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गुरुवार, 30 मई 2013

Amboo Sharma

जन्म: झुंझनूं 1/11/1934 (कार्तिक कृष्ण-पक्ष दशमी, 1991) पिता:पण्डित प्रह्लादरायजी महमिया शिक्षा: एम.ए.हिन्दी, साहित्य-रत्न, बेसिक शिक्षा-प्रशिक्षित। बी.ए.भूगोल, उदयपुर एम.ए. डिंगळ (राजस्थानी) 76% अंक। वृत्ति: राजस्थान में 1954-62 राजकीय अध्यापक, कोलकाता में 1963-99 ज्ञानभारती-विद्यापीठ में अध्यापन। सम्पादन: तीन पत्रिकाएं राजस्थान में। कोलकाता में सम्पादन:- 1. 1962 से राजस्थान-समाज (पाक्षिक) 2. 1963 से राजस्थान-स्टैण्डर्ड (साप्ताहिक) 3. लाडेसर (पाक्षिक) 1967 में। 4. 1971 से म्हारो देस (पाक्षिक) 5. 1971 में सरवर (पाक्षिक) 6. 1972 से अब तक निजी पत्रिका नैणसी (मासिक)

[प्रख्यात साहित्यकार,शिक्षक व पत्रकार अम्बू शर्मा पंचतत्व में विलीन
कोलकाता में राजस्थानी के एकमात्र शिक्षक, शोधकर्ता, डिंगल के अधिकारी विद्वान, कवि श्री अम्बूजी शर्मा का आज (06 06 2018 ) सुबह 8 बजे देहावसान हो गया। सायंकाल नीमतल्ला श्मशान घाट में उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर काफ़ी संख्या में समाज के विशिष्ट जन, साहित्यकार, पत्रकार, हितैषी, प्रशंसक वगैरह मौजूद थे।
 उनका निधन, राजस्थानी भाषी समाज की अपूरणीय क्षति है। अम्बूजी ने आजीवन, त्रैमासिक पत्रिका *नैणसी* का सम्पादन-प्रकाशन किया। अम्बु रामायण और कृष्णायन उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ थीं। वर्षों तक वे एशिएटिक सोसायटी से जुड़े रहे और डिंगल साहित्य के शोधकार्यों में योगदान देते रहे। वे वर्षों तक ज्ञानभारती विद्यापीठ से जुड़े हुए थे। वहीं वे राजस्थानी भाषा की शिक्षा भी देते थे।]
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अम्बु-रामायण का लेखन प्रारम्भ 1947 में। 1949 तक, प्रारम्भ की 5000 पंक्तियाँ (दोहा-चैपाई) लिखी गई । ये पंक्तियाँ पुस्तक रूप में प्रथम संस्करण 1979 में झुंझनूं में छपीं। दूसरा संस्करण राम नवमी 1985 को, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता में लोकार्पित हुआ । एक ही जिल्द में सम्पूर्ण रामायण, श्री प्रदीप ढेडिया की प्रेस में 1997 में झुंझनूं प्रगति संघ ने छपवाई। इसमें 22000 पंक्तियाँ तथा 837 पृष्ठ हैं ।
सम्मानः- झुंझनूं प्रगति संघ द्वारा, 14 अगस्त 1994 को ज्ञानमंच में। ‘अर्चना’ द्वारा 6 नवम्बर 2005 को रोटरी-क्लब में। कानपुर के हजारीमलजी बाँठिया द्वारा कोलकाता के कला-मन्दिर (तलकक्ष) में 23 जनवरी 2005 को। हनुमानगढ़ के हरिमोहनजी सारस्वत द्वारा 13/12/05 को सम्मान-सामग्री कोलकाता आई। ‘पारिजात’ की रजत-जयन्ती पर सम्मान, भारतीय भाषा-परिषद में 12/5/06 को जलज भादुड़ी द्वारा ।
