आपणी भासा म आप’रो सुवागत

'आपणी भासा' ई-पत्रिका में मारवाड़ी समाज से जुड़ी जानकारी, सामाजिक बहस व समाज में व्याप्त कुरीतियोँ के प्रति सजग इस पेज पर आप समस्त भारतीय समाज के संदर्भ में लेख प्रकाशित करवा सकतें हैं। हमें सामाजिक लेख, कविता, सामाजिक विषय पर आधारित कहानियाँ या लघुकथाऎं आप मेल भी कर सकतें हैं। सामाजिक कार्यक्रमों की जानकारी भी चित्र सहित यहाँ प्रकाशित करवा सकतें हैं। मारवाड़ी समाज से जुड़ी कोई भी संस्था हमारे इस वेवपेज पर अपनी सामग्री भेज सकतें हैं। आप इस ब्लॉग के नियमित लेखक बनना चाहतें हों तो कृपया अपना पूरा परिचय, फोटो के साथ हमें मेल करें।- शम्भु चौधरी E-Mail: ehindisahitya@gmail.com



अब तक की जारी सूची:

सोमवार, 29 जून 2009

सोंधी माटी का बिहार - डॉ. शांति जैन



दिशा-दिशा में लोकरंग का तार-तार है
महका-महका, सोंधी माटी का बिहार है।

भारत भू के मानचित्र का, जो धु्रवतारा
वहीं जहाँ पर लोकतंत्र की पहली धारा
अम्बपालिका के नूपुर की गूँज अभी तक
घोल रही कानों में मीठी रसधारा
प्रिय अशोक का स्तंभ बना इक यादगार है।

कहीं गूँजते आल्हा ऊदल के अफसाने
कजरी, झूमर औ फगुआ के मस्त तराने
चौपालों में चैता घाटो की बहार है।

सामाचाको सा मिथिला का खेल अनूठा
छठ मैया के गीतों से गंगातट गूँजा
अंग देश में सती बेहुला की पुकार है।

महावीर के चरणों से पावन वैशाली
तपोपूत है बोधिवृक्ष की डाली डाली
गुरुवाणी का मंत्र हृदय के आर-पार है।

देशरत्न राजेन्द्र से हुआ मस्तक ऊँचा
आज़ादी का मंत्र यहीं गांधी ने फूँका
जय प्रकाश का सपना सबका ऐतवार है।

कुँवर सिंह की कटी बाँह गंगा की थाती
कीर्ति पताका सात जवानों की फहराती
अमर शहीदों की यादों का ये मज़ार है
महका महका, सोंधी माटी का बिहार है।
दिशा-दिशा में लोकरंग का तार-तार है
महका-महका, सोंधी माटी का बिहार है।

भारत भू के मानचित्र का, जो धु्रवतारा
वहीं जहाँ पर लोकतंत्र की पहली धारा
अम्बपालिका के नूपुर की गूँज अभी तक
घोल रही कानों में मीठी रसधारा
प्रिय अशोक का स्तंभ बना इक यादगार है।

कहीं गूँजते आल्हा ऊदल के अफसाने
कजरी, झूमर औ फगुआ के मस्त तराने
चौपालों में चैता घाटो की बहार है।

सामाचाको सा मिथिला का खेल अनूठा
छठ मैया के गीतों से गंगातट गूँजा
अंग देश में सती बेहुला की पुकार है।

महावीर के चरणों से पावन वैशाली
तपोपूत है बोधिवृक्ष की डाली डाली
गुरुवाणी का मंत्र हृदय के आर-पार है।

देशरत्न राजेन्द्र से हुआ मस्तक ऊँचा
आज़ादी का मंत्र यहीं गांधी ने फूँका
जय प्रकाश का सपना सबका ऐतवार है।

कुँवर सिंह की कटी बाँह गंगा की थाती
कीर्ति पताका सात जवानों की फहराती
अमर शहीदों की यादों का ये मज़ार है
महका महका, सोंधी माटी का बिहार है।

समाज का संगठन-सम्मेलन की भूमिका

- प्रो.(डॉ.)विश्वनाथ अग्रवाल-
‘‘संधे शक्ति कलेयुगे’’


लेखक सैंतीस वर्षों तक राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर, बिहार कॉलेज सेवा आयोग के सदस्य (1987-90) तथा नालन्दा खुला विश्वविद्यालय के कुलपति बिहार प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन के महामंत्री (1977-80), उपाध्यक्ष (1980-82) सम्मेलन के मुखपत्र ‘बिहार सम्मेलन’ के अनेक वर्षों तक सम्पादक, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन की समितियों के सदस्य रहे हैं। सम्प्रति अनेक समाज सेवी, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं। सम्पर्क: 703ए, ह्नाईट हाउस अपार्टमेन्ट, बुद्ध मार्ग, पटना-800001 - सम्पादक


संगठन ही समाज की शक्ति का आधार होता है। शक्ति से परिवार और परिवारों के समूह से समुदाय तथा समाज का निर्माण होता है। समाज में रहकर ही व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तथा उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति समाज पर आश्रित होता है। इसलिए यह आवश्यक तथा उचित है कि व्यक्ति समाज में रहे, समाज से सहयोग प्राप्त करे तथा समाज को सहयोग प्रदान करे। व्यक्ति समाजसापेक्ष है क्योंकि वह एक सामाजिक प्राणी है। व्यक्ति और समाज में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है।
समाज में संगठन कैसे हो? परस्पर मिलन, विचारों का आदान- प्रदान, सामूहिकता की भावना, दुःख-सुख में भागीदारी, एक-दूसरे की भावनाओं का आदर, प्रत्येक व्यक्ति का समादर एवं सम्मान, स्वार्थरहित व्यवहार, छल-प्रपंच का तिरस्कार, परस्पर सौहार्द्धपूर्ण सहानुभूति एवं सद्भावना आदि चन्द ऐसे लक्षण हैं जो समाज को एकता के सूत्र में पिरो सकते हैं। समाज के अन्य व्यक्तियों द्वारा किये गये अच्छे कार्यों की सराहना, किसी पर संकट आने पर सहानुभूति जताना तथा संकट से उबारने में सहयोग एवं समर्थन प्रदान करना सभ्य और सुसंस्कारी समाज के परिचायक तत्त्व हैं। तभी समाज में एकता एवं अखंडता आती है।
मारवाड़ी समाज एक प्रबुद्ध समाज है। यह एक गतिशील एवं क्रियाशील समाज है। इस समाज का हर वयस्क व्यक्ति उद्यम तथा परिश्रम द्वारा अपनी आजीविका अर्जित करता है। वह परमुखापेक्षी रहना नहीं चाहता। अपनी बुद्धि और पराक्रम का प्रयोग कर वह जीवन की सुख-सुविधायें जुटाने का उपक्रम करता है। उद्भव तथा विकास के मार्ग पर चलने के यत्न-प्रयत्न करता है। ये बातें अच्छी लगती हैं। किन्तु इस समाज का अभीष्ट मानो धनोपार्जन ही हो गया है। शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, कला, संगीत, क्रीड़ा, मनोरंजन, विज्ञान, आध्यात्म आदि से यह समाज विमुख-सा प्रतीत होता है। किसी समाज का सर्वांगीण विकास तभी माना जाता है जब वह धनोपार्जन के साथ इन क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बनाये। धनपति के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान तथा जीवन की अन्य विधाओं में भी हम शीर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करें, तभी एक विकसित-आधुनिक समाज की श्रेणी में हमारी गणना हो सकेगी। इक्का - दुक्का उपलब्धियां पर्याप्त नहीं मानी जा सकती हैं।
उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिये समाज को संगठित करना आवश्यक प्रतीत होता है। परस्पर संपर्क अर्थात् मिलन बहुत बड़ा कारक बनता है। संपर्क से संवाद, विचारों का आदान-प्रदान और फलस्वरूप सौहार्द्ध, सद्भाव, सहयोग, सेवा और समर्पण का वातावरण निर्मित होता है। आपसी वैमनस्य तिरोहित होता है, जानने-समझने के अवसर उत्पन्न होते हैं तथा सामंजस्य एवं सन्तुलन का भाव जागृत होता है।
शहर हो या कसबा अथवा गाँव - समाज के लोग समय, निर्धारित कर लें कि माह में एक बार सभी लोग साथ मिल बैठेंगे-धनी, मध्यम वर्ग तथा अन्य सभी एक स्थान पर मिलकर बैठेंगे। सुख-दुःख बाँटें, प्रेम एवं आत्मीयता का सम्बन्ध बढ़ायें, सहयोग करें। इसके अतिरिक्त पर्व-त्यौहारों जैसे होली, दशहरा, दीपावली, जन्माष्टमी आदि तथा पारिवारिक एवं सामाजिक समारोहों यथा महापुरुषों की जयंती, स्थानीय समाज के किसी विशिष्ट व्यक्ति की पुण्यतिथि, कोई पुण्यार्थ निर्माण अथवा समर्पण कार्य आदि अवसरों पर मिलने, कुशल-क्षेम बाँटने तथा आनन्द के क्षण भोगने के अवसर उपलब्ध कराये जायें। समाज की बैठकों में व्यक्तिगत/परिवार सम्बन्धी चर्चाओं के अतिरिक्त अन्य विषयों पर परिचर्चा भी की जानी चाहिये।
वातावरण एवं पर्यावरण का प्रदूषण मानवजाति के लिए एक संकटपूर्ण चुनौती बन गया है। हम बैठकों में अपने नगर,कसबे या ग्राम में सामूहिक रूप से इस सम्बन्ध में योगदान कर सकते हैं-वृक्ष लगाना तथा उनकी देखभाल करना एक प्रमुख कार्य हो सकता है। सामूहिक रूप से हम अपने क्षेत्र में स्वच्छता बनाये रखने, विद्यालय, चिकित्सालय, पुस्तकालय, खेलकूद की सुविधायें, साहित्य कला तथा संगीत के लिये संस्थान, छात्रावास, धर्मशाला, विवाह भवन, मन्दिर आदि की स्थापना तथा संचालन में संलग्न होकर एक सुन्दर समाज को साकार कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। बैठकों में राजनीति पर भी परिचर्चा होनी चाहिये-खासकर एक जागरुक मतदाता के रूप में मतदान अवश्य करें। समाज के किसी योग्य,समाजसेवी तथा निष्ठावान व्यक्ति की राजनैतिक

आंचलिक समरसता और मारवाड़ी समाज

- महेश जालान, पटना -


Mahesh Jalan, Patnaपरिचयः श्री महेश जालान बिहार प्रान्तीय मारवाड़ी युवा मंच के संस्थापक अध्यक्ष और अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। अनेक सामाजिक और आध्यात्मिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं और एक प्रखर वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। -संपादक


भारत अनेकताओं में एकता का देश है। विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, जाति और भाषा के लोग यहाँ रहते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कामरूप तक, अलग-अलग बोली, पहनावा खान-पान, रहन-सहन और रस्मों-रिवाज, देश फिर भी एक। यह बहुत बड़ी विशेषता है जो भारत को दुनियाँ के अन्य देशों से अलग और विशिष्ट बनाती है। इस विशेषता को बनाए रखने के लिए सबसे आवश्यक है आंचलिक समरसता। सौभाग्य से मारवाड़ी समाज में आंचलिक समरसता का गुण कूट-कूट कर भरा है।
आंचलिक समरसता का अर्थ है प्रदेश के स्थानीय (मूल) निवासियों से घुल-मिल जाना, उनके सुख-दुःख में भागीदार बनना, उसकी बोली और संस्कृति को अपनाना एवं उनके धर्म का सम्मान करना। राजस्थान की भूमि शौर्य और संघर्ष की जननी है। जिस किसी ने भी भारत को गुलाम बनाकर उस पर शासन करना चाहा, उसे सबसे पहले राजस्थान के राजपूतों ने नाकों चने चबवाए। भारत का इतिहास लगभग सात सौ वर्षों तक राजस्थान के इर्द-गिर्द घूमता रहा। देश की आजादी और विकास में महाराणा प्रताप, राजा हम्मीर, दुर्गादास राठौर, राजा मानसिंह, राणा सांगा, रानी पद्मिनी के योगदान और बलिदान की गाथा आज किसी भारतवासी से छिपी नहीं है। राष्ट्रीय चेतना के संदेशवाहक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सेठ जमनालाल बजाज, गोविन्द दास, डॉ. राम मनोहर लोहिया, हनुमान प्रसादजी पोद्दार, भागीरथ कानोड़िया जैसे नाम और उनका काम कौन नहीं जानता?
लगातार आक्रमणों से खिन्न और अपने प्रदेश की भौगोलिक स्थिति से विवश होकर मारवाड़ी विस्थापित होेने लगे। आजीविका की खोज में मारवाड़ी विभिन्न स्थानों पर फैल गए। दूर-दराज के छोटे-छोटे गाँवों में, पहाड़ी बस्तियों में, बीहड़ों और जंगलों में, जहाँ भी ये गए, उद्यमी और संघर्षशील होने के कारण वहीं पर बस गए। कहते भी हैं कि ‘‘जहाँ न जाए बैलगाड़ी वहाँ जाए मारवाड़ी।’’
प्रवासी मारवाड़ियों की यह सबसे बड़ी विशेषता रही है कि जिस प्रकार चीनी अपनी मिठास को कायम रखते हुए दूध में घुल जाती है उसी प्रकार ये अपनी संस्कृति और संस्कारों का पालन करते हुए जिस प्रदेश में भी बसे, वहाँ के स्थानीय निवासियों की संस्कृति में शामिल हो गए। इतना ही नहीं, उनके सुख-दुःख के साथी बनकर मारवाड़ियों ने लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त किया। लोकोपकार और सांस्कृतिक उदारता की यह प्रवृत्ति न केवल व्यापार की समृद्धि का कारण बनी बल्कि इससे सम्पूर्ण देश की भावनात्मक एकता को भी बल मिला।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के शब्दों में, ‘‘मारवाड़ी भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। वे जिस प्रदेश में बसते हैं, वहाँ की तरक्की के लिए बहुत कुछ करते हैं और साथ ही अपनी मातृभूमि को भी नहीं भूलते। मारवाड़ी अपनी मेहनत और बुद्धि से सम्पन्न होते हुए भी घमण्ड नहीं करते, यह इनकी खूबी है।’’
राजस्थान के विभिन्न इलाकों से विस्थापित हुए बिड़ला, सिंघानिया, बजाज, गाड़ोदिया और कानोड़िया आदि घराने आज भारत के विभिन्न प्रान्तों में अपने उद्योगों एवं व्यवसाय के द्वारा एक ओर जहाँ रोजगार की समस्या को हल करते हुए राष्ट्रीय उत्पादन में अपना योगदान दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर स्थानीय नागरिकों के कल्याण हेतु करोड़ों-अरबों का सेवा कार्य भी कर रहे हैं।
बड़े-बड़े महानगरों में ही नहीं अपितु छोटे-छोटे शहरों, गाँवों और पहाड़ी इलाकों में भी सार्वजनिक स्थान, स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय, अस्पताल, धर्मशाला, प्रशिक्षण केन्द्रों का निर्माण एवं संचालन यह साबित करता है कि मारवाड़ी समाज आज के भोगवादी युग में भी लोकहित की बात सोचता है और परहित के कार्यों में खर्च करता है। देश में जितने भी छोटे-छोटे स्वैच्छिक समाजसेवी संगठन और गैर-सरकारी कल्याणकारी प्रकल्प चल रहे हैं उनमें से अधिकांश या तो मारवाड़ी समाज द्वारा स्थापित हैं या उनमें बहुत बड़ा योगदान इस समाज का है।
मारवाड़ी समाज की इस अनूठी और अन्यत्र दुर्लभ सेवा-भावना का आकलन करते हुए सोशलिस्ट नेता श्रीकृष्णन ने कहा है कि ‘‘मारवाड़ी समाज के लोग अगर वापिस राजस्थान की ओर मुड़ते तो वह मरुभूमि नहीं रहता, राजस्थान की काया-पलट हो जाती, लेकिन ऐसा नहीं है। ये प्रवासी मारवाड़ी जहाँ भी गए वहीं उद्योग-धंधा शुरु किया, वहीं के करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी के साधन बने, जहाँ गए हमेशा वहीं की भलाई और विकास के लिए चिन्ता की, मारवाड़ी समाज की यह विशेषता अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है।’’ भारत की विशेषता है कि यहाँ हर सौ किलोमीटर पर बोली बदलती है। मारवाड़ी समाज के लोग आज विभिन्न ग्रामीण, शहरी और पहाड़ी इलाकों में वहाँ की स्थानीय बोली इस कदर बोलते पाए जाते हैं कि उन्हें स्थानीय निवासियों से अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को प्रवास में रहकर भी यह समाज नहीं भूलता है बिहार की छठ-पूजा, पंजाब की बैसाखी, आसाम के बिहू, तमिल के पोंगल, केरल के ओणम, कर्नाटक के उगाड़ी और महाराष्ट्र के गणपति की खुशी में झूमते मारवाड़ी आंचलिक समरसता के पर्याय कहे जा सकते हैं। ग्रामीण अंचलों में विशेषकर अपने ग्राहकों और कर्मचारियों से स्थानीय बोली में धारा-प्रवाह वात्र्तालाप करते, स्थानीय पर्व-त्यौहारों को उत्साह और श्रद्धापूर्वक मनाते मारवाड़ी भारत की विविधता में रंग भरती कूची हैं।
आज जबकि देश की एकता और अखंडता को अपने ही देशवासियों से खतरा है, ऐसी विकट परिस्थिति में यह अनिवार्य हो जाता है कि अन्य समुदाय भी मारवाड़ी समाज का आंचलिक समरसता का यह गुण अपने आचरण में उतारें ताकि देश को मिल सके सम्पूर्ण एकता का वह कवच जिसपर कोई भी विघटनकारी, अलगाववादी या आतंकवादी तत्त्व प्रहार करने की हिम्मत नहीं कर सके और हम कह सकें कि ‘‘हम सब सुमन एक उपवन के।’’

राजनीति में मारवाड़ी समाज का योगदान

- प्रो. रामपाल अग्रवाल ‘नूतन’ -


Rampal Agarwal'Nutan'परिचयः प्रो.रामपाल अग्रवाल ‘नूतन’ का जन्म बनेड़ा (मेवाड़) राजस्थान में 23 जनवरी 1932 को हुआ। प्रारम्भिक पढ़ाई बनेड़ा में हुई। मैट्रिक राजस्थान से बी0ए0 पंजाब युनिवर्सिट से एम.ए, एल.एल.बी. व साहित्य रत्न अहमदाबाद से किया। विशारद कलकत्ता से किया। कुछ दिन गुजरात कालेज अहमदाबाद एवं सेन्ट जेवियर्स स्कूल अहमदाबाद में पढ़ाया। प्रारम्भ से सार्वजनिक सेवा में रूचि रही। गोरक्षा आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़े तथा इसी सन्दर्भ में 1954 में दिल्ली में गिरफ्तार हुए तथा 1955-56 में कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी जेल में एवं 1971 में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बन्द हुए। 1963 में कलकत्ता से पटना एक सभा में गये। बैठक भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद जी के सानिध्य में हुई। राजेन्द्र बाबू ने नूतन जी के गोसम्वर्धन सम्बन्धी ज्ञान से प्रभावित होकर बिहार में रह जाने का आह्वान किया और 1964 से आप पटना वासी हो गये। 1987 से 1989 तक आप बिहार प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। 2001 से 2002 में आप भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय गोवंश आयोग के सलाहकार रहे। सम्प्रति आप अ.भा.गोशाला फेडरेशन तथा बिहार सरकार द्वारा गठित पशु संरक्षण एवं गोशाला विकास समिति के अध्यक्ष हैं। पताः 16 श्रीकुँज अपार्टमेन्ट, बुद्धा कॉलोनी पटना-1, दूरभाष: 09334116334 - सम्पादक



