पिछले दिनों स्तंभकार मनजीत कृपलानी ने एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया। उन्होंने लिखा है कि भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का असर यह हुआ है कि ब्राह्मण धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता से अलग हटते गए हैं। भारत में हमेशा से हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखने वाले ब्राह्मणों ने अब राजनीतिक सत्ता को छोड़कर उद्यम में अपने पैर जमाने शुरू कर दिए हैं। इसलिए आज हम यह ट्रेंड देख रहे हैं कि ब्राह्मण युवा (और अन्य तथाकथित ऊंची जातियों के) डिग्रियों से लैस होकर, खासकर इंजीनियरिंग की, उद्यमों में आ रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी में भारत को एक महाशक्ति बनाने के पीछे इस युवा वर्ग का बड़ा हाथ है।
इस विचारोत्तेजक लेख से इस बात की ओर भी ध्यान गया कि मारवाड़ी समाज के लोग तो संख्या के लिहाज से ब्राह्मणों से भी कम हैं। थोड़ी सी संख्या में राजस्थान और हरियाणा से निकले बनिये और ब्राह्मण आज सारे भारत में बिखरे हैं। लेकिन चुनाव क्षेत्रों के आधार पर बंटे देश में क्या वे कभी भी राजनीति में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे? यह सवाल हम इसलिए उठा रहे हैं कि मारवाड़ी समाज के संगठनों में ( दो ही हैं - मारवाड़ी सम्मेलन और मारवाड़ी युवा मंच) अक्सर इस बात पर चिंता व्यक्त की जाती है कि राजनीति में मारवाड़ियों की उपस्थिति बिल्कुल नगणय है। इस चिंता का भी एक बिल्कुल ही अलग कारण है। मारवाड़ी इसलिए राजनीति में नहीं आना चाहते कि उन्हें आरक्षण चाहिए, या अपना कोई होमलैंड चाहिए, या सरकारी नौकरियों में उनके साथ कोई भेदभाव होता है (बहुत ही कम लोग सरकारी नौकरियों में हैं) या उद्यम लगाने के रास्ते में सरकारें रोड़े अटकाती हैं।
लेकिन उनलोगों ने देखा है कि पूरी प्रशासनिक मशीनरी कानून के अनुसार नहीं बल्कि राजनेताओं के इशारों पर चलती है। कहीं कोई गुंडागर्दी हो जाए तो पुलिस वाले साफ कहेंगे कि वे कार्रवाई नहीं कर सकते, अमुक विधायक या तमुक मंत्री का आदेश है। जिसे आप गुंडा कह रहे हैं वह अमुक मंत्री का "आदमी' है। पूर्वी भारत के राज्यों, बिहार, बंगाल, उड़ीसा और असम में अक्सर चंदा उगाही को लेकर लफड़ा होता रहता है। असम में उग्रवाद का दंश भी सबसे पहले मारवाड़ी समाज को ही झेलना पड़ा। कोई जिला उपायुक्त या एसपी पक्षपात करता है, तब मंत्री-विधायक की चिरौरी करनी पड़ती है कि "भैया इस डीसी को हटाइए'। हर समुदाय के लोगों को करनी पड़ती है, लेकिन मारवाड़ी को छोड़कर बाकी सबकी बात कमोबेश मान ली जाती है।
मारवाड़ियों ने दूसरी एक चीज अपने अनुभव से सीखी है कि उनकी नगण्य संख्या के कारण कोई भी राजनीतिक दल उनकी परवाह नहीं करता। उल्टे कई बार मारवाड़ियों के बारे में अंट-शंट बककर सभी दलों के राजनेता वोटरों को लुभाने की कोशिश करते हैं। (तरुण गोगोई ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ऐसा किया था) इसलिए मारवाड़ी संगठनों के नेताओं को यह पीड़ा होती है कि मारवाड़ी लोग वोटर लिस्ट में अपना नाम लिखाने को लेकर जागरूक नहीं रहते। उनका सोचना है कि वोटर लिस्ट में मारवाड़ियों की संख्या बढ़ जाने पर यह उपेक्षा कम हो जाएगी।
इन्हीं दोनों मुद्दों को कई बार राजनीति में प्रवेश करने के इच्छुक व्यक्ति बड़े जोर-शोर से उठाते हैं। अक्सर राजनीति में जाने की यह इच्छा व्यक्तिगत महत्त्वााकांक्षा से परिचालित होती है और इसमें समाजहित जैसी किसी बात का मुख्य स्थान नहीं होता। लेकिन मारवाड़ी समाज का एक आम आदमी सोचता है कि चलो अपना एक प्रतिनिधि सत्ता के गलियारों में घूमता रहेगा तो आड़े वक्त पर काम आएगा। यह सोचना सिर्फ सोचने के स्तर पर ही सीमित रहता है। बड़े परिदृश्य पर देखें तो न तो मारवाड़ी समाज ऐसे व्यक्तियों की कोई खास मदद कर पाता है, और न ही ऐसे व्यक्ति सत्ता के गलियारों में पहुंचकर अपने मूल समाज के लिए मददगार साबित हो पाते हैं। आखिर क्यों?
इसका कारण बताने के लिए कोई ईनाम नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि चुनाव संख्या का खेल है। देश भर में छितरे मारवाड़ियों के पास संख्या बल नहीं है। इसके सदस्य किसी व्यक्ति विशेष के लिए जुलूस और जनसभा की तैयारियां भले कर दें, लेकिन जुलूस और जनसभा सफल तभी होते हैं जब उनमें आम जनता (पढ़ें गैर-मारवाड़ी) की भागीदारी होती है। एक मजेदार बात का अनुभव चुनावी राजनीति से जुड़ने वाले हर व्यक्ति को जल्दी ही हो जाता है। वह यह है कि चुनावी मैदान में कूदने वाला मारवाड़ी व्यक्ति जल्दी ही अपनी मारवाड़ी छवि से छुटकारा पाना चाहता है। कहीं वह अपनी उपाधि बदलकर यह काम करता है, कहीं वह मारवाड़ियों के घरों पर खुलेआम जाना बंद करके करता है, कहीं वह सार्वजनिक स्थल पर लोगों के सामने मारवाड़ी भाषा में बात करने से परहेज के द्वारा करता है, कहीं वह कहता है कि मैं तो इतने सालों से इस प्रदेश में रहता आया हूं - मैं मारवाड़ी हूं ही नहीं। इसमें उसका दोष नहीं है, जिस खेल में वह शामिल हुआ है उस खेल के नियमों के अनुसार चलना उसकी नियति है।
अब आते हैं इस बात पर कि जीतने के बाद ये नेता क्या करते हैं। हमने आज तक नहीं देखा कि कहीं किसी निर्वाचित मारवाड़ी जनप्रतिनिधि ने जीतने के बाद भी अपनी मारवाड़ी छवि को गर्व के साथ स्वीकार किया हो। क्योंकि वह तब भी खेल में शामिल रहता है। जीतने का यह मतलब नहीं कि वह खेल से बाहर हो गया। उसे आगे भी चुनाव लड़ना है। वह बंद कमरे में मारवाड़ियों के विरुद्ध पक्षपात करने के लिए डीसी-एसपी को भले फटकार दे, खुले मंच से आप कभी भी उसे मारवाड़ियों के पक्ष में कुछ बोलते नहीं सुन सकते।
आखिर ऐसा होना ही है। यहां हम इस संदर्भ में असम की पृष्ठभूमि से कुछ अनुभव बांटना चाहेंगे। असम में हम देखते हैं कि कुछ असमिया नेता अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ कुछ भी बोलने से कतराते हैं, ऐसा कोई भी काम करने से परहेज करते हैं जो बांग्लादेशी मूल के लोगों के हितों पर चोट पहुंचाने जैसा लगे। ऐसा इसलिए कि उनके चुनाव क्षेत्र में बांग्लादेशी मूल के लोगों की बहुतायत होती है। जब इतनी बड़ी आबादी वाले असमियाभाषी समुदाय को वे जनप्रतिनिधि नजरंदाज कर सकते हैं तो गिने-चुने मारवाड़ियों की क्या बिसात है। अब आपके सौ फीसदी लोग वोटर लिस्ट में नाम लिखाते हैं या अस्सी फीसदी इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
जनप्रतिनिधि बना मारवाड़ी व्यक्ति मारवाड़ी समाज की कोई महत्त्वपूर्ण मदद नहीं कर सकता, साथ ही यह भी सत्य है कि मारवाड़ी समाज भी ऐसे राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा वाले व्यक्तियों की कोई मदद नहीं कर सकते। यह प्रवासियों के रूप में देश भर में बिखरे होने की अनिवार्य सजा है। एक हद तक हमारी स्थिति एंग्लो-इंडियन या पारसी समुदाय की तरह है,जो चुनावी राजनीति में अपने जौहर नहीं दिखला सकता। संविधान निर्माताओं ने एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए शुरुआत में ही दो नामांकित सीटों का प्रावधान कर दिया था।
कई बार इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया जाता है कि व्यापार और उद्यम के क्षेत्र में इतनी कामयाबी हासिल करने वाला मारवाड़ी समाज राजनीति में फिसड्डी क्यों है? ठीक है कि इसके बहुत ही कम लोग मैदान में उतरते हैं, लेकिन जो उतरते हैं वे भी अक्सर गिरते हुए पाए जाते हैं। उनकी योग्यता भारतीय जनप्रतिनिधियों की औसत योग्यता से कम नहीं होती, बल्कि काफी अधिक होती है। फिर भी वे हारते हैं। इसका सीधा सा कारण यह है कि इस खेल के नियम उनके विरुद्ध है। इसमें कोई कामयाबी पाता है तो वह अपवाद स्वरूप ही। या फिर अपवाद स्वरूप वैसे चुनाव क्षेत्रों में जहां मारवाड़ियों की घनी आबादी है(जैसे कोलकाता के कुछ चुनाव क्षेत्र)। बाकी जगह उसका हारना नियम है और जीतना अपवाद।
रास्ता किधर से है?
जाहिर है रास्ता गैर-चुनावी राजनीतिक सक्रियता की तरफ जाता है। यहां समझाने के लिए हम असम के छात्र संगठन आसू का उदाहरण रखना चाहेंगे। आसू ने कभी चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन असम में उसका दबदबा किसी भी राजनीतिक पार्टी से ज्यादा है। यह सच है कि मारवाड़ी संगठन आसू नहीं बन सकते, लेकिन यह सिर्फ संख्या के लिहाज से ही सही है। इज्जत और असर के लिहाज से वे यह ऊंचाई हासिल कर सकते हैं। एक हद तक हासिल की भी है, लेकिन यह अनायास हुआ है। इसी काम को सायास प्रयत्न के साथ करें तो और भी अच्छे नतीजे सामने आएंगे इसमें कोई शक नहीं है।
जरूरत देश के स्तर पर मारवाड़ी की छवि में बदलाव लाने वाले काम करने की है। एंबुलेंस सेवा के द्वारा मारवाड़ी युवा मंच ने इस काम में काफी सफलता हासिल की है। फिर भी यह सही है कि अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचने वाले लोग अपने आपको मारवाड़ी कहने में सकुचाते हैं। यह छवि के कारण है। ऐसे लोगों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करने की जरूरत है। उनमें से कई यह कहते पाए जाते हैं कि मैं भारतीय हूं। इससे किसी को क्या इनकार हो सकता है। लेकिन जब एक बंगाली या एक मराठी एक भारतीय होने के साथ-साथ अपनी बंगाली या मराठी पहचान से इनकार नहीं करता तो मारवाड़ी क्यों इनकार करते हैं। इसका कारण है उनकी हीनता ग्रंथि। मारवाड़ियों की राजनीतिक सक्रियता इसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, न कि अपने आपको मारवाड़ी कहने से सकुचाने वाले एक दो व्यक्तियों को संसद या विधानसभाओं में पहुंचाने की दिशा में।
यहां हम कुछ बिंदु दे रहे हैं जो इस मामले में आगे बढ़ने के लिए एक निर्देशक का काम कर सकते हैं। आगे चर्चा के माध्यम से ऐसे बिंदुओं की संख्या बढ़ाई जा सकती है।
1. मारवाड़ी संगठनों को अपने-अपने राज्य में गैर-चुनावी युवा-छात्र-सांस्कृतिक संगठनों के साथ प्रगाढ़ संबंध बनाने चाहिए। इसे एक लक्ष्य के रूप में लेना चाहिए। उनके नेताओं को सेमिनारों, अधिवेशनों, सभाओं में बुलाने को प्राथमिकता देनी चाहिए।
2. राजनीतिक रूप से जागरूक सदस्यों की पहचान कर उन्हें अलग से संगठित करना चाहिए। उनका मंच, फोरम जैसा कुछ बनाया जाना चाहिए।
3. देश भर के प्रभावशाली मारवाड़ी उद्यमियों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों का नेटवर्क बनाने की दिशा में काम होना चाहिए। इसकी शरुआत उन्हें मंच के अधिवेशनों, सभाओं में बुलाने से हो सकती है, लेकिन वही इसका अंत नहीं होना चाहिए।
4. व्यस्त उद्यमियों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों के साथ नेटवर्क बनाने के लिए संवाद के नए माध्यमों (ई-मेल, ब्लाग, वेबसाइट) का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होना चाहिए।
5. मारवाड़ी संगठनों (सम्मेलन, युवा मंच) में रिटायरमेंट का नियम खत्म करना चाहिए। परिपक्व हो चुके नेतृत्व को समाज सेवा, स्वयंसेवा जैसे ग्रासरूट के कामों के भार से मुक्त कर अखिल भारतीय नतीजे देने वाले कामों में लगाना चाहिए।
6. ऐसे मारवाड़ी व्यक्तियों की शिनाख्त की जानी चाहिए जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में (उद्यम, साहित्य, मीडिया, शिक्षा आदि) महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। उन्हें मारवाड़ी संगठन अपने ब्रांड एंबेसेडर के रूप में इस्तेमाल करे। उन्हें अपने संगठन से जोड़े, आगे बढ़ाए, मुख्यमंत्रियों-जनप्रतिनिधियों के साथ उन्हें मिलाएं और मारवाड़ी के रूप में उन्हें प्रोजेक्ट करे।
विनोद रिंगानिया
आपणी भासा म आप’रो सुवागत
अब तक की जारी सूची:
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2008
(41)
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दिसंबर
(11)
- राजनीति के खेल के नियम और मारवाड़ी -विनोद रिंगानिया
- परिवर्तन को रोकना असंभव
- वृद्धाश्रम धड़ल्ले से खुलते जा रहे हैं
- शिक्षा के क्षेत्र में मारवाड़ी समाज
- आत्मलोचन करने का समय
- 21वीं शताब्दी का विशलेषण कठिन
- वर्तमान प्रतिभाओं को ठीक ढंग से देखें
- हमारी सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह
- कह दो चिरागों से जलना होगा
- भंवरमल सिंघी समाज सेवा पुरस्कार
- राजस्थानी भाषा साहित्य पुरस्कार 2008
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दिसंबर
(11)
रविवार, 21 दिसंबर 2008
राजनीति के खेल के नियम और मारवाड़ी -विनोद रिंगानिया
परिवर्तन को रोकना असंभव
- प्रमोद्ध सराफ
परिचर्चा का विषय है: कल, आज और हम। यानी परिवर्तन का हमारे ऊपर प्रभाव। हम यानी हमारा देश, हमारा समाज, हमारा परिवार एवं हमारा व्यक्तित्व।
कल तक कोई न कोई राजनीतिज्ञ हमारे देश का प्रधानमंत्री होता था, परन्तु आज एक अर्थशास्त्री। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में बुद्धिवादियों का प्रतिनिधित्त्व बढ़ रहा है परन्तु राज्य मंत्रीमंडल, इस संदर्भ में, अभी भी प्रतीक्षाकाल की स्थिति में है। विकास की राजनीति का प्रतिष्ठाकाल प्रारम्भ हो चुका है, अन्यथा शीला दीक्षित, शिवराज सिंह चौहान व डॉ. रमण सिंह विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि होते हुए भी आज एक साथ अपने-अपने राज्यों में सन्तासीन नहीं होते। यानी जनता ने राजनैतिक दलों की जगह विकास रथ के सारथियों का राजतिलक प्रारंभ कर दिया है। आपसी खीचतान व नकारात्मक प्रवृतियों की अग्नि में रोटी सेंकने की राजनीति नेस्तनाबूद हो रही है, अन्यथा राजस्थान में सत्ता परिवर्तन नहीं होता। केन्द्र व राज्यों में एकदलीय सरकारें इतिहास बन रही थी व बहुदलीय सरकारें एक यथार्थ। विकास की राजनीति व सर्वभागिता सिद्धान्त के बल पर पुनः एकदलीय सरकारें प्रान्तीय स्तर पर उभर रही हैं। राष्ट्रीय हितों व दलीय हितों के सामंजस्य के बल पर नए राजनैतिक समीकरण उभरने शुरू हो गए हैं, अन्यथा समाजवादी दल केन्द्रीय सरकार को अपना समर्थन दे, जीवनदान नहीं देता। निवर्तमान राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे.कलाम के कार्यकाल में उनके लेखों एवं संभाषणों की श्रृंखला का राष्ट्र के युवाओं एवं बुद्धिजीवियों पर व्यापक प्रभाव राष्ट्रपति पद की एक नई भूमिका चिन्हीत करता है। अनुकरणीय आदर्श व्यकिृत्त्व के अभाव में दिग्भ्रमित होती युवापीढ़ी को डॉ. कलाम ने वैचारिक चेतना प्रदान करते हुए दिग्दर्शक के रूप में ऐतिहासिक कार्य किया। यानी देश के राजनैतिक पटल पर शुभ संकेतों के दीयों का जगमगाहट।
कल तक पूंजीवाद समाजवाद एवं साम्यवाद बहस के विषय थे, परन्तु आज आतंकवाद का अर्न्तराष्ट्रीय स्वरूप। हर युवा एवं काल में आतंकवाद किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा है। कभी डाकुओं एवं लुटेरों का आतंकवाद वो कभी विभिन्न प्रकार के माफिया वर्ग का। कभी जमींदारों का तो कभी पूंजीवातियों का। कभी राजनेताओं का तो कभी श्रमिक नेताओं का। परन्तु वर्तमान का आतंकवाद भयानक महत्त्वकांक्षाओं का परिणाम है, असफल शासकों का उन्माद है एवं असहिष्णुताओं का वमन है। यह आतंकवाद घृणा की खाद एवं धार्मिक कट्टरता की सिंचाई के बल पर विकसित हो रहा है एवं फलफूल रहा है। आज आतंकवाद की अग्नि दावानल वन आहुतियां मांग रही है -उन प्राणियों की, जो साहसी हैं, कर्तव्यों के पुजारी हैं एवं राष्ट्रप्रेमी हैं। मुम्बई शहर में आतंकवाद के शिकार हुए समस्त अधिकारियों को शत् शत् प्रणाम। प्रभावित नागरिकों का स्मरण कर उनको अश्रु-श्रद्धांजलि। आज का अर्न्तराष्ट्रीय आतंकवाद गुरिल्ला युद्ध का रूप ले चुका है। इस आतंकवाद के खेतों एवं खलिहानों को तहस-नहस करने के सिवाए अन्य कोई विकल्प दिखाई नहीं देता एवं ऐसी सक्रियता में अगले विश्वयुद्ध का खतरा नजर आता है। अर्थात् इस आतंकवाद की समाप्ति हेतु अर्न्तराष्ट्रीय समुदाय तहेदिल से एक साथ नहीं है। यानी अर्न्तराष्ट्रीय पटल पर खतरे के लाल निशानों की मौजूदगी।
