लोकगीत आज भी करोड़ों हृदयों को मुखरित करते हैं। लोककंठ से निकले लोकगीत में लोकजीवन की इच्छाएँ, कामनाएँ प्रतिबिम्बित होती हैं। मानव जीवन से जुड़ी प्रत्येक भावना, प्रेम, घृणा, राग-विराग का स्पष्ट चित्रण लोकगीतों में मिलता है। इन गीतों में पीड़ा है, लालित्य है, आनन्द है, इसलिए थे सजीव, प्राणवान, मधुर और नैसर्गिक हैं।
भारत के विभिन्न प्रदेशों में लोकगीत अलग-अलग बोलियों में गाए जाते हैं किन्तु उनकी आत्मा एक होती है। मानव हृदय की झंकार और करूणा इनमें समान रूप से रेखांकित होती हैं। इसी क्रम में राजस्थान के लोकगीतों का रसपान अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। ‘म्हारो रंगीलो राजस्थान’ कहकर जहाँ राजस्थान के सांस्कृतिक वैभव को उजागर किया गया है, वहीं ‘केसरिया बालम आवो नीं पधारो म्हारा देस’ कहकर राजस्थान के आतिथ्य को सराहा गया है।
अन्य प्रान्तों की भाँति राजस्थान के लोकगीत भी जनजीवन के अत्यन्त निकट रहे हैं। यहाँ के लोकगीत बड़े गंभीर, सारगर्भित और जीवन-मूल्यों से जुड़े होते हैं। राजस्थान के सामान्य लोकगीतों में वहाँ की स्त्रियों के हृदय की झंकार और करूणाँ है। इन गीतों में आनन्द के अवसर पर उन्होंने उल्लास के गीत गाये हैं, तो दुःख में आँसू भरे क्रन्दनगीतों से दिशाओं को भी व्याकुल किया है। ससुराल में कष्ट झेलते हुए पीहर की याद में अपनी व्यथा को उन्होंने गीतों में ढाला है, तो गीतों में ही अपनी ममता को भी पिरोया है। अपनी बेटी को विदा करते वक्त रूँधे कंठ से गाकर उन्होंने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है तो वधू का स्वागत भी उल्लास के गीतों से किया है। देवताओं के चरणों में नतमस्तक हो लोकगीतों के माध्यम से उन्होंने मन्नतें माँगी हैं, उनका आशीर्वाद माँगा है, तो पुत्र के प्रति अपना वात्सल्य और बड़ों के प्रति सम्मान भी गीतों में प्रकट किया है।
राजस्थान की श्रमशील नारियों ने खेतों में काम करते समय पसीने की बूंदों से गीतों को आर्द्र किया है, तो चक्की के स्वर को लोकगीतों से रागमय भी बनाया है। लोक-व्यवहार और सामाजिक-बन्धनों में बंधी स्त्रियों को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए यदि ये लोकगीत न मिले होते तो उनके हृदय का घाव कैसे फूटता?
‘‘रित आयां बोला नहीं, तो हिवड़ो फाटऽ भरांह’’ लोकगीतों के माध्यम से अपने हृदय की सुषुप्त भावनाओं को व्यक्त कर के ही उनका संतुलन बना रहता है। ये नारियाँ समाज की आत्मा और गृहस्थी की धुरी हैं, और इन्हीं से सुरक्षित है देश और प्रान्तों की संस्कृति और संस्कार।
राजस्थान के लोकगीतों में देवी-देवताओं के गीतों का
प्राधान्य रहा है। मांगलिक अनुष्ठान एवं पूजा के अवसर पर देवी-देवता के विभिन्न रूपों की भिन्न-भिन्न प्रकार से आराधना की जाती है। नवरात्रि के दिनों में प्रतिपदा से लेकर विजयादशमी तक देवी पूजा चलती है। इन दिनों में कालिका माता, अम्बा माता आदि नौ देवियों का स्तुतिगान किया जाता है। तुलसी, सूर्यपत्नी राणक देवी, चन्द्रपत्नी रोहिणी, ब्रह्माणी, गौरी आदि देवियों को लोकगीत गाकर प्रसन्न किया जाता है और उन्हें पत्र- पुष्प चढ़ाया जाता है। विवाह के अवसर पर रणथम्भौर के विनायक जी का स्मरण कर कार्य आरंभ किया जाता है। वर्षाऋतु में इन्द्रदेव को प्रसन्न किया जाता है तो कामनाविशेष की पूर्ति के लिए भोलेशंकर को रिझाया जाता है।