मारवाड़ राजस्थान में है और ‘राज’ शब्द जुड़ा है राजस्थान में तो मारवाड़ी राजनीति से भिन्न अथवा दूर कैसे हो सकता है? राजस्थान का पुराना नाम राजपूताना, तो यहाँ भी बात राज की ही हो रही है। इसका अर्थ यह हुआ है कि प्रारम्भिक काल से ही इस प्रदेश का प्रत्येक व्यक्ति राजनीति से न्यूनाधिक परिचित व सम्बन्धित रहा है।
मारवाड़ी लोग राजस्थान से बाहर गये तो राजनीतिक चेतनता की अपनी इस विशेषता का परित्याग नहीं किया। मुगल बादशाह अकबर के प्रमुख सेनापति राजा मानसिंह जब दिल्ली से कूच कर पूर्वी भारत में मुगल साम्राज्य के विस्तार के क्रम में आये तो अपने साथ अनेक मारवाड़ी प्रशासनिक, व्यापारिक एवं युद्ध कौशल वीरों को लेकर आये। इनमें से कई मारवाड़ी पुनः लौट कर नहीं गये। यहीं रह गये। इस तरह यह कहा जा सकता है कि लगभग सोलहवीं सदी के आस-पास की अवधी में अच्छी संख्या में लोगों का मारवाड़ के क्षेत्रों से चलकर पूर्वी भारत में बिहार, बंगाल, उड़ीसा और आसाम आना प्रारम्भ हुआ जो निरन्तर बढ़ते चले गये। इसी तरह आक्रमण के समय मराठवाड़ा, विदर्भ तथा अन्य प्रदेशों में मारवाड़ी लोग गये। राज्य में कई तरह के दायित्व होते हैं। राजाओं के रूप में, भिन्न-भिन्न भांति की व्यवस्थाओं का दायित्व। सभी दायित्वों को निभा कर राजनीति में मारवाड़ी समाज का योगदान हुआ।
मारवाड़ में रहने वालों को अनेक विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करने का अभ्यास होता है। श्रम उनका स्वभाव। ईमानदारी, विनम्रता एवं समरसता उनके संस्कार। इन विशेषताओं का उन्हें सर्वत्र लाभ मिला। जहाँ भी जिस प्रदेश में गये, वहाँ की भाषा सीखली, वहाँ के लोगों में घुलमिल गये। उदारता, औरों की भलाई, जैसे मारवाड़ियों के गुणों के कारण ही इस समाज ने पैसा भी कमाया और सर्वत्र चिकित्सालय, शिक्षालय, कुँए, बावड़ी, प्याऊ, अनाथालय, गौशालाओं का अम्बार लगा दिया जो इस समाज की देश भर में अपनी अलग पहचान बनाती है।
राजस्थान से जो लोग अन्य प्रदेशों में गये, उन्हें मारवाड़ी कहा जाने लगा। यद्यपि मारवाड़ राजस्थान का एक क्षेत्र है। पूरा राजस्थान मारवाड़ नहीं है। जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर का विस्तृत हिस्सा बालू के
अधिक्य वाला है। मरु प्रदेश अथवा बालू या फिर रेत की अधिकता वाला क्षेत्र इसमें रहने वाले मारवाड़ी स्वभावतः मारवाड़ी कहाये।
ऐसे मारवाड़ से आने वाले लोग मारवाड़ी समाज की पहचान व्यापारी के रूप में बनी। उपरोक्त वर्णित विशेषता लिये हुए थे। बाद में उदयपुर (मेवाड़) हो या जयपुर स्टेट या हाड़ोती क्षेत्र या राजस्थान के किसी भी हिस्से से आये लोग मारवाड़ी ही कहलाये।
क्षत्रित्व की पृष्ठभूमि: यद्यपि राजस्थान से आने वाले लोग प्रायः व्यापारी थे, लेकिन इनके पूर्वज क्षत्रिय राजा थे। जैसे मारवाड़ी समाज में अग्रवालों की संख्या सर्वाधिक रही थी जो महाराज अग्रसेन की सन्तान हैं। अग्रसेन एक क्षत्रिय राजा थे, जो किवदन्तियों के अनुसार लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व महारानी लक्ष्मी के आदेश पर वैश्य बने। इनके रीतिरिवाजों में आज भी राजाओं के प्रतीकों का उपयोग होता है। इसी तरह एक बड़ा वर्ग माहेश्वरी समाज है। जैन समाज, खण्डेलवाल आदि क्षत्रिय थे जो बाद में वैश्य बने। तब से लेकर इस अवधि में जो लोग देश के कोने-कोने से आये वे अग्रवाल, माहेश्वरी, खण्डेलवाल आदि कहलाये। इस तरह कहना चाहिये कि यह व्यापारी समाज राजघरानों की पष्ठभूमि से आया है। इसलिये राजनीति इनके लिये नयी नहीं है। इनके खून में है।
मुगल काल हो या इसके पूर्व का, यह स्पष्ट उल्लेख प्रायः मिलता है कि राजाओं के दीवान व खाजांची तथा अन्य व्यवस्थायें वैश्य समाज करता था। इसलिये राजाओं के रूप में इनकी संख्या कम होती चली गयी, लेकिन राज्य को स्थिर कर व्यवस्था का प्रमुख स्तम्भ इन्हीं लोगों के हाथ में रहा। राजनीति के क्षेत्र में यह सबसे बड़ा योगदान है।
हम इस आलेख में राजनीति के क्षेत्र में मारवाड़ी समाज के योगदान की बात कर रहे हैं, उसे अंग्रेजी काल की अवधि के योगदान की बात भारत की स्वतत्रंता के लिये किये गये संघर्ष में रही राजनैतिक हिस्सेदारी का विवरण प्रस्तुत करना है।
यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मारवाड़ी शब्द का अर्थ केवल वैश्य समाज से नहीं है। मारवाड़ी ब्राह्मण हो या अन्य किसी जाति का, जैसे अंगरेज का काम करने वाला या नाई का काम करने वाला व्यक्ति, या किसी पेशे से जुड़ा हुआ हो, वह मारवाड़ी ही कहाया। मारवाड़ी शब्द एक संस्कार विशेष से जुड़ गया। संस्कृति का प्रतीक बन गया। शाकाहार, सात्विकता, सादगी व समरसता तथा समन्वय की क्षमता वाला क्षमाशील व्यापारी। ईमानदारी, उदारवृत्ति आदि इसकी प्रारम्भिक पहचान बनी। ये गुण राजनीतिक कुशलता के लक्षण माने जाते थे।
यह सर्वविदित है कि मारवाड़ी में अद्भुत सहनशीलता होती है, और अंग्रेजों के समय इसी गुण के कारण ये व्यापार व उद्योग के शीर्ष पर पहुँच गये। व्यापार का सीधा सम्बन्ध प्रशासन से होता है। इसलिये राज्य जिसका भी होगा व्यापारी हो या उद्योगपति, उसे ‘राजा’ से मिल कर चलना पड़ेगा। व्यापार ही क्यों यदि राजा अत्याचारी, शासक, दबंग होगा तो हर नागरिक को झुक कर चलना पड़ेगा। कौन नहीं जानता कि सात समन्दर पार से आये अंग्रेजों ने जो दमन चक्र चलाया, उसके सभी वर्ग शिकार हुए लेकिन जब अन्याय व जुल्मों-सितम के विरुद्ध विद्रोह की टीस ने अंगड़ाई ली तो देश का कोई कोना बाकी नहीं रहा। बाल, लाल, पाल की त्रिवेणी अवतरित हुई। बाल अर्थात् बाल गंगाधर तिलक, लाल अर्थात लाला लाजपत राय और पाल अर्थात विपिनचन्द्र पाल। इनमें लाला लाजपत राय अग्रवाल समाज में उत्पन्न हुए। फिर शेष मारवाड़ी समाज कैसे पीछे रहता। अंग्रेजों ने पूरे भारत में लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक राज किया। सन् 1857 में खुला विद्रोह हुआ तो विद्रोह बढ़ता ही चला गया। बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गान्धी, लाला लाजपत राय, वीर सावरकर, भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस जैसे राष्ट्र भक्तों ने एवं उनके साथ जिन महत्त्वपूर्ण लोगों ने स्वतन्त्रता संघर्ष यात्रा का पथ पकड़ा, ऐसे शूरवीरों की शंृखला में मारवाड़ी समाज के सैंकड़ों प्रमुख लोगों ने अपने जीवन की आहुति दी, कई विख्यात हैं। अनेकों के नाम मालूम नहीं हंै और अधिकांश अंधेरे की ओट में शहीद बन कर गुमनाम हो गये।
मारवाड़ी एसोसियेशन: 1885 में कांग्रेस का जन्म हुआ जिसका राष्ट्रीय स्वरूप बना। देश भर में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त हो रहा था उसकी अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनी। अंग्रेजों ने राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली एकता को तोड़ने का प्रयास किया और इसी क्रम में बंगाल में मारवाड़ी समाज का, जो विशेष रूप से उद्योग एवं व्यापार में अपना प्रभुत्व बढ़ाता जा रहा था, के साथ राजनैतिक भेदभाव किया जाने लगा। इसीके विरुद्ध 1898 में मारवाड़ी एसोसियेशन नामक संगठन बना जो मारवाड़ी समाज के हितों का प्रहरी बना। इसने राजनैतिक लड़ाई लड़ी। आगे जाकर यह संस्था अपना अस्तित्व सुरक्षित नहीं रख पायी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस संस्था के कई लोगों का अंग्रेजों के साथ ताल-मेल बन गया, लेकिन यह स्वरूप सामने आया कि इस संस्था से जुड़े कुछ लोगों का ध्यान अंग्रेजों से उपाधियाँ लेने में अधिक रहा। जैसे राय साहब, राय बहादुर, सर आदि। बदनाम होने पर यह संस्था समाप्त हो गयी। पुनः मारवाड़ी समाज को बंगाल में दोयम श्रेणी का नागरिक बनाये जाने का खतरा उत्पन्न हुआ तो इसका जोरदार विरोध हुआ। प्रतिक्रियास्वरूप 1935 में रामदेव जी चोखानी की अध्यक्षता में अ.भा. मारवाड़ी सम्मेलन की स्थापना हुई। मारवाड़ी सम्मेलन ने अपने प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक राजनैतिक चेतना और समाज सुधार के लिये अनेक संघर्ष किये। हम स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय में अ.भा.मारवाड़ी सम्मेलन के कार्यकत्र्ताओं द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध किये गये संघर्ष का मूल्यांकन किसी से कम नहीं मानते। उसीका प्रभाव बिहार के मारवाड़ी समाज पर पड़ा तथा राजनीति में समाज का अद्भुत योगदान रहा तथा 1940 में सशक्त बिहार प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन की स्थापना हुई।
जमनालाल बजाज: मैं यहाँ मारवाड़ी समाज के सबसे चर्चित नाम जमनालाल बजाज से प्रारम्भ करता हूँ। जमनालाल जी को शतप्रतिशत मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधि के रूप में स्वतन्त्रता सेनानी कह सकते हैं। एक सीधे सादे, सज्जन प्रवृत्ति के चरम सीमा के ईमानदार, सम्पन्न, दानवीर मारवाड़ी व्यवसायी। अनेक गुणों से परिपूर्ण सन् 1915 से ही आप राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से प्रभावित हो उनके सम्पर्क में आये, और गांधीजी ने भी जमनालाल जी को भरपूर अपनत्व दिया, यहाँ तक कि गांधीजी के 5वें पुत्र के रूप में जमनालाल जी कहाये जाने लगे। बजाज जी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने में गांधी के सत्याग्रह का नेतृत्व किया। बहुत बड़े उद्योगपति, सुकोमल शरीर, परन्तु न केवल स्वयं, अपनी पत्नी जानकी देवी को खद्दर के कपड़े पहनाये। जमनालाल जी के इस त्याग का प्रभाव यह पड़ा कि मारवाड़ी समाज के नवयुवकों तथा महिलाओं ने स्वतंत्रता के इस आन्दोलन में अपने को जोड़ लिया। यदि किसी राष्ट्रीय नेता की गिरफ्तारी होती तो मारवाड़ी समाज की संख्या वाले बाजार पहले बन्द होते थे।
27 अगस्त 1930 में एक अंग्रेज अधिकारी ए.एच. गजनवी द्वारा तत्कालीन वायसराय के कार्यालय को एक निजी पत्र भेजा गया। उसमें उल्लेख किया कि यदि महात्मा गांधी के आन्दोलनों से मारवाड़ी समाज को अलग कर दिया जाय तथा बंगाल का आंदोलन केवल बंगाल वासियों के हाथ में छोड़ दिया जाय तो नब्बे प्रतिशत आंदोलन अपने आप ही समाप्त हो सकता है। गजनवी ने मारवाड़ी समाज के उन स्वतन्त्रता प्रेमियों की सूची भी भेजी जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सहस्त्रों लोगों को जेल में डाल दिया, उनके घर का खर्च चलाने, आजादी के अवसर पर होने वाले व्यय का अधिकांश हिस्सा मारवाड़ी समाज के लोगों ने प्रदान किया। स्वयं भी जेल में गये। कई क्रान्तिकारी बने, कइयों को फांसी हुई।
गांधीजी ने जमनालाल जी की सहायता से दक्षिण में हिन्दी प्रचार के कार्य में सुविधा का अनुभव किया, अग्रवाल समाज को तथा मारवाड़ी समाज को संगठित कर उन्हें स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। श्री कृष्ण जाजू ने अपने को स्वतंत्रता के लिये समर्पित कर दिया। मुम्बई के श्री मदनलाल जालान जैसे सैंकड़ों मारवाड़ी कार्यकत्र्ताओं ने जेल भर दिया। साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय की पीठ पर इतनी लाठियाँ पड़ी कि अन्त में इसी पीड़ा से उनकी मृत्यु हो गयी।
बंगाल स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख केन्द्र बना हुआ था। 1930 के नमक सत्याग्रह में देश भर में मारवाड़ी समाज ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।


बिहार में मारवाड़ी समाज की भूमिका: स्वतंत्रता संग्राम में रामकृष्ण डालमिया द्वारा दिये गये सहयोग से सब परिचित हैं। पूरे बिहार में चलने वाले कांग्रेस के अधिकांश व्यय का भार रामकृष्ण डालमिया ने उठाया। एक बार बिहार में कांग्रेस के खर्च को लेकर रामकृष्ण डालमिया और बिहार कांग्रेस के नेताओं में कोई विवाद हो गया तो जमनालाल बजाज ने समझौता करवाया। उस समय गांधी जी ने कहा ‘‘रामकृष्ण तुमने इलेक्सन का खर्चा देना स्वीकार करके मेरा बिहार का बोझ हल्का कर दिया।’’
उपरोक्त एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि बिहार के स्वतंत्रता आन्दोलन में मारवाड़ी समाज का कितना बड़ा योगदान रहा है।
वस्तुतः बंगाल द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन में जो मारवाड़ी समाज की भूमिका रहती थी उसका प्रभाव बिहार के मारवाड़ी समाज पर पड़ता था। मारवाड़ी समाज की एक अन्य महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अनेक प्रकाशनों तथा समाचार पत्रों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने का और स्वतत्रंता के पश्चात् देश को आगे बढ़ाने का। बिहार और बंगाल के मिलेजुले प्रयत्न होते थे। बिहार के सत्यपाल धवले जैसे अनेक बिहारी कार्यकत्र्ताओं का पूरा व्यय कलकत्ते का मारवाड़ी समाज उठाता था जो बंगाल व बिहार में राजनीतिक चेतना की कड़ी बने हुए थे।
बात 1950 की है जब मैं राजस्थान से मैट्रिक कर आगे की पढ़ाई करने कोलकाता जाकर बसा। दो वर्ष के भीतर वहां के मारवाड़ी समाज के सम्पर्क में आ गया। उस समय लगभग 80 वर्षीय श्री ओंकारमल जी सराफ गांधीजी के आह्वान पर कई बार जेल हो आये थे। उनकी गिनती अग्रणी स्वतत्रंता सेनानियों में आती थी। चित्तरंजन एवेन्यू में उनका मकान था।
‘‘बंगाल के हिन्दी कवि’’ नाम से प्रकाशित की जाने वाली पुस्तक के सन्दर्भ में पटना एवं देवघर आने का मुझे कई बार अवसर पड़ा। उस समय श्री मोतीलाल जी केजरीवाल की गिनती बिहार के वरिष्ठ स्वतत्रंता सेनानियों में होती थी।
1930 के नमक सत्याग्रह में भाग लेने वाले कलकत्ता मारवाड़ी समाज के अग्रणी महानुभावों यथा सीताराम जी सेक्सरिया, बसन्त लाल मुरारका, राम कुमार भुवालका आदि के बारे में जानकारी हुई। बिहार के मुजफ्फरपुर में पैदा हुए ईश्वर दास जी जालान 1952 में प्रथम बंगाल विधान सभा के अध्यक्ष बने। उस समय बड़ाबाजार जोड़ा बागान, जोड़ासांकू की विधान सभाओं में मारवाड़ी समाज की जन संख्या कम नहीं थी। श्री आनन्दी लाल पोद्दार,बाद में दैवकी नन्दन पौद्दार, और सत्यनारायन बजाज भी इन्हीं क्षेत्रों से विजयी होकर बंगाल विधान सभा में पहुँचे। ईश्वर दास जी जालान के बाद रामकृष्ण सरावगी विधायक बने। श्री सरावगी अ.भा.मारवाड़ी समाज के अध्यक्ष भी रहे जिन्होंने रांची अधिवेशन में पदभार ग्रहण किया। वर्तमान में श्री दिनेश बजाज इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहें हैं।
स्वामी करपात्री जी द्वारा देश में अनेक जगह राम राज्य परिषद की स्थापना की गई। परिषद की ओर से कलकत्ता के बड़े बाजार से बाबू लाल सराफ खड़े होते थे। बिहार में भी मारवाड़ी समाज के आर्थिक सहयोग से 1952 की प्रथम विधान सभा में उस समय राम राज्य परिषद के 5 सदस्य निर्वाचित हुए। बिहार में भागलपुर क्षेत्र मारवाड़ी समाज का गढ़ है। यहाँ से सम्भवतः दूसरी लोकसभा के लिये श्री बनारसी दास झुनझुनवाला चुन कर गये। इसी तरह लोक सभा में चुन कर गये बांका से श्री बेणी शंकर शर्मा। जब वाजपेयी जी का मंत्रीमण्डल बना उस अवधि में चतरा से श्री धीरेन्द्र अग्रवाल लोक सभा से चुन कर गये। कलकत्ता में प्रभू दयाल जी हिम्मतसिंहका का नाम स्वतंत्रता संग्राम में घनश्याम दास जी बिड़ला के साथ आता था। लेकिन कलकत्ता तथा दुमका से वे दोनों बार लोक सभा सीट पर हार गये। बिहार विधानसभा में मारवाड़ी समाज की उपस्थिति 4-5 सदस्यों की अवश्य हो जाती है जो कम है फिर भी महाराष्ट्र विधान सभा के बराबर या कुछ अधिक हो जाती है।
1951 से 1957 की अवधि में ही मैं राम राज्य परिषद से जुड़ा और मुझे 1956 में मुम्बई के चौपाटी पर हुए अधिवेशन में अखिल भारतीय राम राज्य परिषद का प्रचार मंत्री चुना गया। देश की राजनीतिक पार्टियों में केवल राम राज्य परिषद ही ऐसा राजनैतिक दल था जिसने गौहत्या बन्दी को अपने चुनाव घोषणा पत्र का प्रमुख सूत्र रखा। दिल्ली तथा कलकत्ता में राम राज्य परिषद के संस्थापक स्वामी करपात्री जी द्वारा चलाये गये गौरक्षा आन्दोलन में मैं 1954 में 15 नवम्बर को जवाहर लाल जी नेहरू की कोठी 3 मूर्ति भवन के समक्ष गिरफ्तार हुआ। सितम्बर 1956 में कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी जेल में बन्द हुआ, पुनः 1971 में दिल्ली की तिहाड़ जेल में डेढ़ माह तक बन्दी रहा। बिहार के श्री सीताराम जी खेमका मुंगेर के रहने वाले थे, उन्होंने देश भर में राम राज्य परिषद को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। राम राज्य परिषद एवं गौरक्षार्थ अहिंसात्मक धर्म युद्ध समिति के राष्ट्रीय महामंत्री बने। इसी तरह कलकत्ता के 29 स्ट्रेन्ड रोड के भागीरथ जी मोहता 1952 में अ.भा. हिन्दु महा सभा के उपाध्यक्ष थे। जैसे घनश्याम दास जी बिड़ला कांग्रेस को आर्थिक मदद देने वालों में माने जाते रहे उसी तरह जुगल किशोर जी बिड़ला ने हिन्दु महासभा को आगे बढ़ाने में सर्वाधिकं सहयोग किया। जुगल किशोर जी बिड़ला ने न केवल अ.भा.हिन्दु महा सभा दिल्ली को संरक्षण दिया बल्कि पटना में सब्जी बाग में निर्मित बिड़ला मन्दिर में हिन्दु महा सभा के लिये स्थान प्रदान किया।
ऐसा नहीं है कि मारवाड़ी समाज केवल मध्यमार्गी अथवा दक्षिणपन्थी संस्थाओं से ही जुड़ा रहा। कलकत्ता में 1951 में मेरे बड़े भ्राता बंशी लाल अग्रवाल ने कई बार कम्यूनिस्ट आन्दोलन में सम्मिलित होकर जेल यात्रायें की। सरला माहेश्वरी कम्युनिष्ट पार्टी की ओर से सांसद रही।
मुझे याद है कि कलकत्ता के सम्पन्न मारवाड़ी समाज द्वारा बिहार के राजनैतिक कार्यकत्र्ताओं को जीवन निर्वाह के लिये अच्छी राशि दी जाती थी। सीतामढ़ी के श्री निरंजन खेमका 1940, 45 से हिन्दु महासभा के वरिष्ठ नेता थे। भाई हनुमान प्रसाद जी पोद्दार ने बम्बई और कलकत्ता में राजनीतिक चेतना संचारित करने का काम किया। 1942 में अनेक मारवाड़ी अग्रणियों की भांति वे भी जेल गये।
मुझे स्वयं को राम राज्य परिषद, हिन्दु महासभा व जनसंघ के एकीकरण के सिलसिले में वाराणसी में 1955 में रामराज्य परिषद के दो सांसदों के साथ हिन्दु महासभा के प्रधान मन्त्री श्री बी. जी. देशपाण्डे तथा जनसंघ के वरिष्ठ नेता दीन दयाल जी उपाध्यक्ष के साथ मन्त्रणा का अवसर मिला।
बेतिया के श्री रामकुमार जी झुनझुनवाला पूरे बिहार में स्वतन्त्रता संग्राम के दीप की लौ जलाये हुए थे। वे बिहार प्रदेश मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष भी थे। इतना ही नहीं 1917 में जब गांधी जी ने बिहार की धरती से नील खेती के विरुद्ध प्रथम किसान आन्दोलन चलाया, तब मोतिहारी, बेतिया, रक्सौल व आस-पास के सैंकड़ों मारवाड़ी नवयुवकों ने सत्याग्रह में भाग लिया। चाहे स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है आन्दोलन, चाहे अवज्ञा आन्दोलन, चाहे असहयोग आन्दोलन, चाहे नमक सत्याग्रह, चाहे विदेशी वस्त्र जलाओं आन्दोलन, चाहे भारत छोड़ो आन्दोलन-मारवाड़ी समाज विशेषकर बिहार का मारवाड़ी समाज सदैव आगे की पंक्ति में दिखायी पड़ता है। गांधी जी ने वर्ष 1917 में चम्पारण के किसान आन्दोलन के समय इस क्षेत्र में 3-4 गौशालाओं की स्थापना की। उनका भार मारवाड़ी समाज ने उठाया। बेतिया, मोतीहारी, चकिया में स्थापित गौशालायें इसका प्रमाण हैं।
गांधी जी द्वारा इन गौशालाओं में कहे गये वचन मारवाड़ी समाज को अपने कर्तव्य का स्मरण करा रहे हैं।
स्वतन्त्रता संग्राम में या बाद की राजनीति में मारवाड़ी समाज का बहुत बड़ा योगदान रहा है, तथापि यह कहना पड़ता है कि आज मारवाड़ी समाज यदि संगठित हो जाय तो बिहार की दो लोक सभा सीटों पर उसका क्लेम बनता है। यों राज्य सभा में भी मारवाड़ी समाज का योगदान रहता आया है, लेकिन राज्य सभा में जिन लोगों को प्राथमिकता मिलती है उनमें अर्थ की
प्रधानता रहती है। वर्तमान सरकार के केन्द्रीय कम्पनी मन्त्री श्री प्रेम चन्द गुप्ता बिहार से ही राज्य सभा के सदस्य हैं। यों मैं व्यक्तिगत रूप में जातीय आधार पर टिकट दिलाने के पक्ष में नहीं हूँ, लेकिन बिहार में टिकट प्राप्ति में जातियों की प्रधानता रहती है इस स्थिति को समाप्त होना चाहिये।
यह कहते हुए हर्ष होता है कि 1955 में बिहार विधान सभा में पहली बार अलग झारखण्ड राज्य की मांग करने वाले
विधान पार्षद श्री जयदेव जी मारवाड़ी ही थे। उनकी मूर्ति झारखण्ड में लगायी जानी चाहिये।