कल तक कोटा परमिटों का राज था, परन्तु आज भूमण्डलीकरण एवं उदारीकरण की नीतियां। महंगाई कल भी थी व आज भी है। सट्टाबाजारी का प्राबल्य स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् शनैः शनैः कम हुआ था। परन्तु उदारीकरण की नीतियों के अर्न्तगत, सट्टाबाजी ने वैधानिकता प्राप्त की है एवं साथ में संगठित स्वरूप भी। पिछले कुछ वर्षों में सट्टाजनित महंगाई के विभत्स रूप ने उपभोक्ताओं की योजनाओं को बारंबार विफल किया एवं लघु उद्योगों को अंततः बंदी के कगार पर पहुंचा दिया। उदारीकरण की नीतियों के परिणामस्वरूप रोजगार के अवसरों एवं पारिश्रमिकों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई परन्तु स्वरोजगार क्षेत्र विपरीत रूपेण प्रभावित हुआ। शापिंगमाल संस्कृति ने खुदरा व्यापारियों के समक्ष आस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। कल हरित क्रांति की चर्चाएं थी, आज सेंसेक्स एवं निफ्टी में उतार चढ़ाव की। वर्तमान में जनसाधारण की समाझ के बाहर है कि एक वर्ष में सेंसेक्स व निफ्टी में 60 प्रतिशत की गिरावट क्यों आई, जबकि देश के वित्तमंत्री प्रायः इस संदर्भ में सकारात्मक बयानबाजी, दूरदर्शन के चैनलों पर सतत् रूप से करते रहते थे एवं देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की मंदी से अप्रभावित बताते थे। सरकारी संरक्षणवाद कल तो था ही परन्तु आज उदारीकरण की नीतियों के युग में भी विद्यमान है। अमेरिका में उन दिवालिया फर्मों को सरकार बचाने में लगी है जिनके दिवालियापन का कारण प्रबंधन का लालच एवं गलत व्यापारिक नीतियां रही है। हमारे देश में पूंजीवादी बड़े प्रतिष्ठानों को ब्याज माफी का इतिहास समय समय पर बनता रहा है, परन्तु इस बार बड़े रूप में किसानों की कर्जमाफी ने संतुलन पैदा करने का प्रयास किया है। निष्कर्ष यही है कि सरकारी संरक्षणवाद कल भी था और आज भी है। स्वरूप में परिवर्तन अवश्य है। ग्रामीण एवं पहाड़ी क्षेत्रों के सही मायनों में विकास हेतु सरकारी नीतियों के सार्थक क्रियान्वयन हेतु सटीक माध्यम की प्राप्ति कल भी दूर थी और आज भी दूर ही है। यानी देश के आर्थिक मानचित्र पर शुभ-अशुभ दोनों संकेत मौजूद हैं। सट्टेबाजी का बढ़ता दायरा भयानक संकेत प्रतीत होता है, स्वरोजगार के अवसरों का कम होना भी भविष्य में खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अविकसित क्षेत्रों के विकास की योजनाए सुकून प्रदान करती हैं।
परिवर्तन का प्रभाव हमारे मारवाड़ी समाज पर भी पूर्णरूपेण है। शिक्षा के प्रसार ने समाज बंधुओं की सोच में बड़ा परिवर्तन किया है। आज समाज का युवक स्नातक बनने के पश्चात् पुश्तैनी व्यापार की तरफ उन्मुख नहीं होना चाहता। बल्कि अपनी योग्यतानुसार किसी विषय में विशेष अध्ययन कर, योग्यता हासिल करना चाहता है एवं तदुपरान्त आय अर्जन हेतु क्षेत्र का चुनाव करता है। कल मारवाड़ी समाज में स्वरोजगार में संलग्न व्यक्तियों का सम्मान था। अतः नौकरी पेशा से परहेज किया जाता था। परन्तु आज समाज में नौकरी पेशा संलग्न व्यक्तियों की संख्या तीव्रगति से बढ़ रही है एवं इन्हें यथोचित सम्मान प्राप्त है। शिक्षा क्षेत्र में समाज की महिलायें सफलताओं के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। रोजगार एवं स्वरोजगार क्षेत्रों में समाज की महिलायें बेहिचक आगे बढ़ रही हैं व उन्हें परिवार का समर्थन प्राप्त है। खुदरा व्यापार में लगे छोटे व्यापारियों पर अवश्य अस्तित्त्व का खतरा पैदा हुआ है। ऐसे समाजबंधुओं को नए सिरे से विचार कर व्यापार के स्वरूप में परिवर्तन लाना होगा।
समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली शनैः शनैः लोप हो रही है। परिवारों में आपसी सौहाद्र्र भी घट रहा है। कारणों के विश्लेषण की आवश्यकता है। अर्न्तजातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि प्रेम विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है। यह परिवर्तन का प्रभाव है। इसे रोकने की न तो आवश्यकता है एवं न ही इस परिवर्तन को रोकना संभव प्रतीत होता है। विवाहों व अन्य परिवारिक उत्सवों के अवसर पर प्रदर्शन एवं अनावश्यक या बूते के बाहर व्यय करना समाजबंधुओं का प्रभाव बनता जा रहा है, जो कि शुभ संकेत नहीं। समाजबंधु मारवाड़ी संस्कृति को इस संदर्भ में भूलते जा रहे हैं। उन्हें पुनः याद करना चाहिये किः
‘‘दो मिनट की रोभली, उम्र भर की शोभली।
दो मिनट की शोभली, उम्र भर की रोभली।’’
इस कहावत में मारवाड़ी समाज की उन्नति का मूलमंत्र दिया हुआ है। मोबाईल संस्कृति व इन्टरनेट की नई संस्कृति से मारवाड़ी समाज के युवा संभव लाभ लेने के बजाए हानि वाले पक्ष पर ज्यादा समय गंवा रहे हैं। समाज के युवाओं में स्वाध्याय प्रवृति का दिनोंदिन ह्रास हो रहा हैं। सामाजिक संगठनों का कर्तव्य है कि इस संदर्भ में चेतना अभियान चलायें। समाज का युवा सामाजिक संगठनों से भी दूर होता जा रहा है। इस संदर्भ में भी यथोचित कार्यक्रमों की अपेक्षा सामाजिक संगठनों से हैं।
मारवाड़ी संस्कृति एवं सभ्यता के विभिन्न पहलुओं की जानकारी समाज के युवाओं को नहीं है। सामाजिक रीति रिवाजों का निर्वाह भले ही समाज का युवा करता हो, परन्तु उद्देश्यों की जानकारी उसे नहीं है। मारवाड़ी संस्कृति के संरक्षण एवं समयानुकूल उचित परिवर्तनों के साथ उसके प्रचार प्रसार की आवश्यकता कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी।[end]
वृद्धाश्रम धड़ल्ले से खुलते जा रहे हैं
मौजी रामजी जैन
परिचयः श्री मौजी रामजी जैन, पश्चिम उड़ीसा के सफलतम व्यवसायियों में आपकी गणना की जाती है। युवावस्था से सार्वजनीन गतिविधि में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं। उनदिनों वह अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए थे। सन् 1960 से 1970 के अंदर 2 बार कांटाबांजी नगर पालिका के चेयरमैन चुने गये। 1972 में पार्षद निर्वाचित हुए, किन्तु राजनीति में अर्थ की भूमिका देख चेयरमैन पद को अस्वीकार कर दिया। राजनीति में मूल्यबोध व नैतिकता के प्रति सदैव सजग रहे। इसके बाद समाज सेवा की ओर रूख किया। स्थानीय अग्रवाल सभा, गोशाला तथा जैन श्वे.ते. सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। उड़ीसा प्रान्तीय मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष, उड़ीसा प्रान्तीय जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा के दो कार्यकाल के लिए अध्यक्ष तथा अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद पर रहते हुए आपने समाज व धर्मसंघ की अहम् सेवा की है। अंचल के अनेक द्विपाक्षिक व सामाजिक समस्याओं को आपने न्यायालय से बाहर सुलझाकर परिवारों को व आपसी सम्बन्धों को टूटने से बचाया है। जैन जैनेतर सभी वर्ग का विश्वास आपको प्राप्त है। आप समयज्ञ है एवं जरूरत पड़ने पर सही सलाह देते हैं। कभी कभी सलाह कड़वा हो जाता है। लेकिन परिणाम सदैव हितकर रहे हैं। विगत वर्षों में धर्मपत्नी का वियोग एवं एकमात्र होनहार युवा पुत्र के अकाल निधन ने भी इनकी सामाजिक व संधीय सेवा भावना को बाधित नहीं किया। विगत दिनों आपके हृदय का सफल अस्त्रोपचार हुआ है। जीवन के आठवें दशक को छूने जा रहे इस व्यक्तित्व में जीवट की कोई कमी नहीं है। संयमित जीवन शैली, सादा खान पान एवं जिह्वा संयम आपकी विशेषता रही है। स्वाध्यायशील हैं तथा लेखन व पठन में विशेष रूचि रखते हैं। संर्पकः - पूर्व उपाध्यक्ष, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन, कांटाबांजी, जिला - बलांगीर (उड़ीसा)
आज समग्र विश्व को विभिन्न समस्याओं ने जकड़ रखा है। एकतरफ क्रूर आतंकवाद द्वारा मानवता का अस्तित्व ही खतरे में है। दूसरी तरफ जाति, धर्म, भाषा एवं क्षेत्रियता के नाम पर हम भारतीय परस्पर लड़-झगड़ रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या वैश्विक आर्थिक संकट के रूप में उपस्थित है। महाशक्तिशाली अमेरिका भी आज बेबस दिखाई दे रहा है। सुदृढ़ जमीन के अभाव ने उनके चमक दमक वाले आवरण को हटाकर के वास्तविक रूप को उजागर कर दिया है। स्टाक मार्केट के धराशायी होने से सभी निवेशक सड़क पर आग गए हैं। कुछ प्रतिष्ठत बैंकों का दिवाला निकल चुका है।
ऐसे में दूसरी सभ्यता और संस्कृति जहां सौ, दो सौ वर्षों में धराशायी हो जाते है, वहीं जगदगुरू भारतीय संस्कृति विगत पांच हजार सालों से अनेक उत्थान, पतन देख कर भी जीवित है, यह हमारे लिए पर आश्वस्तिकारक है। इस संस्कृति को देश विदेश में रह रहे मारवाड़ियों ने सदैव संजीवनी प्रदान की है। अपने पारम्परिक व्यवसाय में संलग्न यह समाज जहाँ कहीं भी रहते हैं, उस मिट्टी की महक बन जाते हैं। देशहित उनका लक्ष्य होता है। आज इसके युवा वर्ग शिक्षा और सेवा के हर क्षेत्र में अग्रणी है। जनसाधारण की आवश्यकता और उपयोगिता को ध्यान में रखकर कुआँ, बावड़ी, मंदिर, धर्मशाला, विद्यालय और चिकित्सालय आदि का निर्माण करते हैं। प्रशासन के लिए न कभी बोझ बनें, न परेशानी का कारण। तभी तो भारतीय प्रोद्योगिकी प्रतिष्ठान, खड़गपुर के निदेशक डॉ. दामोदर आचार्य ने बड़े प्रमोद भाव के साथ कहा था कि देश के प्रोद्योगिकी और प्रबंधन संस्थानों को सुपर मारवाड़ी सृष्टि करने का लक्ष्य बनाना होगा। क्योंकि यह लोग जहां रहते हैं वहां के विकास में मुख्य भूमिका निभाते हैं। अर्थार्जन के साथ साथ निरंतर सेवा और सहयोग की भावना रहने से स्थानीय लोगों का विश्वास और सम्मान भी जीतते हैं।
किन्तु केवल उजले पक्ष देखने से एवं कृष्ण पक्ष की उपेक्षा करने से व्यक्ति और समाज का अहित ही होता है। आडम्बर, प्रदर्शन और अनावश्यक खर्च करने की प्रवृत्ति ने अन्य समाज में ईर्ष्या जागृत करने में कोई कसर नहीं रखी है। समय तीव्र गति से परिवर्तित हो रहा है। उसके अनुकूल स्वयं को नहीं ढाल पाने से हम पिछड़ जायेंगे। धनशाली लोगों के इस दिखावे का समाज के साधारण सदस्यों पर भी नकारात्मक प्रतिक्रिया दिखाई दे रही हैं। अभाव से मारवाड़ी समाज का उतना नुकसान नहीं हुआ जितना अति भाव अर्थात अर्थ के दुरूपयोग से हो रहा है।
आज संयुक्त परिवार प्रथा भी अंतिम सांस ले रहा है। मैं, मेरी और मेरे के मध्य दादा, दादी, माँ, बाप कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। जबकी बुजुर्ग समाज के चक्षु सदृश होते हैं जो अपने लम्बे अनुभव से समाज को दिशा दर्शन देते हैं एवं युवा वर्ग समाज के पांव होते हैं। बड़ों के दिखाये रास्ते पर चलने का दायित्व इनका है। अतः बुजुर्गों के बिना समाज अंधा एवं युवाओं के बिना पंगु हो जाता है। स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु दोनों में समन्वय जरूरी है।
अन्य वर्गों में वृद्धाश्रम धड़ल्ले से खुलते जा रहे हैं। हमारा समाज इससे लगभग बचा हुआ है, यह संतोष का विषय है। वृद्धाश्रम समाज के माथे पर कलंक है। आज समाज में भ्रूण हत्या, विशेष कर भ्रूण हत्या ने तथा पतिपत्नी के बीच सम्बंध विच्छेद की घटनाओं ने मारवाड़ी समाज के ताने बाने को नष्ट कर दिया है। ऐसे में सबको जागरूक रहना होगा। समाज के नेतृत्व को अपने कर्मों के द्वारा आदर्श उपस्थापित करना होगा। तभी अपेक्षित लाभ मिलेगा। संसार आज संक्रमण काल से गुजर रहा है। आतंकवाद और आर्थिक संकट का सामना करना हमारी मजबूरी है। उसे हम कर भी लेंगे। पर सामाजिक विसंगतियों को हमें फलने फूलने नहीं देना है। तभी महान संत आचार्य श्री तुलसी का स्वप्न सार्थक होगा। "सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से राष्ट्र स्वयं सुधरेगा।"
शिक्षा के क्षेत्र में मारवाड़ी समाज
- गोविन्द प्रसाद डालमिया, भूतपूर्व अध्यक्ष
झारखण्ड प्रान्तीय मारवाड़ी सम्मेलन
मारवाड़ी समाज समय के अनुसार अपने को ढालने की क्षमता दिखाता रहा है। उसने वकील,डॉक्टर, इंजीनियर एवं चाटर्ड एकाउन्टेंट बड़ी संख्या में दिए हैं। आई.ए.एस. अर्थशास्त्री आदि भी समाज के बहुत से लोग हैं। अब प्राइवेट संस्थाओं में एडमिनिस्ट्रेटर भी मारवाड़ी समाज के काफी व्यक्ति हैं। पर अभी भी मारवाड़ी समाज में लड़के-लड़कियों को शिक्षा दिलाने में समाज के द्वारा सहायता की आवश्यकता है।
जिस प्रकार मारवाड़ी समाज के लोग खाली हाथ बाहर गये एवं सब जगह अपना सिक्का जमाया, उसी प्रकार समाज के लड़के लड़कियां खाली हाथ, सिर्फ एक सर्टिफिकेट लेकर विदेश जा रहे हैं। आज मारवाड़ी समाज में शायद ही कोई परिवार होगा, जिसका कोई सम्बन्धी विदेश में नहीं हो। जो डॉक्टर, इंजीनियर आदि बन कर या पढ़ाई करने विदेश गए, उन्होंने काफी सम्पन्नता हासिल की। इसीलिए आज काफी संख्या में समाज के लड़के- लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त करने कोे विदेश भी जा रहे हैं उनमें से अधिकांश वहीं पर बस भी जा रहे हैं। इसे मैं शुभ लक्षण मानता हूँ। पर समाज के गरीब तबके के परिवारों के लड़के लड़कियों को शिक्षा दिलाने, खासकर उच्च शिक्षा दिलाने के लिए, आर्थिक मदद की आवश्यकता है। शिक्षा समिति यह काम कर रही है। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा समितियों को मजबूत किया जाय। शिक्षा समिति विद्यार्थी को जो आर्थिक सहायता देती है वह बहुत ही कम है। इसे मंहगी को ध्यान में रखते हुए बढ़ाया जाना चाहिए। अपने समाज के किसी भी लड़के लड़की को पढ़ाई में गरीबी के कारण रूकावट नहीं आनी चाहिये। साथ ही वह शिक्षित हो जाय, तो शिक्षा उसे गरीबी से छुटकारा अवश्य दिला दे।
यह भी आवश्यक है कि शहरों में मारवाड़ी लड़के लड़कियों के लिए विशेषकर लड़कियों के लिए छात्रावास बनाये जाएं। लड़के तो किसी सम्बन्धी के यहां, लॉज में या चार-पांच लड़के एक कमरा भाड़े पर लेकर भी गुजारा कर लेते हैं। पर लड़कियों को, परिवार वाले दूर शहर में अकेले रखना असुरक्षित समझते हैं। नतीजा यह होता है कि गांवों की प्रतिभावन लड़कियों की भी पढ़ाई छूट जाती है। छात्रावास भाड़े के मकान में भी शुरू किए जा सकते हैं। 80 प्रतिशत उपलब्ध स्थान में लड़कियां रहेंगी, इस हिसाब से खर्च जोड़कर छात्रावास शुल्क का निर्धारण किया जा सकता है। इससे हर महीने घाटा नहीं होगा। पर इसके लिए समाज और इन शहरों के लोगों को आगे आना होगा।
कैट के लिए एवं अन्य उच्च श्रेणी के प्रतिष्ठित कॉलेजों में भर्ती के लिए कोचिंग की आवश्यकता होती है। उसमें करीब 80 हजार रुपये प्रति विद्यार्थी खर्च हो जाता है। इस कोचिंग के लिए न तो बैंक से कर्ज मिल पाता है और न शिक्षा समिति से आर्थिक सहायता मिल पाता है। आजकल बैंकों से विद्यार्थियों को पढ़ाई के लिए कर्ज मिल जाता है। पर कर्ज मिलने में कुछ समय लगता है और कर्ज मिलने तक विद्यार्थियों को आर्थिक कष्ट होता है।
‘‘अन्य पिछड़ी जाति’’ का सर्टिफिकेट रहने से बच्चों के स्कूल एवं कॉलेज में नामांकन में एवं बाद मे नौकरी मिलने में सुविधा होती है। मारवाड़ी समाज के कुछ वर्ग जैसे नाई आदि को पिछड़ा वर्ग का प्रमाण पत्र पाने का हक हैं। पर उनके लिए भी कम से कम झारखण्ड में, या सर्टिफिकेट पाना बहुत मुश्किल एवं खर्चीला है। मुख्य दिक्कत वैश्य लड़के लड़कियांे को आती है। झारखण्ड में गैर मारवाड़ी वैश्य लड़के लड़कियों को, अग्रहरि, वर्णवाल आदि को पिछड़ी जाति का प्रमाण पत्र पाने का कानूनी हक है। पर अग्रवाल माहेश्वरी ओसवाल जैन आदि विद्यार्थी पिछड़े वर्ग का प्रमाण पत्र पाने के लिए पात्र नहीं समझे जाते हैं। यह कानून गलत है और इस कानून में सुधार होना चाहिए। मारवाड़ी सम्मेलन को इस कानून को सुधारे जाने में सक्रिय भाग लेना चाहिए।
आत्मलोचन करने का समय
सत्यनारायण बीजावत
परिचयः सत्यनारायण बीजावत, पता-256/40, कड़क्का चौक, अजमेर (राजस्थान), शिक्षा-बी.ए., एल.एल.बी., जन्म-3 नवम्बर 1932, जन्म स्थान-अजमेर (राजस्थान) पं0 रेलवे से सेवा निवृत्त सैक्शन इंजीनियर राजस्थानी व हिन्दी भाषा में साहित्य सृजन 1983 में राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत आकाशवाणी के जयपुर केन्द्र से समय समय पर राजस्थानी काव्य पाठ, प्रकाशन-आँधी के दीप (उपन्यास), लम्हा लम्हा जिन्दगी (गजल संग्रह), अन्तभारती साहित्य एवं काव्य परिषद तथा स्वयं सिद्ध संस्था से सम्बद्ध।
