी, जब राजकाज, विधानसभाओं, अदालतों में इस भाषा का प्रयोग उचित समझा जाएगा। और यह सब तब होगा जब सरकार इसे मान्यता प्रदान करेगी। अभी तो स्थिति यह है कि राजस्थानी भाषा को यदि विधानसभा, अदालत या अन्य किसी राज के काज में उपयोग में लिया जाता है तो पहले उसकी वैधानिकता को ढूंढा जाता है। घर में राजस्थानी भाषा बोलने वाले बाहर हिन्दी या अंग्रेजी भाषा के उपयोग के लिए मजबूर हैं, ऐसे में बहुत से शब्द धीरे-धीरे प्रयोग में आने बंद हो रहे हैं। इन पंक्तियों के लेखक जैसे बहुत से हैं जिनका आरंभिक परिवेश राजस्थानी का रहा है, आज भी पति-पत्नि हम राजस्थानी में बात करते हैं परन्तु बच्चों से हिन्दी में बात करने के लिए मजबूर हैं। कारण यह है कि वे ठीक से विद्यालय में हिन्दी यदि नहीं बोल पाएंगे तो जिस भाषा में वे शिक्षा ले रहे हैं, उन्हें बोलने वाले दूसरे बच्चों के साथ उन्हें हिन भावना जो महसूस होगी। राजस्थान में ही गांवो, छोटे शहरों से राजधानियाँ और बड़े शहरों में आए अधिकाशं राजस्थानी बोलने वालों के साथ यही हो रहा है। उन्हें अपनी भाषा से लगाव है, प्यार है परन्तु इस बात की लगातार गम भी है कि उनके बाद इस भाषा को उनके बच्चे नहीं बोलेंगे, व्यवहार में नहीं लंेगे। क्या ऐसा तब संभव होता जब उन बच्चों को भी राजस्थानी में ही पढ़ने का मौका मिलता?
भाषा निरंतर प्रयोग से समृद्ध होती है परन्तु राजस्थानी का यह दुर्भाग्य है कि प्रतिवर्ष गांवों, सुदूर ढ़ाणियों से अपनी मेहनत से पढ़-लिखकर शहर में आकर नौकरी करने वाले राजस्थानी भाषी मजबूरन अपनी दूसरी पीढ़ी के साथ राजस्थानी में संवाद नहीं कर पाते हैं, ऐसे दौर में कब तक राजस्थानी गांवो के अलावा शहरों में बची रहेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। राजस्थानी की मान्यता को क्यों इस नजरिए से नहीं देखा जा रहा? क्यों राजस्थानी भाषा के बाद जो भाषाएं विकसित हुई उन्हें मान्यता मिल गयी परन्तु राजस्थानी आज भी मान्यता की बाट जो रही है? क्यों बोलियों के नाम पर राजस्थानी के साथ यह अन्याय हो रहा है? हकीकत यह है कि राजस्थानी की मान्यता इसके अधिकाधिक लोक प्रयोग के लिए जरूरी है, इसलिए भी कि इसी से मुद्रण और प्रकाशन, पठन-पाठन और बोलने की आदत का इसका अधिक विकास होगा और यही इस भाषा की आज की जरूरत है। इसी से राजस्थानी के समृद्ध प्राचीन साहित्य को भी बचाया जा सकेगा।
बहरहाल, भारतीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में ही राजस्थानी की मान्यता को देंखे। संविधान की मूल अवधारणा लोकतांत्रिक प्रस्थापना में है। संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अगर एक हिस्से की भाषा कोई है तो उसको बचाया जाए। राजस्थानी 9 करोड़ लोगों की भाषा है, इसे बचाना, इसकी मान्यता, संरक्षण इसलिए जरूरी है। राज्य विधानसभा में वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रीत्व काल में ही वर्ष 2003 में राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनूसूची में सम्मिलित करने का संकल्प बगैर किसी बहस के ध्वनि मत से जब पारित किया जा चुका है तो फिर केन्द्र सरकार के स्तर पर इस पर अब कोई प्रश्न ही नहीं रहना चाहिए।
अभी कुछ समय पहले ही एक पुस्तक प्रदर्शनी में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा वर्ष 1959 में जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन की प्रकाशित ‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ पुस्तक मैं खरीदकर लाया। उत्सुकतावश राजस्थानी के बारे में इसमें कुछ लिखा होने के लिए जब पन्ने खोलें तो पढ़कर बेहद अचरज हुआ। ग्रियर्सन ने इसमें राजस्थान की भाषा राजस्थानी बताते हुए स्पष्ट कहा है-‘‘मारवाड़ी के रूप में, राजस्थानी का व्यवहार समस्त भारतवर्ष में पाया जाता है।’’ इसी में एक स्थान पर राजस्थानी भाषा और उसकी बोलियों पर विस्तार से लिखते हुए स्पष्ट कहा है-‘‘पंजाबी के ठीक दक्षिण में लगभग 1 करोड़ साढ़े बयासी लाख राजस्थानी भाषा-भाषियों का क्षेत्र है जो इंगलैण्ड तथा वेल्स की आधी जनसंख्या के बराबर है। जिस प्रकार पंजाबी उत्तर-पश्चिम में मध्य देश की प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है, उसी प्रकार राजस्थानी उसके दक्षिण-पश्चिम में प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है।’’
ग्रियर्सन ने भाषा सर्वेक्षण का यह कार्य तब किया था जब भारतीय संविधान बना भी नहीं था, बाद में अंग्रेजी से यह पुस्तक हिन्दी में अनुवादित होकर प्रकाशित हुई। सोचिए जिस भाषा को सर्वेक्षण में राजस्थानियों का प्रतिनिधित्व की भाषा कहा गया, क्या वह संविधान की आठवी अनुसूची में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने योग्य नहीं है? वर्ष 1967 से लेकर अब तक बहुत सारी भाषाएं संविधान की 8 वीं अनुसूची में जोड़ी गयी है। यह सच में विडम्बना की बात है कि जिस भाषा की लिपि से आधुनिक देवनागरी और दूसरी अन्य भाषाओं की लिपियां बनी है और जिसका अपना व्याकरण और विश्व के विशालतम शब्दकोशों में से एक जिसका शब्दकोश है, ऐसी भाषा को संविधान की 8 वीं अनुसूची में जुड़ने का अभी भी इन्तजार है।
राजस्थानी की मान्यता में किसी का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है। इसका अर्थ इतना ही है कि इससे वर्षो पुरानी इस भाषा का संरक्षण हो सकेगा। ऐसे दौर में जब मातृभाषाओं पर विश्वभर में संकट चल रहा है, इस दिशा में गंभीर चिंतन कर त्वरित कार्यवाही की जानी समय की आवश्यकता भी है। इसलिए भी कि भाषा, साहित्य और संस्कृति से व्यक्ति अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। राज की मान्यता भाषा के प्रयोग को व्यापक स्तर पर प्रयोग की स्वीकृति देती है। इसी से फिर स्थान विशेष की संस्कृति का भी अपने आप ही संरक्षण होता है। क्यों नहीं राजस्थान की संस्कृति के संरक्षण की सोच के साथ भाषा की मान्यता पर सरकार चिंतन करे।


- डॉ. राजेश कुमार व्यास
III/39ए गाँधीनगर, न्याय पथ,
जयपुर- 302 015 (राजस्थान)
e-mail : dr.rajeshvyas5@gmail.com

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