मारवाड़ी समाज एक सशक्त राजनीतिक मंच बने, जो ईमानदार, अनुभवी व ज्ञानी युवा लोगों को आगे बढ़ाने का काम करे। यों बिहार के मारवाड़ी समाज का प्रदेश व देश की राजनीति में जो योगदान है उसे उजागर करने के लिये स्वतन्त्र रूप से प्रयत्न करने की जरूरत है। इसी कड़ी में हम यह कह सकते हैं कि डॉ. राम मनोहर लोहिया जो मारवाड़ी समाज में पैदा हुए, देश के सबसे बड़े मौलिक चिन्तक हुए। डॉ. लोहिया ने सबसे पहले बिहार में सरकार बनवायी। ऐसे महापुरुषों को, केवल मारवाड़ी समाज तक सीमित रखा जाना इनके साथ न्याय नहीं होगा।
1952 में तत्कालीन कांग्रेसी नेता व मारवाड़ी समाज के गौरव हीरा लालजी सराफ; वर्तमान में बि.प्रा. मारवाड़ी सम्मेलन के वरिष्ठ अग्रणी श्री गोपी कृष्ण सराफ के पिता बिहार में कदाचित सर्वप्रथम बिहार चैम्बर ऑफ कॉमर्स की ओर से विजयी होकर विधान सभा के मारवाड़ी विधायक चुने गये। बिहार में जनसंघ को बढ़ाने में श्री शंकर लाल बाजोरिया जैसे अनेक सुदृढ़ कार्यकर्ताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान था। भागलपुर के ही सन्त लाल जी ने स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक लाठियाँ खायी। भागलपुर के सीताराम किशोरपुरिया 1967 में बिहार में मारवाड़ी विधायक बने 1977 में सुगौली के मोहन लाल मोदी, कटिहार से सीताराम चमड़िया अपनी कर्मठता के आधार पर विधायक बने। मारवाड़ी समाज में महिलायें भी पीछे नहीं रही। कांग्रेस की ओर से राजकुमारी हिम्मतसिंहका दुमका की विधायक बनी। धनबाद जिला से सत्य नारायण दूधानी बिहार
विधान सभा में कुछ अवधि तक विरोधी दल के नेता रहे। दरभंगा से श्री रमा वल्लभ जी जालान साम्यवादी दल की ओर से
विधायक बने। बि.प्रा. मारवाड़ी सम्मेलन के भूतपूर्व अध्यक्ष ताराचन्द दारूका विधान पार्षद रहे। साहबगंज (संथाल परगना) से भाजपा की ओर से रघुनाथ सुडानी जी ने दो बार विधान सभा में प्रतिनिधित्व किया।
बिहार में जिन लोगों ने राजनीतिक क्षेत्र में विधायक या विधान पार्षद से ऊपर उठ कर मन्त्री तक का दायित्व सम्भाला उनमें बरहरवा के स्व. नथमल जी डोकानिया कैबिनेट व वारसोई के सोहन लाल जी राज्य स्तर के मन्त्री बने। श्री शारडा जी भी केबिनेट मन्त्री रहे। श्री शंकर प्रसाद टेकरीवाल मारवाड़ी समाज के ऐसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं जिन्हें स्वयं को पार्टी की जितनी आवश्यकता हुई उससे कम जरूरत पार्टियों को उनकी नहीं रही। शंकर बाबू ने कई बार बिहार सरकार के वित्त, खनन तथा परिवहन जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग सम्भालें तथा राज्य के विकास में अहम भूमिका निभायी।
वत्र्तमान में भाजपा की ओर से निर्वाचित दरभंगा के युवा
विधायक संजय सरावगी ने कुछ ही समय में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। कटिहार के विधान पार्षद मोहन लाल जी अग्रवाल एवं ठाकुरगंज के गोपाल अग्रवाल ओजस्वी विधायक हैं। अपने बलबूते पर स्वतन्त्र रूप से जीतने वाले प्रदीप जोशी मारवाड़ी विधायक हैं। और अन्त में हम नाम ले रहे हैं श्री सुशील कुमार मोदी जी का जो न केवल 4 बार से निरन्तर विधायक हैं बल्कि बिहार के उपमुख्य मंत्री हैं। बीच में आप सांसद भी बने। आपने यह उपलब्धि मारवाड़ी समाज में उत्पन्न होने से नहीं पायी, बल्कि बिहार के आम आदमी के संरक्षण व विकास के लिये अपने त्याग व सेवा के कारण पायी है। पर यह भी सत्य है कि मारवाड़ी समाज, संस्कारवश जो ईमानदार होता है कर्मठ होता है यथासम्भव निस्वार्थ होता है, भद्र मानुष होता है, इन गुणों ने मोदी जी को ऊँचा उठाने में बिहार के उपमुख्य मन्त्री पद तक पहुँचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। आपको सत्ता के शीर्ष स्थान पर देखकर हमारा समाज ही नहीं बिहार के आम आदमी प्रसन्न हैं। इसलिये कि हम सभी इस प्रदेश के नागरिक हैं। इस प्रदेश की उन्नति में ही हम सबकी उन्नति है।

हस्या लोककथा: अक्खड़ स्वभाव - नथमल केडिया


राजस्थान प्रदेश में राजपूत जाति के लोग बहुत अक्खड़ स्वभाव के होते हैं। चलती पून (पवन) से लड़ाई करना उनका स्वभाव है। मिनटों में सिर फुड़ोबल तथा मरने-मारने को तैयार। वैसे जबान के एकदम पक्के, जो मुँह से बोल दिया वह लोहे की लकीर। पर जल्दी से कोई क्यों उलझे इसलिये बनिये आदि उनसे व्यवहार करने में कतराते है। हाँ तो एक बार जंगल में एक राजपूत तथा एक बनिया साथ-साथ जा रहे थे। वे एक दूसरे से थोड़े बहुत परिचित तो पहले से थे और रास्ता आपस में परिचय को बहुत जल्द पनपा भी देता है। इसलिये आपस में बातचीत शुरु हो गई।
एकाएक राजपूत सज्जन बोले-देखो वह जो बहुत दूर पर पेड़ दिखाई देता है, रास्ते के दाँयी ओर बड़ा-सा घेर घुमेरदार, वह पीपल का पेड़ है। बणिये ने स्वाभाविक रूप से ही कह दिया-नहीं, ठाकर साब! वह तो बड़ का पेड़ है। पर राजपूत को यह कहाँ गवारा था कि वे कोई बात बोले और दूसरा उसको काटे। वे थोड़ी अक्खड़ आवाज में बोले-मेरे हिसाब से तो वह पीपल का पेड़ है पर
इधर बनिये को स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि पेड़ बड़ का है। उसने भी कह दिया-नहीं यह बड़ का पेड़ है। बस इतनी-सी बात हुई कि राजपूत सज्जन तेश में आकर बोले-देख! यदि पीपल का पेड़ हुआ तो मैं तुम्हारी गरदन उतार लूँगा और बड़ का निकला तो तुम मेरी गरदन उतार लेना। बेचारे बनिये ने ऐसी शर्त कभी तीन पुश्त में नहीं की थी पर उसके आगे सिवाय हाँ भरने के कोई चारा नहीं था। उसको मंजूरी देनी पड़ी। और वे जब पेड़ के पास आये तो वह पेड़ बड़ का निकला। तब राजपूत ने कहा-सेठ! मैं होड़ (शर्त) हार गया। यह लो मेरी तलवार और मेरी नाड़ काट लो। पर बनिये बेचारे को कहाँ किसी का सिर काटना था उसने कहा-ठाकराँ! मुझे तो आपका सिर काटना नहीं है। आप राजी खुशी घर जायें। पर उस राजपूत ने कहा-देखो! जो होड़ हुई है वह पक्की है। अब तुम मेरा सिर नहीं काटते हो तो कोई बात नहीं है पर अब से मेरे गले का ऊपर का सब हिस्सा तुम्हारा हो गया। यह तुम्हारी अमानत मेरे पास है। बनिये बेचारे ने हाँमी भर ली और अपना पिण्ड छुड़ाया।
पर महीना भर भी नहीं बीता होगा कि उसे पता चला कि उसका पिण्ड कहाँ छूटा है? वह तो और ज्यादा शिकंजे में कस गया है। उस दिन उसने अपनी दुकान खोली ही थी और बोहनी के लिये ग्राहक की बाट जोह रहा था, ये महाशय ऊँट पर चढ़े हुए पहुँचे। खूब बढ़िया तेल फुलेल लगाये हुए तथा सिर पर कीमती साफा (पग्गड़) पहने हुए थे। आकर दुकान पर शान से बैठ गये। बणिये ने जब उनकी ओर देख कर जिज्ञासा की तो गरजती सी आवाज में बोले-सेठ बताओ, यह मुंड (गले के ऊपर का हिस्सा) मेरा है या तुम्हारा? तब बनिये के ध्यान में आया कि यह जंगल में होड़ में हारा वही राजपूत है। बिचारा, हिचकिचाते हुए बोला-मेरा! सुनकर ठाकर बोला-तो इसको साफ सुथरा रखने में इतने का साबुन लगा इतने का तेल-फुलेल लगा और कंघी चोटी में इतना लगा, कुल 80/- रुपये लगे सो दो। सेठ बिचारा क्या करे यदि ना-नू करे तो अभी यहाँ सीन खड़ा कर दे। गल्ले से चुपचाप 80/- रुपये निकाल कर दे दिये।
अब महीना सवा महीना बीतते न बीतते राजपूत महाशय सेठ की दुकान पर आ बिराजे और मूंड को खिलाने-पिलाने, रख-रखाव के 80/- - 100/- ले जाय। सेठ बिचारा इससे छुटकारा कैसे मिले इस चिन्ता में घुलकर आधा रह गया। इस तरह छह-आठ महीने बीत गये। बार-बार ठाकर का आना सेठ के पड़ोसी दुकानदार भी देख रहे थे और ताज्जुब करते थे कि क्या बात है? यह ठाकर-ठाठ से ऊँट पर आता है और मूँछों पर ताव देते हुए घड़ी आध घड़ी में लौट जाता है। एक दिन उनमें से एक ने सेठ से पूछा-भाइजी! मुझे पूछना तो नहीं चाहिये पर आपने इससे कोई रकम उधार ले रखी है क्या? सेठ ने माथे पर हाथ रखते हुए अपनी सारी पीड़ा खोल कर बताई। सुनकर पहले तो पड़ोसी दुकानदार सोच में डूब गया पर दो-चार दिन के बाद ही दोनों ने कानों कान सलाह मशविरा किया। उस दिन पहली बार इस सेठ के मुँह पर कुछ मुस्कान नजर आई। हाँ तो अपने समय पर राजपूत महोदय को तो आना ही था। सदा की तरह आकर बड़े रोब से ऊँट से उतरे और दुकान के गद्दे पर बैठ गये और अपना डॉयलाग बोलना चालू किया पर आज सेठ ने कहा-ठाकराँ! अभी जल्दी क्या है? आये हैं तो बैठिये। हमारे इस मूंड को जल व चिलम तम्बाकू पिलाइये फिर इतमिनान से ले जाइयेगा। और उनको बैठे आठ दस मिनट ही हुई होंगी कि बगलवाला दुकानदार आया और बोला-भाइसाहब! आज एक ग्राहक अजीब चीज माँग रहा है। दाम भी आकरा (बहुत अच्छा) देने को तैयार है। मुझे तो नहीं पता यह कैसे-कहाँ मिलेगा? मैंने कहा-मेरे पास नहीं है तो बोला-मुझे अरजेन्ट चाहिये कहीं से भी जोगाड़ कर के ला दो। सेठ ने पूछा-क्या चीज? तो संकोचवश सेठ के कान में बताया पर सेठ जोर से बोला-यह तो मैं ही दे सकता हूँ पर 200/- लगेंगे। दुकानदार 150/- देने पर राजी हुआ। आखिर में 175/- में सौदा पटा। फिर इस बनिये ने राजपूत महोदय की ओर मुखातिब होकर कहा-ठाकराँ यह मूंड मेरा है कि आपका? ठाकर ने कहा-आपका। इसीलिए तो रख-रखाव में 90/- लगे वे लेने आया हूँ। वे इतनी बात कर रहे थे कि अगल-बगल के दो-चार लोग और आ गये और बात सुनने लगे। अब इस बनिये ने बगल की दुकानवाले से कहा-आपको एक कान चाहिये तो? उसने कहा-हाँ। उसके हाँ बोलने के साथ उसे छुरी देते हुए कहा-इस ठाकर का एक कान काट कर ले जाओ और 175/- नगदी रख जाओ। अब ठाकर की चमकने की बारी थी, बोला-यह क्या? बात पूरी की पूरी मूंडी काटने की थी। सेठ बोला-ठाकराँ हम तो दुकानदार हैं। हमलोग बोरे के बोरे चीजों के थोक में खरीदते हैं और सेर-आध सेर, पाव, खुदरा में बिक्री करते हैं। आज एक कान का ग्राहक आया है तो उसे कान दे देवेंगे, कल यदि नाक का ग्राहक आया तो उसको नाक दे देंगे। भगवान करे कोई आँख का ग्राहक मिल जावेगा तो इस मूंड का बहुत अच्छा दाम मिल जावेगा। इतनी बात बोलते-बोलते उस दुकानदार की ओर देखकर बोला-देखते क्या हो मैं कहता हूँ ना एक कान काट कर ले जाओ और रोकड़ी 175/- रुपये रख जाओ। अब ठाकर हाय तोबा करने लगा। कुछ देर में गिड़गिड़ाने लगा। आखिर में लोगों ने बीच-बचाव किया और ठाकर को अपना 2000/- रुपये की कीमत का ऊँट देकर सेटलमेन्ट करना पड़ा।
संपर्क: -4ए, शम्भूनाथ पण्डित स्ट्रीट, कोलकाता-20 मो. - 9331042827

स्मरण: भागीरथ कानोड़िया - कुसुम खेमानी

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता की स्थापना में जिन दो लोकसेवियों ने निर्णायक भूमिका निभाई उनमें स्वर्गीय सीताराम सेक्सरिया और स्वर्गीय भागीरथ कानोड़िया का योगदान ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है। भारतीय भाषा परिषद की मंत्री डॉ. कुसुम खेमानी की यह रचना उन्हीं में से एक स्वर्गीय भागीरथ कानोड़िया की स्मृति को समर्पित है। -संपादक