मारवाड़ी समाज के लिए यह आत्मलोचन करने का समय है कि कल हम कहाँ थे और आज कहाँ हैं, कोई भी समाज एक दिन में आकाश नहीं छू सकता, उन्नति और प्रगति कड़ी मेहनत स्पष्ट लक्ष्य और निरन्तर अभ्यास व अथक प्रयास से ही संभव है, अधिक पीछे दृष्टि दौड़ाने की आवश्यकता नहीं यदि स्वतंत्रता पूर्वकालिक दशा पर ही दृष्टिपात करें तो पता चल जाएगा कि हमारा समाज एक पिछड़ा हुआ अशिक्षित एवं रूढ़ियों में जकड़ा हुआ समाज था जिसके अधिकांश लोग निर्धन और अधिक हुआ तो श्रेणी प्राप्त लोग थे। जो कठिन परिश्रम और ईमानदारी से पहचाने जाते थे।
मारवाड़ी समाज के लोग कभी भी अपराधी प्रवृत्ति के नहीं रहे इसी लिए मारवाड़ी समाज के व्यक्ति सुख शांति से जीवन व्यतीत करते हुए निरन्तर उन्नति के लक्ष्य की ओर अग्रसर होते रहे हम यह तो नहीं कह सकते कि अन्य समाजों की तरह मारवाड़ी समाज ने उन्नति का लक्ष्य प्राप्त कर लिया लेकिन इतना अवश्य कह सकते हैं कि हमने लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाते हुए शिक्षा और व्यापार में संतोष प्रद उन्नति अवश्य की हैं। अतः अन्य समाज के लोग मारवाड़ी समाज का उदाहरण देते हुए यह कह बैठते हैं कि इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा कोना नहीं है जहाँ मारवाड़ी नहीं पहुँचा हो।
यदि वास्तव में देखा जाए तो व्यापार किसी समाज विशेष की थाती नहीं है इसके लिए सम्पूर्ण जनता ही स्वतंत्र है जो चाहे जैसा, जहाँ और चाहे जब अपना व्यापार कर सकता है। ऐसा हमारे देश का संविधान कहता है लेकिन यह अनुभव किया जा सकता है कि वही व्यक्ति इस प्रतिद्वन्द्विता के युग में सफल होकर टिक सकता है। जो कठिन परिश्रम के साथ ईमानदारी से अपना कार्य सम्पन्न करें। ईमानदारी के अभाव में अल्प कालिक सफलता ही प्राप्त हो सकती है। इसी लिए बड़े बड़े उद्योग घराने मारवाड़ी समाज के व्यक्तियों के पास हैं जिन्हें विश्व जगत में उच्च स्थान प्राप्त हैं। चाहे बिड़ला घराना हो या फिर लक्ष्मी मित्तल अथवा बांगड़ परिवार जो सर्वजन हिताय सर्व जन सुखाय के लिए जन कल्याणार्थ रोजगार से लेकर चिकित्सा सहायतार्थ चिकित्सालय तथा शिक्षा के क्षेत्र में समान सेवा के रूप में विद्यालय व महाविद्यालय खोलकर समाज को आगे बढ़ाने का कार्य किया है।
अतः आज हम यानि मारवाड़ी समाज के लोग गर्व से यह कह सकते है कि हम कल जिस अशिक्षा के अंधकार में थे उससे बाहर निकल चुके हैं आज हमारे समाज के युवक ही नहीं बल्कि युवतियाँ भी शिक्षा के प्रकाश में खुल कर साँस ले रही हैं। शिक्षित समाज ही व्याप्त रूढ़ियों की जंजीरों से मुक्त हो सकते हैं एक वह भी समय था जब पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, नारी अशिक्षा, मृत्यु भोज प्रथा, जुआ प्रथा इत्यादि बुराईयाँ समाज में व्याप्त थी। परन्तु समय समय पर सामाजिक संस्थाओं द्वारा एक एक कर उपरोक्त बुराईयों को दूर करने के प्रयास और उपाय किए जाते रहे हैं। जिनका सफल आज हमारे सामने ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव सामाजिक समक्ष दृष्टव्य है। पर्दा प्रथा जो हमारे समाज में हवा पानी की तरह व्याप्त थी वह आज नहीं के बराबर है। इसी तरह दहेज प्रथा से भी मारवाड़ी समाज अभिशप्त था और हम आज भी छाती ठोक कर नहीं कह सकते कि इस बुराई से समाज मुक्त हो गया है लेकिन फिर भी इस बुराई से हमारा समाज डट कर मुकाबला कर रहा है। पढ़ी लिखी युवा पीढ़ी खुल कर इसके विरोध में खड़ी हो गई है और जगह जगह इस बुराई पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा रहा है इस आशा के साथ कि शीघ्र ही समाज इस बुराई से मुक्त हो सकेगा। यह नारी शिक्षा का ही प्रभाव है कि दहेज लोभियों को सामने लाकर समाज में ऐसे दूल्हों की बरातें लौटाने के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करने का नारी में साहस भर दिया। इसी प्रकार श्क्षिित युवकों ने मृत्यु भोज तथा जुआ आदि का विरोध कर समाज को अनचाहे कर्ज से बचाने का सत्कार्य किया है साथ ही हमारी सामाजिक संस्थाओं का भी इस जनजागरण के कार्य में प्रशंसनीय योगदान है। समाज विकास गत स्पष्ट वर्षोंं से मारवाड़ी समाज के मुखपत्र की भूमिका निभा रहा है साथ ही जन जागरण का शंख फूंक रहा है। देश विदेश में मारवाड़ी समाज को एक सूत्र में बांध कर समाज की वास्तविक दशा से सभी को अवगत करा रहा है। हम कल क्या थे, आज क्या है और कल कहाँ होंगे।
21वीं शताब्दी का विशलेषण कठिन
- नन्दकिशोर जालान
80 वर्ष पहले और आज के सोच में काफी परिवर्तन आया है। एक समय था जब स्वतंत्रता के प्रति हमारी आस्थाहीन होती जा रही थी, लेकिन गांधी युग ने पुनः जागृत कर दी। इसी प्रकार हर क्षेत्र में आस्था और लगन की जरूरत है। सामाजिक संस्थाओं को सच्चे रूप से निरूपण करने में सभी की पढ़ाई-लिखाई में इसकी भूमिका मुख्य है। इसके अभाव में मनुष्य अपंग है।
किसी संस्था की उन्नति के साथ उसके कुछ पदाधिकारी अपने को काफी गौरवान्वित मानने लगते हैं। कुछ ऐसे कार्यकर्ता हैं जिनको अपने काम धन्धे से फुरसत नहीं, सामाजिक कार्य क्षेत्र में क्या सहयोग करेंगे। कुछ कार्यकर्ता ऐसे होते हैं जो सामाजिक कार्य करने वाले लोगों के दोषों को उजागर करने में अपना नाम व यश समझते हैं। कुछ ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो पद को छोड़ना नहीं चाहते जिससे संस्था का कुछ हित नहीं होता।
आज के समय में सामाजिक कार्यकर्ता का अभाव नहीं है। सभी व्यक्ति किसी न किसी रूप में समाज के कार्य से जुड़े रहते हैं। आज के युवक युवतियाँ भी इस क्षेत्र में काफी कार्यशील हैं। युवा शक्ति काफी विलक्षण होती है। उसके सामने शैक्षणिक विधा के नये-नये तरीके पेश किये जा सके और उसके अन्दर अभिलाषा जगायी जा सके तो निश्चित रूप से युवा शक्ति देश और समाज को ऊँचे से उचे स्थान पर पहुंचा सकती है।
मनुष्य की उपलब्धि चाहे जिस क्षेत्र में हो यानी बुद्धि, विवेक, जन सेवा और निजी कार्यक्षेत्र वे सभी विधाएं वहीं तक वरणीय है जहाँ तक वे कार्यशील हैं।
पुरानी सभी चीजें या बातें हमारे लिए स्मरण दिलाती रहती हैं। हमारी संस्कृति व सभ्यता सभी हमारे जीवन की थाती हैं। ये सभी कल की बातें हैं। सामाजिक
सुधारों, राजनैतिक या सांस्कृतिक विकल्पों, का आदान-प्रदान मुख्य है। राजनैतिक दृष्टि से पृथकवाद का विकल्प ढूँढना एवं समाज के युवावृन्द में स्वस्थ राजनीति की कर्मभूमि में पूरी तरह से अकथ लालसा की सृष्टि करना आज के बिन्दु के आगे वरणीय हो सकती है। राजनैतिक दृष्टि से देश अपना एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर ले। तेजी से हो रहे परिवर्तनों के समुचित व गहन चिन्तन के अनुरूप समाज में बदलाव की स्वीकृति व गति हर संस्था के
अधिवेशनों की आज की महती आवश्यकता है।
राजनैतिक विकल्पों की हम बात करें तो आज के बिन्दु के ठहराव के आगे की ही बातें युवकों की बातें हो सकती है। अध्यापन के क्षेत्र में बढ़ते कदम इस कम्प्यूटर तथा इनफॉरमेशन टेकनोलोजी युग की बदलती स्थिति में विश्व के एक काने से दूसरे कोने तक संसर्ग, आर्थिक क्षेत्रों में उत्पादन एवं कार्य प्रणाली में हो रहे बदलाव आदि ऐसे बिन्दु हैं जिसके आज के ठहराव के आगे विस्तार ही विस्तार फैला हुआ है। अतीत और गौरव अपनी जगह है। उनकी ओर तेजी से कदम बढ़ाना अति आवश्यक है।
सामाजिक सुधारों के अन्तर्गत विधवा व परित्यकता के पुनर्विवाह के लिए मानस तैयार करना, विवाह शादियों में फिजुल खर्चा कम करना, बधु दहन जैसे कुकृत्य को दूर करना।
स्वधर्म शब्द पूर्व पद प्रधान है। सम्मेलन का अपना स्वधर्म है जो मारवाड़ी समाज द्वारा संचालित है। इसका स्वधर्म इसके उत्पत्ति काल से रहा है। इसका स्वधर्म सामाजिक सुधार वाणिज्य और उद्योग कहे गये हैं। इसका इतिहास साक्षी है कि इसने सदा से एकता की साधना अनेकता के माध्यम से की है। जीवन के हर क्षेत्र का अभिनन्दन किया है। इसी के आधार पर कहीं भी अपना स्थान कायम कर रखा है। स्वधर्म और भावात्मक एकता में आज एक अद्भुत तादात्म्य आ गया है। इसी के
आधार पर अगम्यता तक पहुंच पाने में समर्थ हुए हैं। इससे सम्मेलन को काफी बड़ी सफलता मिली है।
समाज के चिन्तक, क्रियाशील समाजसेवी द्वारा समाज व्यवस्था में समयानुकूल परिवर्तन करने के लिए विचार विमर्श होते रहना आवश्यक है। आज दुनिया का हर देश जितना वैज्ञानिक क्षेत्र में विकास कर सके, होड़ के साथ लगा है। इस आधार पर एक दूसरे से बैर स्वाभाविक है। इसी के आधार पर समाज में नाना प्रकार की विकृतियाँ भी पनपी और इसके साथ साथ इसके निराकरण के लिए समाज में महापुरुषों का आविर्भाव हुआ। इसी के साथ सुख, साधन, समानता व सम्पन्नता के चक्र को आगे बढ़ाया गया।
नास्त्रेदमस ने कहा था कि ‘‘सुखी और सम्पन्न समाज या समाज व्यवस्था बढ़ी है जिसमें आदमी दूसरे आदमी को स्नेह, सौजन्य सौहाद्र देता है। अन्यथा वह व्यवस्था दूषित होने लगती है। इस प्रकार मनुष्य का विशिष्ट व्यक्तित्व उभर कर सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन का क्रम चालू रखता है।’’
खलील जिब्रान ने कहा है ‘‘मैं आग हूँ। मेरी आग मेरे कूड़े करकट को जलाकर भस्म कर दे तो मैं अच्छा जीवन बिताऊ, यदि समाज में बिखरे कूड़े करकट में आग लगाकर उसे भस्म करने की शक्ति उभरे तो निश्चित रूप से वह अपने समाज के लिए और अधिक अच्छा जीवन का रास्ता प्रशस्त कर सकती है।’’
भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ स्त्री को आराध्य देवी के पद पर आसीन किया गया है। विभिन्न रूपों में उसकी पूजा अर्चना और मनन किया जाता है। उसके वरदान से मनुष्य पृथ्वी पर सुखी रहते हैं। सन्देह नहीं की हमारे समाज की नारियां आज हर क्षेत्र में ऊचाईयां माप रही हैं लेकिन बहुसंख्यक समाज अब भी प्रायः हर क्षेत्र में पिछड़ा है।
आवश्यकता है हमारी अस्मिता अक्षुण रहे हम इक्कीसवीं सदी के नागरिक है। आज के छात्र छात्राएं थोड़े अन्तराल के बाद पेश व समाज की युवा पीढ़ी में प्रवेश कर जायेंगे। युवा पीढ़ी हमारे समाज व देश की आधार शिला होती है। इन्हीं के कंधों पर देश की बागडोर रहती है। आज परिवेश तेजी से बदल रहा है। दुनिया सिमट कर छोटी हो गई है। आज हर जगह दूसरी जगह कुछ समय में जा आ सकते हैं।
अर्थ व्यवस्था में भी काफी परिवर्तन हो रहे हैं। संवेदनशीलता समाज का आभूषण है जिस पर हम सभी गर्व कर सकते हैं। आने वाले युवा युवतियों का विस्तृत दृष्टिकोण होना चाहिए जो अपनी संस्कृति की ज्ञान विज्ञान, शौर्य त्याग व सर्वोत्तम सामाजिक व्यवस्था के आधार पर फलती करने का मानस आज से ही तैयार करे और हमारी अस्मिता को कहीं आँच न आनें दें।
देश की स्वतंत्रता में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, लाला लाजपत राय ने कितनी लड़ाई लड़ी। उस समय के सामाजिक स्त्री पुरुषों का कितना सहयोग था। आने वाले समय में दुनिया के सिरमौर देशों में इसकी गिनती होनी आवश्यक है।
परिवर्तन की चलती चक्की के कारण आने वाले कल का चिन्तन नितान्त आवश्यक है पुरानी यादें पुरानी बातें अपनी संस्कृति और सभ्यता की एक महत्वपूर्ण थाती रही है। युवा दृष्टि और युवा शक्ति बड़ी विलक्षण होती है जो बौद्धिक वैज्ञानिक उन्नति में कुछ कर गुजरने की क्षमता रखती है। उसे मात्र दिग्दर्शन की जरूरत है। आज आर्थिक प्रभुता सर्वाधिक महत्व रखती है लेकिन सभी उसके शिखर पर नहीं चढ़ सकते हैं। देश का हर कोना अन्वेषण के पथ को सबल करने का आह्वान कर रहा है।
20वीं सदी के इतिहास का गांधीजी का स्वर्णिम युग इन अगणित क्रिया कलापों से भरा पड़ा है। उसने सारी कुरीतियों को समाज से बाहर फेकने के भरसक प्रयत्न किये और सफलता भी मिली।
विगत यानी 20वीं शताब्दी गांधी युग से प्रभावित रही है। 21वीं शताब्दीं किस युग की उत्पत्ति करती है आज इसका विशलेषण कठिन है, लेकिन कई विशिष्ट भविष्य वाणियाँ अपना रूपक दिखा जाती है। उदाहरणतः नास्त्रेदमस की नैपोलियन के उत्थान और पतन और उसी प्रकार हिटलर के उत्थान और पतन सम्बधी भविष्यवाणी अक्षरसः सत्य निकली। इनकी एक और भविष्यवाणी संसार के पश्चिमी भाग की प्रभुता शेष होकर संसार के पूर्वी भाग की प्रभुता हर क्षेत्र को अपने प्रभाव से आच्छादित करेगी। शायद आने वाले युग की सच्चाई की ओर इशारा कर रही है। ऐसी स्थिति में आने वाले वर्षों में भारत का प्रभाव काफी मात्रा में उभरेगा इसमें सन्देह नहीं दिखता। चूँकि आज देश हर विधा के अन्तराल से जुड़ा हुआ है इसलिए आने वाला समय समाज के लिए अत्यन्त संवेदनशील और महत्वपूर्ण होगा तथा समाज की युवा पीढ़ी का दायित्व सर्वाधिक बढ़ेगा। इस भविष्य के लिए सभी क्षेत्रों में समाज का अवदान बढ़े, सम्मेलन को इस ओर समाज का आह्वान करते रहना होगा।
वर्तमान प्रतिभाओं को ठीक ढंग से देखें
- स्व.भँवरमल सिंघी
अगर हम अपनी वर्तमान प्रतिभा को ठीक ढंग से देखें और समझें तो निश्चय ही हम शक्ति का अनुभव करेंगे। बहुत सारी गलतफहमियां हमारे समाज के बारे में दूर हो चुकी है और जो आज भी प्रचलित हैं, वे भी हमारी नहीं प्रतिमा को दिखाने समझाने से दूर हो जायंेगी। व्यवसायेत्तर क्षेत्रों में भी, जैसे शिक्षण-प्रशिक्षण, चिन्तन लेखन, कला और खेल कूद सरकारी नौकरियों और प्रतिरक्षा आदि के क्षेत्रों में अपने अवदान की विशेषता को हम लोगों के सामने रखें और पहुंचायें। हमारी सम्मान भावना केवल धन के प्रति ही न रहें, बल्कि अन्याय शक्तियों के विकास और संवर्धन के प्रति भी रहे। हम निरन्तर संगोष्ठियों का आयोजन कर रहे हैं जिनमें पारम्परिक विचार- विनिमय के द्वारा नये विचारों की जागृति हो, हमारी शक्ति का हमें सच्चा अहसास हो। इन संगोष्ठियों में हमने यह अनुभव किया है कि समाज में आज न विचार की कमी है और न शक्ति की। अगर कमी है तो इन दोनों के योग के कर्मशील बनने की।
इसी सन्दर्भ में हमारे सामने समस्या आती है कार्यकर्ताओं के निर्माण और प्रोत्साहन की। आज चाहे राजनीति के क्षेत्र में हो, चाहे सामाजिक क्षेत्र में कार्यकर्ताओं का अभाव दिखता है। जिस समाज के पास सार्वजनिक सेवा करने वाले कार्यकर्ता नहीं होते, वह उतना अग्रसर नहीं होता, जितना हो सकता है। सम्मेलन न केवल कार्यकर्ताओं का सम्मान करता है और उनको प्रोत्साहित करता है, बल्कि उनके शिक्षण प्रशिक्षण के लिये प्रयत्नशील रहता है। आज इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि पुराने कार्यकर्ता नये कार्यकर्ताओं का निर्माण करें और उनको समाज में अग्रसर करें। आज कार्यकर्ताओं में जो नवचिन्तन होना चाहिये और सार्वजनिक कार्यों के तौर तरीकों का जो ज्ञान होना चाहिये, विश्लेषण करने की शक्ति होनी चाहिये, उसके लिये प्रेरणा और प्रोत्साहन की आवश्यकता है। जो समाज अपने कार्य कर्ताओं का आदर करना नहीं जानता, उसको प्रोत्साहित नहीं करता, सहायता और सहयोग नहीं देता, वह आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों अपने को बहुत ही चिन्तनीय स्थिति में पायेगा।
हमारी सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह
परिचय: शम्भु चौधरी जन्म कटिहार (बिहार) 4 मार्च 1956, आपकी एक पुस्तक ‘‘मारवाड़ी देस का न परदेस का’’ प्रकाशित, कई सामाजिक आन्दोलनों को नेतृत्व प्रदान। मूल निवासी: फतेहपुर ‘शेखावाटी’। पिताः स्व.काशी प्रसाद चौधरी, पत्नी श्रीमती इन्दिरा चौधरी। सम्प्रतिः समाज विकास के सहयोगी सम्पादक। पताः एफ.डी.-453,साल्टलेक सिटी, सेक्टर-3 कोलकाता - 700106 फोनः 09831082737
हम प्रायः समाज सुधार की बातें आपस में करते रहते हैं। समाज का यह दावा भी रहा है कि समाज में विधवा विवाह को मान्यता देकर समाज की बहुत बड़ी समस्या का समाधान कर दिया। यह बात सही है कि जब हम किसी एक समस्या का समाधान खोज लेते हैं तो साथ ही हमारे सामने दो नई समस्यायें खड़ी हो जाती है।