रेडियो एवं टीवी परः- तीस वर्षों तक कहानियाँ, गीत, कविताएँ, वार्ताएँ, वार्तालाप आदि के प्रसारण में अकेले एवं सामूहिक रूप में भी सम्मिलित। विश्वम्भरजी नेवर ने ताजा-टीवी पर ‘सागर-मन्थन’ में प्रस्तुत किया।
 
Sri Ambhoo Sharmaji and his Wife मानद डॉक्टरेटः-‘राजस्थानी विकास-मंच जालौर ने मानद डी.आर.लिट् उपाधि दी।
विवाह-गीत-लेखनः- फोटोग्राफर प्रदीपजी दम्माणी ने कुछ विवाहों के गीत लिखवाए और गवाए भी। नन्दलालजी शाह की सौभाग्यवती भार्या सरोजिनी देवी ने घनश्यामदासजी शाह की सुपुत्री सौ. नीलू (पुत्रवधू: रामावतारजी सराफ) के मंगळ परिणय हेतु 23 विवाह गीत लिखवाए। गवाए एवं स्वयं ही 3 घण्टे के महिला-गीत-सम्मेलन का संचालन किया। सुशीलजी चाँगियाँ के सुपुत्र के विवाह में। सज्जन झुनझुनवाला के सुपुत्र के परिणय पर। 5 प्रीटोरिया-स्ट्रीट के प्रभुदयालजी कन्दोई की आत्मजा के विवाह में संगीत-निर्देशक कश्यपजी व्यास (गुजराती) ने विवाह-गीत लिखवाए। सौ0 सरोजिनी देवी शाह ने ही महेशजी शाह की आत्मजा सौ0 ऋचा के तथा स्वीयात्मज चि0 किसलय के विवाह हेतु गीत लिखवाए। जगमोहनदासजी मूँधड़ा के घर में निर्भीकजी जोशी के साथ, विवाह गीत लिखे ।
एशियाटिक सोसाइटीः- बंगाल में श्रीरामपुर-ग्राम में ईसाई-मिशनरीज ने, जाॅब चार्नोक द्वारा 1698 में कोलकाता बसाने से पूर्व ही, चर्च बना लिया था; कॉलेज स्थापित कर लिया था तथा निजी मुद्रणालय भी चलाते थे। उसी से उन्होंने बीकानेरी-बोली (राजस्थानी-भाषा) में हिब्रू-भाषा की बाइबिल के टिप्पणीकार सेण्ट ल्यूक की गोस्पेल का अनुवाद हमारी देव- नागरी-लिपि में 1736 में गद्य में छाप लिया था। इसी कारण, एशियाटिक सोसाइटी ने भी अपने स्थापना-वर्ष 1784 से ही, 122 भाषाओं के निजी भाषा-विभागों में, राजस्थानी-विभाग भी (हिन्दी-विभाग से विलग) स्थापित कर लिया था। सिन्धी, डोगरी, कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी, बोडो, सन्थाली, मैथिली इत्यादि अत्यन्त न्यून जन-संख्यावाली भाषाओं को तो, 8वीं सूची में जोड़ लिया गया है और हम 10 करोड़ राजस्थानियों की मातृ-भाषा को नहीं ।
राजस्थानियों की सक्रियताः- 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक (1891-1900) में कोलकाता के कुछ तरुण राजस्थानी एशियाटिक सोसाइटी के राजस्थानी-विभाग में रुचि लेने लगे थे; जैसेः-घनश्यामदासजी बिड़ला, प्रभुदयालजी हिम्मतसिंहका, भूरामलजी अग्रवाल इत्यादि। उन्हीं के प्रयास से, सोसाइटी के राजस्थानी-पाण्डुलिपि-विभाग में, जोधपुर से आए पं0 राम- कर्णजी आसोपा को 1894 में नियुक्ति मिली। तब सोसाइटी सर जार्ज गियर्सन के प्रधान-संपादकत्व में पृथ्वीराज-रासो का मुद्रण करने लगी थी। पृथ्वीराज रासो का मुद्रण, अधूरा ही, स्थगित कर दिया। आसोपाजी की विद्वत्ता से प्रभावित होकर, कोलकाता विश्व-विद्यालय में, सर आशुतोष मुखर्जी ने, रामकरणजी को ही इंचार्ज बना दिया जहाँ पण्डितजी ने कक्षा-प्रथम से लेकर पंचम तक की राजस्थानी-पाठ्य-पुस्तकें, व्याकरण एवं शब्द-कोश का निर्माण किया।