‘पीड़ पराई जाणै सोई भागीरथो.....सोई कानूड़ियो’ - यह कोई लोकोक्ति नहीं, मुकुंदगढ़, सीकर, चूरू आदि के गांव वालों के आपसी बातचीत के उद्गार हैं। ...हाँ घटता है कभी ऐसा भी कि कोई व्यक्ति जीते जी कहावत बन जाता है.... छिपता रहता है वह कि लोग उसे पहचानें नहीं, पर कस्तूरी की गंध छिपे कैसे? सैकड़ों व्यक्तियों और संस्थाओं का अभिन्न अंग ‘भागीरथ कानोड़िया’ हमेशा ऐसी स्थिति से तो बच निकलता था कि कहीं भूले से भी उसका फोटो न उतर जाए-पर लोगों के मनों से कैसे बचता?
जब कभी प्रयास किया गया कि उनका अभिनन्दन किया जाए तो उनका एक ही उत्तर होता, ‘मनै जीते जी क्यूँ मारो।’ अपने गुण और दान का दिखावा तो बहुत दूर, शायद उन्होंने पैदाइशी इन्हें छिपाना ही सीखा था। क्या मजाल कि बन्दे का कोई फोटो किसी सार्वजनिक सभा में भी खींच जाए...किसी जादुई कला से वे अपने आपको वहाँ से नदारद कर लेते थे।
करुणा और दया के महीन स्पर्श को समझना हो तो भागीरथजी को देखना चाहिए। जैन साधु जैसे राह चलते कीड़े-मकोड़ों को हटा देते हैं कि वे कुचलकर मर न जाएँ कुछ ऐसी ही संवेदना...। करुणा एक सहज उद्रेक की तरह स्थायी भाव था उनका, जो उनके कार्य-कलापों में छलछलाता रहता था। राहत कार्य हज़ारों होते हैं और नहरें भी मजदूरी हेतु खोदी ही जाती हैं, पर क्या कभी किसी ने देखा-सुना है कि एक प्रौढ़ कृशकाय धनी व्यक्ति हाथों में चप्पलों की जोड़ियाँ उठाए राजस्थान की तपती बालू में चल रहा है, और उन्हें नहर खोदते मजदूरों के पैरों में पहना रहा है।
क्या कभी किसी ने देखा है कि कोई लाखों का दान गर्दन झुकाकर, नज़रें नीची कर, मुट्ठी बंद कर और चेहरे पर सारी दुनिया की शर्म बटोरकर करता है? जिसका एकमात्र लक्ष्य होता है कि औरों की तो ‘खैर सल्ला’ खुद लेने वाले को भी पता न चले कि उसे कुछ दिया गया है। ये बातें सुनी हुई नहीं आँखों देखी हैं।
देखने में एक साधारण किसान जैसे निरीह भाव वाले कानोड़ियाजी दर्शन-शास्त्र के सार-तत्त्व को अपनी जीवनचर्या में कैसे ढाल चुके थे, इसकी एकाध बानगी....
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ बड़ा रूमानी और खूबसूरत ख्याल है, पर आज यह सिर्फ ख्याल ही रह गया है, इसे हकीकत में सिर्फ भागीरथजी सरीखे ही जीते हैं।....1976 के फरवरी महीने में, मंडावा (झंुझुनू के पास का एक गाँव) की घटना है यह। ड्याोढ़ी से ‘ठाकराँ जी’ दौड़ते से आए और बोले, ‘मुकुन्दगढ़ से कानोड़िया आया है।’
‘काकोजी ! यहाँ कैसे? ‘उनसे पूछा तो बोले, ‘यहाँ से गुज़र रहा था, पता चला तुम आई हो तो मिलने आ गया।’ बात खत्म.
पर दूसरे दिन फिर पता चला कि काकोजी मंडावा आए हैं। पूछा तो फिर वही हँसी भरा उत्तर...कि तुम...यहाँ...।
मैंने कहा-‘काकोजी, साची बात बताओ। क्यूँ रोज-रोज मंडावा आओ हो?’
वे थोड़ा ठहर कर बोले...‘अमुक सेठ सै बात होई है, बै मंडावा में स्कूल बणा देसी। सोचूँ हूँ जमीन देखकर काम शुरू करा देऊँ तो स्कूल बण जासी।’
अस्वस्थ काया और स्वस्थ मन लिए भागीरथजी जीप का डंडा पकड़े मुकुन्दगढ़ से आते और घंटो ‘खटराग’ झेलते। हाई स्कूल तो उन्होंने बनवा ही दिया, यह बात इतर है कि उसमें पढ़ने वाला और उसे देखने वाला कोई भी यह नहीं जानता कि इसमें भागीरथजी का भी योगदान है। मुकुन्दगढ़ का बाशिंदा मंडावा के लोगों की चिंता में घुला जाए-यह बात क्या विश्वसनीय लग सकती? पर धरती का कण-कण जिसे अपना घर लगता हो उसके बारे में क्या कहा जाए।
काकोजी और बाबूजी
पता नहीं क्यों काकोजी की बात करते ही सीताराम बाबूजी की याद आ जाती है। काकोजी और बाबूजी जब तक जीवित थे, तब हर वक्त ऐसा नहीं होता था, पर काकोजी (उनका निधन बाबूजी से पहले हो गया था) के जाने के बाद तो जैसे यह आदत ही पड़ गई। बाबूजी के जीते जी ही ऐसा घटने लगा था कि हरेक मुलाकात में किसी न किसी बात पर काकोजी की चर्चा होती है।
बाबूजी की स्नेहभाजन बनने के बाद शुरूआती दिनों में मैं दोनों को एक दूसरे के अच्छे दोस्त के रूप में तो जानती थी पर उनके सम्बन्धों की अथाह गहराई का अन्दाज मुझे नहीं था।
घटना 1971 के जनवरी महीने की है। बाबूजी के पैर की हड्डी टूट जाने के कारण उनको अस्पताल में भर्ती किया गया था, पर हड्डी से ज़्यादा सबकी चिन्ता का विषय था उनका रक्त-चाप। पन्ना बाई (उनकी बड़ी बेटी) कुछ ज़्यादा ही उद्विग्न और आकुल व्याकुल सी लगीं, जैसे वे किसी विशेष बात के लिए छटपटा रही हों। मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला- ‘बाई, मामाजी (अशोक सेकसरिया, सीतारामजी के बड़े बेटे) दिल्ली हैं, इसीलिए इतना घबड़ा रही हैं? आप बिलकुल चिंता मत कीजिए, एमरजेंसी कहने से एक टिकट तो मिल ही जाएगा और वे जरूर आ जाएँगे।’ बाई ने उसी सांस भरे स्वर में कहा- ‘अरे एक टिकट भी मिल जाए तो कम से कम चाचाजी (भागीरथ जी) तो आ जाएँ?’
मैं दंग...सोचने लगी-बाबूजी और काकोजी के सम्बन्धों की इन्तहा। अशोक मामा और बाबूजी का एक दूसरे से मोह और टकराव भी किसी से छिपा नहीं था। हम सब इसे नजदीक से अनुभव करते थे कि अशोक मामा की अपने साथ की गई ज़्यादतियों से बाबूजी किस तरह आहत हो जाया करते थे। दरअस्ल बाबूजी, उस माँ की तरह थे जो अपने कमजोर बेटे को ज़्यादा प्यार करती है....और उन्हीं अशोक मामा के लिए बाई फिर किसी से कह रही थीं, ‘पोपी’ (अशोक मामा के घर का नाम) छोड़ तो चाचाजी ही नहीं आ पा रहे, देखो क्या होता है? अरे भाई! एक टिकट भी मिल जाए तो कम-से-कम चाचाजी तो आ जाएँ।’
प्रभु की कृपा से कालांतर में बाबूजी के नजदीक आने पर पन्ना बाई के उस उद्गार का अर्थ एक छवि की तरह मेरे सामने साफ होता चला गया।
रोज़मर्रा के जीवन में यह वाक्य हम अक्सर दुहराते रहते हैं, ‘वे तो दो शरीर एक आत्मा हैं।’ वैसे इस वाक्य को भी हमने एक तरह की ंिकंवदंती ही मान लिया है। कई शब्द और वाक्य समाज में इसलिए चल पड़ते हैं कि ऐसा हो तो सकता नहीं अतः जहाँ थोड़ी अर्थछाया भी दिखे इसे जड़ दो, लेकिन बाबूजी और काकोजी को देख मुझे लगा कि नहीं, यह मात्र मुहावरा या किंवदंती नहीं, ऐसा घट भी सकता है। हालांकि अभी मुझे दो-चार बातें ही याद आ रही हैं पर यदि आप भी उन्हें जानें तो शायद मेरा यह कहना आपको अतिशयोक्तिपूर्ण न लगे।
बाबूजी को सन् 1972-73 के आसपास एक ‘झख’ चढ़ी (उनके लिए तब यही शब्द हमलोग बोला करते थे) कि कलकत्ते में सभी भाषाओं के साहित्य के प्रसार के लिए एक संस्था स्थापित करनी चाहिए। अब तक बाबूजी मातृ सेवा-सदन, मारवाड़ी बालिका विद्यालय और श्री शिक्षायतन स्कूल-कॉलेज जैसी संस्थाएँ स्थापित कर चुके थे। नई परिकल्पना के लिए लोगों से चन्दा जुटाना, जमीन खोजना, भवन बनाना आदि के बारे में सोचकर अच्छे-अच्छे जवान भी घबरा जाते हैं; पर बाबूजी थे कि 80 साल की उम्र में भी एक नौजवान की तरह ख़म ठोककर तैयार थे और पूरी तरह भरोसेमन्द कि काम तो होगा ही।
उनके घर-बाहर के आत्मीय-स्वजन थोड़े चिंतित भी थे। कोई कहता- ‘इतनी मेहनत इस उम्र में?’ कोई कहता-‘समाज में चंदे का मानस ही नहीं रहा’, तो कोई कहता- ‘बाबूजी, लोग कहेंगे आप ‘जक’ (चैन) नहीं लेने देते, कुछ न कुछ अडं़गा करते ही रहते हैं’ पर बाबूजी की चिन्ता में भी एक निश्ंिचतता थी काम के पार पड़ने की।
और लोगों की तरह मैंने भी चक्की पीसने वाले (बाबूजी की कल्पनाओं की रोटियों के लिए आटा तैयार करने वाले काकोजी) से पूछ ही लिया, ‘काकोजी, के सांच्याईं बाबूजी नई संस्था बणावैगा? बण ज्यासी?’
काकोजी का बिना अटके सीधा-सपाट जवाब था, ‘इन्नाक जची है तो बणाणी तो पड़सी ई। हो सकै है पार भी पड़ ज्यावै।’
वह संस्था (भारतीय भाषा परिषद) बनी ही नहीं बाबूजी के सपनों के अनुरूप ही बनी। पर जरा उस व्यक्ति के बारे में सोचिए जिसका एकमात्र ध्येय था सीतारामजी के कहे हुए को, सोचे हुए को, पूरा करना-बिना किसी दुविधा के, बिना किसी देर के।
और यही बाबूजी जो परिषद के लिए लाखों जुटा लाए थे काकोजी के बिना कैसे हो गए थे?
काकोजी को गए (मृत्यु हुए) थोड़े ही दिन हुए थे। मैं बाबूजी के पास बैठी थी। एक पत्र आया, ‘दुर्लभ पाण्डुलिपियों के लिए जो आलमारियाँ आप खरीदवाना चाहते थे, उनके बारे में छानबीन की, तो पता लगा, दस हज़ार की जगह साढ़े सात हज़ार में ही काम हो जाएगा। आप जैसे ही रुपए भेजेंगे आलमारियाँ लखनऊ से आ जाएँगी।
बाबूजी ने हताशा से पत्र एक ओर रख दिया और बोले, ‘भागीरथ जी तो रहे नहीं और लन्द-फन्द इतने बढ़ा लिए! कैसे करें? क्या हो?’ मैं हैरान। एक ओर तो हाल ही में बनाई गई लाखों की संस्था और दूसरी ओर बाबूजी को चिन्तित कर दिया, इस सामान्य सी राशि ने?
वह काम कैसे पूरा हुआ यह अलग बात है; पर उनकी यह एक उक्ति ही व्याख्या कर देती है उस पूरे सम्बन्ध की। एक ऐसा
सम्बन्ध, जिसमें कुछ कहना तक न पड़े और दूसरा बिना कहे ही पूरी बात समझ ले।
यों भी बाबूजी को जब किसी बात का उदाहरण देना होता तो वे काकोजी के जीवन से दे देते, चाहे वह ‘उस’ भिखारिन की घटना हो जिसे काकोजी महीना दिया करते थे, और एक बार न मिलने पर उसे कहाँ-कहाँ ढूँढ़ते फिरे थे, चाहे सत्रह वर्ष की आयु में रिश्तेदारों की पंचायती के फैसले पर- ‘भोत आयो युधिष्ठिर की औलाद’ जैसा फतवा सुनने की बात हो।
नहीं, नहीं करते भी काकोजी की दिनचर्या से सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। हालाँकि मैंने उनको बहुत नहीं जाना फिर भी शायद एक पूरी रात काफी न रहे यदि भागीरथ कानोड़िया का जिक्र छिड़ जाए। कई बार तो ऐसा लगता है कि उनका हरेक दिन अपने आप में एक अलग बानगी लिए रहता होगा और स्वाभाविक तौर पर अनुकरणीय।
मैंने सीकर में काकोजी द्वारा स्थापित टी.वी. अस्पताल से लौट कर एक घटना बाबूजी को सुनाई, कि कैसे काकोजी इतने बड़े चिकित्सा-शिविर, जो अस्पताल में लगाया गया था, जिसमें पूरे भारत से नामी-गिरामी सर्जन आए थे, की सारी उपलब्धियों को भूल कर एक बणजारे की शिकायत की शोध में लग गए। पूरा वर्णन खत्म कर मैं गद्गद् कण्ठ से कह बैठी, ‘बाबूजी, सच पूछें तो मुझे काकोजी आपसे भी महान लगे।... बहुत बड़े।’ बाबूजी थोड़ा चौंंके...क्योंकि वे मुझे बचपन से जानते थे और यह भी जानते थे कि मेरी आँखों के अंतिम क्षितिज वे ही थे। वे कुछ रुके फिर बोले- ‘ठीक कहती हो तुम!....अरे! भागीरथजी की क्या बात!...वे तो ‘फड़द’ हैं, ‘फड़द’ (मारवाड़ी में फड़द का अर्थ होता है, जिसका जोड़ न बना हो, जो एकदम अनोखा, अनूठा, बेजोड़ हो)।’
बाबूजी और काकोजी इतने अभिन्न थे कि एक की बात करते हुए दूसरे का जिक्र न हो यह संभव ही नहीं। यह मैंने उनके रहते हुए भी स्वयं देखा जाना है। महाभारत में एक प्रसंग है, धृतराष्ट्र के मरने की खबर सुनते ही उसके प्राणसखा संजय के प्राण पखेरू उड़ गए। कुछ-कुछ वैसी ही काकोजी की बीमारी के समय (उनके तरह-तरह के परीक्षणों के समय) बाबूजी की दशा थी। मरना तो उनके वश में नहीं था पर अधमरे तो वे हो ही गए थे।
उन्हें बड़ा बताते वक्त क्या बाबूजी का कद और ऊँचा नहीं हो जाया करता है? दोनों का स्नेह सम्बन्ध देख भगवान देवी (सीतारामजी की पत्नी) काकोजी के लिए यों ही नहीं कहा करती थी कि ‘भागीरथजी तो इन्नाकी भू है (भागीरथ जी तो इनकी पुत्र वधू हैं)।’ इसमें ध्वनि उस आज्ञाकारी बहू की होती थी जिसका एकमात्र ध्येय अपनी सास की सारी आज्ञाओं का पालन करना हो। काकोजी और बाबूजी के सम्बन्धों की और काकोजी की निस्पृहता की एक झाँकी-साक्षी-कुसुम खेमानी।
बाबूजी घर से बाहर निकल ही रहे थे कि काकोजी घुसे। बाबूजी बोले, ‘भागीरथजी! मैं कुसुम कै सागै जा रह्यो हूँ, काल मिलाॅगा।’
‘ठीक है’ कह कर काकोजी मुड़ लिए। तभी बाबूजी ने कुछ याद आया ऐसी मुद्रा में आवाज दी- ‘भागीरथजी!... कै होयो आज ट्रस्ट में?’
‘कोई खास बात कोनी,काल कर लेस्याँ’-काकोजी ने कहा।
बाबूजी बोले- ‘फेर भी, कुछ तो होयो ई होसी।’
‘मैं ट्रस्ट छोड़ दियो।’...(काकोजी)
‘कै?....के बोल्या थे? ट्रस्ट छोड़ दियो?....यो थे के कर्या?’ कहते हुए बाबूजी ने अपना रुख वापस भीतर की ओर कर लिया। उनके संगमरमरी रंग पर क्रोध की गुलाबी आभा कनपटी तक खिंच गई।
‘छोड़ आया? इतै बड़े ट्रस्ट नै एक मिनट में छोड़ दियो? बरसाँ तक खट्या, मर्याँ थे और अब दूसराँ कै भरोसै छोड़ दियो? कोर्ट थानैं सम्हलायो थो यो ट्रस्ट....थे या कै करी?..’ बाबूजी के चेहरे पर क्षोभ और हताशा का भाव छाया था। काकोजी चुपचाप, उनकी बातें सुनते रहे-अंत में एक ही वाक्य बोले, ‘सीतारामजी, आदमी मर भी तो जावै, समझ लो मैं ई ट्रस्ट के लिए मरग्यो।’
आज छोटी से छोटी संस्था में पदों को लेकर खींचातानी चलती रहती है। बिना कुछ किए धरे ही हम सरीखे लोग बहुत सा नाम और पद पा लेना चाहते हैं। ऐसे घटाटोप में भागीरथ कानोड़िया जैसे लोग बेजोड़ ही कहे जाएँगे। हाँ, बेजोड़-उस ‘फड़द’ की तरह जिसे बुनकर जुलाहा अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर कह देता है कि, इस नमूने का जोड़ा बनाना मेरा बूते से बाहर है।
- साभार: वागर्थ, मई-09

कहानी: भीतरी सन्नाटे - यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’


Yadwendra Sharma'chandra'परिचय: देश के जाने माने साहित्यकार और कथाकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का 3 मार्च, मंगलवार की देर रात बीकानेर में निधन हो गया। वे 77 वर्ष के थे। उनके परिवार में पत्नी और तीन पुत्र हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, राजस्थानी भाषा संस्कृति एवं साहित्य अकादमी बीकानेर सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ ने एक सौ से अधिक साहित्यिक कृतियों का सृजन किया। इनमें लगभग 70 उपन्यास और 25 कहानी संग्रह शामिल हैं। उनके चर्चित उपन्यास, ‘हजार घोड़ों पर सवार’ पर दूरदर्शन ने टेली फिल्म बनाई थी। उनकी कृति पर टेली फिल्म, गुलाबड़ी और चांदा सेठानी बनाई गई। ‘चन्द्र’ ने अपनी लेखनी से समाज को नई दिशा देने के लिए जीवनपर्यन्त सादगी व ईमानदारी से सृजन धर्म का निर्वाह किया। उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, कविता संग्रह एवं लघु नाटकों की 100 से ज्यादा पुस्तकों की रचना कर साहित्य के क्षेत्र में अपना अपूर्व योगदान दिया है जो सदैव एक मिसाल के रूप में जीवंत रहेगा। उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए यहाँ उनकी कहानी ‘भीतरी सन्नाटे’ प्रकाशित कर रहे हैं| संपर्क: - आशा लक्ष्मी, नया शहर बीकानेर - 334004
-संपादक




