आपणी भासा म आप’रो सुवागत

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मंगलवार, 27 नवंबर 2007

मैं भी स्वतंत्र हो पाता

चलो आज खिड़कियों से कुछ हवा तो आई,
कई दिनों से कमरे में घुटन सी बनी हुई थी।
हवाओं के साथ फूलों की खुशबू
समुद्री लहरों की ठंडक,
थोड़ी राहत,थोड़ा शकुन,
पहुँचा रही थी मेरे मन को शकुन
कुछ पल पूर्व मानो कोई बंधक बना लिया था
समुंदर पार कोई रोके रखा था,
कई बंधनों को तोड़,
स्वतंत्रता के शब्द तालबज रही थी एक मधुर धुन।
सांय...सांय.....सांय.....सांय.....मैं नितांत,
निश्चित व शांत मन से
एकाग्रचित्त हो कमरे के एक कोने में बैठा,
हवाओं का लुफ्त उठा रहा था।
काश! इन हवाओं की तरह,
मैं भी कभी स्वतंत्र हो पाताअपने - आपसे?
- शम्भु चौधरी, कोलकाता

निःशब्द हो जलता रहा


आज, अपने आपको खोजता रहा,
अपने आप में,मीलों भटक चुका था,
चारों तरफ घनघोर अंधेरासन्नाटे के बीच एक अजीब सी,
तड़फन ,जो आस-पास,
भटक सी गयी थी।शून्य ! शून्य ! और शून्य !
सिर्फ एक प्राण,जो निःसंकोच, निःस्वार्थ रहता था,
हर पल साथपर मैंने कभी उसकी परवाह न की,
अचानक उसकी जरूरत ने,
सबको चौंका दिया।चौंका दिया था मुझको भी,पर!
अब वहबहुत दूर, बहुत दूर, बहुत दूर...
और मैं जलता रहा निःशब्द हो आज -
शम्भु चौधरी

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