हरप्रसादजी शास्त्रीः- 1904 में एशियाटिक सोसाइटी ने, राजस्थानी भाषा विभाग, हरप्रसादजी शास्त्री को सौंपा। उन्होंने राजस्थान की यात्रा की; शताधिक पाण्डुलिपियाँ लाए और सूची-पत्र (विवरणात्मक) अंग्रेजी- भाषा में प्रकाशित हुआ जिसका हिन्दी अनुवाद, पश्चात्-क्रम में, जोधपुर की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘परम्परा’ में, विशेषांक स्वरूप में प्रकाशित हुआ।
लुईज पियाओ टेस्सीटोरीः-यूरोप के इटली-देश के उड़ीपी-ग्राम के एक तेजस्वी तरुण को 1908 में फ्रांसीसी-भाषा में रामचरित-मानस एवं वाल्मीकीय रामायण के तुलनात्मक अध्ययन पर डाक्टरेट मिली। भारत-भर में डाक्टरेट की डिग्री का यह श्रीगणेश था। उन्हें भी पूर्वी-विश्व की विभिन्न सांस्कृतिक भाषाओं के गहन अध्ययन में उसी भाँति रुचि थी जिस भाँति, एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक एवं भारत के सर्वोच्च जज, विलियम जोन्स को थी। विलियम जोन्स की मृत्यु भी भाषा सीखने की थकान से ही हुई क्यों कि कलकत्ता-निवास में वे प्रति दिवस, न्यूनतम पाँच भाषाओं के विद्वान गुरुओं से, अनेक घण्टों तक, भाषाएँ ही सीखते रहते थे। लुईज पियाओ टेस्सीटोरी की मृत्यु भी राजस्थानी-भाषाओं की पाण्डुलिपियाँ संग्रह की रुचि ने ही, बीकानेरी के निकट चारणी-ढाणी में, लू से ग्रसित हुए और 4/5 मास पश्चात् सन् 1919 में, मात्र 31 वर्ष की अवस्था में, 22 नवम्बर को उनका निधन, बीकानेर में हुआ जहाँ उनकी विशाल समाधि एवं उसमें स्फटिक प्रतिमा, कानपुर में बड़ा व्यवसाय करनेवाले बीकानेरी सेठ हजारीमलजी बाँठिया द्वारा विनिर्मित है और प्रत्येक वर्ष वहाँ उस पुण्य-तिथि पर मायड-भाषा प्रेमियों का विराट मेला आयोजित होता है जिसमें विश्व-भर के सहस्रों राजस्थानी-भाषा-प्रेमी, कत्र्तव्यपूर्वक नियमित सम्मिलित होते हैं। बाँठियाजी ने 1988 में, सपत्नीक, 8 दिवसों तक, टेस्सीटोरीजी के जन्म-ग्राम उडीपी (इटली) में व्यतीत किए जहाँ वे, जोधपुर पोलो-2 के ठिकाने पर रहने वाले परम विद्वान डॉ0 शक्तिदानजी कविया को भी, साथ में ले गए थे।
एशियाटिक सोसाइटी में टेस्सीटोरीजीः- 1912 में एशियाटिक सोसाइटी ने उन्हें कोेलकाता बुलाया। 500 मासिक वेतन दिया रहने को विशाल भवन एवं घोड़ा-गाड़ी का वाहन दिया तथा 5/7 नौकर-दइया भी दिए। टेस्सीटोरीजी का सोसाइटी में कार्य था- राजस्थानी-पाण्डुलिपियों का अंग्रेजी-भाषा में Descriptive catalogue बनाना। वह तो छपा ही किन्तु 4/5 वर्ष यहीं कार्य किया तब राजस्थानी-भाषा की व्याकरण लिखी और 2/3 महत्त्वपूर्ण राजस्थानी-ग्रन्थों का वैसा ही विशाल सुसम्पादन किया जैसा हिन्दी में रामचन्द्रजी शुक्ल ने तुलसीदासजी तथा सूरदासजी के ग्रन्थों का सुसम्पादन कर, उन्हें धार्मिक-क्षेत्र से साहित्य-क्षेत्र में प्रस्थापित ही नहीं, किया अपितु 1929 में छपे अपने ‘हिन्दी-साहित्य का इतिहास’ में इन दोनों धार्मिक महात्माओं को हिन्दी-साहित्याकाश में चाँद-सूरज ही बना दिया।