एक समय पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह जैसी कुरीतियों पर प्रहार चलाया, तो हमारे सामने दहेज नामक बीमारी सामने आकर खड़ी हो गयी। कई परिवारों में दहेज के चलते हो रही हत्या को कानून व समाज के सहयोग से हम आज भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकें। इसका और विकृत रूप हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। दहेज रूपी सुरक्षा कानून का गलत प्रयोग धड़ल्ले से होने लगा। समाज सेवी संस्थाओं के कई पदाधिकारियों को इसके गलत प्रयोग में लिप्त पाया गया। धीरे-धीरे कानून ने जब यह बात खुले तौर पर स्वीकार कर ली। की इस कानून का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है तो कुछ राहत मिली, नहीं तो समाज बुरी तरह से पीस सा गया था।
यह समस्या अभी समाप्त ही नहीं हो पाई थी कि तो हमारे सामने तलाक, बिखरते व टूटते परिवार की समस्या के साथ ही भ्रूण हत्या की समस्या ने विकराल रूप लेकर समाज के ताने बाने को तार-तार कर दिया। यह समस्या किसी एक समाज की न होकर समस्त भारतीय समाज की हो चुकी हैं।
हम देखते हैं कि किसी एक समस्या का जब तक हम समाधान खोजते है, विचार मंथन करते है; हमारे सामने नई और नई समस्या आ खड़ी होती है। बच्चों की उच्च शिक्षा से हमारा समाज जहाँ काफी प्रगती कर रहा है वहीं बड़े-बड़े बच्चों के शादी विवाह में उनके मेल मिलने असंभव से लगने लगे। फिर भी हमारा समाज एक अंहकार के वश में जी रहा है। आडम्बर करना अपना धर्म समझने लगा है। जब तक कोई एक नई बीमारी शुरू नहीं कर देता तब तक विवाह की रस्में पूरी नहीं होती। हर जगह बुराईयों को जन्म देने वाले ठेकेदार पनपते जा रहे हैं।
इस समस्याओं को हम सावधानी से पहल कर समाधान खोज सकते हैं। परन्तु ऐसा लगता है कि समाजिक संस्थाओं के पदाधिकारियों में इच्छा शक्ति का भारी अभाव हो चुका है। समाज का हर व्यक्ति सम्मान प्राप्त करने की दौड़ में समाज के सम्मान को ताख पर रखने को तैयार खड़ा है।
जिससे हमारे विचारों का समाज पर प्रभाव समाप्त होता जा रहा है। हम एक समस्या से कई नई समस्या पैदा करने में अपनी शान समझने लगे हैं। यह कितना घातक है यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर हाँ हमारी सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह तो खड़ा करता ही है ।
कह दो चिरागों से जलना होगा
वैश्वीकरण और भौतिकवाद की दौड़ में मानवीयता कहीं दूर छूटती जा रही है कल जो भाई चारा था विगत तीन चार दशक में एक दम जड़ हो गया है बहनत्व की भावना पनपी है अच्छा है किन्तु इससे जो खूनी रिश्ते फिके पड़े वो चिन्ताजनक है। हर रिश्ते में स्वार्थ का रंग चढ़ गया है समीकरण शारीरिक व आर्थिक लाभ तक सीमित हो गये वैसा जो भारतीय संस्कृति के एकदम विरूद्ध है। आज महिलाओं को जितनी सुविधा आजादी अधिकार प्राप्त है कल शायद नहीं थे परन्तु सदियों से संघर्षरत शोषित पीड़ित नारियाँ जो सुविधायें सत् पुरुषों ने नारियों को दिलवाई क्या वो बरकरार रहेंगी ऐसा नहीं लगता। संकीर्ण अनैतिक विचारों के कारण कुछ प्रतिशत लोग व संस्थायें इसका दुरूपयोग कर रही है हर एक जगह स्वेच्छाचार बढ़ रहा है। इसे तुरंत वैचारिक मंथन कर रोकना होगा। देखा देखी परिणाम जाने बिना बढ़ते तलाक इसका उदाहरण है। मनुष्य विचारवादी है इसी कारण श्रेष्ठतम जीव की श्रेणी में खड़ा है। कल बाजार मनुष्य के लिए था, किन्तु आज बाजार के लिये मनुष्य है ऐसा प्रतीत होता है। भारतीय समाज की संरचना में कल मानवीय मूल्यों की प्रधानता थी न कि भौतिकता की। हाँ! यह बात सही है कि भौतिकता कोई निषिद्ध अथवा नकारात्मक नहीं, लेकिन आज उसका चरम् विकास आसुरी आडम्बरयुक्त होता जा रहा है। जिसके परिणाम भी सामने दिखाई देने लगे है। पारिवारिक विघटन, घरेलू हिंसा, भारी असंतोष, आतंकवाद, सामाजिक असुरक्षा, अनैतिकता और भ्रष्ट राजनीति सर चढ़कर बोलने लगी है। येन-केन प्रकारेण धन का प्रर्दशन हमारी नियत बन गई है। हमारा चिंतन इसके नये-नये तर्क प्रस्तुत कर अपनी बातों को सही ठहराने की भरसक कोशिश की जा रही है। कल तक जो चिंतन दीर्घकालिक व सुधारात्मक था आज ठीक इसके विपरित हो चुका है। विखरते परिवारों को काउंसिलिंग की बात कही जाने लगी। ससुराल बदलने की जगह स्वभाव को बदलने की बातें समझाई जा रही है। परन्तु अभी भी सकारात्मक नहीं हो पाया है। शिक्षा, चिकित्सा सेवा केन्द्र जो कि समाज और राष्ट्र उत्थान के आधार है पूर्णतः व्यापारिक होते जा रहे हैं। कल हमारी शिक्षा और चिकित्सा का दृष्टिकोण बहुत व्यापक ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनं’’ था। जनकल्याणकारी संस्थाओं में आत्मप्रचार व व्यक्ति प्रधानता को महत्व दिया जाने लगा है जो बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। समय रहते हमें पुनः जागरण की तुरन्त आश्यकता है।
हवायें जोरमय है, सम्भलना होगा।
कह दो चिरागों से जलना होगा।।
शनिवार, 20 दिसंबर 2008
भंवरमल सिंघी समाज सेवा पुरस्कार
श्री पुष्करलाल केडिया को
श्री पुष्करलाल केडिया का परिचय:
सुपरिचित समाजसेवी श्री पुष्करलाल केडिया सेवा की प्रतिमूर्ति हैं। दो बार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, सैकड़ों संस्थाओं द्वारा अभिनन्दित एवं भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिक स्वरूप एवं राष्ट्र की नई पीढ़ी के चरित्र निर्माण हेतु दर्जनों से अधिक पुस्तकों के मूल चिन्तक एवं लेखक श्री पुष्करलाल केडिया का जन्म राजस्थान के गुढ़ा गौड़जी (जिला: झुंझुनूं) में 17 जुलाई 1928 को हुआ। कोलकाता आने पर 10 वर्ष की अल्पायु में ही विद्यालय में ‘कब’ के रूप में ‘स्काउट आन्दोलन’ से जुड़ गये और यहीं से शुरू हुई निष्काम सेवा की यह अविरल यात्रा। स्काउटिंग में विभिन्न पदों पर आसीन रहने के बाद सन् 1967 में भारत स्काउट्स एण्ड गाइड्स पश्चिम कोलकाता के डिस्ट्रीक्ट कमिश्नर एवं सन् 1985 में सहायक राज्य कमिश्नर (पं0 बंगाल) के पद पर पहुँचे। परहित चिंतन एवं मानव सेवा का पर्याय बन चुके श्री पुष्करलाल केडिया कोलकाता की कई शीर्षस्थ सेवा संस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।
अपना पूरा जीवन स्काउट के जरिए समाज को समर्पित कर देने वाले श्री पुष्करलाल केडिया ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता हैं। जिन्होंने प्रतिक्षण समाज सेवा की चाह को सर्वोपरि रखा।
श्री पुष्करलालजी केडिया के तपः पूत व्यक्तित्व में यही सत्य अपनी समूची प्रखरता के साथ विद्यमान है। पिछले 25 वर्षों से शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद जीवन की अष्टदशकीय सेवा यात्रा में भी उनकी क्रियाशीलता, ऊर्जा और चिन्तन पर आगे रहने की विलक्षण दृढ़ता पूर्ववत् देखकर नई पीढ़ी में चेतना का संचार होता है। उनके मानस की त्रिवेणी आज भी सद्प्रवृत्तियों और जीवन के उच्चतम आदर्शों की पवित्र धाराओं से गरिमामण्डित है।
जीवन्त प्रतीक आज कोलकाता के बड़ाबाजार अंचल में अमृत कलश के समान सुशोभित श्री विशुद्धानन्द हास्पिटल एण्ड रिसर्च इंस्टीच्यूट है। आप उसके कई दशकों से
प्रधान सचिव हैं। यह संस्थान आज महानगर के शीर्ष चिकित्सा संस्थानों में अपने आधुनिकतम उपकरणों एवं सुन्दर व्यवस्थाओं के कारण अपना गौरवमय स्थान सुरक्षित किए हुए है। बहुत ही कम व्यय पर सर्व साधारण को उत्कृष्ट सुविधाएं यहाँ प्राप्त है। श्री विशुद्धानन्द हास्पिटल उनकी अद्भुत कार्यक्षमता एवं अनुकरणीय टीम भावना का प्रतीक है यह मात्र एक चिकित्सा संस्थान ही नहीं अपितु विविध जनोपयोगी प्रकाशनों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के कारण आकर्षण एवं प्रशंसा का केन्द्र बन गया है।
अपनी महिमामयी सेवाओं यथा नेत्र चिकित्सा शिविरों, उपयोगी प्रशिक्षणों आदि के कारण नागरिक स्वास्थ्य संघ का नाम सेवा संस्थानों के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित है। आप उसके संस्थापक मंत्री हैं। संघ की अनेक मंगलकारी योजनाएं उनके प्रबुद्ध मार्ग दर्शन में अविरल रूप में गतिशील हैं।
श्री केडिया जी के मार्गदर्शन में एवम् श्री केडिया जी द्वारा स्थापित ‘मनीषिका’ आज बालक-बालिकाओं एवं बुद्धिजीवियों के मध्य सम्पूर्ण राष्ट्र में अपना स्थान बना चुकी है। आप इस संस्था के संस्थापक अध्यक्ष हैं।
भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिकता प्रमाणित करने के लिए आपने अनेकों पुस्तकों का सृजन किया है। इन पुस्तकों का अंगे्रजी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। नई पीढ़ी में चरित्र निर्माण एवं उसके सम्यक विकास हेतु आप प्रदर्शनियों, दृश्य श्रव्य माध्यमों एवं सेमिनारों के द्वारा एक अपूर्व चेतना जाग्रत कर रहे हैं। इसके कई प्रकाशन राष्ट्रीय स्तरपर समादृत हो चुके हैं।
इन्होंने अपने चिन्तन को, अपनी पुस्तकों ‘‘हमारा विराट स्वरूप’’ एवं ‘‘हमारी महान शक्तियाँ’’ में व्यक्त किया है। यह सब लिखने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि हम उनके कर्ममय जीवन से शिक्षा ग्रहण करें। यदि हमारा संकल्प दृढ़ है तो हर असम्भव भी सम्भव बन जाता है। कदम बढ़ाते ही सफलता पैर चूमने लगती है। आज उनका अभिमान रहित जीवन, उनकी सादगी, आडम्बरहीन आचरण, विनम्रता, मधुर व्यवहार परदुःख कातरता, परमार्थ साधना एवं लोक सेवा का अखण्ड व्रत अनुकरणीय है। वे वस्तुतः समाज एवं राष्ट्र की एक अमूल्य निधि है।
आपके चिन्तनपूर्ण लेखन पर विक्रमशिला विद्यापीठ ने पी.एच.डी. की मानद उपाधि प्रदान की। उत्कृष्ट सामाजिक सेवाओं के कारण जहाँ पं.बंगाल के महामहिम राज्यपाल श्री वीरेन जे.शाह ने सेवा सम्मान में प्रदान किया वहीं महानगर सहित देश के शीर्ष सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं ने आपको अभिनंदित कर स्वयं को धन्य बनाया।
यह सम्मान हम सब अपने अहम् को विगलित करने के लिए नहीं अपितु इसलिए कर रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ियां एक प्रकाशमान प्रेरणा प्राप्त कर सकें और लोकमंगल के विस्तीर्ण पथ पर निष्काम भाव से गतिशील हो सकें। हमें पूर्ण विश्वास है कि श्री केडिया जी ने लोक हित जिस दिवालोक का आह्वान करने के महत उद्देश्य से जो हीरक प्रदीप प्रज्ज्वलित किया है, उससे अनेक दीपक प्रज्ज्वलित होंगे।
आज दिनांक 20 दिसम्बर 2008 को नई दिल्ली में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन आपको ‘‘भंवरमल सिंघी समाज सेवा पुरस्कार’’ से सम्मानित करते हुए काफी हर्ष महसूस करता है। हम ईश्वर से आपके शतायु होने की प्रार्थना भी करते हैं।
[script code: Puskarlal kedia]
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008
राजस्थानी भाषा साहित्य पुरस्कार 2008
अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन द्वारा अपने 21वें राष्ट्रीय अधिवेशन और 74वें स्थापना दिवस के अवसर पर तेरापंथ भवन अध्यात्म साधना केन्द्र, छत्तरपुर मेहरौली मार्ग, नई दिल्ली में कल सुबह यानी 20 दिसम्बर 2008 को दिन तीन बजे भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत के हाथों "राजस्थानी भाषा साहित्य पुरस्कार 2008" जनचेतना के विप्लवी यायावर रचना धर्मी श्री ओंकार श्री को से देने जा रही है।
श्री ओंकार श्री का परिचय
जन्म: 26 मार्च 1933, बीकानेर। पिता श्री बालमुकुन्दजी, आपकी विमाता के साथ कराची नगर में हरमन मोहता कंपनी के व्यवस्थापक व प्रवासी राजस्थानी व्यवसायिक घरानों के विवादों के प्रख्यात आरबीट्रेटर थे।
आप डूँगर कॉलेज, बीकानेर से कला स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण कर, अर्थाभाववश आगे पढ़ न सके। तत्पश्चात् आपने लोकमत बीकानेर के सहायक संपादक बतौर मात्र 70 रुपया माहवारी मान देय पर कार्य किया।
सन् 1966 से 1986 तक उदयपुर में स्थित राजस्थान साहित्य अकादमी के सेवा काल में सहायक सचिव का निदेशक व उपनिदेशक पद पर प्रोन्नत हो सन् 82 से 86 तक शासन स्थापित राजस्थानी भासा साहित्य संस्कृति अकादमी बीकानेर के शासन द्वारा नियुक्त संस्थापक सचिव।
अकादमी सेवा मुक्ति के बाद आपने माणक (राज0मा0) का व.संपादक, जोधपुर के सांध्य दैनिक तीसरा प्रहर का व.संपादक दायित्व संभालने के बाद नवमें दशक में बीकानेर संभागीय विकास परिषद का व राजस्थान गो.सेवा संघ का मानद सचिव पद भार वहन किया।
पत्र पत्रकारिता के क्षेत्र में:
संपादन पूर्व व.संपादक: लोकमत(सा0)बीकानेर, माणक (राजस्थानी) जोधपुर, तीसरा प्रहर सांध्य (दै0) जोधपुर, प्रतिदिन
सांध्य(दै0)उदयपुर, पोलिटिक्स(दै0)उदयपुर, प्रगति(सा0)उदयपुर। प्रकाश(सा0)उदयपुर, ओसवाल ज्योति(व0)जयपुर, जैन दर्पण(मा0)जयपुर, अर्थभारती (मा0)पारिकबन्धु (मा0)जयपुर, श्रमणोपासक (बीकानेर), जागती जोत बीकानेर, मधुमती (मा0) उदयपुर, सहकार पथ (मा0) जयपुर, लूर (शोध जनरल) जोधपुर। एक्सीलैंस (अंग्रेजी शिक्षा मा0) भोपाल। निर्मला (मा0) बैंगलोर।
प्रवर्तन: हिन्दी प्रत्रकारिता में निजात्मीय नगर-जन संवाद षैली स्तम्भ का ‘हैलो’ बीकानेर, लगभग 2000 लेखा लेख/कवितायें/ विविध विधाओं में 50 पत्रों में प्रकाशित।
ग्रंथ संपादनः विशाल ग्रंथो का यथा: राजस्थान संगीत: संगीतकार-जयपुर, तत्त्ववेत्ता अभिनन्दन ग्रंथ-जयुपर, आखरबेल, प्रणाम स्मृति ग्रंथ (दिल्ली), वंदन स्मृति ग्रंथ, उदयपुर, ऋषया यतन पुरा गंथ-उदयपुर, सर्व मंगल सर्वदा (बी.के.बिड़ला प्रोजेक्ट) कोलकाता।
प्रकाशित ग्रंथः एक पंख आकाश (हिन्दी मिनि कविता प्रवर्तन कृति-1971 उदयपुर, (2) समाज दर्शन (जैनाचार्य जवाहरलालजी महाराज) बीकानेर, विप्लवी संगीतकार (डॉ.जयचन्द्र षर्मा) बीकानेर, व्यासाय नमोनम्: (रम्मतकार पं. बच्छराज व्यास) बीकानेर, सहकारिता से ग्रामस्वराज्य, सहकारिता से लोकतंत्र, सहकारिता से पंचायत राज, जय सहयोग (हिन्दी गीत), मैं उपस्थित हूँ (हिन्दी काव्य)- प्रकाशनोन्मुख, श्री समुच्चय (समग्र संकलन-वर्गीकरण कार्य जारी)।
राजस्थानी जनकवि अवधारणा-राजस्थानी, मोरपंख (राज.गीत), राजस्थानी पत्रकारिता के उजले आयाम (प्रकाशनाधीन), आखरबेल (राज.काव्य संकलन), लिखी सो सही (आत्म कथा-सृजनाधीन), रंगरेख (राज.रेखाचित्र)-प्रकाशनोन्मुख।
सम्मान: डी. लिट (राज.) आर.डी.एफ. जालोर से, जीनियस एवार्ड (विश्व जौहर न्यूज ऐसो0) उदयपुर (पत्रकारिता चैतन्यपूर्ण लेखन हेतु), महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ (राज. काव्य) सम्मान, राजस्थानी भाषा (शीर्ष प्रदेश स्तरीय) सम्मान जयपुर (राज्यपाल द्वारा), आ0 शिलीमुख हिन्दी सृजन- स्मृति एवार्ड (प्रथम) जयपुर, समताशेखर (जैन यूथ) जयपुर, प्रबोधक (सिद्धान्त शाखा) बीकानेर, सहकार गुरू (राज. शासन) सम्मान जयपुर, साहित्य श्री (जय साहित्य संसद) जयपुर, विशिष्ट साहित्यकार (रा.भा.सा.सं.अकादमी) सम्मान-बीकानेर, जन प्रचेता (बीकानेर संवाद मंच) सम्बोधन-बीकानेर।[end]
[script code: onkar shri]
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
राजस्थानी भाषा - शम्भु चौधरी
राजस्थानी भाषा मान्यता के प्रश्न पर राजस्थान के भीतर पनप रहे विवाद के तह में वहाँ की प्रमुख समस्या राजस्थान की कई बोलियाँ है, जो चाहती है कि राजस्थानी भाषा के रूप में उनके स्वरूप को स्वीकार किया जाय यहाँ पर हम उन बोलियों पर चर्चा करेंगें -
राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ - प्रेम कुमार
भारत के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में कई बोलियाँ बोली जाती हैं। वैसे तो समग्र राजस्थान में हिन्दी बोली का प्रचलन है लेकिन लोक-भाषएँ जन सामान्य पर ज्यादा प्रभाव डालती हैं। जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों के पारस्परिक संयोग एवं सम्बन्धों के विषय में लिखा तथा वर्गीकरण किया है।
ग्रियर्सन का वर्गीकरण इस प्रकार है :-
- १. पश्चिमी राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियाँ - मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढारकी, बीकानेरी, बाँगड़ी, शेखावटी, खेराड़ी, मोड़वाडी, देवड़ावाटी आदि।
- २. उत्तर-पूर्वी राजस्थानीबोलियाँ - अहीरवाटी और मेवाती।
- ३. मध्य-पूर्वी राजस्थानी बोलियाँ - ढूँढाड़ी, तोरावाटी, जैपुरी, काटेड़ा, राजावाटी, अजमेरी, किशनगढ़, नागर चोल, हड़ौती।
- ४. दक्षिण-पूर्वी राजस्थान - रांगड़ी और सोंधवाड़ी
- ५. दक्षिण राजस्थानी बोलियाँ - निमाड़ी आदि।
मोतीलाल मेनारिया के मतानुसार राजस्थान की निम्नलिखित बोलियाँ हैं :-
१. मारवाड़ी २. मेवाड़ी ३. बाँगड़ी ४. ढूँढाड़ी ५. हाड़ौती ६. मेवाती ७. ब्रज ८. मालवी ९. रांगड़ी
बोलियाँ जहाँ बोली जाती हैं :-
- १. मारवाड़ी - जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर व शेखावटी
- २. मेवाड़ी - उदयपुर, भीलवाड़ा व चित्तौड़गढ़
- ३. बाँगड़ी - डूंगरपूर, बाँसवाड़ा, दक्षिण-पश्चिम उदयपुर
- ४. ढूँढाड़ी - जयपुर
- ५. हाड़ौती - कोटा, बूँदी, शाहपुर तथा उदयपुर
- ६. मेवाती - अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली (पूर्वी भाग)
- ७. ब्रज - भरतपुर, दिल्ली व उत्तरप्रदेश की सीमा प्रदेश
- ८. मालवी - झालावाड़, कोटा और प्रतापगढ़
- ९. रांगड़ी - मारवाड़ी व मालवी का सम्मिश्रण
मारवाड़ी : राजस्थान के पश्चिमी भाग में मुख्य रुप से मारवाड़ी बोली सर्वाधिक प्रयुक्त की जाती है। यह जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर और शेखावटी में बोली जाती है। यह शुद्ध रुप से जोधपुर क्षेत्र की बोली है। बाड़मेर, पाली, नागौर और जालौर जिलों में इस बोली का व्यापक प्रभाव है।
मारवाड़ी बोली की कई उप-बोलियाँ भी हैं जिनमें ठटकी, थाली, बीकानेरी, बांगड़ी, शेखावटी, मेवाड़ी, खैराड़ी, सिरोही, गौड़वाडी, नागौरी, देवड़ावाटी आदि प्रमुख हैं। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं। डिंगल साहित्यिक दृष्टि से सम्पन्न बोली है।
मेवाड़ी : यह बोली दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिलों में मुख्य रुप से बोली जाती है। इस बोली में मारवाड़ी के अनेक शब्दों का प्रयोग होता है। केवल ए और औ की ध्वनि के शब्द अधिक प्रयुक्त होते हैं।
बांगड़ी : यह बोली डूंगरपूर व बांसवाड़ा तथा दक्षिणी-पश्चिमी उदयपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बोली जाती हैं। गुजरात की सीमा के समीप के क्षेत्रों में गुजराती-बाँगड़ी बोली का अधिक प्रचलन है। इस बोली की भाषागत विशेषताओं में च, छ, का, स, का है का प्रभाव अधिक है और भूतकाल की सहायक क्रिया था के स्थान पर हतो का प्रयोग किया जाता है।
धड़ौती : इस बोली का प्रयोग झालावाड़, कोटा, बूँदी जिलों तथा उदयपुर के पूर्वी भाग में अधिक होता है।
मेवाती : यह बोली राजस्थान के पूर्वी जिलों मुख्यतः अलवर, भरतपुर, धौलपुर और सवाई माधोपुर की करौली तहसील के पूर्वी भागों में बोली जाती है। जिलों के अन्य शेष भागों में बृज भाषा और बांगड़ी का मिश्रित रुप प्रचलन में है। मेवाती में कर्मकारक में लू विभक्ति एवं भूतकाल में हा, हो, ही सहायक क्रिया का प्रयोग होता है।
बृज : उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे भरतपुर, धौलपुर और अलवर जिलों में यह बोली अधिक प्रचलित है।
मालवी : झालावाड़, कोटा और प्रतापगढ़ जिलों में मालवी बोली का प्रचलन है। यह भाग मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के समीप है।
रांगड़ी : राजपूतों में प्रचलित मारवाड़ी और मालवी के सम्मिश्रण से बनी यह बोली राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग में बोली जाती है।
ढूँढाती : राजस्थान के मध्य-पूर्व भाग में मुख्य रुप से जयपुर, किशनगढ़, अजमेर, टौंक के
समीपवर्ती क्षेत्रों में ढूँढ़ाड़ी भाषा बोली जाती है। इसका प्रमुख उप-बोलियों में हाड़ौती, किशनगढ़ी, तोरावाटी, राजावाटी, अजमेरी, चौरासी, नागर, चौल आदि प्रमुख हैं। इस बोली में वर्तमान काल में छी, द्वौ, है आदि शब्दों का प्रयोग अधिक होता है।
राजस्थानी भाषा की समस्या इसकी लिपि
वैसे तो देवनागरी लिपि का इस्तमाल इन दिनों राजस्थानी भाषा को लिखने के लिए प्रयोग में लिया जाने लगा है, फिर भी इसकी प्रचीन लिपी हमें श्री हनुमंत राजपुरोहित के प्रयासों से उपलब्ध हुई है जिसे हम यहाँ पर प्रस्तुत कर रहें हैं। राजस्थानी भाषा को संविधान की सूची में शामिल हो यह सब चाहते हैं पर इसकी समस्या राजस्थान की है न कि संसद की।
साभार: Anshuman Pandey University of Michigan, Ann Arbor, Michigan, U.S.A. e-mail: pandey@umich.edu |
रविवार, 16 नवंबर 2008
डॉ.गुलाबचंद कोटड़िया की कविताएँ
डॉ.गुलाबचंद कोटड़िया का जन्म 07 अगस्त 19935 लोहावट गांव जिला जोधपुर (राजस्थान) में हुआ । आपकी शिक्षा: अजमेरे इंटर, विशारद (बी.ए.हिन्दी)
आपकी अबतक निम्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
पाँच हिन्दी कहानी संग्रह
1. रो मत अक्कल बाई 2. बाई तूं क्यों आई? 3. भावनाओं का खेल 4. विधि का विधान 5. जंग खाए लोग
पाँच हिन्दी कविता संग्रह
संवेदना के स्वर, ठूंठ की आशीष, मिट्ती के रंग हज़ार, रहुँ न रहुँ और रेत की पीड़ा
एक राजस्थानी कविता संग्रह: देश री सान-राजस्थान
एक राजस्थानी कहानी संग्रह: थोड़ा सो सुख
छह बाल साहित्य की पुस्तकें:
101 प्रेरक प्रसंग, 101 प्रेरक कथाएं, 101प्रेरक पुंज, प्रेरणा दीप, 101 प्रेरक बोध कथाएं और 101 प्रेरेक कहानियां
तीन निबन्ध संग्रह:
घूमता आईना, जीवन मूल्य और दाम्पत्य ज्यामिति (शीघ्र प्रकाश्य)
आकाशवाणी चेन्नई एवं दिल्ली से रचनाएं प्रसारित। दूरदर्शन मैट्रो से स्वलिखित नाटक में अभिनय। सौ से अधिक काहानियां व लगभग 750 लेख, कविताएंविभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
सम्मान:
साउथ चक्र, राजस्थानी एसोसियशन तमिलनाडु द्वारा 'राजस्थान श्री', तमिलनाडु हिंदी अकादमी, भारती भूषण, रामवृ्क्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी सम्मन, हिंदी सेवी सम्मन, साहित्यानुशीलन समिति राजस्थानी भाषा में डी.आर.लिट्, सुभद्राकुमारी चौहान जन्म शताब्दी सम्मन, भाषा रत्न सम्मन, साहित्य महोपाध्याय, भारती भूषण एवं अन्य कई सम्मान।
संप्रति: स्वतंत्र लेखन
पता: 469, मिंट स्ट्रीट, चेन्नई- 600079. फोन: 044-25203036
इनकी दो कविताएँ:
बूंद
बूंद
गिरी धरती पर
सौख़ ली गई
मानव पर पोंछ ली गई
समुन्दर में लुप्त हो गई
पेड़ पौधों की जड़ों में
जीवन दायिनी बन गई।
पत्ते पर गिरी
थोड़ी देर मोती सी चमकी
सूर्य की गरमी से
वाष्प बन उड़ गई।
एक बूंद विष मृत्यु की गोद में सुला देती है,
एक बूंद अमृत अमर बना देती है,
यह भी किसी ने नहीं जाना
बूंद को किसी ने
महत्व नहीं दिया,
वह क्रंदन कर उठी
लोग क्यों नहीं
कहतें हैं वह महान है।
बूंद बूंद घड़ा भरता है
क्या वे उससे भी अनजान हैं?
अग्नि नक्षत्र
तमिलनाडु में व
दक्षिणी प्रदेशों में
ग्रीष्म ऋतु में
एक महीना अग्नि नक्षत्र
प्रति वर्ष लगता है।
लगता तो पूरे भारत में होगा
परन्तु अहम् खास यहीं पा गया।
झूलसते हैं लोग
उनके जीव फड़फड़ाते हैं
भूमि, जीव-जन्तु, घास, पेड़,
पशु-पक्षी, उस महीने में
त्रस्त हो जाते हैं भयंकर
गर्मी से तोबा-तोबा कर उठते हैं।
पशु पक्षियों को तो छाया भी
विश्राम हेतु मिल जाती है
दैनिक मजदूरों को भरगर्मी में
पसीने में सराबोर होते हुए
काम करना ही होता है
जिनके पास
खाने को सुबह है तो शाम नहीं
उनके लिए अग्नि नक्षत्र का
कोई महत्व नहीं होता
होता है तो भी मजबूर है
हाँ धनी संपन्न लोग
सुविधा प्राप्त होने के कारण
एयरकंडीशनर कमरों में दुबक जाते हैं
ठंढे की तरह।
स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया
महाकवि का महाप्रयाण: पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया नहीं रहे |
धरती धोरां री ! आ तो सुरगां नै सरमावै, ईं पर देव रमण नै आवै, ईं रो जस नर नारी गावै, धरती धोरां री ! सूरज कण कण नै चमकावै, चन्दो इमरत रस बरसावै, तारा निछरावल कर ज्यावै, धरती धोरां री ! काळा बादलिया घहरावै, बिरखा घूघरिया घमकावै, बिजली डरती ओला खावै, धरती धोरां री ! | अपनी श्रद्धांजलि यहाँ पर दें | लुळ लुळ बाजरियो लैरावै, मक्की झालो दे’र बुलावै, कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै, धरती धोरां री ! पंछी मधरा मधरा बोलै, मिसरी मीठै सुर स्यूं घोलै, झीणूं बायरियो पंपोळै, धरती धोरां री ! नारा नागौरी हिद ताता, मदुआ ऊंट अणूंता खाथा ! ईं रै घोड़ां री के बातां ? धरती धोरां री ! |
प्रकाश चंडालिया और शम्भु चौधरी द्वारा
आप हमें अपने संस्मरण ईमेल या डाक से भेज सकते हैं जो इसी अंक में जोड़ दिये जायेगें।
ehindisahitya@gmail.com
Shambhu Choudhary, Editor: Katha-Vyatha, FD-453, Salt Lake City, Kolkata-700106
कोलकाता 11 नवम्बर'2008 , मंगलवार;
हिन्दी और राजस्थानी भाषा के लब्ध प्रतिष्ठित कवि श्री कन्हैयालाल सेठिया आज मौन हो गए। वे ९० वर्ष के थे। भारत सरकार ने साहित्य के क्षेत्र में उनके अवदानों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा था। सेठियाजी के निधन पर देश भर से शोक संवाद प्राप्त हो रहे हैं। पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत, राजस्थान की मुख्या मंत्री वसुंधरा राजे ने अपने संदेशों में सेठिया जी के साहित्यिक अवदानों के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर उनके कार्यों को मील का पत्थर कहा है। व्यापारिक घराने से होने के बावजूद श्री सेठिया ने कभी भी साहित्य के साथ समझौता नही किया। उनका जन्म राजस्थान के सुजानगढ़ में ११ सितम्बर १९१९ को हुआ था। उनके पिता का नाम छगनमल सेठिया और माता का नाम मनोहारी देवी सेठिया था। सेठिया जी की प्रारम्भिक पढ़ाई कलकत्ता में हुई। स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने के कारण कुछ समय के लिए आपकी शिक्षा बाधित हुई, लेकिन बाद में आपने राजस्थान विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। दर्शन, राजनीती और साहित्य आपका प्रिय विषय था। राजस्थान में सामंतवाद के ख़िलाफ़ आपने जबरदस्त मुहीम चलायी और पिछड़े वर्ग को आगे लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय आप कराची में थे। १९४३ में सेठियाजी, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आए। सेठियाजी को ज्ञानपीठ की ओर से मूर्तिदेवी साहित्य पुरास्कार १९८८ में दिया गया। उसके बाद आपकी विविध कृतियों के लिए साहित्य अकादमी सहित देश की असंख्य संस्थाओं ने सम्मानित किया।
सेठिया जी की अमर कृतियों में धरती धोरा री राजस्थान का वंदना गीत है, जो करोड़ों राजस्थानी लोगों के ह्रदय की आवाज है। राणाप्रताप पर उनकी लिखी कविता- पातल'र पीथल काफ़ी लोकप्रिय रही। 'कुन जमीं रो धनि' जैसी सैकड़ों कविताओं के मध्यम से सेठिया जी ने आम आदमी के उत्थान का कार्य किया।
अपनी श्रद्धांजलि यहाँ पर दें
मनीषी, कर्म-प्रतिभा एवं संवेदनशीलता की त्रिवेणी के साकार प्रतीक
मंगलवार 11 नवम्बर 2008; कोलकाता: 89 वर्षिय महामनीषी पद्मश्री श्री कन्हैयालाल सेठिया का आज सुबह निधन हो गया। अपने पीछे पत्नी धापू देवी, पुत्र जयप्रकाश, विनय प्रकाश, पुत्री संपत दूगड़ पौत्र-पौत्रि सहित भरा पूरा परिवार छोड़ गये। 2004 में पद्मश्री से सम्मानित श्री सेठिया के अंतिम दर्शन को सारा साहित्य जगत उमड़ पड़ा। श्री हरीश भादानी अपनी अस्वस्थता के बावजूद नीमतल्ला घाट पहूँच कर श्री सेठियाजी के पार्थीव शरीर को पुष्पमाला अर्पित की। इनकी मृत्यु पर भारतीय भाषा परिषद के निदेशक श्री विजय बहादुर सिंह ने कहा कि इनके जाने से राजस्थानी और हिन्दी साहित्य जगत को भारी क्षति हुई है।
मनीषी, कर्म-प्रतिभा एवं संवेदनशीलता की त्रिवेणी के साकार प्रतीक, करोड़ों राजस्थानियों की धड़कनों के प्रतिनिधि गीत ‘धरती धौरां री’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ के यशस्वी रचियता, श्री कन्हैयालाल सेठिया का जन्म 11 सितम्बर 1919 ई0 को राजस्थान के सुजानगढ़ शहर में एक सुप्रसिद्ध व्यवसायी परिवार में हुआ था । माता श्रीमती मनोहरी देवी व पिता छगनमल जी दोनों ही शिक्षाप्रमी थे । महाकवि श्री सेठिया जी का विवाह लाडनू के चोरड़िया परिवार में श्रीमती धापूदेवी के साथ सन् 1939 ई0 में हुआ । आपके परिवार में दादाश्री स्वनामधन्य स्व.रूपचन्द सेठिया का तेरापंथी ओसवाल समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। इनको श्रावकश्रेष्ठी के नाम से संबोधित किया जाता है। श्री जयप्रकश सेठिया इनके बड़े पुत्र हैं, छोटे पुत्र का नाम श्री विनय प्रकाश सेठिया है और एक सुपुत्री सम्पतदेवी दूगड़ है ।
जब आप आठ वर्ष के थे, तभी से पद्य-रचना करने लगे । उस समय इनकी कविता का विषय भारत के स्वाधीनता-संग्राम से जुड़े लोगों की गौरवगाथा लिखना था । इनकी पहली कृति राजस्थानी में ‘रमणिये रा सोरठा’ 1940 में प्रकाशित हुई । हिन्दी की प्रथम कृति ‘वनफूल’ भी इसके बाद 1941 में प्रकाशित हुई । उसकी भूमिका डॉ.हरिवंश राय ‘बच्चन’ ने लिखी थी । तब से अब तक कवि चिन्तक, दार्शनिक सेठियाजी अनवरत लिखते रहे हैं । आपकी दो दर्जन से अधिक काव्य-रचनाओं में प्रमुख हैं-हिन्दी काव्य
कृतियाँ ‘वनफूल’, ‘मेरायुग’, ‘अग्निवीणा’, ‘प्रतिबिम्ब’, ‘अनाम’, ‘निर्गन्थ’, ‘दीपकिरण’, ‘मर्म’, ‘आज हिमालय बोला’, ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते’, ‘प्रणाम’, ‘त्रयी’ आदि और राजस्थानी काव्य-कृतियाँ हैं- ‘मींझर’, ‘गळगचिया’, ‘रमणिये रा सोरठा’, ‘धर कूंचा धर मजलाँ’, ‘कूँ कूँ’, ‘लीलटांस’ आदि ।श्री सेठिया जी के साथ लेखक शम्भु चौधरी
1942 में जब गांधीजी ने ‘करो या मरो’ का आह्नान किया, तब इनकी कृति ‘अग्निवीणा’ प्रकाशित हुई । जिस पर बीकानेर राज्य में इनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चला और बाद में राजस्थान सरकार ने आपको स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी के रूप में सम्मानित भी किया । महात्मा गांधीजी की मृत्यु पर भी आपकी एक कृति प्रकाशित हुई थी । इसमें देश बंटवारे के दौरान हुई लोमहर्षक व वीभत्स घटनाओं से जुड़ी रचनाएं संग्रहीत हैं । इसके बाद 1962 में हिन्दी-कृति ‘प्रतिबिम्ब’ का प्रकाशन हुआ । इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है । इसकी भूमिका हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने लिखी है ।
आपकी ‘लीलटांस’ को 1976 में साहित्य अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा की उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत किया गया एवं ‘निर्ग्रन्थ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला । 1987 में आपकी राजस्थानी कृति ‘सबद’ पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च ‘सूर्यमल्ल मिश्रण शिखर पुरस्कार’ प्राप्त हुआ । सन् 2004 में आपको ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया । आपके समस्त साहित्य को ‘राजस्थान परिषद’ ने चार खंडों में ‘समग्र’ के रूप में प्रकाशित किया है । एक खंड में राजस्थानी की 14 पुस्तकें, दो खंडो में हिन्दी एवं उर्दू की 20 पुस्तकें समाहित हैं । चौथा खंड इनके 9 ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद का है जिसमें मूल पाठ भी साथ है ।
श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्षों से ज्यादा समय से बंगाल में है । पहले इनका परिवार 199/1 हरीसन रोड में रहा करता था । सन् 1973 से सेठियाजी का परिवार भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20 के प्रथम तल्ले में निवास कर रहा है। ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित।
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इनकी दो अमर रचना
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स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया की कालजयी रचनायें
कन्हैयालाल सेठिया ११ सितम्बर १९१९ : ११ नवम्बर 2008 |
आज हिमालय बोला
जागो, जीवन के अभिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
लील रहा मधु-ऋतु को पतझर,
मरण आ रहा आज चरण धर,
कुचल रहा कलि-कुसुम,
कर रहा अपनी ही मनमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
साँसों में उस के है खर दव,
पद चापों में झंझा का रव,
आज रक्त के अश्रु रो रही-
निष्ठुर हृदय हिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
हुआ हँस से हीन मानसर,
वज्र गिर रहे हैं अलका पर,
भरो वक्रता आज भौंह में,
ओ करुणा के दानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
कुँआरी मुट्ठी !