उसकी नौकरी मुम्बई में लग गई। एक बड़ी प्राइवेट कम्पनी में। आखिर वह सी.ए. था। अपने कस्बे ‘नोखा’ से महानगर मुम्बई आ गया।
शुरू में वह एक मध्यवर्गीय होटल ‘गुलनार’ में रहा। एक बेडरूम का हवादार कमरा। फॉम का बिस्तर था पर उसकी दूध सी सफेद चादर पर एक हलका सा दाग था जिससे वह बेचैनी का अनुभव करने लगा। उसने चादर चेंज करा ली।
पहली बार जब वह अपनी कम्पनी में आया तो उसके मालिक जी.एस. चावला ने उसका स्वागत किया। उसे अपने खास-खास कर्मचारियों से मिलाया जिसमें उसकी स्टेनो मिस ‘वन्दना’ भी थी।
आठ-दस दिनों में उसने दफ्तर के काम को पूरी तरह समझ लिया तो एक दिन वन्दना ने कहा, ‘‘सर! इफ यू डॉन्ट माइन्ड तो कुछ कहूँ।’’
रोहन ने कहा, ‘कहो।’
‘‘यह श्रीशा है न, यह विचित्र युवती है। बहुत ही बातूनी, खुले दिमाग़ की, फ्लर्ट.....’’
‘‘वन्दना! तुम्हें ऑफिस के डिसीप्लीन का पता नहीं है। श्रीशा क्या करती है, क्या खाती-पीती है, क्या पहनती है, वह किस- किस के साथ घूमती है, इसकी ऑफिस में कोई फाइल नहीं है। यह सही है कि वह अपना काम जिम्मेदारी से करती है। मैं तुम्हारा बॉस हूँ। ऊल जलूल बातें मुझें पसंद नहीं। उसने कठोर स्वर में कहा।
‘सॉरी सर!’ वन्दना सिर झुका कर चली गई।
रोहन ने एक अच्छे अफसर की तरह अपने ऑफिस का कार्य संभाल लिया।
अब वह मकान की तलाश में लग गया। वह ऐसा मकान चाहता था जहाँ अभिजात्य वर्ग के लोग रहते हों। उसके सारे पड़ोसी पढ़े-लिखे हों, अंग्रेजीदा हों तो उत्तम! फ्लैट में पश्चिम की ओर बरामदा हो जहाँ पछुआ हवा बेरोक आती रहे। उस मकान के आस-पास झुग्गी-झोंपड़ियाँ और चालें न हों। उनकी मौजूदगी उसे कीड़े-मकोड़े की तरह रहने वाले लोगों के बारे में सोचने के लिए विवश करेंगी और वह निरर्थक तनाव से घिर जाएगा, वह जरा एकांतप्रिय था। वह यह वाक्य अपने पर आरोपित करता रहता था कि वह भीड़ में अपने को अकेला आदमी समझता है।
वह बचपन से ही मितभाषी था। फालतू बोलने वाले छात्र- छात्राओं से वह बचा करता था। वह उनसे लगभग दूर ही रहता था, जो अपने को काफी आधुनिक कहते थे और सिगरेट-शराब पीते थे, उनसे भी बचता रहता था। इसलिए वह चाहता था, एक अपने मनोनुकूल वातावरण वाला मकान। शांत और खुला।
वह नौकरी के बाद मकान ढूँढ़ता रहता था। जब वह थक जाता था तो मुम्बई की चौपाटी पर जाकर बैठ जाता था। लहरें गिनता रहता था। कई बार अपनी इच्छा के विरुद्ध वह चर्च गेट के स्टेशन के मुख्य द्वार पर खड़ा हो जाता था और आदमियों की भीड़ का रेला देखता रहता था। वह देखता-रंग-बिरंगी पोशाकें। भागमभाग।
उसे जल्दी ही इस बात का पता चल गया कि वह अपने मन के अनुकूल फ्लैट ले नहीं सकता। उसका मालिकाना हक और पगड़ी देना उसके वश का फिलहाल तो नहीं है। परिवार की जिम्मेदारियाँ तो ‘ताड़का’ राक्षसी के मुख की तरह फैली थीं। तीन कुँवारी जवान बहिनें। पेंशन पर दाल-रोती खाने वाले माँ-बाप। .....वह उद्विग्न हो गया। उसके आगे मीलों अनंत मरुस्थल के टीबें फैल गए।
एक दिन उसने अपने चीफ एकाउन्टेंट प्यारेलाल को अपनी समस्या बताई।
प्यारेलाल ने कहा, ‘‘आप या तो अपने सपनों को भंग कर दीजिए या फिर जीवन की कटुता समझ लीजिए। यह मुम्बई है, यहाँ सोना जितना चाहो कुछ ही मिनटों में खरीद सकते हैं पर सोने की जगह आसानी से नहीं मिल सकती।.....फिर भी आप मिस श्रीशा से बात कीजिए। वह काफी जानकारियाँ रखती हैं।’’
‘‘श्रीशा जो आपके पास.....।’’
‘‘हाँ-हाँ, वही श्रीशा.....।’’
‘‘उसके बारे में.....।’’
‘‘नहीं मिस्टर रोहन, चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष, सबके जीने का अपना-अपना तरीका है। व्यक्तिगत सुख और आनन्द भी सबके अलग होते हैं। रुचियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और परिभाषाएँ भी। मुझे कई बार लगता है कि यह श्रीशा जो है, वह नहीं है। इसने कृत्रिमता का एक लबादा पहन रखा है। उसकी एक क्वालिटी और है, वह सबकी मददगार भी है।’’
‘‘आप उसे मेरे पास भेजिए।’’
थोड़ी देर में श्रीशा उसके कैबिन में थी। आते ही विनम्रता से बोली, ‘गुड नून सर!’’
‘‘बैठिए.....आप मेरी प्रॉब्लम हल करने में मदद कर सकती हैं, मलकानी साहब कह रहे थे।’’
‘‘मुझे खुशी होगी यदि मैं आपके काम आ सकूँ तो।’’
‘‘श्रीशा जी! आप तो इसी शहर की उपज हैं। सारी एजुकेशन भी आपने यहीं पूरी की है। मैं सच कहता हूँ कि मैं आपको जरा भी कष्ट देना नहीं चाहता पर कई बार मनुष्य न चाहते हुए भी दूसरों को कष्ट देता है, मैं आपको......।’’
वह सहज मुस्कान अधरों पर लाते हुए बोली, ‘‘किसी भूमिका की जरूरत नहीं है। साफ-साफ बताइए कि आप मुझे क्या कष्ट देना चाहते हैं।’’
‘‘मैं कई रोज से फ्लैट के लिए परेशान हूँ।.....कभी मेरी जेब एलाऊ नहीं करती है और कभी......।’’
उसने संक्षिप्त रूप में बताया कि वह किस एरिया में और कैसा फ्लैट चाहता है।
‘और.....क्या खर्च कर सकते हैं?’
‘यही दो हज़ार....ज़्यादा से ज़्यादा तीन....इसके आगे मेरी क्षमता नहीं, मेरा भरा-पूरा परिवार है। उसकी भी परवरिश करनी है।’ रोहन ने कहा।
उसने ललाट में बल डाल कर अपना दायाँ कान खुजला कर कहा, ‘माफी चाहती हूँ।.....फिर आप किसी खोली में कमरा ले लीजिए। अपनी इच्छा का फ्लैट लेना है तो पाँच-सात हज़ार रुपए खर्च कीजिए या फिर पाँच-सात लाख पगड़ी दीजिए।’
‘यह संभव नहीं।’ उसने नई बात बताई, ‘दरअसल कम्पनी ने साफ-साफ कह दिया था कि तीन साल तक वह केवल तनख्वाह ही देगी। ऐसी स्थिति में.....।’
वह बीच में ही बोली, ‘मुझे आपकी बात बनती नज़र नहीं आती है। फिर भी मैं बाइ हर्ट, कोशिश करूँगी कि आपकी पाॅकेट के अनुसार काम हो जाए। फिर आपका लक।’
श्रीशा चली गई।
रोहन ने सोचा कि यह काफी आकर्षक है। गोरा रंग, कंजी आँखें, तीखे नाक-नक्श, फाँक की तरह अधर और निडर भी।
रोहन और उसके बीच संवाद कम ही थे। लेकिन मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। सहिष्णु होना ही पड़ा। श्रीशा से रोहन को सदैव पूछना ही पड़ता था।
लगभग तीन दिनों के प्रयास के बाद श्रीशा ने रोहन को बताया, ‘मैंने सभी इलाकों का सर्वेक्षण कर लिया है। आप जिस एरिया में फ्लैट चाहते हैं रोहन बाबू, इतना किराया तो आटे में नमक जैसा है। पूरी रसोई नहीं मिल सकती। कहने का मतलब है, कारवालों की एरिया में कम से कम पाँच हज़ार रुपए तो किराया और पाँच लाख पगड़ी, वह भी वन बेड रूम की। उसमें पछुवा हवा नहीं आ सकती, आ सकती है तो केवल पंखे की हवा। हाँ, मेनन साहब की चाल में कमरा पाँच सौ रुपयों में मिल सकता है, किराए पर। पगड़ी एक लाख अलग से।’
‘नहीं मैडम, यह संभव नहीं है। आपको पता नहीं, मेरे कंधों पर दायित्वों का भयंकर बोझ है। मुझे मेरे माँ-बाप ने बड़े कष्टों में पढ़ाया है।’
इसके बाद रोहन भी प्रयास करता रहा और श्रीशा भी।
श्रीशा ने एक दिन मुलायम स्वर में कहा, ‘सर! आप मेरे बॉस हैं। मैं आपकी मानसिक स्थिति समझती हूँ। महानगरों की यह समस्या खत्म होगी ही नहीं। हज़ार मकान बनते हैं साथ ही पाँच- दस हज़ार नए लोग आ जाते हैं। सारा खेल खत्म हो जाता है। समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। हाँ, यदि आप पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचें तो मैं आपके सामने अच्छा और सस्ता प्रस्ताव रख सकती हूँ। आप अपनी अनुकूलताओं की कटौती करें।’
‘आप पहेलियाँ मत बुझाइए। साफ-साफ कहिए। बोलती आप कुछ ज़्यादा ही हैं।’
‘यह सही है। बोलती ज़्यादा हूँ। मजाकिया हूँ सर! हर आदमी का अपना अलग स्वभाव होता है। अलग आनन्द होता है। मैं समझती हूँ कि हमारे भीतर कई इंसान हैं जो पल-पल सक्रिय होते रहते हैं।’
‘अपनी रहस्यपूर्ण बातें बंद करिए प्लीज। शॉर्ट में कहिए।’
‘हमारे फ्लैट में तीन कमरे हैं। पूरा सेकेंड फ्लोर हमारा है। आजकल हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। दस तारीख तक जेबें व बटुवे नंगे हो जाते हैं। मम्मी चाहती हैं कि हम कोई शरीफ और समय पर पैसा देने वाला पेईंग गेस्ट रख लें। जो कमरा हम आपको देंगे, उसमें अटेच्ड बाथरूम भी है। पूरब में खिड़की है, पछुवा हवा चलती है तो अवश्य कमरे में आती है। चूँकि मैं और मेरी मम्मी घर में दो ही जनें हैं, इसलिए घनघोर खामोशी भी रहती है। किराया दो हज़ार से कम नहीं होगा। यदि आप ब्रेकफास्ट, लंच व डिनर लेंगे तो एक हज़ार रुपए और, यानि तीन हज़ार में परिवार की तमाम सुविधाएँ। एकदम रीजनेबल रेट है यह। एक और कारण है। आजकल महानगरों का जीवन सुरक्षित नहीं है। अकेली औरतें आतंक से घिरी रहती हैं।’
‘मैं सोच कर बताऊँगा।’ उसने छोटा सा उत्तर दिया।
‘लेकिन जल्दी, तीन दिनों के भीतर! समझे। कई ग्राहक आ रहे हैं पर हमें परिचित व शरीफ पेईंग गेस्ट चाहिए।’ श्रीशा ने आँखों में स्पन्दन वाले भावों को चमकाया।
रोहन को अपने भीतर कुछ महसूस होता सा लगा। श्रीशा सिर झुका कर चली गई।
तीसरे दिन छुट्टी थी। गणेशोत्सव की। मुम्बई में अकल्पनीय हलचल। भाँति-भाँति की मूर्तियाँ! आकर्षक व भावभीनी। मूर्तिकारों की सारी सोच, कल्पना और श्रम गणेश जी को विभिन्न रूपों में साकार करने की योजनाएँ। योजनाएँ क्रियान्वित होती हैं पर जब वे श्रद्धामयी मूर्तियाँ पानी में समर्पित कर दी जाती हैं तो श्रीशा का मन तड़प उठता है।
उसने इसी कारण गणेशोत्सव में शामिल होना बंद सा कर दिया पर उसे नहीं पता, मिट्टी की मूर्ति अंत में मिट्टी में मिल जाती है।
सूरज के डूबने का समय था। क्षितिज लाल। स्त्री-पुरुष और बच्चे बेतहाशा समुद्र की ओर जा रहे थे। उनके चेहरों पर श्रद्धा का रंग दपदप कर रहा था।
श्रीशा अपने को प्रकृति के विभिन्न रंगों में डूबाना चाहती थी पर उसे क्यों बार-बार याद आ रहा था कि आज तीसरा दिन है। रोहन आज नहीं आएगा तो? उसकी आँखों में आशा का समुद्र सिकुड़ने लगा। उसकी आँखों में झिलमिलाते रंग मिटने लगे। आशा थी कि वे जरूर आएँगे। मकान की उन्हें बहुत जरूरत है पर साँझ का सूरज अस्त होने के करीब था।
सहसा उसने गणेश भगवान को स्मरण किया। कदाचित वह कहीं से रोहन को अपने भीतर कीड़े की तरह कुलबुलाते हुए महसूस कर रही थी।
सहसा घंटी बजी। वह लपक कर दरवाजे की ओर भागी। बिना सोचे और बिना जाने उसने तपाक से दरवाजा खोल दिया।
एक गोरा-गोरा मुरझाया चेहरा खड़ा था।
‘आइए सर।’
रोहन भीतर आया। घर पुराना पर साफ-सुथरा। श्रीशा उसे उसी कमरे में ले गई, जिसे उसे किराए पर देना था। कमरे में वह सब कुछ था जिनकी एक व्यक्ति को जरूरत होती है। पंखा, पर्दे, डबल-बेड, बाथरूम, अलमारी, सोफा और साइड स्टूलें।
इन सबको देख कर रोहन की आँखों में एक साथ कई प्रश्न चमके।
‘बैठिए सर! मैं पानी लेकर आती हूँ।’
वह कमरे से बाहर चली गई। वह नादान बालक की तरह कमरे को देखता रहा।
‘सर! पानी!’
उसने पानी पिया। गटागट।
‘चाय पीएँगे या कॉफी?’
‘कॉफी।’
चली गई श्रीशा।
वह सोचने लगा कि क्या यही वह श्रीशा है जो लोगों की नज़रों में काफी फ्लर्ट है। कुछ लोग तो इसे चालू भी कहते हैं। व्यंग्य में दबी जबान में गंदगी उछालते हैं कि इसके शरीर के समन्दर में कई लोग डुबकी लगा चुके हैं पर रोहन को वह बड़ी शालीन लगी।
वह कॉफी ले आई थी। कप हलके नीले रंग के थे। कॉफी के साथ उनका मेल अच्छा लग रहा था। अपने लिए भी वह कॉफी लाई थी।
‘इतनी देर में आपने कमरा तो देख लिया होगा?’ श्रीशा सहज स्वर में बोली, ‘अब आप मेरी बातों पर ध्यान रखकर यस-नो कहिए सर!’ श्रीशा की आँखों में सहसा सैलाब उभरा। स्वर का बुझापन बढ़ गया। बोली, ‘दबाव की बात नहीं है। आप हम पर दया नहीं करेंगे। यदि यह रूम आपको पसंद है तो आप यहाँ रहने आ सकते हैं। हमें भी किसी अच्छे किराएदार की तलाश है। आप सभी दृष्टियों से सही हैं। और लोग कहते हैं कि एक से भले दो और दो से तीन।’
रोहन चुप हो गया। गंभीर कोमलता उसके चेहरे से चिपक गई। क्षणिक गूँगापन!
कॉफी के एक साथ दो घूँट लेकर रोहन ने कहा, ‘मैं तुमसे उम्मीद रखूँगा कि तुम मुझे सच-सच बताओगी, चाहे वह सच नीम की तरह कडुवा भले ही हो। इस कमरे को देख कर मुझे लगा कि क्या पहले उसमें कोई रहता था?’
बुत-सी स्थिरता श्रीशा में आ गई। आँखों से लगा कोई संवाद उसके आगे प्रेतात्मा सा नाच रहा है।
रोहन ने फिर पूछा, ‘सच बताओ।’ वह सहसा उसके सन्निकट हो गया। आप से तुम पर आ गया। उसकी गर्दन झुक गई। लगता था कि वह किसी अपराध बोध से घिर गई हो। फिर भी साहस करके वह बुझे स्वर में आहिस्ता-आहिस्ता बोली, ‘हाँ, इसमें मेरे पति रहते थे। माइ हसबैंड!’
‘क्या?’ रोहन की आँखें विस्फारित हो गई। जैसे सब कुछ पल भर के लिए थम गया हो।
‘हाँ रोहन बाबू! इस कमरे में मैं और मेरे पति रहते थे। इस कमरे में जो कुछ भी है, उनका ही खरीदा हुआ है।’
‘अब वे कहाँ हैं?’
‘ही इज नो मोर सर! मैं इतनी भाग्यहीन हूँ कि तुरन्त विधवा हो गई।’
‘उन्हें क्या हुआ था?’
‘कुछ नहीं, वे अपाहिज थे। एक टाँग से लँगड़े थे। कहते थे कि किशोरावस्था में एक्सीडेंट हो गया था। प्रॉपर इलाज न होने के कारण वे बैसाखी के सहारे चलते थे।’
‘फिर तुमने शादी.....।’ रोहन की आँखों में विस्मय चमका।
वह उदास मुस्कान से बोली, ‘हमने प्रेम विवाह किया था। एक बार मैं दफ्तर से आ रही थी। एक मोड़ पर एक कार वाला उन्हें टक्कर मार गया। वे अचेत हो गए। मैंने देखा उन्हें कोई उठा नहीं रहा है। मैं नहीं जानती कि वह किसकी प्रेरणा थी पर मैं उन्हें राहगीरों की सहायता से अस्पताल ले गई। सुबह तक वह स्वस्थ हो गए। रात को मैं घर लौट आई थी। उनका एक मित्र आ गया था।’
‘जब वे अचेत थे तब मैंने गौर से उन्हें देखा था। वे एकदम गोरे थे। नाक-नक्शे भी अच्छे थे। बाल घुंघराले थे। मुझे सुन्दर लगे। अपाहिज न होते तो उनका व्यक्तित्व लगभग आप जैसा ही था।’
‘सुबह मैं फिर अस्पताल गई। डॉक्टर ने उन्हें छुट्टी दे दी। वे मुझे अपने घर पहुँचाने का आग्रह करने लगे। मैं उनके घर गई। यही घर था उनका। मैंने उनके लिए चाय बनाई। उन्होंने मेरा, दवाइयों व डॉक्टरों की फीस का हिसाब-किताब किया। उन्होंने पूछा, ‘इतने रुपये आप कहाँ से लाई? मैंने उन्हें बताया कि कल मुझे तनख्वाह मिली थी।’ मैं वहाँ से आने लगी तो उन्होंने कहा- ‘मैं आपका अहसान सदैव याद रखूँगा। आप मुझसे जरूर मिलिएगा। एक परिचित के रूप में ही सही।’ तभी उनकी नौकरानी आ गई।
मैं उनके यहाँ यदाकदा जाती रहती थी। किस आकर्षण के तहत जाती रही परिभाषित नहीं कर सकती। यह वास्तव में प्रेम भावना थी या उनके अपाहिजपन के प्रति मेरी करुण भावना द्रवित हो गई थी। बस, वे मुझे अच्छे जरूर लगने लगे थे। वे बहुत भावुक व वाक्य पटु भी थे।
एक बार नरेन ने कहा था, ‘देखो श्रीशा, प्रेम शब्दातीत है। वह केवल अनुभव किया जा सकता है। उसके अर्थ और मर्म मेरी दृष्टि में अनेक हैं। वह हृदय का सत्य है।’
वस्तुतः रोहन साहब! वह प्रेम की बहुत अधिक व्याख्याएँ करता रहता था। मैं उन्हें सुन-सुन कर हतप्रभ हो जाती थी। उनके भावुकतापूर्ण संवादों और मनमोहक महत्त्वाकांक्षाओं ने मुझे सम्मोहित सा कर दिया था। मैं स्वयं बेचैन रहने लगी उनके लिए।
एक दिन मैंने उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उन्होंने बताया, ‘सुनो, मैं इस संसार में अकेला हूँ। आज मेरी सात पीढ़ी में कोई नहीं है। यह फ्लैट मेरे मरहूम चाचा ने दिया था। वे कुँवारे थे। मैं जाति का कायस्थ हूँ। मुझे जो कुछ भी मिला है, अपाहिज होने के कारण मिला है।’ .... उसने पल भर रुक फिर कहा, ‘मुझे तुमसे शादी करके बहुत खुशी होगी। मेरा यह दुर्दान्त एकांत और चुभती ऊब मिट जाएगी। तुम्हें इस पर गंभीरता से सोचना है।’
मैंने अपनी माँ को नरेन की सारी स्थिति बताई। अपनी घरेलू स्थितियों का विश्लेषण किया। एक ‘खोली’ में रहने वाले निम्न मध्यवर्गीय परिवार के लिए यह सुनहरा अवसर था। .....पर माँ अकेली हो जाएगी। मैंने तय कर लिया कि माँ को अपने पास रखूँगी।
मैंने सारी बातें नरेन को बताई। नरेन ने सहर्ष स्वीकार कर लिया कि माँ जी हमारे साथ रहें, मुझे कोई एतराज नहीं।
शुभ मुहूत्र्त देखकर हमने कोर्ट-मैरिज कर ली। ......सही, पक्की और सस्ती अदालती शादी। साक्षी थे मेरी माँ, मेरी दो सहेलियाँ, नरेन के बॉस और उसके दो मित्र। इन लोगों को ही हमनें होटल में पार्टी दी।
सुहागरात भी हमने फूलों की खुशबू में मनाई। मुझे लगा कि नरेन पूरा पक्का और तगड़ा मर्द है। टूटे लुंज पुंज पाँव पौरुष के प्रदर्शन में बाधा नहीं बनते।
चंद ही दिनों के बाद मुझे महसूस हुआ कि चाहे एरेंज मैरिज हो या लव मैरिज, लेकिन यह पत्थर की लकीर की तरह अमिट सत्य है कि पति होते ही हर मर्द हुक्मरान बन जाता है। जैसे उसके हुक्म की तामील तुरन्त हो। मैंने जाना कि मर्द की देह नब्बे प्रतिशत उसकी अपनी होती है और स्त्री की दस प्रतिशत अपनी। यही हाल उसके मन का होता है। वह शादी के पूर्व नरेन मेरा भावुक दोस्त था पर शादी के पश्चात् वह मेरा स्वामी बन गया। यदि मैं उसकी कोई बात नहीं मानती तो उसकी आकृति पर रंग-बिरंगी भाव-रेखाएँ दिखाई पड़ती थीं। वह स्थिर सा हो जाता था। उसकी आँखों में मौन-आज्ञा की किरणें चमक उठती थीं।
उसके इस व्यवहार से मैं बर्फ बनती जा रही थी। अपने को अन्तस को उत्तेजित सहसा नहीं कर पाती थी। मैं उससे उबने लगी। असहिष्णु हो गई। वाक्य-युद्ध होने लगे। मैं बिल्कुल अजनबी हो जाती थी। माँ भी एक माह के बाद आ गई थी। उसके कारण मैं जरा खुश थी। अपने को सुरक्षित समझती थी। हमारा कोई विशिष्ट नहीं, सामान्य जीवन चल रहा था। क्योंकि मैं भी कमाती थी।
कई बार कुछ घटनाएँ अनायास घट जाती हैं। वे अच्छी भी होती हैं और बुरी भी।
एक दिन वे दफ्तर से वेतन लेकर आए। बाज़ार से मेरे लिए साड़ी और मिठाई लाए। मुझे वह नई साड़ी पहनाई। कहा, ‘आज मेरा जन्मदिन है।’ रात को उन्होंने कई बार शरीर के समन्दर में गोते लगाए। वे असीम आह्लाद से घिरे थे।
सुबह मैं उठ कर काम में लग गई। वे देर से उठे। चाय पी। लैट्रिन में घुसे। घुसे तो फिर बाहर ही नहीं निकले। मैंने कई बार पुकारा। कोई उत्तर नहीं। मैंने माँ को कहा। माँ भी घबराई।.... मैंने उन्हें जोर-जोर से पुकारा। दरवाजा भड़भड़ाया।
अब मेरा धैर्य जाता रहा। मैं भाग कर निचली मंजिल के मिस्टर जोशी को बुला कर लाई। उन्होंने भी प्रयास किया। हमारी चिंता व घबराहट बढ़ती ही जा रही थी। अमंगल आशंकाएँ हमारा घेराव करने लगी थीं।
मिस्टर जोशी भाग कर एक मिस्त्री को लाए। उसने दरवाजा उखाड़ा। वे अर्धनग्न फर्श पर पड़े थे। जोशी जी ने उन्हें झिंझोड़ा, बार-बार पुकारा। दिल की धड़कनें सुनी पर निष्फल। जोशी ने मुझे दर्द भरी लुक दी और कहा-‘‘आई थिंक, ही इज नो मोर!’’
तभी कुछ लोग और आ गए थे। एक भाग कर डाक्टर को ले आया। उसने भी कह दिया कि हंसा उड़ गया। ....रोहन! सोचो, सारा खेल चंद मिनटों में खत्म हो गया कितनी अकल्पनीय घटना थी। कितना ही अपना हो पर मृत्यु के बाद उसे जितना जल्दी हो सकता है, आग के हवाले हम कर देते हैं। नरेन का दाह-संस्कार कर दिया गया। उसे मुखाग्नि मैंने दी।
मेरी सहेलियाँ और उनके मित्र ‘उठावणी’ में आए। बारहवें दिन मम्मी के दबाव पर ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराया। उनके पकड़े गरीबों को बाँटे। उसकी बैसाखी समुद्र को दे दी, कभी वह लंगड़ा होगा या किसी को लंगड़ा करेगा तो उसके काम आएगी।
इसके बाद घर में धीरे-धीरे सन्नाटा पसर गया। प्रेतात्मा के घर का घुटनदार सन्नाटा। मुझे पीड़ादायक ऊब का अहसास पहली बार हुआ।
रोहन ! समय हर जख़्म को भर देता है। समय हर स्मृति को धुँधला कर देता है, समय पत्थर की लकीर को भी घिस देता है।
मैंने भी अपने को सामान्य कर लिया। जीने के लिए एक खूबसूरत व सुखद बहाना जरूरी है। भीतर के साँय-साँय करते सन्नाटों को मारने के लिए मैंने हँसी, मजाक, खुलेपन, सतहीपन से जीना शुरू कर दिया। लेकिन मेरा अन्तस पहाड़ी घाटियों की तरह सूना है। हाँ, नरेन के एक खास दोस्त ‘हाशमी’ को यह वहम हो गया था कि मैंने इस फ्लैट व लंगड़े पति से छुटकारा पाने के लिए उसकी हत्या कर दी है। उसने भाभीजान-भाभीजान कह कर मुझसे सम्पर्क भी बढ़ाया पर जब वह कुरेद-कुरेद कर सवाल पूछने लगा और कई बार उसने मेरा पीछा किया तो मैंने उसकी मनसा को भाँप लिया। मैंने उसे कह ही दिया, ‘मुझे उनके दोस्तों को सम्मान देना अच्छा लगता है पर मेरी जो जासूसी करता है, वह इंसान मेरे लिए घृणा के लायक है। हाशमी साहब! फिर कभी आप मुझसे बात नहीं करेंगे।’
अब आप ही बताइए, कई लोग निरर्थक हुशियारी करते हैं। सच तो यह है कि कोई मेरे निजी सच को नहीं जानता कि मैं कितनी दुखी और संकटों से घिरी हूँ। मैं इस देश की अधिकतर स्त्रियों की तरह जीती हूँ। मेरी आंतरिक पीड़ा को कोई नहीं समझता। लोग समझते हैं कि यह फ्लर्ट है। नहीं रोहन बाबू... मेरे भीतर कई ज्वार-भाटे हैं। दुखों, नीरसता, व्यर्थता और पलायन के कई प्रेत हैं। ये प्रेत कब मेरा गला घोंट दें मैं नहीं जानती। मैं अकेली भयभीत रहती हूँ।
रोहन इतनी देर खामोश बैठा था। बोला, ‘‘मैं यहाँ नहीं आऊँगा। न मैं तुम्हारे भीतर के सन्नाटों को तोड़ना चाहता हूँ और न बाहर की खुशियाँ मिटाना चाहता हूँ। मुझमें वह शक्ति भी नहीं है कि तुम्हारे पीड़ा के प्रेतों को भगा सकूँ। मैं शांति चाहता हूँ प्रगाढ़ शांति।’’
‘लेकिन आपको यहाँ आना ही है।’’
‘‘श्रीशा! औरत के साथ एक अकेला मर्द रहने से कई खतरें हैं। ये खतरें कई बार अनर्थ भी कर सकते हैं। मानसिक चैन को मिटा सकते हैं। गंदे विचार फैला सकते हैं। गलतफहमियों के कांटे चुभा सकते हैं।’’ उसके स्वर में तड़प थी।
‘‘रोहन बाबू! आपको यहाँ आना ही है। जरूर आना है और आपकी अपनी शर्तों पर आना है। झूठ चोर की तरह होता है, उसके पाँव कच्चे होते हैं अतः वह सच की झलक से भाग जाता है। हाँ, कई सयाने कहते हैं कि सच्चे व अच्छे आदमी के आने से वहाँ के सारे प्रेत भाग जाते हैं। मेरे अन्तस में कई प्रेत हैं। वे तो आपके आने से ही जरूर भाग जाएँगे। खतरों की बात? खतरों के बिना नये सुखों की तलाश नहीं होती।’ वह भावुक हो गई। उसकी आँखें छलक आई। रोहन उसे अपलक देखता रहा। वह थोड़ा सा मुस्कुराया।
सन्निकट स्थित मंदिर में शंख बज उठा। उसकी पवित्र और मधुर आवाज़ में प्रेरणाएँ थीं।