टेस्सीटोरीजी राजस्थान मेंः- फिर तो टेस्सीटोरीजी को राजस्थानी-भाषा की साहित्यिक समृद्धि के प्रति इतनी अधिक श्रद्धा जागी कि वे संस्कृत एवं लेटिन-भाषा को छोड़कर, विश्व की सभी भाषाओं की अपेक्षा, राजस्थानी को अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा मानने लगे और अंग्रेजी-भाषा का स्तर भी, उनकी दृष्टि में राजस्थानी-भाषा की साहित्यिक गरिमा से, अत्यन्त निम्न रह गया।
अन्तिम चार वर्षों में, टेस्सीटोरीजी ने सहस्रो पाण्डुलियाँ राजस्थान के नगर एवं ढ़ाणियों में, घूम-घूम कर जोड़ी एवं कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी में भिजवाते रहे। वहीं राजस्थान की पवित्र भूमि में ही, पाण्डुलिपियों की शोध में, प्राणों की आहुति भी दे दी। धन्य है मात्र 31 वर्ष की अवस्था में, टेस्सीटोरीजी का, राजस्थानी-भाषा की सेवा में बलिदान होकर, अजर-अमर हो जाना।
विपिन-बिहारीजी त्रिवेदीः- सोसाइटी में राजस्थान से, पाण्डुलिपियों का आना, आज तक भी है क्यों कि जी.डी.बिड़ला एवं कृष्णकुमारजी बिड़ला ने, इसी कार्य हेतु, सोसाइटी को प्रभूत धन-राशि दे रखी है, उनसे, Descriptive Catalogue (अंग्रेजी में) बनाने का कार्य, 1957 में बनारस से, हिन्दी-पढ़ने आए, कोलकाता- युनिवर्सिटी के छात्र, विपिनबिहारीजी त्रिवेदी ने भी सँभाला। उन्होंने 114 पाण्डुलिपियाँ पढ़ी। पुस्तक भी छपी; किन्तु प्रायः आधी प्रवृष्टियाँ अशुद्ध रह गई क्यों कि वे, राजस्थान के विभिन्न सम्भागों की भिन्न-भिन्न वर्णमाला के 8/10 अक्षर ही नहीं समझ पाए। तो भी उन्हें व्यक्तिगत लाभ हुआ कि ग्रियर्सन के अधूरे ‘‘पृथ्वीराज-रासो की प्रामाणिकता’’ पर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा की विरोध-सामग्री उन्हें, सोसाइटी में सहजतया ही उपलब्ध हो गई जिसकी सहायता से उन्होंने, ‘डाक्टरेट’ की डिग्री प्राप्त की। एक उदाहरण:- विपिनबिहारीजी के सूचीपत्र में पुस्तक ‘बिदर-बतीसी’ है। उन्होंने ‘बिदर’ का अर्थ ‘बहादुर’ किया और सभी बत्तीसों छन्द की टिप्पणी, वीर सैनिक के पक्ष में, प्रशंसापूर्ण कर दी जबकि ‘बिदर’ का अर्थ ‘कायर’ होता है और ये सभी बत्तीसों छन्द, कायर की विगर्हणा में हैं, न कि प्रशंसा में।