युद्ध नहीं है नाश मात्र ही
युद्ध स्वयं निर्माता है,
लड़ा न जिस ने युद्ध राष्ट्र वह
कच्चा ही रह जाता है,
नहीं तिलक के योग्य शीश वह
जिस पर हुआ प्रहार नहीं,
रही कुँआरी मुट्ठी वह जो
पकड़ सकी तलवार नहीं,
हुए न शत-शत घाव देह पर
तो फिर कैसा साँगा है?
माँ का दूध लजाया उसने
केवल मिट्टी राँगा है,
राष्ट्र वही चमका है जिसने
रण का आतप झेला है,
लिये हाथ में शीश, समर में
जो मस्ती से खेला है,
उन के ही आदर्श बचे हैं
पूछ हुई विश्वासों की,
धरा दबी केतन छू आये
ऊँचाई आकाशों की,
ढालों भालों वाले घर ही
गौतम जनमा करते हैं,
दीन-हीन कायर क्लीवों में
कब अवतार उतरते हैं?
नहीं हार कर किन्तु विजय के
बाद अशोक बदलते हैं
निर्दयता के कड़े ठूँठ से
करुणा के फल फलते हैं,
बल पौरुष के बिना शन्ति का
नारा केवल सपना है,
शन्ति वही रख सकते जिनके
कफन साथ में अपना है,
उठो, न मूंदो कान आज तो
नग्न यथार्थ पुकार रहा,
अपने तीखे बाण टटोलो
बैरी धनु टंकार रहा।
श्री कन्हैयालाल सेठियाः क्रान्तिकारी और परिवर्तनशील युग के साक्षी
स्वतंत्रता-संग्रामी व क्रान्तिकारी: पद्मश्री श्री कन्हैयालाल सेठिया भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम से उत्प्रेरित गांधीयुग की एक उपलब्धि हैं, जो न सिर्फ क्रान्तिकारी और परिवर्तनशील युग के साक्षी रहे हैं वरन् क्रान्तिचेत्ता के रूप में दिशा-दर्षक भी रहे हैं। श्री सेठिया राजस्थान के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और लोकनायक श्री जयनारायण व्यास, श्री सुमनेश जोशी, श्री रघुवर दयाल गोयल, श्री गौरीशंकर आचार्य आदि अनेक राष्ट्र-सेवियों के सहकर्मी रहे हैं। आपने समाज की जर्जर रूढ़ियों से बगावत करते हुए क्रान्तिकारी वातावरण का निर्माण किया और आवश्यकता हुई, वहाँ संघर्ष भी किया । प्रारम्भ में आपने आजादी के पूर्व और पश्चात् राजनैतिक क्षेत्र में भी सक्रिय रूप में कार्य किया था । राजनीति से सन्यास ग्रहण कर अपना जीवन सामाजिक सुधार के कार्यों, लोकसेवा, साहित्य-संरचना, काव्य-रचना, राजस्थानी भाषा के विकास- प्रसार व उसकी मान्यता हेतु समर्पित कर दिया । वे व्यापारिक झंझटों से परे एक सामाजिक संत हैं । देश व मातृभूमि को समर्पित हैं । ऐसा उदाहरण अन्य राजनीतिज्ञ का पद्मश्री शायद ही मिले! दलितोत्थान के क्षेत्र में सेठियाजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आपके व्यक्तित्व की एक विशेषता रही कि आप में कभी किसी संस्था का मोह व्याप्त नहीं हुआ । आप परिग्रह प्रकृति से कोसों दूर रहे। आप दलितों के मसीहा तथा असहायों के सहायक हैं । आपकी कथनी एवं करनी में कभी भी कोई अन्तर नहीं रहा । धर्म, जाति, समुदाय का बिना ख्याल किए आप सदा पीड़ित मानव मात्र की सेवा में लगे रहे। इस सेवा-कार्य में आप अपनी साधन-सुविधा को भी भूल जाते, खान-पान, रहन-सहन का दुराव भी इनके व्यवहार में कभी नहीं रहा। कार्यक्षेत्र में वे खूब पैदल घूमे और बाजरे की रूखी रोटी, लाल मिर्च के साथ प्रेम से खाई। आप सदा सेवा और सेवक की एकरूपता में रहे। सेवा-कार्य में तल्लीनता, सेवापरायणता, निःस्वार्थ भाव इनकी विशेषता है। इसी कारण खान-पान, रहन-सहन असुविधा का ध्यान भी नहीं रहता था, जो जैसा था, उसी में रस लेते रहे। इसी का परिणाम था कि किसानों, मजदूरों, हरिजनों में खूब लोकप्रिय रहे। आप एक स्वाभिमानी पर संकोची व्यक्ति हैं। आपका व्यक्तित्व अपनत्व से भरा है। इसलिए सब इनके अपने हैं। कहीं दुराव, छलाव, अभिमान नहीं है। गांधीजी के जीवन-दर्शन और इनके विचारों में बहु साम्य है। जो भी इनके सम्पर्क में आया, सीधे या इनके द्वारा रचित पुस्तकों के माध्यम से, वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। उसके हृदय-पटल पर इनके प्रकाण्ड व्यक्तित्व की एक अटल छवि अवश्य अंकित हो गई। इनका व्यक्तित्व ही निराला है जिसे बहुआयामी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्री सेठियाजी समय-समय पर धर्मान्धता, कुपरम्परा एवं कुरीति पर तीव्र प्रहार कर धर्म के मूल स्वरूप को आत्मसात करने की सदैव प्रेरणा देते रहते हैं। निष्काम सेवाभावी कार्यकत्र्ताओं के लिए तो आप एक आलोक स्तम्भ ही हैं। सामाजिक रूप से भी आप अत्यंत जागरूक हैं। समाज में बढ़ रही कुरीतियों को आप तत्काल समाप्त किए जाने के पक्षधर हैं आपका मानना है कि अगर इन बढ़ती कुरीतियों को रोका न गया तो राजस्थान की महान परंपरा, संस्कार और गौरव हमेशा-हमेशा के लिए कालकवलित हो जायगा। आप सर्व-धर्म समन्वय की जीवन्त मूर्ति हैं और साथ ही भगवान महावीर के महान् सिद्धान्त ‘‘अपरिग्रह’’ में अटूट निष्ठा रखने वाले महान ऋषि भी।
लोक प्रचेताः श्री सेठिया जी आधुनिक राजस्थान के उन साहित्यवेत्ताओं में हैं, जिन्होंने अपने कवित्व से राजस्थानी साहित्य को न सिर्फ प्रकाशमान किया है, वरन् गौरवन्वित भी किया है। जिन्होंने परिवर्तनशील युग की धारा को काव्यगंगा से प्रवाहित कर राजस्थान के लोकजीवन को उद्बोधित किया। इनके द्वारा रचित युग निर्माणकारी साहित्य इसका ज्वलन्त प्रमाण है। एक तरफ आप जहाँ हिन्दी-जगत के जाज्वल्यमान कवि हैं, वहीं आप राजस्थानी साहित्य के लोक प्रचेता भी। श्री सेठियाजी सुजानगढ़ में जन्मे, राजस्थान में बढ़े कोलकात्ता को अपनाया, आपका कार्यक्षेत्र सुजानगढ़ और राजस्थान से अधिक कलकत्ता हो गया है। सुजानगढ़ तहसील चुरू जिला व बीकानेर संभाग एवं फिर राजस्थान की राजनैतिक गतिविधियों में आजादी के पहले व बाद के वर्षों में अपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बीकानेर संभाग ही नहीं, राजस्थान के विकास हेतु कलकत्ता में बैठे-बैठे वे बराबर चिंतित रहते हैं और अनेक बिन्दुओं पर नेताओं, मंत्रियों व जन प्रतिनिधियों से पत्राचार द्वारा व प्रत्यक्ष में वार्ता करके प्रयास करते रहे हैं।
राजस्थानी भाषा: राजस्थानी भाषा और संस्कृति भारतीय राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण अंग बने, इस आवाज को सशक्त रूप से बुलन्द करने का प्रथम श्रेय इन्ही को जाता है। राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता दिलाने के लिए बहुत कम लोगों ने ईमानदारी से गंभीरता दिखाई। न देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाले प्रवासी राजस्थानियों ने और न राजस्थान के नागरिकों ने। कई बार यह सुनने को मिलता है कि राजस्थान में किसी वर्ग विशेष ने राजस्थानी को मान्यता देने का विरोध किया है। इस परिस्थिति में गहरी वेदना होती है और सेठियाजी की ये पंक्तियां सहज ही ध्यान में आ जाती हैः
‘‘मायड़ भाषा बोलतां जिणनैं आवै लाज ।
इस्या कपूतां सैं दुखी आखों देस-समाज ।’’
‘‘मायड़ भासा’’ के प्रति ऐसी तड़प बहुत कम लोगों में है । कुछ लोगों को इनकी इस तड़प से कई बार अरुचि भी होने लगती है लेकिन वे यह अलख......
‘‘बिन भाषा बिन पाणी, बिलखै राजस्थानी’’
निरंतर और बेहिचक अलापते रहते हैं। इसके लिए पत्राचार, फैक्स, तार का एक बड़ा जखीरा इनके पास है । एक बार तो इन्होंने राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने की मांग को लेकर अनशन करने की धमकी राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत को दे दी थी।
काव्ययात्राः इसमें कोई दो मत नहीं कि श्री सेठियाजी की साहित्य-यात्रा राजस्थानी साहित्य के विकास को भी प्रतिबिंबित करती है। उनकी रचनाएं बताती हैं कि राजस्थानी का साहित्य धीरे-धीरे गंभीर हो रहा है, उसका दायरा व्यापक हो रहा और समाज की नवीनताओं को उसी तरह आत्मसात कर रहा है । आपकी काव्ययात्रा, युवा अवस्था में लिखे गीत और काव्य जनभाषा और जन-आन्दोलनों से जुड़े हुऐ हैं। उस वक्त सेठियाजी ने धरती, किसान, मजदूर, ऐतिहासिक वीरों, देशभक्तों, जन-नेताओं और देशाभिमान के गीत लिखे और गाये ।
कई लोग इनसे वैचारिक स्तर पर एकमत न होते हुए भी इनकी काव्य-शैली से अति प्रभावित रहते हैं। क्योंकि इस अणु युग में इनके द्वारा शब्दों का चुनाव बड़ा ही कौशलपूर्ण व मार्मिक है। प्रत्येक शब्द मानस पर एक रंगीन रेखाचित्र खींच, अपनी अमिट छाप छोड़ देता है। स्वभाव से श्री सेठियाजी बहुत संवेदनशील और भाव प्रवण व्यक्ति हैं। मानवमात्र का उत्पीड़न, शोषण, उपेक्षा और अनादर इनके संवेदनशील हृदय को झकझोर देता है। उनकी भावनाओं के उद्वेग ने ही शायद इनको कवि का हृदय दिया। गद्य और पद्य में इनकी अभिव्यक्ति समान रूप से प्रभावपूर्ण रही है।
श्री सेठियाजी को अपनी मातृभाषा राजस्थानी और मातृभूमि अभावों से पीड़ित रेतीले धोरों की धरती से असीम प्यार है। वह उनकी प्रेरणा का आधार रही हैं। कई काव्य-रचनाएँ और ‘धरती धोरां री’ का अमर गान इसका प्रतीक है। श्री सेठियाजी राजस्थानी और हिन्दी के उच्चकोटि के कवि और साहित्यकार हैं। साहित्य की कई विधाओं में इन्होंने उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ की हैं। इनके साहित्य में गंभीर भाव-प्रवणता, उच्चकोटि की अभिव्यक्ति एवं उत्कृष्ट रचना कौशल है। इनकी रचनाएँ व्यक्ति के मानस एवं विचारों को छूती हैं ।
‘धरती धोरां री’, इसे बहुत से व्यक्ति एक अमर रचना मानते है, वस्तुतः ऐसा ही नहीं यह तो राष्ट्र गान है। ‘पातल और पीथल’ मरुभूमि के दुरूह जीवन, राजपूताने के शौर्य एवम् बलिदान, वहां के कण-कण में बिखरे सौन्दर्य की प्रखर वाणी है। ‘धरती धोरां री’ ऐसी वाणी जिसे सुन सार्थकता पाई कृष्ण के रंग में रंगी मीरा ने, धधकती ज्वाला का वरण करने वाली पद्मिनियों ने, पत्थरों में प्राण फूंक देने वाले शिल्पियों ने, ढोला मारू ने और संभवतः यही कारण है कि शहरों, नगरों को छोड़ राजस्थानी की ढाणी-ढाणी में अंकित है, महाकवि कन्हैयालाल सेठिया जी का नाम, कभी-कभी तो इन पंक्तियों को देख ऐसा लगता ही नहीं है कि ये मानव रचित है बल्कि आभास होता है मानों स्वयं माँ शारदे ने वरण किया हो सेठियाजी को, कुछ अनछुई भावाभिव्यक्तियों हेतु !