दक्षिणी राजस्थान के विशिष्ट भाग में गूजर जाति देवजी को अवतार मानकर पूजती है। स्थान-स्थान पर देवजी के देवरे बने हुए हैं। शनिवार को खीर बनाकर देवजी को भोग लगाया जाता है। देवजी महाराणा हम्मीर के समकालीन थे जिन्होंने कई
आध्यात्मिक चमत्कार किये थे। राजस्थान में अनूठे कार्य करने वाले व्यक्ति की महानता को भी लोकगीतों में पिरोया गया है। गोगानवमी पर घोड़े पर सवार गोगाजी की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजी जाती है। बाबूजी और रामदेवजी के गीत भी घर-घर में गाये जाते हैं।
राजस्थान की भूमि वीरप्रसूता रही है। यहाँ की धूल वीरोचित भावनाओं से ओत-प्रोत है। राजस्थान के गाँव-गाँव में झूँझारों के और सतियों के स्मारक और चबूतरे मिलते हैं। देश के लिये जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी, उन वीरबाँकुरे झूँझारों की पूजा आज भी राजस्थान में की जाती है। नवविवाहित दम्पत्ति झूँझार जी के स्थान पर प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेते हैं। मुंडन संस्कार होने पर झूँझारजी के समक्ष पुत्र के बलशाली होने की कामना की जाती है। पूजा के गीतों में झूँझारजी के वीर वेश का वर्णन किया जाता है -
झूझार जी बागो तो सेवे राज ने केसरिया
सोवनड़ी छै तरवार
झूझार जी बाग पकड़ घोड़े चढ़िया
‘शूरा ओ रण में झूझिया’ इस लोकगीत में राजस्थान की आत्मा का प्रतिबिम्ब है। मरूस्थल के रेतीले मैदान में भाले और बर्छी से घमासान युद्ध करने वाले वीर का चित्र एक लोकगीत में है -
शूरा भाला राल्या जी बालुरेत में
शूरा बरछियाँ री बाजी धमरोल
शूरा गौड़ी वाली जी झीणी रेत में
शूरा नम नम पाई तरवार।
राजस्थान की हवा में वह मनोबल है, जिसके बलबूते पर सतियों ने हँसते-हँसते अपनी आन रखने के लिए अग्निस्नान का जौहर दिखाया। इन सतियों को राजस्थान की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक माना गया है। इनकी पूजा को प्रेम का आदर्श समझा गया है। एक लोकगीत में सती होने को प्रस्तुत किसी स्त्री से किया गया प्रश्न और उसका उत्तर देखें -
दूध सीलावत दाझिया, बायां, कूंकर डोबोली आग? (दूध ठंढ़ा करते समय गिर जाने से जल उठती हो, तुम अग्नि में कैसे प्रवेश करोगी?) ज्यूं जल डोयो माछली, ज्यूंबायां! ज्यूं ई डोबुंली आज (बहनों, जैसे जल में मछली तैरती है, उसी प्रकार मैं भी अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी।)
राजस्थान में गणगौर का त्योहार वसन्तोत्सव के रूप में ही मनाया जाता है। बालिकाएँ होली के दूसरे दिन से गौराँ और ईसर की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजती हैं। यह पूजा चैत्र शुक्ल तृतीया तक चलती रहती है। गणगौर की सवारी राजसी ठाठ से निकलती है। नाथद्वारे की गणगौर राजस्थान में विख्यात है। गणगौर पूजा केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक त्योहार भी है। सवेरे लड़कियाँ वर की कामना हेतु पूजा करती हुई गीत गाती हैं, और संध्या समय महिलाएँ प्रेम के गीत गाती हुई घूमर नृत्य करती हैं।
ईसर को महादेव और गौराँ को पार्वती का स्वरूप माना गया है। एक लोकगीत में कृष्ण, हनुमान, ब्रह्मा, आदित्य, चन्द्र आदि सभी देवताओं के नाम उनकी महिमा सहित एक-एक करके वर के रूप में गौरी के आगे प्रस्तुत किये जाते हैं, गौरी सभी देवताओं में कोई-न-कोई त्रुटि निकालकर मना कर देती हैं, किन्तु भोलेशंकर का प्रस्ताव वे प्रसन्नता से स्वीकार करती हैं-
केवो तो गौरा दै थारै कृष्ण वर ने वरां