अम्बुशर्मा: सोसाइटी में :- 1957 से 11 वर्षों तक सोसाइटी में Rajasthani Catalogue का पद उसी भाँति रिक्त रहा जिस भाँति लुईज पियाओ टेस्सीटोरी के पश्चात् 40 वर्षों तक रिक्त रहा था क्योंकि 1957 से पूर्व, साक्षात्कार में, एक भी विद्वान, राजस्थानी-पाण्डुलिपि पढ़ने में सफल नहीं हुआ था अतः 1968 नवम्बर में हुए 40 विद्वानों के साक्षात्कार में से अम्बुशर्मा का चयन कर लिया गया।
साक्षात्कार-विधि, यों रहती थी कि चारों निर्णायक गण, विलग स्थानों पर, 100 वर्षों के अन्तर से, चार पाण्डुलिपियाँ खोल कर रखते थे। उस निश्चित पृष्ठ से एक निश्चित प्रघट्टक (अर्थात 5/7 पंक्तियाँ) वे चिन्हित करके, उनका अनुवाद स्वीय-भाषा (प्रायः बँगला या अंग्रेजी) में लिख कर रखते थे। हमें भी वे ही पंक्तियाँ पढ़ाकर अंग्रेजी में उनका अर्थ, मौखिक ही सुनते थे। बस मैं ही राजस्थानी होने के कारण तथा झुंझनूं पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की नौकरी करने के कारण, राजस्थानी पाण्डुलिपियों को भी थोड़ी बहुत उलट-पुलट कर देख चुका था। दूसरे, कोलकाता में 1962 में आते ही तीन वर्षों में, पद्मावतीजी झुनझुनूंवाला के पास करपात्रीजी के प्रवचनों को ग्रुण्डिंग (जर्मन) टेप-रिकार्डर से सुन कर कागजों पर उतारने से, थकान मिटाने हेतु, उनके पुस्तक-संग्रह में रखी राजस्थानी पाण्डुलिपियों को पलटता रहता था क्योंकि वे मीराबाई के साहित्य पर आधिकारिक शोधकर्ता मानी गई है। पद्मावतीजी एशियाटिक सोसाइटी की सदस्या भी थीं सो उनके साथ; सोसाइटी में इन राजस्थानी पाण्डुलिपियों के दर्शन कर चुका था।
पाण्डुलिपियाँ पढ़ने में कठिनाईः- हम खड़ी-बोली हिन्दी में, देवनागरी-लिपि की शिक्षा लेने वाले व्यक्ति, राजस्थानी-भाषा की पुरानी पाण्डुलिपियाँ पढ़ने में, प्रारम्भ में अत्यन्त दुविधा अनुभव करेंगे क्योंकि तब, हाथ से बने कागजों एवं स्याही, साँठी (लेखनी इत्यादि सामग्रियों में मितव्ययिता हेतु, पृष्ठ के चारों ओर कहीं भी एक-डेढ इंच स्थान, रिक्त नहीं छोड़ा जाता था (2) सभी पुस्तकें, प्रायः डिंगळ-शैली के अपरिचित छन्दों में (अर्थात्) कविता में ही लिखी जाती थीं। गद्य तो पारस्परिक पत्राचार में अथवा राजकीय अध्यादेशों अथवा पट्टे-परवानों, शिला-लेखों, प्रमाण-पत्रों व्यापारिक बहियों, विरोध-पत्रों, स्वीकृति-पत्रों, जन्म-पत्रों, पंचागों, इतिहास-ग्रन्थों में (यदाकदा) आदि में ही प्रयोग होता था। राजस्थान में सभी छोटे-बड़े राजा महाराजाओं के आश्रय में ही श्रेष्ठ साहित्यिक काव्य ग्रन्थों की रचना, निरन्तर होती थी। वे लाखों की संख्या में आज भी भूतपूर्वक राजाओं के गोदामों में सड़ी-गली अवस्था में प्रयत्नपूर्वक प्राप्त हैं और लाखों पाण्डुलिपियाँ काल-कवलित भी हो चुकी हैं (3) कहीं भी विरामादि-चिन्हों का प्रयोग नहीं होता था अतः एक ही पंक्ति में कविता की 2.5 पंक्ति भी हो सकती थी; साढ़े-तीन भी और साढ़े चार पंक्तियाँ भी (4) वाक्यों में, शब्दों के मध्य में रिक्त स्थान नहीं होता सो आज की खड़ीबोली हिन्दी में छपा समाचार-पत्र भी हम नहीं पढ़ पाएँगे यदि शब्दों मे मध्य का रिक्त स्थान, लुप्त कर दिया जाए। वैसी अवस्था में प्रत्येक वर्ण, लम्बी रेलगाड़ी तो बन जाएंगे किन्तु डिब्बों की लम्बाई नहीं जान पाएंगे। जैसेः-उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है को पाण्डुलिपियों में लिखा रहता है और हम वर्ण भी नहीं जानते एवं डिंगल के छन्द भी नहीं; तो पढ़ेंगेः-
उसका मुखचन् द्रमाके समा नसुन्द रहै इसी कारण, मेरे साक्षात्कार-काल में अन्य 39 विद्वान तो शून्य प्रतिशत अंक प्राप्त कर सके और मैं, अल्प-मात्रा में, पूर्वानुभव के बल पर भी मात्र 10 प्रतिशत अंक ही ला सका था। (5) चयन के पश्चात् मुझे भी पाण्डुलिपि, संभालकर पढ़ने का प्रशिक्षण, थोड़े-दिवसों तक तो दिया ही गया कि (क) पृष्ठ पुराना है तो अंगुलियों की असावधान छुअन से, वह तत्काल ही चूर्ण बन जाएगा (ख) मुँह मे श्वास से उस स्थान की स्याही उड़ जाएगी (ग) पृष्ठ को अधिक सूँघते रहेंगे तो हमारे श्वास में पुराने पृष्ठों के कीटाणु (विष) खिंच कर, रक्त में मिस जाएंगे (घ) सावधानी से भी, पृष्ठ अंगुलियों में पकड़ने में नहीं आए तो उस पुस्तक को Cellophene Paper (Trasparent paper) चिपकाने वाले विभाग में भेज देना चाहिए। फिर उन्हें चिमटी से पकड़कर उलटने में सुविधा होगी और पढ़ते समय भी उतनी कठिनाई नहीं रहेगी (ङ) लिपि एवं डिंगल भाषा तथा काव्य के छन्द समझने में तत्परता नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि उन पाण्डुलिपियों में, आधुनिक अंग्रेजी विद्यालयों में, हिन्दी-भाषा के माध्यम से भी विद्यार्जन करने वाले सज्जन को सभी कुछ अपरिचित है और क्रमशः कई मास व्यतीत होते-होते ही, पठन सम्भव है सो 122 भाषाओं के इस पाण्डुलिपि विभाग में, कोई भी किसी का गुरु या मार्ग-दर्शन करने वाला नहीं है क्यों कि वे अपनी-अपनी भाषाओं की पाण्डुलिपियाँ ही पढ़ने और समझने में सफलता प्राप्त कर लेंगे-वही पर्याप्त है।
अम्बु शर्मा ने, सोसाइटी में, तीन वर्ष में 522 ग्रन्थ पढ़े और । A descriptive catalogue of Rajasthani Manuscript, Part-II तैयार कर दिया था 1972 में जिसे शान्ति निकेतन के हिन्दी-भवनाध्यक्ष रामसिंहजी तोमर ने प्रति तीसरे मास आकर जाँचा और प्रकाशन हेतु OK कर दिया किन्तु सोसाइटी की सुस्ती के कारण यह 2003 जनवरी में छपा 606 पृष्ठों में 1200 मूल्य में जो तभी इण्टरनैट पर भी आ गया थाः-
Rajasthani Manuscripts, Asiatic Society Part-II,
Edited-by-Ambika charan-Mhamia