सेठियाजी की हर पंक्ति में एक ईमानदार दिल धड़कता है जिसमें किसी दूसरे की खुशी और उसके सपने शामिल होते हैं, जो कि दर्द को बांट सके ।
सभी साहित्यकार, पत्रकार, राजस्थानी उद्यमी और प्रवासी राजस्थानी सेठियाजी को अपने-अपने दृष्टिकोण से भले ही देखते हों लेकिन इस बारे में सभी एकमत हैं कि वे अकेले ही राजस्थानी की तुरही तड़प के साथ बजाते हैं ।
काव्य-मनीषी, साहित्य-मर्मज्ञ, दार्शनिक, सामाजिक कार्यकत्र्ता, संस्कृति के पोषक श्री सेठियाजी समाज, संस्कृति व मातृभूमि को समर्पित हैं । वे आज इस उम्र व अवस्था में भी आशा से अधिक सक्रिय और कर्मठ हैं।
आप राजस्थानी (अपनी मातृभाषा) बोलना गौरव समझते है और प्रत्येक को इसी भाषा में बोलने पर जोर व प्रेरणा देते हैं। ऐसे हैं श्री सेठियाजी राजस्थानी धरती के सपूत, जिन्हें अपनी संस्कृति, भाषा, मातृभूमि व देश पर नाज है। राजस्थानी भाषा में उन्होंने काफी काव्य-रचनाएँ की हैं जो एक से एक बढ़कर हैं । इनकी कोई भी कविता या गीत को ले लीजिए, प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहेगी । इनमें सरस्वतीजी विराजमान हैं, जिन्होंने आपको महाकवि बना दिया । ‘‘धरती धोरां री’’ इनके यौवनकाल में ही अमर हो चुका था यदि माने तो आज यह गीत लोकगीत का स्थान ग्रहण कर चुका है, जो घर-घर में, समारोह-समारोह में गुनगुनाया व गौरव से गाया जाता है और विशेषता यह कि इसके रचीयता श्री सेठियाजी का नाम भी साथ-साथ सबकी जबान पर चढ़ चुका है। ऐसा सम्मान दुष्कर है जो श्री सेठियाजी को प्राप्त हुआ है। आप धन्य हैं। ‘‘धरती धोरां री’’ में जो राजस्थान का सरस गौरवशाली वर्णन, कल्पना, भाव, आनन्द व रस तथा अलंकारिता है वह आज तक किसी अन्य गीत में सुनने को नहीं मिला । प्रत्येक राजस्थानी इनके इस गीत पर गर्व करता है, सिर्फ राजस्थानी ही क्यों, अन्य प्रदेशवाले भी जब इस सुरीले गीत को सुनते हैं वे इसके भावों में खो जाते हैं, वे ईर्ष्या करने लगते हैं कि ऐसा सुन्दर वर्णन उनके प्रदेश के गीतों में क्यों नहीं हुआ? उपरोक्त गीत को श्रवण करने से मन में शान्ति व प्रसन्नता की ऐसी लहर दौड़ जाती है कि ‘मरुधर’ देश देव-रमण का स्थान व सिरमौर लगने लगता है। यह अकेला ही ऐसा उदाहरण नहीं है जो श्री सेठियाजी को अमर बना देगा - न जाने इनके कितने ही गीत व गद्य, कविताएँ आदि पुस्तकों में प्रकाशित हुई हैं जो जन-जन को सदा याद रहेंगी। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम को लक्ष्य करते हुए उनकी काव्य-रचना ‘‘पातल और पीथल’’ भी एक ऐसी ही मौलिक कृति है जो एक बार सुनने पर बार-बार सुनने को जी करता है । उनकी काव्य-प्रतिभा, प्रकाण्डता निराली, सौम्य, सटीक व ऐसी गरिमा-मण्डित है जो इन्हें महाकवि बना देती है । इन्होंने राजस्थानी, हिन्दी व उर्दू भाषा (जिसका आपने कभी अध्ययन नहीं किया) में उच्चकोटि की काव्य-रचनाएँ की हैं। इनकी गद्य-रचना भी उत्तम साहित्यिक होते हुए भी नैतिक सन्देश देती हैं। आप उच्चकोटि के गद्यकार व साहित्यकार हैं। आधुनिकता की अंधी होड़ से आपने कभी समझौता नहीं किया और यह छाप इनकी रचनाओं में भी स्पष्टतया उजागर होती है।
महामनीषी: महामनीषी सेठियाजी अध्यात्म के मूर्त रूप हैं। आपके हृदय की धड़कन अध्यात्म की धड़कन है। आपके उर्ध्वमुखी चिन्तन में जीवन को समझने का विशेष दृष्टिकोण है। भोग नहीं, त्याग की चिंतनशीलता है। सहिष्णुता की मूर्ति महामनीषी पद्मश्री श्री सेठियाजी के व्यक्तित्व की, चिन्तन की गहराई, उन्मुक्तता, विचारों का खुलापन, भाषा की प्रांजलता, वर्णन शैली की स्पष्टता, आचार की सरलता, अकृत्रिम मुस्कुराहट एवं सहज स्नेहिल मुखाकृति हम सबको आकृष्ट एवं प्रभावित करती है । इनके गीतों में राजस्थान के पशु-पक्षी, निर्झर, राजपथ, पहाड़ सभी जैसे बोलते हैं। वह स्वभावतः कवि हैं और न केवल राजस्थानी को अपितु समस्त हिन्दी साहित्य को भी उन पर गर्व है ।
आपके गहन चिंतन और अद्भुत रचना कौशल का प्रमाण हैं आपकी कविताएँ । जहाँ विद्वानों और समालोचकों को प्रभावित करती हैं, वहीं जन-सामान्य के बीच इनकी लोकप्रियता बेमिशाल है ।
श्री सेठियाजी वसुधैवकुटुम्बकम् की भावना से विश्व के कल्याण की चिन्ता रखते हैं । राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत श्री सेठियाजी गृहस्थ में होते हुए भी ऋषि की तरह सादगी के साथ सदा सार्वजनिक प्रवृत्तियों व कार्यों मे लगे रह हैं।
श्री सेठियाजी साहित्य-मनीषी के रूप में देश मे सर्वत्र जाने जाते हैं। राजस्थान व प्रवासी राजस्थानियों में इनका नाम बड़े सम्मान व आदर से लिया जाता है। गोधन की रक्षा, अकाल निवारण, कला व संस्कृति, संगीत व रगमंचीय प्रवृत्तियों, पत्रकारिता, संस्थाओं के गठन व विकास- सब में आप समर्पित भाव से योग देते रहे हैं। आप एक अच्छे ओजस्वी वक्ता व चिंतक हैं।
वणिक परिवार में जन्म लेकर भी आप प्रारंभ से ही सार्वजनिक व लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में तथा साहित्य सृजन में लगे रहकर व्यापार से दूर रहे। साधक की तरह जीने वाले श्री सेठियाजी हर एक को सदा सुलभ रहते हैं और हर एक को देशहित व सामाजिक कार्यों में लगे रहने व सृजन की प्रेरणा उनसे मिलती रहती है। भारतीय ज्ञानपीठ एवं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, राजस्थानी भाषा-साहित्य व संस्कृति अकादमी एवं अन्य अनेक संस्थाओं द्वारा पुरस्कारों से आपको सम्मानित किया जा चुका है।
इनके साहित्य की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन्होंने अपने साहित्य में समाज के वास्तविक स्वरूप का चित्रांकन निष्पक्ष रूप से किया है। श्री सेठियाजी ने राजस्थानी भाषा के साथ ही हिन्दी भाषा को भी अपने साहित्य का आधार बनाया है। राजस्थानी भाषा को अपना गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कराने में श्री सेठियाजी की सफल भूमिका रही है।
सेठियाजी का व्यक्तित्व एक ऐसा चुम्बकीय व्यक्तित्व है कि जो भी इनके निकट आता है, इनसे आकर्षित हुए बिना नहीं रहता । सरलता, सहृदयता तथा निश्छलता की वे जीवन्त प्रतिमूर्ति हैं । निर्भीकता, स्पष्टता एवं अनाग्रहता ने इनके व्यक्तित्व को जो उदारता प्रदान की है, वह अन्यत्र विरल है। अनेक उदीयमान एवं प्रतिभा सम्पन्न कवि इनसे प्रेरणा पाकर अपने को धन्य-धन्य तथा कृतकृत्य मानते हैं।
एक स्वर मेरा मिला लो: कृष्ण प्रेम में पगी मीरां ने तो घुँघरू बाँध अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति दे दी लेकिन जिस माटी को उसने ललाट पर लगाया, उसके दर्द की कौन कहे? पद्मिनी ने तो जौहर का आलिंगन कर अपनी अस्मत, अपनी मर्यादा बचा ली, लेकिन उसकी माटी की अस्मिता की बात कौन कहे? रण बाँकुरे साँगा, बलिदानों के पुरोधा प्रताप ने आक्रान्ताओं से तो अपना लोहा मनवा लिया मगर उनकी माटी के शौर्य की गाथा जन-जन तक कौन कहे? ढोला मरवण, पातल-पीथल, अगणित इतिहास पुरुषों की इस रत्न प्रसू मरुधरा को पहली बार मुखरित किया महाकवि ने, इससे पहले तो राजस्थान को केवल बालू के टीलों और रेत के अनन्त विस्तार के रूप में या फिर ज्यादा से ज्यादा पश्चिमी सीमान्त के सजग व प्रबल प्रहरी के रूप में जाना था ।
उनकी रचनाओं से पहली बार विश्व ने जाना कि अतीत को जीवन और प्रकाश से रंजित कर देनेवाले राजस्थान में जीवन के सभी इन्द्रधनुषी रंग खिलते हुए देखे जा सकते हैं।
भले ही यह अतिशयोक्तिपूर्ण लगे मगर धुव्र सत्य यही है कि आपने राजस्थान की माटी की चेतना को सशक्त अभिव्यक्ति ही नहीं दी बल्कि उसे सार्थकता प्रदान की है।
आपकी समस्त रचनाओं का अभी मूल्यांकन होना बाकी है। शायद अगली सदी इस मनीषी की अद्भुत मेधा को ज्यादा बेहतर समझ सकने में सक्षम हो।
सेवा, श्रम, संवेदना, ज्ञान, आचरण और अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति श्री सेठियाजी के विषय में इतना ही लिखना काफी है कि 20वीं शताब्दी में ये सब गुण एक साथ विरले ही मनीषियों में किसी ने अनुभूत किये हों । शायद नहीं, कारण भी स्पष्ट है कि सेठियाजी, कवि होने के साथ-साथ, मनीषी भी हैं और उनके मस्तिष्क में जो गहन चिन्तन चलता है उस समुद्र-मन्थन के पश्चात् उनके हृदय में जो अमृत-तत्व निथर कर आ जाता है, उसका वे किसी तटस्थ तृतीय व्यक्ति की भाँति, ‘दर्शन’ भी कर लेते हैं - जो सामान्य कवियों के वश की बात नहीं होती।
सेठियाजी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भाँति, स्वयं के चाहे चित्र नहीं बनाए हों, किन्तु चित्रकला में, राजस्थानी कलम का उन्हें बारीक ज्ञान है । मो.रफी साहब ने ‘धरती धोरां री’ की रचना पर धुनें बनाई और राजस्थानी-प्रकृति की पृष्ठभूमि प्रदान करते हुए, उस पर एक अति भव्य वृत्त-चित्र भी बना है, उसी भाँति उन्होंने जिन सैकड़ों छन्दबद्ध कविताओं में उत्तम गीति-तत्त्व पिरोया है यदि इनके कविताओं को संगीत-शास्त्र की स्वर-लिपि प्रदान की जाय तो रवीन्द्र संगीत की भाँति, राजस्थानियों के गौरव स्वरूप ‘सेठिया-संगीत’ भी सहज ही हमें प्राप्त हो सकता है।
विशेषता: इन्होंने युवावस्था में हरिजनों एवं दलितों को सवर्णों के बराबर अधिकार दिलाने के लिये परिवार और समाज के साथ सतत संघर्ष किया, इनकी प्रेरणा से हरिजन बच्चों के लिये प्रथम पाठशाला स्थापित हुई, इन्होंने ‘‘अग्निवीणा’’ का प्रखर स्वर घर-घर में गुंजा कर स्वाधीनता-संग्राम के दौरान राजद्रोह के अभियोग का सामना किया और इनकी प्रबल प्रेरणा से महाराणा प्रताप के अप्रतिम साहस एवं शौर्य की साक्षी हल्दीघाटी की पुण्य पावन माटी को पुनः शीर्ष स्थान मिला । स्मरण रहे कि श्री सेठिया जी ने हल्दीघाटी की पावन माटी को छाटी-छोटी काव्य मंजुषाओं में भर कर देश के शीर्ष राजनेताओं को भेंट कर उनसे आग्रह किया था कि इस पावन परिसर को गरिमामय रूप दिया जाए । इसका प्रभाव हुआ एवं हल्दीघाटी के सौंदर्यकरण की योजना स्वीकृत हुई ।
कवि सेठियाजी की विशेषता है कि ये मरुधरा की मिट्टी की सोंधी सुवास से जुड़े हैं । माटी से जुड़नेवाला कवि जन-मानस से अनायास जुड़ जाता है । यही कारण है कि ‘धरतीं धोरा री’ के बाद सेठियाजी की ‘पातल और पीथल’ सर्वाधिक चर्चित राजस्थानी कविता है । इसको राजस्थान के पाठ्यक्रम में संकलित कर लिया गया। उनका राजस्थानी गीत ‘धरती धोरां री’ तो जन-जन का कण्ठहार बन गया है । सेठियाजी की प्रथम राजस्थानी काव्यकृत ‘रमणियां रा सोतठा’ जिसका प्रकाशन 1940 ई0 में हुआ एवं प्रथम हिन्दी काव्यकृति ‘बनफूल’ है जिसका प्रकाशन 1941 में हुआ था । तब से अब तक कवि चिन्तक, दार्शनिक सेठियाजी अनवरत लिखते रहे हैं। आपकी दो दर्जन से अधिक काव्य-रचनाओं में प्रमुख हैं-हिन्दी काव्य कृतियाँ ‘वनफूल’, ‘मेरा युग’, ‘अग्निवीणा’, ‘प्रतिबिम्ब’, ‘अनाम’, ‘निर्गन्थ’, ‘दीपकिरण’, ‘मर्म’, ‘आज हिमालय बोला’, ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते’, ‘प्रणाम’, ‘त्रयी’ आदि और राजस्थानी काव्य-कृतियाँ हैं-‘मींझर’, ‘गलगचिया’, ‘रमणिये रा सोरठा’, ‘धर कूंचा धर मजलाँ’, ‘कूँ कूँ’, ‘लीलटांस’ आदि।
इनका चिन्तन सदैव विराट से जुड़ने, उसे आत्मसात करने की ओर उन्मुख करता है, जिसमें जातिगत संकीर्णता या धर्मगत संकीर्णता या भाषायी वैमनस्य को कोई स्थान नहीं है । यह सब मानव को एक-दूसरे से मिलने में बाधक है । सत्य किसी छोटे दायरे में आबद्ध नहीं होता, उसकी अपार भंगिमाएं, संभावनाएँ युग-युग में व्यक्त होती रहती हैं । अतः ‘‘अपना अनुभूत सत्य ही जीवन में प्रमुखता रखता है ।’’ इस तथ्य को वे सदा संस्थापित करते हैं । इसलिए जो व्यक्ति इनसे मिलने जाते हैं, वे सदा उत्साहित एवं प्रेरणा प्राप्त कर लौटतें हैं।
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विख्यात कवि के रूप आपने हिन्दी एवं राजस्थानी में अनेक पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें इनकी कविताएं जन-जन में सदा गाई जाती है । आपकी कृति ‘‘लीलटांस’’ (राजस्थानी) साहित्य अकादमी द्वारा एवं ‘निर्ग्रन्थ’ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित की गई हैं । इसके अतिरिक्त आपको साहित्य वाचस्पति के रूप में अलंकृत भी किया गया है ।
आपका मानना है कि जैसे चेहरे बिना व्यक्ति की पहिचान नहीं हो पाती, वैसे ही प्रान्त के व्यक्तित्व की अस्मिता मातृभाषा या मायड़ भाषा के बिना स्थापित नहीं होती ।
आपके हिन्दी और राजस्थानी लिखे काव्यों का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है । आपकी प्रेरणा और सहयोग से देशभर में साहित्य, संस्कृति और सेवा की अनेकों संस्थाएँ चल रही हैं । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपने कभी भी किसी पद और अधिकार को नहीं स्वीकारा है । व्यवहार में सदैव उदार, निश्छल और साफ रहे हैं । आप विशाल जनसमूह के सुख-दुःख, घर-परिवार, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े हुए हैं । आपका व्यक्तित्व इतना सरल और विशाल है कि प्रत्येक कार्य को करने के उपयुक्त सेवाभावी आपके सामने आते रहते हैं ।आज ये राष्ट्रकवि के रूप में सर्वत्र स्वीकृत हैं । निस्संदेह यह राजस्थान की एक धरोहर हैं, जिनकी काव्य-विरासत को पाकर राजस्थानी समाज गौरवान्वित है। एक युगकवि हैं, राष्ट्रकवि हैं और राजस्थानी के प्रेरणादायी उद्घोषक हैं । वे क्या नहीं हैं? वे हमारे हैं, यही हमारे लिए प्रेरणात्मक है । इसके लिये आपका नाम भारत और राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा ।
- शम्भु चौधरी
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श्री कन्हैयालाल सेठिया से एक ऐतिहासिक मुलाकात
श्री सेठिया जी के साथ लेखक शम्भु चौधरी, एक दम से बायें श्री सरदारमल कांकरिया, सेठिया ही के ठीक पीछे उनके पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया
कोलकात्ता 15.5.2008: आज शाम पाँच बजे श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के कोलकात्ता स्थित उनके निवास स्थल 6, आशुतोष मखर्जी रोड जाना था। ‘समाज विकास’ का अगला अंक श्री सेठिया जी पर देने का मन बना लिया था, सारी तैयारी चल रही थी, मैं ठीक समय पर उनके निवास स्थल पहुँच गया। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया जी से मुलाकत हुई। थोड़ी देर उनसे बातचीत होने के पश्चात वे, मुझे श्री सेठिया जी के विश्रामकक्ष में ले गये। बिस्तर पर लेटे श्री सेठिया जी का शरीर काफी कमजोर हो चुका है, उम्र के साथ-साथ शरीर थक सा गया है, परन्तु बात करने से लगा कि श्री सेठिया जी में कोई थकान नहीं। उनके जेष्ठ पुत्र भाई जयप्रकाश जी बीच में बोलते हैं, - ‘‘ थे थक जाओसा....... कमती बोलो ! ’’ परन्तु श्री सेठिया जी कहाँ थकने वाले, कहीं कोई थकान उनको नहीं महसूस हो रही थी, बिल्कुल स्वस्थ दिख रहे थे। बहुत सी पुरानी बातें याद करने लगे। स्कूल-कॉलेज, आजादी की लड़ाई, अपनी पुस्तक ‘‘अग्निवीणा’’ पर किस प्रकार का देशद्रोह का मुकदमा चला । जयप्रकाश जी को बोले कि- वा किताब दिखा जो सरकार निलाम करी थी, मैंने तत्काल दीपज्योति (फोटोग्राफर) से कहा कि उसकी फोटो ले लेवे । जयप्रकाश जी ने ‘‘अग्निवीणा’’ की वह मूल प्रति दिखाई जिस पर मुकदमा चला था । किताब के बहुत से हिस्से पर सरकारी दाग लगे हुऐ थे, जो इस बात का आज भी गवाह बन कर सामने खड़ा था । सेठिया जी सोते-सोते बताते हैं - ‘‘ हाँ! या वाई किताब है जीं पे मुकदमो चालो थो....देश आजाद होने...रे बाद सरकार वो मुकदमो वापस ले लियो ।’’ थोड़ा रुक कर फिर बताने लगे कि आपने करांची में भी जन अन्दोलन में भाग लिया था । स्वतंत्राता संग्राम में आपने जिस सक्रियता के साथ भाग लिया, उसकी सारी बातें बताने लगे, कहने लगे ‘‘भारत छोड़ो आन्दोलन’’ के समय आपने कराची में स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ.चौइथराम गिडवानी जो कि सिंध में कांग्रेस बड़े नेताओं में जाने जाते थे, उनके साथ कराची के खलीकुज्जमा हाल में हुई जनसभा में भाग लिया था, उस दिन सबने मिलकर स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ.चौइथराम गिडवानी के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला था, जिसे वहाँ की गोरी सरकार ने कुचलने के लिये लाठियां बरसायी, घोड़े छोड़ दिये, हमलोगों को कोई चोट तो नहीं आयी, पर अंग्रेजी सरकार के व्यवहार से मन में गोरी सरकार के प्रति नफरत पैदा हो गई । आपका कवि हृदय काफी विचलित हो उठा, इससे पूर्व आप ‘‘अग्निवीणा’’ लिख चुके थे। बात का क्रम टूट गया, कारण इसी बीच शहर के जाने-माने समाजसेवी श्री सरदारमल कांकरियाजी आ गये। उनके आने से मानो श्री सेठिया जी के चेहरे पे रौनक दमकने लगी हो। वे आपस में बातें करने लगे। कोई शिथिलता नहीं, कोई विश्राम नहीं, बस मन की बात करते थकते ही नहीं, इस बीच जयप्रकाश जी से परिवार के बारे में बहुत सारी बातें जानने को मिली। श्री जयप्रकश जी, श्री सेठिया जी के बड़े पुत्र हैं, छोटे पुत्र का नाम श्री विनय प्रकाश सेठिया है और एक सुपुत्री सम्पतदेवी दूगड़ है। महाकवि श्री सेठिया जी का विवाह लाडनू के चोरड़िया परिवार में श्रीमती धापूदेवी के साथ सन् 1939 में हुआ।
आपके परिवार में दादाश्री स्वनामधन्य स्व.रूपचन्द सेठिया का तेरापंथी ओसवाल समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। इनको श्रावकश्रेष्ठी के नाम से संबोधित किया जाता है। इनके सबसे छोटे सुपुत्र स्व.छगनमलजी सेठिया अपने स्व. पिताश्री की भांति अत्यन्त सरल-चरित्रनिष्ठ-धर्मानुरागी, दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी थे। समाज सेवा में अग्रणी, आयुर्वेद का उनको विशेष ज्ञान था।
श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्षों से ज्यादा समय से बंगाल में है । पहले इनका परिवार 199/1 हरीसन रोड में रहा करता था । सन् 1973 से सेठियाजी का परिवार भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20 के प्रथम तल्ले में निवास कर रहा है। इनके पुत्र ( श्री सेठियाजी से पूछकर ) बताते हैं कि आप 11 वर्ष की आयु में सुजानगढ़ कस्बे से कलकत्ता में शिक्षा ग्रहन हेतु आ गये थे। उन्होंने जैन स्वेताम्बर तेरापंथी स्कूल एवं माहेश्वरी विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा ली, बाद में रिपन कॉलेज एवं विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा ली। 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय शिक्षा अधूरी छोड़कर पुनः राजस्थान चले गये, वहाँ से आप कराची चले गये। इस बीच हमलोग उनके साहित्य का अवलोकन करने में लग गये। सेठिया जी और सदारमल जी आपस में मन की बातें करने में मसगूल थे, मानो दो दोस्त कई वर्षों बाद मिले हों । दोनों अपने मन की बात एक दूसरे से आदान-प्रदान करने में इतने व्यस्त हो गये कि, हमने उनके इस स्नेह को कैमरे में कैद करना ही उचित समझा। जयप्रकाश जी ने तब तक उनकी बहुत सारी सामग्री मेरे सामने रख दी, मैंने उन्हें कहा कि ये सब सामग्री तो राजस्थान की अमानत है, हमें चाहिये कि श्री सेठिया जी का एक संग्राहलय बनाकर इसे सुरक्षित कर दिया जाए, बोलने लगे - ‘म्हाणे कांइ आपत्ती है’ मेरा समाज के सभी वर्गों से, सरकार से निवेदन है कि श्री सेठियाजी की समस्त सामग्री का एक संग्राहल बना दिया जाना चाहिये, ताकि हमारी आनेवाली पीढ़ी उसे देख सके, कि कौन था वह शख्स जिसने करोड़ों दिलों की धड़कनों में अपना राज जमा लिया था।
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किसने ‘धरती धौरां री...’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ की रचना की थी!