रविवार, 28 जून 2009

मातृभाषा राजस्थानी

नन्दलाल रूँगटा,
अध्यक्ष, अखिल भरतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन

Nandlal Rungta, Chaibasa


राजस्थान विधानसभा द्वारा 25 अगस्त 2003 को, राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने का एक संकल्प रूपी प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया कि ‘‘राजस्थान विधानसभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यह संकल्प करते हैं कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जिलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी आदि शामिल हैं।’’
यदि हम इस प्रस्ताव की गम्भीरता पर विचार करें तो, हम पाते हैं कि यह प्रस्ताव खुद में अपूर्ण और विवादित है। ‘‘इसमें कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि हम किस भाषा को राजस्थानी भाषा के रूप में मान्यता दिलाना चाहते हैं।’’ एक साथ बहुत सारी बोलियों को मिलाकर विषय को अधिक उलझा दिया गया है। इस प्रस्ताव से ही राजस्थान में पल रहे भाषा विवाद की झलक मिलती है। हम चाहते हैं कि राजस्थान सरकार अपनी बात को तार्किक रूप से स्पष्ट करे कि वो आखिर में केन्द्र सरकार से चाहती क्या है?
मरुप्रदेश अरावली पर्वत के दानों ओर है, इसलिए मरुवाणी, मारवाड़ी और राजस्थानी भाषा अरावली के पूर्व और पश्चिम दोनों में विराट भाषा रही है। इसमें कृषि विद्या, पशुपालन विज्ञान, उद्योगपतिओं की उद्यम विद्या, व्यापारियों-व्यावसायियों की व्यापार-वाणिज्य विद्या, शूरवीरों की युद्ध विद्या, प्रेम-श्रृंगार विद्या, अकाल और दुर्भिक्ष से पड़ित मरुभूमि की कारुणिक गाथा, सामाजिक जीवन तथा सांस्कृतिक जीवन नीति, निर्गुण और सगुण भक्ति की आराधना विद्या, राजस्थानी भाषा में अपनी सशक्त एवं हृदयग्राही अभिव्यक्ति उजागर करती रही है इसका साहित्य विपुल एवं विराट है। इस असाधारण क्षमता वाली भाषा को ही राजस्थानी भाषा कहा जाता है।
वीरगाथा काल का डिंगल काव्य और उसकी समृद्ध परम्परा केसरीसिंह जी बारहठ, उदयराज जी उज्ज्वल, शक्तिदान जी कविया तथा नाथूदान जी महियारिया तक अक्षुण्ण चली आई। आधुनिक राजस्थानी में गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’, सुमनेश जी जोशी, चन्द्रसिंह जी बादली, कन्हैया लाल जी सेठिया, गजानन वर्मा, मेघराज मुकुल, रेवतदान चारण, सत्यप्रकाश जी जोशी, रघुराज सिंह हाडा, बुद्धिप्रकाश पारीक, कल्याण सिंह राजावत, डॉ. शान्ति भारद्वाज ‘राकेश’, प्रेमजी प्रेम, अर्जुनदान जी चारण आदि कवियों की भाषा डिंगल की समृद्ध परम्परा में जुड़ाव पैदा करती हुई जिस राजस्थानी भाषा का स्वरूप ग्रहण करती है, वह अरावली पर्वत के पूर्व और पश्चिम में समान रूप से समझी, बोली और लिखी जाती है।
राजस्थानी शब्द कोश के निर्माण का कार्य वर्तमान में महामहोपाध्याय रामकरण असोपा ने प्रारम्भ किया था जिसे उनके योग्य शिष्य श्री सीताराम लालस ने पूर्ण किया। इसी प्रकार राजस्थानी कहावतों के संग्रह का काम श्री लक्ष्मीलाल जोशी ने प्रारम्भ किया था और भी कई लोगों ने किया है पर अभी इस हेतु सन्तोषजनक कार्य शेष है। लोक संस्कृति के विविध प्रसंगों को पण्डित मनोहर शर्मा, कन्हैयालाल सहल, नरोत्तम स्वामी, रानी लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत, प्रो. कल्याण सिंह शेखावत, कोमल कोठारी आदि ने निरन्तर अग्रसर किया है। आकाशवाणी से राजस्थानी में समाचार प्रसारण में वेद व्यास की महती भूमिका रही है, यद्यपि दूरदर्शन पर भी राजस्थानी समाचार और कार्यक्रमों का प्रसारण होता है पर तन्मयता, तल्लीनता और तत्परता का अभाव दृष्टिगोचर होता है। राजस्थानी भाषा में दैनिक समाचार पत्र अभी प्रकाशित नहीं हो रहा है। हाँ! मासिक पत्रिका ‘माणक’, नैणसी और त्रैमासिक पत्रिका ‘वरदा’ का राजस्थानी भाषा में प्रचार और प्रसार उल्लेखनीय है। हिन्दी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभी एक-आध स्तम्भ के रूप में राजस्थानी लेख निकलते रहते हैं। परन्तु हमें यह देखना होगा कि एक पूर्णकालीन राजस्थानी दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन किस प्रकार किया जा सके, इसके लिये हमें न सिर्फ राजस्थानी में बात करने की जरूरत पर बल देना होगा, बच्चों में राजस्थानी पढ़ने-लिखने की आदत बनानी होगी और यह तभी संभव हो सकेगा जब हम इस भाषा को स्थायी रूप से पाठ्याक्रम में शामिल कर सकेंगे।
भारत के संविधान के निर्माण के समय हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा का स्थान दिया गया और अंग्रेजी को पन्द्रह वर्ष तक लागू रहने का प्रावधान था उस समय आठवीं अनुसूची में चैदह भाषाएँ थीं बाद में दो हजार तीन तक आठ और क्षेत्रीय भाषाओं को जोड़ा गया अब कुल बाईस भाषाएँ आठवीं अनुसूची में हैं। राजस्थानी भाषा को निकट भविष्य में आठवीं अनुसूची में लिए जाने की पूरी-पूरी सम्भावना है। आवश्यकता इस बात की है कि हम सभी राजस्थानी भाषा-भाषियों को एकजूट होकर एक स्वर में राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता के लिये हर संभव प्रयास करना चाहिये। राजस्थान से निर्वाचित सभी सांसदों से हम विशेष रूप से अपील करना चाहते हैं कि अपनी मातृभाषा के लिये वे सचेत होकर इस ऐतिहासिक कदम के लिये कार्य करें। मेरी अपने समाज के बड़े-बूढ़ो से लेकर बच्चों तक से साग्रह अनुरोध है कि वे व्यक्तिगत रूप से अपनी बातचीत में अधिक से अधिक अपनी मातृभाषा का उपयोग करें।end

मातृभाषा की मान्यता से होगा संस्कृति का संरक्षण


- डॉ. राजेश कुमार व्यास


ओबामा सरकार की कार्यकारी शाखा के लिये जारी नौकरियों के आवेदन के लिए दुनियाभर की जिन 101 भाषाओं को चुना गया है, उनमें 20 क्षेत्रीय भाषाओं की जानकारी रखने वालों को आवेदन हेतु पात्र माना गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन 20 क्षेत्रीय भाषाओं में मारवाड़ी का स्थान भी है। भले ही भारतीय संविधान की 8 वीं अनुसूची में सम्मिलित 22 भाषाओं में राजस्थानी का स्थान नहीं है परन्तु विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र ने राजस्थानी को मान्यता देकर यह साबित कर दिया है कि राजस्थानी विश्व की किसी भी अन्य भाषा से कमतर नहीं है। राजस्थानी के साथ यह विडम्बना ही है कि बोलियों की राजनीति में अभी भी यह राज-काज की भाषा के रूप में संविधान की आठवी अनुसूची में स्थान नहीं पा सकी है, बावजूद इसके कि इसका समृद्ध प्राचीन साहित्य है, समृद्ध शब्द कोश है और सबसे बड़ी बात व्यापक स्तर पर इसकी मान्यता के लिए समय-समय पर भाषाविदों ने भी एकमत राय व्यक्त की है।
जो लोग राजस्थानी की मान्यता के विरोधी हैं, उन्हें इस बात को समझ लेना चाहिए कि राजस्थानी की मान्यता से किसी और भाषा का अहित नहीं होने वाला है और जो लोग बोलियों के नाम पर राजस्थानी की मान्यता पर प्रश्न उठाते हैं, उन्हें भी भाषाविदों की इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी भाषा की जितनी अधिक बोलियां होती हैं, वह भाषा उतनी ही अधिक समृद्ध मानी जाती है। राजस्थानी के साथ यही है।
याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कमलेश्वर पर राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की पत्रिका ‘जागती जोत’ में एक संस्मरण वर्ष 2000 में लिखा था। संस्मरण कमलेश्वर को पढ़ने के लिए भेजा गया। संस्मरण पढ़ने के बाद इन पंक्तियों के लेखक को कमलेश्वर ने जो पत्र लिखा, उनकी पंक्तियां देखें, ‘कृपणता हूं तो राजस्थानी समझ में आती है। आखिर हिन्दी को अपना रक्त संस्कार राजस्थानी, शौरसेनी और ब्रज ने ही दिया है। अपनी मातृभाषाओं के विसर्जन से हिंदी प्रगाढ़ और शक्तिशाली नहीं होगी, हमें अपनी मातृभाषाओं को जीवित रखना पड़ेगा, जहां से हिंदी की शब्द सम्पदा संपन्न होगी। यह बिटिया बेटे को ब्याहने वाला रिश्ता है-जो नाती-पोतों में हमें अपनी निरंतरता देता है।’
कमलेश्वर ही क्यों विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगौर ने भी राजस्थानी के दोहे सुनकर कभी कहा था, ‘‘रवीन्द्र गीतांजली लिख सकता है, डिंगल जैसे दोहे नहीं।’ भाषाशास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी, आशुतोष मुखर्जी राजस्थानी भाषा के समृद्ध कोश और इसकी शानदार परम्परा के कायल होते हुए समय-समय पर राजस्थानी की मान्यता की हिमायत करते रहे हैं। यही नहीं भाषाओ के विकास क्रम के अंतर्गत राजस्थानी का प्रार्दुभाव अपभ्रंश में, अपभ्रंश की उत्पत्ति प्राकृत तथा प्राकृत का प्रारंभ संस्कृत और वैदिक संस्कृत की कोख में परिलक्षित होता है। इन सबके बावजूद राजस्थानी को मान्यता नहीं मिलना क्या समय की भारी विडंबना नहीं है?
यहां यह बात गौरतलब है कि आरंभ में संविधान की आठवी अनुसूची में जिन 14 भाषाओं का उल्लेख किया गया, उनका स्पष्टतः कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था परन्तु राजस्थानी की मान्यता का तो आरंभ से ही वैज्ञानिक आधार रहा है। इसे बोलने वालों की संख्या के साथ ही भाषा की क्षमता और साहित्य की समृद्धि को ही यदि आधार माना जाए कि राजस्थानी प्रारंभ में ही संविधान की आठवी अनुसूची में सम्मिलित हो जानी चाहिए थी। ऐसा भी नहीं है कि राजस्थानी की मान्यता के लिए प्रयास नहीं हो रहे हैं। राजस्थान विधानसभा में वर्ष 1956 से ही राजस्थानी को राज-काज और शिक्षा की भाषा के रूप में मान्यता के प्रयास हो रहे हैं परन्तु इन प्रयासों को अमलीजामा पहनाने की दिशा में कोई समर्थ स्वर नहीं होने के कारण यह भाषा राजनीति की निरंतर शिकार होती रही है। राज्य विधानसभा में पहली बार 16 मई 1956 को विधायक शम्भुसिंह सहाड़ा ने राजस्थानी भाषा प्रोत्साहन के लिए जो अशासकीय संकल्प रखा उसमें राजस्थान की पाठशालाओं में राजस्थानी भाषा और तत्संबंधी बोलियों की शिक्षा देने पर जोर देने हेतु तगड़ा तर्क दिया गया था। संकल्प में कहा गया था कि बच्चे घरों मंे अपने माता-पिता के साथ जिस भाषा में बात करते हैं, उसी में शिक्षा दी जानी चाहिए, इसी से वे पाठ्यपुस्तकों में वर्णित बातों को प्रभावी रूप में ग्रहण कर पाएंगे।
तब से आज 53 वर्ष हो गए हैं, राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए अब भी यही तर्क है। मैं तो बल्कि यह भी मानता हूं कि शिक्षा क्षेत्र में राजस्थान का तेजी से विकास नहीं होने का प्रमुख कारण भी यही है कि यहां की भाषा व्यवहार और शिक्षा की भाषा नहीं बन पायी। यह कितनी विडम्बना की बात है कि लगभग 1 हजार ई. से 1 हजार 500 ई. के समय के परिपे्रक्ष्य को ध्यान में रखकर जिस भाषा के बारे में गुजराती भाषा एवं साहित्य के मर्मज्ञ स्व. झवेरचन्द मेघाणी ने यह लिखा कि व्यापक बोलचाल की भाषा राजस्थानी है और इसी की पुत्रियां फिर ब्रजभाषा, गुजराती और आधुनिक राजस्थानी का नाम धारण कर स्वतंत्र भाषाएं बनी। उस भाषा की संवैधानिक स्वीकृति के बारे में निरंतर प्रश्न उठाए जा रहे हैं।
एक प्रश्न यह हो सकता है कि संविधान की मान्यता के बगैर क्या कोई भाषा अपना अस्तित्व बनाकर नहीं रह सकती। यह सच है कि भाषा सरकारें नहीं बनती, वे लोग बनाते हैं जो इसका प्रयोग करते हैं परन्तु इसका व्यवहार में प्रयोग तो तब होगा न जब यह शिक्षा का माध्यम बनेगी, जब राजकाज, विधानसभाओं, अदालतों में इस भाषा का प्रयोग उचित समझा जाएगा। और यह सब तब होगा जब सरकार इसे मान्यता प्रदान करेगी। अभी तो स्थिति यह है कि राजस्थानी भाषा को यदि विधानसभा, अदालत या अन्य किसी राज के काज में उपयोग में लिया जाता है तो पहले उसकी वैधानिकता को ढूंढा जाता है। घर में राजस्थानी भाषा बोलने वाले बाहर हिन्दी या अंग्रेजी भाषा के उपयोग के लिए मजबूर हैं, ऐसे में बहुत से शब्द धीरे-धीरे प्रयोग में आने बंद हो रहे हैं। इन पंक्तियों के लेखक जैसे बहुत से हैं जिनका आरंभिक परिवेश राजस्थानी का रहा है, आज भी पति-पत्नि हम राजस्थानी में बात करते हैं परन्तु बच्चों से हिन्दी में बात करने के लिए मजबूर हैं। कारण यह है कि वे ठीक से विद्यालय में हिन्दी यदि नहीं बोल पाएंगे तो जिस भाषा में वे शिक्षा ले रहे हैं, उन्हें बोलने वाले दूसरे बच्चों के साथ उन्हें हिन भावना जो महसूस होगी। राजस्थान में ही गांवो, छोटे शहरों से राजधानियाँ और बड़े शहरों में आए अधिकाशं राजस्थानी बोलने वालों के साथ यही हो रहा है। उन्हें अपनी भाषा से लगाव है, प्यार है परन्तु इस बात की लगातार गम भी है कि उनके बाद इस भाषा को उनके बच्चे नहीं बोलेंगे, व्यवहार में नहीं लंेगे। क्या ऐसा तब संभव होता जब उन बच्चों को भी राजस्थानी में ही पढ़ने का मौका मिलता?
भाषा निरंतर प्रयोग से समृद्ध होती है परन्तु राजस्थानी का यह दुर्भाग्य है कि प्रतिवर्ष गांवों, सुदूर ढ़ाणियों से अपनी मेहनत से पढ़-लिखकर शहर में आकर नौकरी करने वाले राजस्थानी भाषी मजबूरन अपनी दूसरी पीढ़ी के साथ राजस्थानी में संवाद नहीं कर पाते हैं, ऐसे दौर में कब तक राजस्थानी गांवो के अलावा शहरों में बची रहेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। राजस्थानी की मान्यता को क्यों इस नजरिए से नहीं देखा जा रहा? क्यों राजस्थानी भाषा के बाद जो भाषाएं विकसित हुई उन्हें मान्यता मिल गयी परन्तु राजस्थानी आज भी मान्यता की बाट जो रही है? क्यों बोलियों के नाम पर राजस्थानी के साथ यह अन्याय हो रहा है? हकीकत यह है कि राजस्थानी की मान्यता इसके अधिकाधिक लोक प्रयोग के लिए जरूरी है, इसलिए भी कि इसी से मुद्रण और प्रकाशन, पठन-पाठन और बोलने की आदत का इसका अधिक विकास होगा और यही इस भाषा की आज की जरूरत है। इसी से राजस्थानी के समृद्ध प्राचीन साहित्य को भी बचाया जा सकेगा।
बहरहाल, भारतीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में ही राजस्थानी की मान्यता को देंखे। संविधान की मूल अवधारणा लोकतांत्रिक प्रस्थापना में है। संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अगर एक हिस्से की भाषा कोई है तो उसको बचाया जाए। राजस्थानी 9 करोड़ लोगों की भाषा है, इसे बचाना, इसकी मान्यता, संरक्षण इसलिए जरूरी है। राज्य विधानसभा में वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रीत्व काल में ही वर्ष 2003 में राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनूसूची में सम्मिलित करने का संकल्प बगैर किसी बहस के ध्वनि मत से जब पारित किया जा चुका है तो फिर केन्द्र सरकार के स्तर पर इस पर अब कोई प्रश्न ही नहीं रहना चाहिए।
अभी कुछ समय पहले ही एक पुस्तक प्रदर्शनी में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा वर्ष 1959 में जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन की प्रकाशित ‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ पुस्तक मैं खरीदकर लाया। उत्सुकतावश राजस्थानी के बारे में इसमें कुछ लिखा होने के लिए जब पन्ने खोलें तो पढ़कर बेहद अचरज हुआ। ग्रियर्सन ने इसमें राजस्थान की भाषा राजस्थानी बताते हुए स्पष्ट कहा है-‘‘मारवाड़ी के रूप में, राजस्थानी का व्यवहार समस्त भारतवर्ष में पाया जाता है।’’ इसी में एक स्थान पर राजस्थानी भाषा और उसकी बोलियों पर विस्तार से लिखते हुए स्पष्ट कहा है-‘‘पंजाबी के ठीक दक्षिण में लगभग 1 करोड़ साढ़े बयासी लाख राजस्थानी भाषा-भाषियों का क्षेत्र है जो इंगलैण्ड तथा वेल्स की आधी जनसंख्या के बराबर है। जिस प्रकार पंजाबी उत्तर-पश्चिम में मध्य देश की प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है, उसी प्रकार राजस्थानी उसके दक्षिण-पश्चिम में प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है।’’
ग्रियर्सन ने भाषा सर्वेक्षण का यह कार्य तब किया था जब भारतीय संविधान बना भी नहीं था, बाद में अंग्रेजी से यह पुस्तक हिन्दी में अनुवादित होकर प्रकाशित हुई। सोचिए जिस भाषा को सर्वेक्षण में राजस्थानियों का प्रतिनिधित्व की भाषा कहा गया, क्या वह संविधान की आठवी अनुसूची में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने योग्य नहीं है? वर्ष 1967 से लेकर अब तक बहुत सारी भाषाएं संविधान की 8 वीं अनुसूची में जोड़ी गयी है। यह सच में विडम्बना की बात है कि जिस भाषा की लिपि से आधुनिक देवनागरी और दूसरी अन्य भाषाओं की लिपियां बनी है और जिसका अपना व्याकरण और विश्व के विशालतम शब्दकोशों में से एक जिसका शब्दकोश है, ऐसी भाषा को संविधान की 8 वीं अनुसूची में जुड़ने का अभी भी इन्तजार है।
राजस्थानी की मान्यता में किसी का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है। इसका अर्थ इतना ही है कि इससे वर्षो पुरानी इस भाषा का संरक्षण हो सकेगा। ऐसे दौर में जब मातृभाषाओं पर विश्वभर में संकट चल रहा है, इस दिशा में गंभीर चिंतन कर त्वरित कार्यवाही की जानी समय की आवश्यकता भी है। इसलिए भी कि भाषा, साहित्य और संस्कृति से व्यक्ति अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। राज की मान्यता भाषा के प्रयोग को व्यापक स्तर पर प्रयोग की स्वीकृति देती है। इसी से फिर स्थान विशेष की संस्कृति का भी अपने आप ही संरक्षण होता है। क्यों नहीं राजस्थान की संस्कृति के संरक्षण की सोच के साथ भाषा की मान्यता पर सरकार चिंतन करे।