किन्तु अब 5 वर्षों के पश्चात् दिल्ली की एक अन्य प्रकाशन संस्था ने भी मूल्य बढ़ाकर, अन्य इण्टरनैट की संख्या भी प्रदान की है जो इसे 1200/- के स्थान पर, 1800/- रुपयों में विक्रय कर रही है। इस सूचीपत्र को मेरी हस्तलिपि में, दो बड़े रजिस्टरों में, 1976 में जोधपुर विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभागाध्यक्ष डॉ0 कल्याणसिंहजी शेखावत ने, पूरे दो दिन देखा और प्रशंसित किया। कल्याणसिंहजी 8/1/05 को पुनः कोलकाता आए तो अम्बुशर्मा से बोले ‘‘चलिए एशियाटिक सोसाइटी से वह आपका अंग्रेजी सूचीपत्र 1200/- रुपयों में क्रय करें।’’ मेरी इस नियुक्ति में, साक्षात्कार में कल्याणमलजी लोढ़ा भी बैठे थे ।
यह अम्बुशर्मा की काव्य-संग्रह पुस्तिका है जिसमें 23 राजस्थानी एवं 42 हिन्दी-गीत/कविताएँ है। 1987 में छपी इस में प्रत्येक कविता के साथ ही रचना-तिथि भी दी गई है जो 1946 से प्रारम्भ होकर 1987 तक चली आई है। 750-पृष्ठों की ‘अम्बु-कृष्णायण’। 8वीं कक्षा (1948) में दो घटनाएँ प्रधान हुई (1) जयपुर, सीकर आदि की पत्रिकाओं में अम्बुशर्मा की कविताओं का नियमित और बहुशः प्रकाशन प्रारम्भ हो गया (2) दूसरे, आस-पास के स्कूलों और सार्वजनिक कवि-सम्मेलनों (बगड़, पिलानी, डूँडळोद, रघुनाथगढ़, बिसाऊ, अलवर, मण्डेला, बीकानेर अजमेर, उदयपुर, लक्ष्मणगढ़, मुकुन्दगढ़, खेतड़ी, नूआ, झुंझुणूं, सीकर, नवलगढ़ श्यामजी खाटू, अलिपुर, सलामपुर, किशनगढ़ बख्तावरपुरा, नूनिया गोठड़ा सुल्ताना-इत्यादि ग्रामों) मंे भी सैकड़ो कविताएँ सुना चुके थें 12वीं कक्षा में आने तक (1954 में) ।
इससे पूर्व 1953 में किशोरजी कल्पनाकान्त कोलकाता से ‘सागर’ नामक हिन्दी-मासिक निकालते थे। उसके प्रत्येक अंक में अम्बुशर्मा की कविता कहानी निबन्ध भी छपे तथा दिल्ली एवं ऋषिकेश की पत्रिकाओं में भी छपी। 1954 से 1962 तक झुंझनूं-जनपद की 6 स्कूलों में अम्बु शर्मा राजकीय अध्यापक भी रहे। विद्यार्थियों को एकांकी भी लिखकर देते। पूरा नाटक लिखा और प्रत्येक उत्सव पर बीसों कविताएं विभिन्न छात्रों हेतु लिखकर देते थे। उनके स्मारिकाओं, स्मृति-ग्रन्थों, अभिनन्दन- ग्रन्थों का सम्पादन भी किया। बीकानेर रामपुरिया जैन कॉलेज के हिन्दी-
विभागाध्यक्ष डॉ0 मदनजी सेनी ने निजी वृहत शोध-ग्रन्थ ‘राजस्थानी में रामकाव्य’ में अम्बु-रामायण की विस्तृत चर्चा की है। राष्ट्रीय पुस्तकालय मेंः- अम्बुशर्माकृत 18 ग्रन्थ हैं संख्याः-H891.4318/s8691a पर। राम-मन्दिर, कुमार-सभा, बड़ा बाजार-लाइबे्रेरी तथा एशियाटिक सोसाइटी में भी हैं। अम्बुशर्मा, केन्द्रीयाकादेमी की चारों बिबलियोग्राफी (1983,1985,1990 एवं 2000) में भी संकलित हैं। राजस्थानी के बड़े पुरस्कारों में निर्णायक भी रहे हैं।
सम्पर्क:
Amboo Sharma,
Flat No. 4C, Geet, Merlin Estate,
25/8, Diamond Harbour Road,
Near Behala Chourastha
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