कुछ देर बाद श्री सेठिया जी को बिस्तर से उठाकर बैठाया गया, तो उनका ध्यान मेरी तरफ मुखातिफ हुआ, मैंने उनको पुनः अपना परिचय बताने का प्रयास किया, कि शायद उनको याद आ जाय, याद दिलाने के लिये कहा - शम्भु! - मारवाड़ी देस का परदेस वालो - शम्भु....! बोलने लगे... ना... अब तने लोग मेरे नाम से जानगा- बोले... असम की पत्रिका म वो लेख तूं लिखो थो के?, मेरे बारे में...ओ वो शम्भु है....तूं.. अपना हाथ मेरे माथे पर रख के अपने पास बैठा लिये। बोलने लगे ... तेरो वो लेख बहुत चोखो थो। वो राजु खेमको तो पागल हो राखो है। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती बोल रही हो। शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा लगता है। फिर अपनी बात बताने लगे- ‘आकाश गंगा’ तो सुबह 6 बजे लिखण लाग्यो... जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी। हम तो बस उनसे सुनते रहना चाहते थे, वाणी में सरस्वती का विराजना साक्षात् देखा जा सकता था। मुझे बार-बार एहसास हो रहा था कि यह एक मंदिर बन चुका है श्री सेठियाजी का घर। यह तो कोलकाता वासी समाज के लिये सुलभ सुयोग है, आपके साक्षात् दर्शन का, घर के ठीक सामने 100 गज की दूरी पर सामने वाले रास्ते में नेताजी सुभाष का वह घर है जिसमें नेताजी रहा करते थे और ठीक दक्षिण में 300 गज की दूरी पर माँ काली का दरबार लगा हो, ऐसे स्थल में श्री सेठिया जी का वास करना महज एक संयोग भले ही हो, परन्तु इसे एक ऐतिहासिक घटना ही कहा जा सकता है। हमलोग आपस में ये बातें कर रहे थे, परन्तु श्री सेठियाजी इन बातों से बिलकुल अनजान बोलते हैं कि उनकी एक कविता ‘राजस्थान’ (हिन्दी में) जो कोलकाता में लिखी थी, यह कविता सर्वप्रथम ‘ओसवाल नवयुवक’ कलकत्ता में छपी थी, मानो मन में कितना गर्व था कि उनकी कविता उस समय ‘ओसवाल नवयुवक’ में छपी थी। एक पल मैं सोचने लगा मैं क्या सच में उसी कन्हैयालाल सेठिया के बगल में बैठा हूँ जिस पर हमारे समाज को ही नहीं, राजस्थान को ही नहीं, सारे हिन्दुस्थान को गर्व है।
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मैंने सुना है, कि कवि का हृदय बहुत ही मार्मिक व सूक्ष्म होता है, कवि के भीतर प्रकाश से तेज जगमगता एक अलग संसार होता है, उसकी लेखनी ध्वनि से भी तेज रफ्तार से चलती है, उसके विचारों में इतने पड़ाव होते हैं कि सहज ही कोई उसे नाप नहीं सकता, श्री सेठियाजी को देख ये सभी बातें स्वतः प्रमाणित हो जाती हैं। सच है जब बंगलावासी रवीन्द्र संगीत सुनकर झूम उठते हैं, तो राजस्थानी श्री कन्हैयालाल सेठिया के गीतों पर थिरक उठता है, मयूर की तरह अपने पंख फैला के नाचने लगता है। शायद ही कोई ऐसा राजस्थानी आपको मिल जाये कि जिसने श्री सेठिया जी की कविता को गाया या सुना न हो । इनके काव्यों में सबसे बड़ी खास बात यह है कि जहाँ एक तरफ राजस्थान की परंपरा, संस्कृति, ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक चित्रण का अनुपम भंडार है, तो वीररस, श्रृंगाररस का अनूठा संगम भी जो असाधारण काव्यों में ही देखने को मिलता है। बल्कि नहीं के बराबर ही कहा जा सकता है। हमारे देश में दरबारी काव्यों की रचना की लम्बी सूची पाई जा सकती है, परन्तु, बाबा नागार्जुन, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, निराला, हरिवंशराय बच्चन, भूपेन हजारिका जैसे गीतकार हमें कम ही देखने को मिलते हैं। श्री सेठिया जी के काव्यों में हमेशा नयापन देखने को मिलता है, जो बात अन्य किसी में भी नहीं पाई जाती, कहीं कोई बात तो जरूर है, जो उनके काव्यों में हमेशा नयापन बनाये रखने में सक्षम है। इनके गीतों में लय, मात्राओं का जितना पुट है, उतना ही इनके काव्यों में सिर्फ भावों का ही नहीं, आकांक्षाओं और कल्पनाओं की अभिनव अभिव्यक्ति के साथ-साथ समूची संस्कृति का प्रतिबिंब हमें देखने को मिलता है। लगता है कि राजस्थान का सिर गौरव से ऊँचा हो गया हो। इनके गीतों से हर राजस्थानी इठलाने लगता हैं। देश-विदेश के कई प्रसिद्ध संगीतकारों-गीतकारों ने, रवींद्र जैन से लेकर राजेन्द्र जैन तक, सभी ने इनके गीतों को अपने स्वरों में पिरोया है।
‘समाज विकास’ का यह अंक यह प्रयास करेगा कि हम समाज की इस अमानत को सुरक्षित रख पाएं । श्री कन्हैयालाल सेठिया न सिर्फ राजस्थान की धरोहर हैं बल्कि राष्ट्र की भी धरोहर हैं। समाज विकास के माध्यम से हम राजस्थान सरकार से यह निवेदन करना चाहेगें कि श्री सेठियाजी को इनके जीवनकाल तक न सिर्फ राजकीय सम्मान मिले, इनके समस्त प्रकाशित साहित्य, पाण्डुलिपियों व अन्य दस्तावेजों को सुरक्षित करने हेतु उचित प्रबन्ध भी करें। स
- शम्भु चौधरी
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स्मृति शेष: जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो....
श्री सेठिया जी के काव्यों पर हिन्दी जगत के विचारों की एक झलक:
आपकी कविता तथा कला का मणि-कांचन संयोग मुझे बहुत पसन्द आया । ऐसे संयोजित रूप से अपनी भावनाओं तथा चिन्तन स्फुरणों को काव्याभिव्यक्ति देकर आपने रचना सौष्ठव का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है। आपकी रचनाओं को पढ़कर स्वतः ही लगता है कि कविता इस युग में मरी नहीं है बल्कि और भी गहन गंभीर होकर जीवन के निकट आ गई है। - सुमित्रानन्दन पन्त
आप अन्तर्मुखी कलाकार हैं। अन्तर्जगत में प्रवेश कर वस्तुवादी जगत की जो व्याख्या करते हैं, उससे सत्य शतमुखी होकर उजागर होता है । छोटी-छोटी अभिव्यक्तियां मधु की वे बूंदे हैं जिनमें अनेक पुष्पों के पराग की सुगन्ध समाहित है। मैं अपनी श्रद्धा व्यक्त करता हूँ। - डॉ.रामकुमार वर्मा
प्रणाम- ‘प्रणाम’ पढ़ने बैठा, तो इसके गीत मुझे लिपट गये और तीन दिन की बैठकों में ही इसे पूरा पढ़ गया। आप चिन्तन के कलाकार हैं । चिन्तन को विवेचन। विश्लेषण का रूप देना आसान है, गंभीर बात गंभीर विधा पर उसे गीत का रूप देना और गीत में तितली की सी जो सकुमारता अनिवार्य है उसे बचाये रखना बहुत-बहुत मुष्किल है। आप इस मुश्किल काम में इतने सफल हुए है कि गीतकारों में मुझे कोई दूसरा नाम ही याद नहीं आ रहा है कि जिसने इस कार्य में, आपके समकालीन काव्य में ऐसी सफलता पाई हो । आपके चिन्तन की पृष्ठभूमि संस्कृति-धर्म-दर्शन है इससे आपकी सफलता का मूल्य और भी बढ़ गया है।
मर्म- ‘मर्म’ मिला। एक-एक हीरा बार-बार देखा, परखा, पहचाना, माना । मेरा अभिवादन ।
अनाम- रत्नकृति ‘अनाम’ मिली । आपने एक नई विधा की ही सृष्टि नहीं की। एक नया विधान भी साहित्य को दिया जिसके द्वारा आपके गीत भी अनुशासित हैं और दूसरी कृतियां भी। आप अमर कार्य कर रहे हैं।
‘ताजमहल’- मिला, जैसे मजदूर को भला मालिक मजदूरी से निबटते ही शरबत पिला दे, वाह ।
- कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
प्रणाम- ‘प्रणाम’ की कविताएं मेरे मर्म पर बड़ी शक्ति से रेखापात कर गई ।
खुली खिड़कियां चैड़े रास्ते- नयापन और काव्यत्व दोनो से समृद्ध है । - कुबेरनाथ राय
प्रतिबिम्ब- ‘प्रतिबिम्ब’ के गीत पढ़कर हिन्दी के उज्जवल भविष्य की आशा बंधती है ।
प्रणाम- ‘प्रणाम’ के सभी गीत उच्च कोटि के हैं । - रामधारीसिंह ‘दिनकर’
प्रतिबिम्ब-‘प्रतिबिम्ब’ आप के सुन्दर हृदय का प्रतिबिम्ब है। - मैथिलीशरण गुप्
मर्म- ‘मर्म’ गहरे में स्पर्ष करनेवाली कृति है । - जैनेन्द्रकुमार जैन
अनाम- चिन्तन का यह नया आयाम है । हम लोगों के लिये यह चिन्तन बोध का विशेष दिशा निर्देष है । बहुत कुछ नया प्रयोग किया है । - बालकवि बैरागी
तुमुल साहित्यिक कलह के कोलाहल में श्रद्धा की ऐसी सहज अभिव्यक्ति, ऐसी नपी-तुली भाषा, ऐसी तन्मयता, यह तो आश्चर्य की बात है । ‘प्रणाम’ के गीतों में सहज समर्पण का स्वर है । - विष्णुकांत शास्त्री
आपके लिखने में जो गहराई है, वह असामान्य है, विरल है। - भवानी प्रसाद मिश्र
कन्हैयालाल सेठिया का उर्दू काव्य ताजमहल के सौन्दर्य पर चमकता हुआ प्रदीप्त हीरा है । - अली सरदार जाफरी
महाकवि सेठिया शब्द ब्रह्म के साधक हैं ।- प्रो0 सिद्धेश्वर प्रसाद
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राजस्थान पत्रिका 12 नवम्बर,जयपुर संस्करण:
'शान्त हुई अग्निवीण'
राजस्थान पत्रिका ने लिखा कि महात्मा गांधी द्वारा 1942 में 'करो और मरो'के आह्वान पर जगी कन्हैयालाल सेठिया की 'अग्निवीणा' मंगलवार को शान्त हुई तो राजस्थानी साहित्य जगत शोक सागर में डूब गया। जब कन्हैयालाल की राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण कालजयी कृति 'अग्निवीणा' प्रकाशित हुई तो बीकानेर राज्य ने इन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। उन्हैं जेल जाना पड़ा। माउण्ड आबू के राजस्थान विलय में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे स्वतंत्रा आंदोलन के योद्धा भी थे।
दैनिक भास्कर 12 नवम्बर,जयपुर संस्करण:
दैनिक भास्कर, जयपुर ने बुधवार 2008 के एक पेज के स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया जी पर विशेष अंक निकाला, इसमें लिखा है कि ' 'धरती धोरां री' और 'अरै घास री रोटी' जैसे अमर गीतों को रचकर राजस्थान को एक नई पहचान और गरिमा दिलाने वाले कवि कन्हैयालाला सेठिया नहीं रहे। वे राजस्थान ही नहीं बल्कि देश के इने-गिने कवियों में थे, जिनकी रचना 'धरती धोरां री' को तो इतना सम्मान प्राप्त हुआ कि वह राजस्थान ही नहीं बल्कि विश्वभर के राजस्थानी भाषा प्रेमियों के लिए प्राणगीत के समान बन गई है। उनका काव्य केवल हिंदी व राजस्थानी तक ही सीमित नहीं था उर्दू भाषा पर भी उनका अधिकार चमकृत करने वाला था।"
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श्री श्यामजी आचार्य ने राजस्थान से लिखा:
प्रयाग में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के हीरक जयंती समारोह में कन्हैयालाल सेठिया ने हिन्दी भाषा-भाषियों के भूखंड में एक सांस्कृतिक महासंघ की कल्पना की थी। उन्होंने कहा था कि "हिन्दी के विशाल वट-वृ्क्ष की शाखाएं सुदूर देशों में भी पल्लवित-पुष्पित और फलित हो रही हैं। वह दिन दूर नहीं जब विश्व के हिन्दी भाषा-भाषी भूखण्ड एक सांस्कृतिक महासंघ के रूप में गठित होकर अपने वर्चस्व को प्रतीति विश्व को करा सकेंगे।"
उन्होंने इसी हीरक जयंती समारोह में हिन्दी लेखन के बारे में कहा था- 'हिन्दी के अधिकांश लेखक शाश्वत सत्य की अन्वेषक ऋषि-प्रज्ञा की उपेक्षा कर पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। सतत विकाशशील चेतना को वादों के नागपाश में आबद्ध करने का जो विश्व-व्यापी षड्यंत्र चल रहा है उससे हम हिन्दी के लेखकों को बचाएं और समग्र सत्य के प्रति ही हमारा लेखन प्रतिबद्ध रहे, यही हिन्दी की अस्मिता और समृद्धि के लिए श्रेय है। केवल परिस्थितियों से जुड़ा हुआ साहित्य कालक्रम में मात्र घटना बनकर रह जाता है और वह जीवंत मूल्यों से कट जाता है।' उनका सृजन आत्म-दर्शन करने वाला और पाठक को भी भीतर क्षांकने की प्रवृत्ति पैदा करने वाला था। 'सृजन' शीर्षक से अनकी कविता पढ़िए -
मुझे है शब्द की प्रतिष्ठा का ध्यान,
वही जहां जिसका स्थान
अनुशासित मेरे भावाकुल छन्द,
उनमें परस्पपर रक्त का संबंध,
नहीं सृजन मेरे लिए व्यसन,
वह संजीवन प्राण का स्पन्दन।
उनकी कविताओं में मानव-मात्र के लिये अगाध स्नेह, प्यार और संवेदना का स्पंदन था। अनकी कविता 'सबसे मेरी प्रेम सगाई" पढ़िए-
मेरा है संबंध सभी से
सबसे मेरी स्नेह सगाई।
मैं अखण्ड हूं, खंडित होना
मेरे मन को नहीं सुहाता
पक्ष विपक्ष करूं मैं किसका
मैं निष्पक्ष सभी से नाता
मेरे सन्मुख सभी बराबर
राजा, रंक, हिमालय, राई।।
सबके कुशलक्षेम का इच्छुक
सब में सत है, मुझे प्रतिष्ठा
सब ही मेरे सखा बंधु हैं
मैं सबके मन की परछाई।।
सबकी पद-रज चंदन मुझको
सबके सांस सुरभिमय कुंकुम
सबका मंगल मेरा मंगल
गाता मेरी प्राण विहंगम
जीवन का श्रम ताप हरे, यह
मेरे गीतों की अमराई
सबसे मेरी प्रेम सगाई।
राजस्थानी, हिन्दी, उर्दू और संस्कृत में मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाले दार्शनिक कवि सेठिया की स्मृतियां राजस्था की धरा को उनके गीतों से गुंजाती रहेगी। चाहे वह 'धरती धोरां री' या 'अरे घास की रोटी' हो या कि 'कुण जमीन को धणी' ये गीत ही इस प्रदेश की प्रेरक शक्ति बन गए हैं। साभार: दैनिक भास्कर, राजस्थान: 12 नवम्बर 2008
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समाचार पत्रों की नजर में
दैनिक पूर्वोदय,असम | पूर्वांचल प्रहरी, असम |
पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत:
पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ने स्व. सेठिया के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए फैक्स संदेश में कहा कि - " साहित्य मनीषी कन्हेयालाल सेठिया के निधन का समाचार पाकर मैं स्तब्ध रह गया। उन्होंने अपनी कालजयी रचनओं से राजस्थानी साहित्य, कला व संस्कृति की जो सेवा की है, वह सदैव स्मरण की जायेगी। उन्होंने अपनी काव्य रचना "धरती धोरां री...." के जरिये राजस्थान की समृद्धि व सांस्कृतिक पहचान पूरे देश व विदेश में पहुंचाई। उनके निधन से पूरे राजस्थान व साहित्य जगत की ऐसी क्षति हुई है जिसकी पूर्ति करना असंभव है। सेठियाजी के साथ मेरे वर्षों से व्यक्तिगत संबंध थे। राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने के प्रश्न को लेकर वे कई बार मुझसे मिले और ये उनके प्रास का ही फ़ल था कि राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने का संकल्प विधानसभा में 2003 में पारित किया गया।"
वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण बिहारी मिश्र
हिन्दी जगत के वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण बिहारी मिश्र ने कहा कि- " कवि सेठिया राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में सम्मानित थे। राजस्थानी भाषा को उन्होंने आजीवन प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करते रहे। पिछले कुछ दिनों से वयजनित निष्क्रियता उनमें आ गयी थी। अपनी साहित्य साधना से उन्होंने लोक यात्रा की कृतार्थरा आयोजित की। किसी भी व्यक्ति के लिये यह बड़ी उपलब्धी है।
मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे
जयपुर, 11 नवम्बर। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने राजस्थानी भाषा के यशस्वी कवि एवं साहित्यकार श्री कन्हैयालाल सेठिया के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है।
श्रीमती राजे ने अपने शोक संदेश में कहा कि " श्री सेठिया ने मायड़ भाषा एवं राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में जीवनपर्यंत अमूल्य योगदान दिया। मुख्यमंत्री ने कहा कि राजस्थानी गीत " धरती धोरां री" उनकी अमर रचना है, जिसके बोल जन-जन के मन में प्रदेश के गौरव एवं स्वाभिमान को जगाता है। मुख्यमंत्री ने ईश्वर से दिवगंत आत्मा की शान्ति एवं शोक संतप्त परिजनों को यह आघात सहन करने की शक्ति देने की प्रार्थना की है।"
श्री सीताराम महर्षि ने गहरा शोक प्रकट करते हुए कहा कि:
राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर के अध्यक्ष श्री सीताराम महर्षि ने गहरा शोक प्रकट करते हुए कहा कि सेठिया का निधन राजस्थानी भाषा के लिए एक अपूरणीय क्षति है। वे राजस्थानी साहित्यकारों के आदर्श थे तथा राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए सदैव अग्रपंक्ति में खड़े रहे और अनेक कविताओं के द्वारा राजस्थानी के महत्त्व को प्रतिपादित किया।
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[Script code: Kanhaiyalal Sethia कन्हैयालाल सेठिया]
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