- डॉ. राजेश कुमार व्यास
III/39ए गाँधीनगर, न्याय पथ,
जयपुर- 302 015 (राजस्थान)
e-mail : dr.rajeshvyas5@gmail.com

सूनी हवेली -डॉ. एस.आर.टेलर


हवेली री पीड़
आँख्या-गीड़, उमड़ती भीड़
सूनी छोड़ग्या बेटी रा बाप !
बुझाग्या चुल्है रो ताप
कुण कमावै, कुण खावै
कुण चिणावै, कुण रेवै !
जंगी ढोलां पर चाल्योड़ी तराड़
बोदी भींता रा खिंडता लेवड़ा
भुजणता चितराम
चारूंमेर लाग्योड़ी लेदरी
बतावै भूत-भविस अ’र वरतमान
री कहाणी ! कीं आणी न जाणी !
आदमखोर मिनख
बैंसग्या पड्योड़ा सांसर ज्यूं
भाखर मांय टांडै
जबरी जूण’र जमारो मांडै !
काकोसा आपरै जींवतै थकां
ई भींत पर
एक कीड़ी नी चढ़णै देवतां
पण टैम रै आगै कीं रो जोर ?
काकोसा खुद कांच री फ्रेम में
ऊपर टंगग्या
पेट भराई रै जुगाड़ मैं
सगळो कडुमो छोड्यो देस
बसग्या परदेस,
ठांवा रै ताळा, पोळ्यां में बैठग्या
ठाकर रूखाळा।
टूट्योड़ी सी खाट
ठाकरां रा ठाट
बीड्यां रो बंडल, चिलम’र सिगड़ी
कुणै में उतर्योड़ो घड़ो
गण्डक अ’र ससांर घेरणै तांई
एक लाठी
अरड़ावै पांगली पीड़ स्यूं गैली
बापड़ी सूनी हवेली !



-डॉ. एस.आर.टेलर
अम्बिका टेलर्स, लक्ष्मणगढ़ सीकर-332311

66 सालों में सिर्फ सौ राजस्थानी फिल्में


कछुआ चाल वाली कहावत शायद इसी के लिए बनाई गई थी। क्षेत्रीय सिनेमा की दुनिया में राजस्थानी फिल्में आज बहुत ही सुस्त चाल में चल रही हैं और यह चाल भी ऐसी की 100 का आंकड़ा छूने में 66 वर्ष लग गये। इस बढ़ती उम्र के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा सिनेमा अब परिपक्व हो गया है। साल-दर-साल बचकानी फिल्में और हर नई फिल्म के साथ दर्शकों की दम तोड़ती उम्मीदें। पहली राजस्थानी फिल्म ‘नजराना’ 1942 में आई थी और अब 2008 में ‘ओढ़ ली चुनरिया रे’ सौवीं फिल्म के रूप में सैंसर सर्टिफिकेट हासिल किया है। हिन्दी, तमिल या तेलुगु में इनसे दुगुनी फिल्में तो एक साल में बन जाती है। इनमें कई फिल्में तो ऐसी होती है जो दुनिया भर में कामयाबी का परचम लहराती है। पर राजस्थानी में अगर जगमोहन मूंधड़ा की फिल्म ‘बवंडर’ को अलग कर दें तो 66 साल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर तो दूर, राष्ट्रीय स्तर की भी कोई फिल्म नहीं बन पाई है। भंवरी देवी प्रकरण 2001 में बनी फिल्म ‘बवंडर’ ने राजस्थानी सिनेमा को न सिर्फ पहली बार विदेशों तक पहुँचाया, बल्कि कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिबलों में चर्चा और अवार्ड हासिल कर राजस्थान का परचम फहराया है। अभी के इस दौर में भोजपुरी फिल्में देश-विदेशों में जो धुंआधार प्रदर्शन कर रही हैं, वो जगजाहिर है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भोजपुरी सिनेमा ने यह बुलंदी अपने बलबूते हासिल की है, किसी सरकारी सहायता और टैक्स-फ्री की सुविधा के बगैर रविकिशन और मनोज तिवारी जैसे नये अभिनेताओं के जरिये, भोजपुरी भाषा बोलनेवाले दर्शकों के व्यापक समर्थन के दम पर।
भोजपुरी भाषा बोलने वालों की तरह राजस्थानी बोलने वाले इस देश और दुनिया भर में फैले हुए हैं। वे जहां भी रह रहे हैं, वहां वर्षों से अपनी जमीन, जड़ और जुबान से जुड़े हुए हैं। अपने घरों को संस्कारों से सजाकर रखते हैं तथा अपनी कला-संस्कृति से प्यार करते हैं। राजस्थानी में साफ-सुथरा, सुरुचिपूर्ण मनोरंजन देखने-सुनने को मिले, तो उसे भी उतने ही चाव से अपना सकते हैं। पर हिन्दी और दूसरे प्रादेशिक सिनेमा से राजस्थानी सिनेमा इतना पीछे और पिछड़ा है कि लगता है यह दौड़ से ही बाहर हो गया है। पर इच्छाशक्ति, चाह, लगाव और साहस हो तो दर्शकों का ‘सपोर्ट पाकर, टीवी म्यूजिकल शो के प्रतियोगी की तरह फिर इस रेस में शामिल हो सकता है। राजस्थानी गीत-संगीत में रचे-बसे ‘बीणा’ के अलबमों को देश और दुनिया में जितनी लोकप्रियता मिली है, उससे ही यह बात साबित हो जाती है। राजस्थानी सिनेमा से जुड़े हुए फिल्मकारों को इस बात पर ईमानदार प्रयास करने की जरुरत है।
1942 से 2008 तक बनी हुई क्रमवार राजस्थानी फिल्में
1. नज़राना 2. बाबासा री लाडली 3. नानीबाई कौ मायरौ 4. बाबा रामदेव पीर 5. बाबा रामदेव 6. धणी-लुगाई 7. ढोला-मरवण 8. गणगौर 9.गोपीचंद-भरथरी 10. गोगाजी पीर 11. लाज राखो राणी सती 12. सुपातर बीनणी 13. वीर तेजाजी 14. गणगौर 15. सती सुहागण 16. म्हारी प्यारी चनणा 17. सुहागण रौ सिणगार 18. पिया मिलण री आस 19. चोखौ लागै सासरियौ 20. राम-चनणा 21. सावण री तीज 22. देवराणी-जेठाणी 23. डूंगर रौ भेद 24. नणद-भौजाई 25. थारी म्हारी 26. जय बाबा रामदेव 27. धरम भाई 28. बिकाऊ टोरड़ौ/अच्छायौ जायौ गीगलौ 29. करमा बाई 30. नानीबाई को मायरौ 31. बाई चाली सासरिये 32. ढोला-मारु 33. रामायण 34. जोग-संजोग/बाई रा भाग 35. बाईसा रा जतन करो 36. सतवादी राजा हरिश्चंन्द्र 37. घर में राज लुगायां कौ 38. रमकूड़ी-झमकूड़ी 39. बेटी राजस्थान री 40. चांदा थारै चांदणे 41. मां म्हनै क्यूं परणाई 42. बीनणी बोट देणनै 43. माटी री आण 44. सुहाग री आस 45. दादोसा री लाडली 46. वारी जाऊं बालाजी 47. भोमली 48. भाई दूज 49. बंधन वचनां रौ 50. मां राखो लाज म्हारी 51. जय करणी माता 52. चूनड़ी 53. लिछमी आई आंगणे 54. बीनणी 55. रामगढ़ की रामली 56. खून रौ टीकौ 57. जाटणी 58. डिग्गीपुरी का राजा 59. बीरा बेगौ आईजै रे 60. गौरी 61. बालम थारी चूनड़ी 62. बेटी हुई पराई रे 63. बाबा रामदेव 64. दूध रौ करज 65. बीनणी होवै तौ इसी 66. बापूजी नै चायै बीनणी 67. माता राणी भटियाणी 68.राधू की लिछमी 69. छम्मक छल्लो 70. लाछा गूजरी 71. जियो म्हारा लाल 72. देव 73. सरूप बाईसा 74. जय नाकोड़ा भैरव 75. सुहाग री मेहंदी 76. छैल छबीली छोरी 77. कोयलड़ी 78. जय सालासर हनुमान 79. गोरी रौ पल्लौ लटकै 80. म्हारी मां संतोषी 81. बवंडर 82. मां राजस्थान री 83. जय जीण माता 84. मेंहदी रच्या हाथ 85. चोखी आई बीनणी 86. ओ जी रे दीवाना 87. मां-बाप नै भूलजो मती 88. खम्मा-खम्मा वीर तेजा 89. लाडकी 90. जय श्री आई माता 91. लाडलौ 92. पराई बेटी 93. प्रीत न जाणै रीत 94. मां थारी ओळू घणी आवै 95. जय मां जोगणिया 96. जय जगन्नाथ 97. कन्हैयो 98. म्हारा श्याम धणी दातार 99. मां भटियाणीसा रौ रातीजोगौ 100. ओढ़ ली चुनरिया।
कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
100 में से 6 फिल्में दूसरी भाषाओं से राजस्थानी में डब्ड। वीडियो फाॅमेंट में बनी हुई फिल्में शतक में शामिल नहीं है। साल भर में सबसे अधिक 7 फिल्में सन 1985 में निर्मित। पहली लोकप्रिय और हिट फिल्म ‘बाबा री लाडली’ (1961)। दूसरी पारी की पहली सुपर हिट फिल्म ‘सुपातर बीनणी’ (1981)। आल टाईम हिट फिल्म ‘बाई चाली सासरिये’ (1988) सबसे लम्बी अवधि की फिल्म ‘गौरी’ (1993): अवधि: 3 घंटा 12 मिनट। सबसे छोटी अवधि की फिल्म ‘लाज राखो राणी सती’ (1973) अवधि: 1 घंटा 54 मिनट।end

शनिवार, 27 जून 2009

उम्र का ढलान और सिसकियाँ लेता बुढ़ापा - त्रिलोकी दास खण्डेलवाल


गौतम बुद्ध ने कहा था कि संसार ‘दुखमय है और दुख का कारण ‘तृष्णा’ है, पर उम्र के साथ ये सब तृष्णायें जब मर जाती है तब दुख कम होता जाना चाहिए। किन्तु सारे संसार में वृद्धत्व आज जितना दुखी और पीड़ा में है उतना शायद ही वह कभी रहा होगा।
विज्ञान ने मनुष्य की उम्र बढ़ा दी। दवाइयों का अविष्कार कर स्वास्थ्य सेवाओं का चमत्कार पैदा कर दिया। किन्तु यह बुढ़ापा नरक इसलिए बन रहा है कि मनुष्य का परिवार टूट रहा है। हजारों की संख्या में सभी देशों में लोग अपने अपने गांव छोड़-छोड़ कर शहरों के फुटपाथों और झुग्गी झोपड़ियों में बसने के लिए आगे चले आ रहे है। खेती अब फलदायी व्यवसाय ही नहीं रहा और कठोर मेहनत के कारण बुढ़ापा हमारे किसानों को पचास साल की उम्र में ही घेर रहा है। महंगाई की मार से त्रस्त अधिकतर शहरी परिवार भी अपने बच्चों का भरण पोषण तक बड़ी कठिनाई से कर पाते हैं और उनके पास बुढ़ापे के लिये शायद ही कोई ‘बचत’ रह पाती है। जिन बच्चों पर वे खर्च करते हैं, वे बड़े होकर उन्हें छोड़ते जा रहे हैं और वृद्ध अवस्था की गरीबी, अकेलापन और बीमारियां उनकी जिन्दगी में अधंकार भर कर ‘‘उम्र का संकट’’ खड़ा कर रही है। एक छोटे से वर्ग को छोड़कर शहरों और महानगरों में अपने आदरणीय बुजुर्गो को अपने पास रखने के लिए अधिकांश घरों में एक अलग कमरा तक नहीं है। गांवों में रोजगार और स्वास्थ्य की पीड़ा निवारक सेवायें नहीं के बराबर है। फलस्वरूप बीमार और लाचार बुढ़ापा अपनी जिन्दगी की संध्या में रोता हुआ सिसक रहा है। दान धर्म के सभी स्त्रोत तेजी से सूखते जा रहे हैं और तनावों से टूटते परिवार अपने बुजुर्गों की तो क्या स्वयं अपनी स्वयं की सामाजिक सुरक्षा भी नहीं कर पा रहे हैं।
ऐसे में यह आवश्यक है कि सरकार, समाज और परिवार सभी मिल कर चारों ओर से एक ऐसा अभियान चलाये कि वृद्धत्व की यह पीड़ा थोड़ी बहुत घट सके। संसार के सभी विकसित देशों में वृद्धावस्था पेंशने, वृद्धावस्था अस्पताल, वृद्ध आवास की सुविधायें और वृद्ध सेवाओं के केन्द्र बड़ी सरलता से उपलब्ध हैं। भारत में गरीबी, अज्ञान और विज्ञान के बढ़ते प्रभाव के कारण यह स्थिति
अधिक विषम है। सभी स्तर पर सभी को इस आन्दोलन से जोड़े बिना ‘‘उम्र का यह कहर’’ जिन्दगी की शाम को शान्ति से नहीं गुजरने देगा। इस यज्ञ में शासक, शासित, अमीर, गरीब, व्यापारी, समाज सुधारक धर्म गुरू सभी अपने-अपने ढंग से अपनी आहूतियां दे सकते है। बूंद-बूंद से यदि इस घड़े को भरा जाये तो महात्मा गांधी की इच्छानुसार ‘‘हर आंख के आंसू पौंछे जा सकते है’’ आवश्यकता है इसे महसूस करने की और वृद्ध सेवा को ‘‘दरिद्र नारायण’’ की मानव सेवा मानकर एक संकल्प लेने की।
सन् 1993 में स्थापित हमारा सामाजिक सुरक्षा संस्थान (एस.एस.एफ) गत 15 वर्षों से ऐसी ही एक जन चेतना जगाने में कार्यरत है। संस्थान के अथक प्रयासों के फलस्वरूप केन्द्र सरकार ने 200 रु. प्रतिमाह की वृद्धावस्था पेंशन 65 वर्ष की उम्र पार कर चुके सभी आश्रय हीन नागरिकों के लिए स्वीकृत कर दी है। इतनी ही राशि राज्य सरकारों द्वारा दिये जाने की अपेक्षा है। यद्यपि आज की महंगाई में जहां 400/- रु. में एक अमीर व्यक्ति को एक नाश्ते की प्लेट भी नहीं मिलती, ये 400/- रु. पूरे माह के लिए ऊँट के मुँह में जीरा भी नहीं लगते और उस पर भी हालात ये हैं कि केरल सरकार केवल 35/- रु. मासिक, मध्य प्रदेश सरकार 75/- रु. मासिक और असम और मिजोरम 50/- रु. मासिक देकर हमारे वृद्धजनों का एक मजाक उड़ा रहे हैं। केन्द्र और राज्यों द्वारा दी जाने वाली वृद्धावस्था पंेशन की राशि के आंकड़े इस विभीषिका को स्पष्ट करते हैं -
(क) राज्य सरकार जो राष्ट्रीय वृद्ध आयु पेंशन योजना में कोई अंशदान नहीं दे रही है उनके नाम हैं -
1. आन्ध्रप्रदेश 2. बिहार 3. जम्मू एण्ड कश्मीर 4. उड़ीसा 5. अरूणाचल प्रदेश 6. मणिपुर 7. मेघालय 8. नागालैण्ड 9. द्वीप एवं नगर हवेली 10. दमन एण्ड द्वीव
(ख) केरल सरकार केवल 35 रु. अपना अंशदान राष्ट्रीय वृद्ध आयु पेंशन योजना हेतु दे रही है।
(ग) केवल 50 रु. का अपना अंशदान देने वाले राज्य है-
1. असम और 2. मिजोरम
(घ) इसी प्रकार मध्यप्रदेश राज्य सरकार केवल 75 रु. का अपना अंशदान राष्ट्रीय वृद्ध आयु पेंशन योजना को दे रही है।
(च) इस राष्ट्रीय वृद्ध आयु पेंशन योजना में 100 रु. का अंशदान देने वाले राज्य हैं -
1. छत्तीसगढ़ 2. हरियाणा 3. हिमाचल प्रदेश 4. उत्तरप्रदेश 5. त्रिपुरा और 6. लक्ष्यद्वीप
(छ) महाराष्ट्र सरकार का अपना अंशदान 175 रु. प्रतिमाह ही है।
(ज) 200 रु. का अपना अंशदान देने वाले राज्य हैं -
1. गुजरात 2. झारखण्ड 3. कर्नाटक 4. राजस्थान 5. तमिलनाडु 6. उत्तरांचल 7. पश्चिम बंगाल और 8. सिक्किम
(झ) पंजाब और चण्डीगढ़ की सरकारें केन्द्र 200 रु. से भी
अधिक 250 रुपये प्रतिमाह देती हैं।
(ट) अण्डमान एवं निकोबार द्वीप की सरकारें भी 300 रु. प्रतिमाह दे रही हैं।
(ठ) पोण्डिचेरी का अंशदान तो 400 रुपये प्रतिमाह है।
(ड) गोवा और एनसीटी (दिल्ली) की स्थिति तो इतनी शानदार है कि ये राज्य सरकारें केन्द्र से चार गुनी 800 रु. प्रतिमाह की पेंशने दे रही है। पर कुल मिलाकर स्थिति अत्यन्त सोचनीय है।
हमारी सरकार अभी तक तो यह भी नहीं मानती कि 235 रुपये या 275 रु. प्रतिमाह में एक व्यक्ति किस प्रकार जी सकता होगा, इलाज कराना या फल दूध खाना पीना तो शायद उसकी तकदीर में ही नहीं है। कहना न होगा कि हमारे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सांसद या मंत्रियों को जो हम कानूनी वेतन और अन्य सुविधायें दे रहे हैं उससे लाखों लोगों को वृद्धावस्था में मुफ्त दवाईयां दी जा सकती है। तुलना इसलिए जरूरी है कि ये सब सुविधाभोगी लोग कुछ वर्षों के बाद जब वृद्धत्त्व के घेरे में आ जायेंगे, तब शायद उन्हेें यह अहसास होगा कि उम्र का ढलान कितनी बड़ी त्रासदी है और उसके लिए कितना कुछ किया जाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
प्रातः स्मरणीय मदर टेरेसा की प्रेरणा से जब सामाजिक सुरक्षा संस्थान स्थापित किया गया। तभी से हम देश, विदेश के सौभाग्यशाली और प्रभावशाली लोगों को जगा-जगा कर उनसे यह प्रार्थना कर रहे हैं कि वे अपने इस पवित्र कर्तव्य को पूरा करने के लिए बिल गेट्स, वारेन बफेट जैसे संसार के धनाढ्यों से प्रेरणा ले। इन महापुरुषों ने अपना सर्वस्व दान कर दुखी और दरिद्र मानवता के लिए सेवा का एक मार्ग प्रशस्त किया है। कितने ही नोबल पुरस्कार विजेता हमारे इस चेतना अभियान से जुड़कर सभी वर्गों से यह अपील कर रहे हैं कि वे उन लोगों की सेवा के लिए आगे आयें जिन्होंने अपना सारा जीवन हमारी पीढ़ी को ‘लायक बनाने’ में लगा दिया। जीवन की दोपहरी में पसीना बहाने वाले हमारे ये बुज़ुर्ग अपनी जीवन की संध्या में हमारी छांव चाहते हैं। यह उनका मानव अधिकार है और हमारा एक विनम्र सामाजिक दायित्व।
1. यदि आप राजनीति से जुड़े हैं तो कानून बनवाएँ। वृद्धावस्था पेंशन राशि बढ़वाएँ उम्र को 65 वर्ष से 60 वर्ष करवायें।
2. यदि आप उद्योगपति और समर्थ व्यापारी हैं तो वृद्धावस्था आश्रम और ‘डे केयर सेन्टर’ स्थापित करें।
3. यदि आप धर्म गुरू और समाज सेवी हैं तो अपने अनुयायी को त्याग, उदारता और उत्साह के साथ वृद्ध सेवा के कार्य में लगने को कहें।
4. यदि आप विद्यार्थी हैं तो सप्ताह में कुछ घंटे अस्पताल तथा वृद्ध सेवी संस्थाओं में जाकर रक्तदान करें, दवाईयां बांटंे।
5. धार्मिक संस्थाओं में भोजन के पैकिट तैयार करवाकर दुखी और आर्त मानवता के दर्द में शामिल हो और दर्द का रिश्ता स्थापित करें।
उम्र के साथ आने वाली बाधायें और विकलांगतायें तरह-तरह की सेवा सुश्रुषा चाहती है। एक मुस्कराहट मात्र से उन्हें अपनापन महसूस होता है। यह एक पुण्य कार्य है। मानवता की ऐसी सेवा जो व्यक्ति को आत्मिक प्रसन्नता और संतोष देती है। आइये, अपनी इस भागम भाग की हारी थकी जिन्दगी में से कुछ समय निकाल कर उन लोगों के आंसू पोंछे जो मुस्कराहट के सच्चे हकदार हैं।