ओ देवी सवा मण मोती, वर रै पड़कै चढ़ै।
ना ओ बाप जी, कृष्ण वर नाहीं वरां,
एक तो कृष्ण जी, दूजो सांवलो।
केवो तो गौरा दै थारै ईसर वर ने वरां
ओ देवी सवा मण रोली, वर रै पड़ चढ़ै,
हाँ ओ बापजी, ईसर वर ने भला ई वरां
सवा मण रोली सैंया नैं बांटस्या।
राजस्थान के लोकगीतों में प्रेम भावनाओं का भी बाहुल्य है। इन भावों को व्यक्त करने के लिए लोकगीत नारियों के लिये बड़े सहायक सिद्ध हुए हैं। इन गीतों में संयोग का प्रकाश भी है और वियोग का अंधकार भी। विरह व्याकुल हृदय से निकले गीतों में भी अपना रंग है, सुवास है, कोमलता है और प्राण है। पीड़ा के साथ उनमें आशा की किरण भी है। पति चाकरी करने जा रहा है। यातायात के साधन न होने के कारण वह लम्बे समय तक शायद न लौट पाये, इस आशंका से पत्नी का मन पीपल के पत्ते-सा काँप रहा है। इसलिए वह चाहती है कि पति किसी समीप के स्थान में चाकरी करे और संध्या समय घर आ जाया करे-
नेड़ी तो नेड़ी करजो पिया चाकारी जी
सांझ पड़ियां घर आय जा गोरी रा बालमा।
परदेसी प्रिय का पत्र आने पर किसी स्त्री की सहेलियाँ, ननद या जिठानियाँ ‘ओलुं’ गाकर एक प्रकार का उत्सव मनाती है। ‘ओलुं’ गीत में विरहन की मर्मभेदी वेदना मुखरित होती है -
थारी ओलुं घणी आवै म्हारा राज
जी नींद नहीं आवै म्हारा राज
म्हानैं धान नहीं भावे जी राज।
सैकड़ों कोस से यात्रा करता हुआ प्रिय पाहुना जब घर लौटता है तो उसके स्वागत के लिये स्त्री कितने जतन करती है-
घोड़ला नैं जी ठाण बंधावुं
हां ओ मेवाड़ा जी, हसती झुकाऊँ माणक चौक में।
हर गृहिणी की इच्छा अपना एक सुन्दर धर बसाने की होती है। ऐसा घर जो प्रेम से भरा हो जिसमें वात्सल्य की धारा बहती हो और जिसपर उसका स्वामित्व हो। चूने के स्थान पर केशर और कुमकुम से बने हुए महल में दाम्पत्य जीवन बिताने की कल्पना कितनी अनूठी है-
कुंकुं तो केसर साहिबा घरऽ घलाय दो जी
घर घलाय दो जी धण नैं सखरो मालियो।
उस भवन के कंचन जड़े आँगन में उसके पति ऐसे लगेंगे जैसे किरणों में सूर्य -
इण तो आंगण सायना आव फिरोला जी
जांणै कईं किरणा में सूरज उगियो।
और अपने पति के पास प्रेम भरी मुस्कान बिखेरती गृहिणी बादल में बिजली की तरह लगेगी-
इण तो आंगण साहिबा, मैं ही फिरांला जी
जांणै कांई आभा में चमकी बीजली जी
इन लोकगीतों में प्रेमभावना बड़ी कुशलता से चित्रित है। दाम्पत्य जीवन की वास्तविकता, कलह, गृहस्थी के द्वन्द्व आदि सभी यथार्थ रूप में दर्शाये गये हैं। चूँकि लोकगीतों में लोकजीवन का सही प्रतिबिम्ब मिलता है, इसलिए दैनंदिन जीवन के स्वर भी इनमें मिलते हैं। खेतों में काम करते समय, चक्की चलाते समय, पनघट से पानी लाते समय श्रम परिहार के लिये बड़े मोहक गीत गाये जाते हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य के अभाव में मरूभूमि में लोग लोकगीत गाकर ही अपना ताप मिटाते हैं। जन्म-विवाह से लेकर मृत्यु पर्यन्त के संस्कार गीत, ऋतुगीत और श्रम गीतों में निहित हैं जीवन के सार्थक मूल्य।
राजस्थान में सदियों तक सामन्तवादी शासन रहा है, अतः राजमहल में गाये जाने वाले लोकगीतों में राजस्थान के वैभवाविलास और संस्कृति का चित्रण होता है, किन्तु साधारण जन समाज में गाये जाने वाले गीतों में कल्पना की उड़ान नहीं, जीवन का यथार्थ पाया जाता है। इन गीतों में रस और भावों का वैविध्य है, अपनी संस्कृति और संस्कार का सौरभ है और है मानवीय मूल्यों का संरक्षण।end
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