राजस्थानी लोकगीत

1. एक बार आओजी जवाईजी पावणा
एक बार आओजी जवाईजी पावणा
थाने सासूजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना
सासूजी ने मालुम होवे म्हारे भाई आज होयो
म्हारे घरे से मौक्ळो काम सासूजी मने माफ करो...

एक बार आओजी जवाईजी पावणा......
थाने सुसराजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना
सुसराजी ने मालूम होवे बाप म्हारो सेहर गयो
म्हारे घर से लारलो काम
सुसराजी मने माफ करो

एक बार आओजी जवाईजी पावणा......
थाने साळीजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना
साळीजी ने मालुम होवे साढुजी ने भेजू हूँ
म्हारा साढुजी नाचेला सारी रात
साळीजी मने माफ करो

एक बार आओजी जवाईजी पावणा......
थाने बुवाजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना
बुवाजी ने मालुम होवे म्हारे भी बुवाजी आया
बुवासासुजी ने जोडू लंबा लंबा हाथ बुवाजी मने माफ करो

एक बार आओजी जवाईजी पावणा......
थाने लाडीजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना
लाडीजी बुलावे तो लाडोजी भी आवे है
मैं तो जाऊंला सासरिये आज साथिङा मने माफ करो

एक बार आओजी जवाईजी पावणा...........
थाने सासूजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना....
थाने सुसराजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना...
थाने साळीजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना....
थाने बुवाजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना...
थाने लाडीजी बुलावे घर आज जवाई लाड्कना...


2. उड़ उड़ रे उड़ उड़ रे
उड़ उड़ रे उड़ उड़ रे
उड़ उड़ रे म्हारा, काळा रे कागला
कद म्हारा पीव्जी घर आवे
कद म्हारा पीव्जी घर आवे , आवे र आवे
कद म्हारा पिव्जी घर आवे

उड़ उड़ रे म्हारा काळा र कागला
कद माहरा पीव्जी घर आवे

खीर खांड रा जीमण जीमाऊँ
सोना री चैंच मंढाऊ कागा
जद म्हारा पिव्जी घर आवे, आवे रे आवे
उड़ उड़ रे उड़ उड़ रे
म्हारा काळा र कागला
कद माहरा पीव्जी घर आवे

पगला में थारे बांधू रे घुघरा
गला में हार कराऊँ कागा
जद महारा पिव्जी घर आवे

उड़ उड़ रे
महारा काळा रे कागला
कद महारा पिव्जी घर आवे
उड़ उड़ र महारा काला र कागला
कद महरा पिव्जी घर आवे

जो तू उड़ने सुगन बतावे
जनम जनम गुण गाऊँ कागा
जद मारा पिव्जी घर आवे , आवे र आवे
जद म्हारा पिव्जी घर आवे

उड़ उड़ रे उड़ उड़ रे
उड़ उड़ रे उड़ उड़ रे महारा काळा रे कागला
कद म्हारा पिव्जी घर आवे
उड़ उड़ रे उड़ उड़ रे

उड़ उड़ रे उड़ उड़ रे म्हारा काळा रे कगला
जद म्हारा पिव्जी घर आवे

राजस्थानी लोकगीतों में जीवन मूल्य - डॉ. शान्ति जैन,पटना


लोकगीत आज भी करोड़ों हृदयों को मुखरित करते हैं। लोककंठ से निकले लोकगीत में लोकजीवन की इच्छाएँ, कामनाएँ प्रतिबिम्बित होती हैं। मानव जीवन से जुड़ी प्रत्येक भावना, प्रेम, घृणा, राग-विराग का स्पष्ट चित्रण लोकगीतों में मिलता है। इन गीतों में पीड़ा है, लालित्य है, आनन्द है, इसलिए थे सजीव, प्राणवान, मधुर और नैसर्गिक हैं।
भारत के विभिन्न प्रदेशों में लोकगीत अलग-अलग बोलियों में गाए जाते हैं किन्तु उनकी आत्मा एक होती है। मानव हृदय की झंकार और करूणा इनमें समान रूप से रेखांकित होती हैं। इसी क्रम में राजस्थान के लोकगीतों का रसपान अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। ‘म्हारो रंगीलो राजस्थान’ कहकर जहाँ राजस्थान के सांस्कृतिक वैभव को उजागर किया गया है, वहीं ‘केसरिया बालम आवो नीं पधारो म्हारा देस’ कहकर राजस्थान के आतिथ्य को सराहा गया है।
अन्य प्रान्तों की भाँति राजस्थान के लोकगीत भी जनजीवन के अत्यन्त निकट रहे हैं। यहाँ के लोकगीत बड़े गंभीर, सारगर्भित और जीवन-मूल्यों से जुड़े होते हैं। राजस्थान के सामान्य लोकगीतों में वहाँ की स्त्रियों के हृदय की झंकार और करूणाँ है। इन गीतों में आनन्द के अवसर पर उन्होंने उल्लास के गीत गाये हैं, तो दुःख में आँसू भरे क्रन्दनगीतों से दिशाओं को भी व्याकुल किया है। ससुराल में कष्ट झेलते हुए पीहर की याद में अपनी व्यथा को उन्होंने गीतों में ढाला है, तो गीतों में ही अपनी ममता को भी पिरोया है। अपनी बेटी को विदा करते वक्त रूँधे कंठ से गाकर उन्होंने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है तो वधू का स्वागत भी उल्लास के गीतों से किया है। देवताओं के चरणों में नतमस्तक हो लोकगीतों के माध्यम से उन्होंने मन्नतें माँगी हैं, उनका आशीर्वाद माँगा है, तो पुत्र के प्रति अपना वात्सल्य और बड़ों के प्रति सम्मान भी गीतों में प्रकट किया है।
राजस्थान की श्रमशील नारियों ने खेतों में काम करते समय पसीने की बूंदों से गीतों को आर्द्र किया है, तो चक्की के स्वर को लोकगीतों से रागमय भी बनाया है। लोक-व्यवहार और सामाजिक-बन्धनों में बंधी स्त्रियों को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए यदि ये लोकगीत न मिले होते तो उनके हृदय का घाव कैसे फूटता?
‘‘रित आयां बोला नहीं, तो हिवड़ो फाटऽ भरांह’’ लोकगीतों के माध्यम से अपने हृदय की सुषुप्त भावनाओं को व्यक्त कर के ही उनका संतुलन बना रहता है। ये नारियाँ समाज की आत्मा और गृहस्थी की धुरी हैं, और इन्हीं से सुरक्षित है देश और प्रान्तों की संस्कृति और संस्कार।
राजस्थान के लोकगीतों में देवी-देवताओं के गीतों का
प्राधान्य रहा है। मांगलिक अनुष्ठान एवं पूजा के अवसर पर देवी-देवता के विभिन्न रूपों की भिन्न-भिन्न प्रकार से आराधना की जाती है। नवरात्रि के दिनों में प्रतिपदा से लेकर विजयादशमी तक देवी पूजा चलती है। इन दिनों में कालिका माता, अम्बा माता आदि नौ देवियों का स्तुतिगान किया जाता है। तुलसी, सूर्यपत्नी राणक देवी, चन्द्रपत्नी रोहिणी, ब्रह्माणी, गौरी आदि देवियों को लोकगीत गाकर प्रसन्न किया जाता है और उन्हें पत्र- पुष्प चढ़ाया जाता है। विवाह के अवसर पर रणथम्भौर के विनायक जी का स्मरण कर कार्य आरंभ किया जाता है। वर्षाऋतु में इन्द्रदेव को प्रसन्न किया जाता है तो कामनाविशेष की पूर्ति के लिए भोलेशंकर को रिझाया जाता है।
दक्षिणी राजस्थान के विशिष्ट भाग में गूजर जाति देवजी को अवतार मानकर पूजती है। स्थान-स्थान पर देवजी के देवरे बने हुए हैं। शनिवार को खीर बनाकर देवजी को भोग लगाया जाता है। देवजी महाराणा हम्मीर के समकालीन थे जिन्होंने कई
आध्यात्मिक चमत्कार किये थे। राजस्थान में अनूठे कार्य करने वाले व्यक्ति की महानता को भी लोकगीतों में पिरोया गया है। गोगानवमी पर घोड़े पर सवार गोगाजी की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजी जाती है। बाबूजी और रामदेवजी के गीत भी घर-घर में गाये जाते हैं।
राजस्थान की भूमि वीरप्रसूता रही है। यहाँ की धूल वीरोचित भावनाओं से ओत-प्रोत है। राजस्थान के गाँव-गाँव में झूँझारों के और सतियों के स्मारक और चबूतरे मिलते हैं। देश के लिये जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी, उन वीरबाँकुरे झूँझारों की पूजा आज भी राजस्थान में की जाती है। नवविवाहित दम्पत्ति झूँझार जी के स्थान पर प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेते हैं। मुंडन संस्कार होने पर झूँझारजी के समक्ष पुत्र के बलशाली होने की कामना की जाती है। पूजा के गीतों में झूँझारजी के वीर वेश का वर्णन किया जाता है -


झूझार जी बागो तो सेवे राज ने केसरिया
सोवनड़ी छै तरवार
झूझार जी बाग पकड़ घोड़े चढ़िया


‘शूरा ओ रण में झूझिया’ इस लोकगीत में राजस्थान की आत्मा का प्रतिबिम्ब है। मरूस्थल के रेतीले मैदान में भाले और बर्छी से घमासान युद्ध करने वाले वीर का चित्र एक लोकगीत में है -


शूरा भाला राल्या जी बालुरेत में
शूरा बरछियाँ री बाजी धमरोल
शूरा गौड़ी वाली जी झीणी रेत में
शूरा नम नम पाई तरवार।


राजस्थान की हवा में वह मनोबल है, जिसके बलबूते पर सतियों ने हँसते-हँसते अपनी आन रखने के लिए अग्निस्नान का जौहर दिखाया। इन सतियों को राजस्थान की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक माना गया है। इनकी पूजा को प्रेम का आदर्श समझा गया है। एक लोकगीत में सती होने को प्रस्तुत किसी स्त्री से किया गया प्रश्न और उसका उत्तर देखें -
दूध सीलावत दाझिया, बायां, कूंकर डोबोली आग? (दूध ठंढ़ा करते समय गिर जाने से जल उठती हो, तुम अग्नि में कैसे प्रवेश करोगी?) ज्यूं जल डोयो माछली, ज्यूंबायां! ज्यूं ई डोबुंली आज (बहनों, जैसे जल में मछली तैरती है, उसी प्रकार मैं भी अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी।)
राजस्थान में गणगौर का त्योहार वसन्तोत्सव के रूप में ही मनाया जाता है। बालिकाएँ होली के दूसरे दिन से गौराँ और ईसर की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजती हैं। यह पूजा चैत्र शुक्ल तृतीया तक चलती रहती है। गणगौर की सवारी राजसी ठाठ से निकलती है। नाथद्वारे की गणगौर राजस्थान में विख्यात है। गणगौर पूजा केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक त्योहार भी है। सवेरे लड़कियाँ वर की कामना हेतु पूजा करती हुई गीत गाती हैं, और संध्या समय महिलाएँ प्रेम के गीत गाती हुई घूमर नृत्य करती हैं।
ईसर को महादेव और गौराँ को पार्वती का स्वरूप माना गया है। एक लोकगीत में कृष्ण, हनुमान, ब्रह्मा, आदित्य, चन्द्र आदि सभी देवताओं के नाम उनकी महिमा सहित एक-एक करके वर के रूप में गौरी के आगे प्रस्तुत किये जाते हैं, गौरी सभी देवताओं में कोई-न-कोई त्रुटि निकालकर मना कर देती हैं, किन्तु भोलेशंकर का प्रस्ताव वे प्रसन्नता से स्वीकार करती हैं-


केवो तो गौरा दै थारै कृष्ण वर ने वरां
ओ देवी सवा मण मोती, वर रै पड़कै चढ़ै।
ना ओ बाप जी, कृष्ण वर नाहीं वरां,
एक तो कृष्ण जी, दूजो सांवलो।
केवो तो गौरा दै थारै ईसर वर ने वरां
ओ देवी सवा मण रोली, वर रै पड़ चढ़ै,
हाँ ओ बापजी, ईसर वर ने भला ई वरां
सवा मण रोली सैंया नैं बांटस्या।


राजस्थान के लोकगीतों में प्रेम भावनाओं का भी बाहुल्य है। इन भावों को व्यक्त करने के लिए लोकगीत नारियों के लिये बड़े सहायक सिद्ध हुए हैं। इन गीतों में संयोग का प्रकाश भी है और वियोग का अंधकार भी। विरह व्याकुल हृदय से निकले गीतों में भी अपना रंग है, सुवास है, कोमलता है और प्राण है। पीड़ा के साथ उनमें आशा की किरण भी है। पति चाकरी करने जा रहा है। यातायात के साधन न होने के कारण वह लम्बे समय तक शायद न लौट पाये, इस आशंका से पत्नी का मन पीपल के पत्ते-सा काँप रहा है। इसलिए वह चाहती है कि पति किसी समीप के स्थान में चाकरी करे और संध्या समय घर आ जाया करे-


नेड़ी तो नेड़ी करजो पिया चाकारी जी
सांझ पड़ियां घर आय जा गोरी रा बालमा।


परदेसी प्रिय का पत्र आने पर किसी स्त्री की सहेलियाँ, ननद या जिठानियाँ ‘ओलुं’ गाकर एक प्रकार का उत्सव मनाती है। ‘ओलुं’ गीत में विरहन की मर्मभेदी वेदना मुखरित होती है -


थारी ओलुं घणी आवै म्हारा राज
जी नींद नहीं आवै म्हारा राज
म्हानैं धान नहीं भावे जी राज।


सैकड़ों कोस से यात्रा करता हुआ प्रिय पाहुना जब घर लौटता है तो उसके स्वागत के लिये स्त्री कितने जतन करती है-
घोड़ला नैं जी ठाण बंधावुं
हां ओ मेवाड़ा जी, हसती झुकाऊँ माणक चौक में।
हर गृहिणी की इच्छा अपना एक सुन्दर धर बसाने की होती है। ऐसा घर जो प्रेम से भरा हो जिसमें वात्सल्य की धारा बहती हो और जिसपर उसका स्वामित्व हो। चूने के स्थान पर केशर और कुमकुम से बने हुए महल में दाम्पत्य जीवन बिताने की कल्पना कितनी अनूठी है-


कुंकुं तो केसर साहिबा घरऽ घलाय दो जी
घर घलाय दो जी धण नैं सखरो मालियो।
उस भवन के कंचन जड़े आँगन में उसके पति ऐसे लगेंगे जैसे किरणों में सूर्य -
इण तो आंगण सायना आव फिरोला जी
जांणै कईं किरणा में सूरज उगियो।


और अपने पति के पास प्रेम भरी मुस्कान बिखेरती गृहिणी बादल में बिजली की तरह लगेगी-


इण तो आंगण साहिबा, मैं ही फिरांला जी
जांणै कांई आभा में चमकी बीजली जी


इन लोकगीतों में प्रेमभावना बड़ी कुशलता से चित्रित है। दाम्पत्य जीवन की वास्तविकता, कलह, गृहस्थी के द्वन्द्व आदि सभी यथार्थ रूप में दर्शाये गये हैं। चूँकि लोकगीतों में लोकजीवन का सही प्रतिबिम्ब मिलता है, इसलिए दैनंदिन जीवन के स्वर भी इनमें मिलते हैं। खेतों में काम करते समय, चक्की चलाते समय, पनघट से पानी लाते समय श्रम परिहार के लिये बड़े मोहक गीत गाये जाते हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य के अभाव में मरूभूमि में लोग लोकगीत गाकर ही अपना ताप मिटाते हैं। जन्म-विवाह से लेकर मृत्यु पर्यन्त के संस्कार गीत, ऋतुगीत और श्रम गीतों में निहित हैं जीवन के सार्थक मूल्य।
राजस्थान में सदियों तक सामन्तवादी शासन रहा है, अतः राजमहल में गाये जाने वाले लोकगीतों में राजस्थान के वैभवाविलास और संस्कृति का चित्रण होता है, किन्तु साधारण जन समाज में गाये जाने वाले गीतों में कल्पना की उड़ान नहीं, जीवन का यथार्थ पाया जाता है। इन गीतों में रस और भावों का वैविध्य है, अपनी संस्कृति और संस्कार का सौरभ है और है मानवीय मूल्यों का संरक्षण।end

मेरे बारे में कुछ जानें: