आपणी भासा म आप’रो सुवागत

'आपणी भासा' ई-पत्रिका में मारवाड़ी समाज से जुड़ी जानकारी, सामाजिक बहस व समाज में व्याप्त कुरीतियोँ के प्रति सजग इस पेज पर आप समस्त भारतीय समाज के संदर्भ में लेख प्रकाशित करवा सकतें हैं। हमें सामाजिक लेख, कविता, सामाजिक विषय पर आधारित कहानियाँ या लघुकथाऎं आप मेल भी कर सकतें हैं। सामाजिक कार्यक्रमों की जानकारी भी चित्र सहित यहाँ प्रकाशित करवा सकतें हैं। मारवाड़ी समाज से जुड़ी कोई भी संस्था हमारे इस वेवपेज पर अपनी सामग्री भेज सकतें हैं। आप इस ब्लॉग के नियमित लेखक बनना चाहतें हों तो कृपया अपना पूरा परिचय, फोटो के साथ हमें मेल करें।- शम्भु चौधरी E-Mail: ehindisahitya@gmail.com



अब तक की जारी सूची:

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

राजस्थानी कहावतां- 2


खाट पड़े ले लीजिये, पीछे देवै न खील।
आं तीन्यां रा एक गुण, बेस्या बैद उकील।

बैस्या, बैद्यराज अर्थात डाक्टर, वकील इन तीनों की एक ही समानता है कि जब आदमी को जरूरत होती है तभी उनको याद करता है। काम हो जाने के बाद वह पलटकर भी इनको नहीं देखने आता।
कहावत का तात्पर्य है -
जब आदमी को काम पड़े उसी वक्त उससे अपना लेन-देन कर लेना चाहिए। -आपणी भासा


गरबै मतना गूजरी, देख मटूकी छाछ।
नव सै हाथी झूंमता, राजा नळ रै द्वार।।

राजा नळ के दरवाजे पर 900 हाथियों का झूंड खड़ा रहता था वह भी समाप्त हो गया। पर तुम अपनी एक हांडी छाछ पर इतराता है।
कहावत का तात्पर्य है -
अपनी संपत्ति पर इतना मत घमंड करो। एक दिन सब समाप्त हो जाता है। -आपणी भासा


ग्यानी सूं ग्यानी मिलै, करै ग्यान री बात।
मूरख सूं मूरख मिलै, कै जूता कै लात।।

इस कहावत का भावार्थ बहुत सरल है। संगत जैसी वैसी करनी। -आपणी भासा

चोदू जात मजूर री, मत करजे करतार।
दांतण करै नै हर भजै, करै उंवार-उंवार।।

मजदूरी करने वाला आदमी न तो कभी ठीक से भजन-किर्तन करता है ना ही ठीक से नहाता-खाता है बस जब उससे बात करो तो बोलता है कि बहुत समय हो गया।
कहावत का तात्पर्य है -
जो अस्त-व्यस्त रहता है उसी के पास समय नहीं रहता। -आपणी भासा


जायो नांव जलम को रैणौ किस विध होय?
जन्म लेने वाले बच्चे को 'जायो' कहा जाता है तो वह अमर कैसे हुआ?
कहावत का तात्पर्य है - एक दिन सबको जाना तय है। जन्म लेने के साथ ही मौत तय निष्चित हो जाती है। -आपणी भासा


ज्यूं-ज्यूं भीजै कामळी, त्यूं-त्यूं भारी होय।
कपास, रुई या कम्बल जैसे-जैसे पानी में भींगती है वह किसी काम के लायक नहीं रह जाती।
कहावत का तात्पर्य है -
जैसे-जैसे आदमी में किसी भी बात का घमंड बढ़ने लगता है वह समाज से कट जाता है।
इस कहावत को कुछ लोग यह अर्थ भी लगाते हैं- जैसे-जैसे धन आने लगता है उस आदमी की कर्द समाज में होने लगती है। -आपणी भासा

रविवार, 27 नवंबर 2011

आपणी भासा राजस्थानी - शम्भु चौधरी


म्हारी दो दिनां’री राजस्थानी यात्रा में
मिलगी म्हाणै एक कहानी,
कमरा में पड़ी-पड़ी सड़गी
आपणी भासा राजस्थानी।
समाचारपतरां म कोणी दिखी
दिवाळा में कोणी दिखी
बातां में भी खोती दिखी
नेता’रे फोटूआं म भी कोणी दिखी
टी.वी चैनला म भी खोगी
आपणी भासा राजस्थानी।

पर
एक छोटी सी कोठरी में
दम तौड़ती, खांसती
हिम्मतां हारती
फाटड़ा गाबां म
ईलाज रे अभाव म
अन्तिम सांसां लेती
दिखगी मणै
आपणी भासा राजस्थानी।

ताना कसी
थे अब आया हो?
अब कै लैणै आया हो?
म तो अब मरण’हाळी हूँ।
मणै आपरी छाती से चिपका’र
फैंरुं बोली-
देख आ मेरी वसीयत है
जिकी तेरे नाम कर दी है।
अब तो बस मेरी सांस बची है
जिकी मेरे सागै ही अब जासी।
लालसाजी अर सेठीया जी चळग्या,
रावतजी भी छोड़ चळग्या।
तेरे बस’रीं बात कोणी
अब कि’रीं मणै आस कोणी।
हाँ!
बा छिपा (बर्तन) में कुछ रोटी बचगी
भाया म सै बांट’रे खालै
ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, णै देदे आधी
ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, णै देदे म्हारी लोटी
(बचा-कुचा समान)
मारवाड़ी, मालवी, देदे आ खटिआ (मचान)
शेखावटी देदे सारी बकिया(कर्ज)
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।

आंखां म आंसू झलकाया
सर पर मेरे हाथ फिराया
मणै पूछी
तेरा डाबर कंईयां है?
मेरी आस तो कोणी बची
औळ्यां सैं’री आवै है।
देख आ माटी पर
कुछ पड़ी किताबां
पाणी में भींगी जावै है।
किड़ा खाग्या,
ढीळ लाग्गी,
किनारे से पूरी फाटगी,
बाबूसा बोल्यां करता था
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।

म तो अब चालन लागी हूँ
अंतिम सांसां गिण रही हूँ
सैं’णै मेरो राम-राम कहियो।
घणी डिक(इंतजार) लगाई सैं’रीं
काफी आस जगाई सैं’रीं
सैंका सैं नालायक निकला
लायक भी नालायक निकला
बोबा’रो दूध पिलायो सैंणै
मांचा म खुब खिलायो सैं’णै
बाबू’री फाट’री धोती
पोतड़ा में सुलांयो सैं’णै
आज मेरी साड़ी भी अब
गई सग्ळी फाट...
रुक’रे बोली...
सुण मेरी इक बात!
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।

मेरे एक काम करोगो तू!
बी कोणा में जा
देख बठै है मेरी पोथी
‘मायड़ भासा राजस्थानी’
राख संभाल काम जद आसी
कोई काम न आसी।
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।


(आपणी भासा राजस्थानी - शम्भु चैधरी,
स्वतंत्र प्रकाशन अधिकार के साथ,
रचना निर्माण दिनांक 27 नवंबर 2011)

शनिवार, 26 नवंबर 2011

राजपूत रा डावड़ो - स्व॰ रावत सारस्वत

मा, मैं रणखेतां जास्यूं
बाबोसा रो बख्तर ल्याद्यो
बो खूनी खांडो मंगवाद्यो
म्हारै घुड़ळै जीन कसाद्यो
रजपूती रा ठाठ सजाद्यो।
      अब लड़बा मरबा जास्यूं मा,
      खूनां रा समंद बहास्यूं मा
      मैं रणखेतां जास्यूं।

बखतर यो बादळ बण ज्यासी
यो खांडो बीजळ चमकासी
पून वेग म्हारो घुड़लो जासी
या रजपूती प्रळै मचासी।
      बैर्यां रा सीस झुकास्यूं मा,
      जीवण रो फळ जद पास्यूं मा
      मैं रणखेतां जास्यूं।

बहनड़ अकनकंवार उतारो
आरतड़ो रजवंती म्हारो
ओ रोळी टीको म्थारो
लोही मांगैलो लाखां रो।
      टीकै री लाज रखास्यूं मा,
      बहनड़ रो प्यार चुकास्यूं मा
      मैं रणखेतां जास्यूं।



स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी का संक्षिप्त परिचय:
स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी का जन्म राजस्थान के चूरू गांव में 22 जनवरी, 1922ई. में श्री हनुमानप्रसाद सारस्वत के यहां हुआ। आपकी प्राथमिक पढ़ाई बागला स्कूल, चूरू और ग्रेज्यूएट तक की शिक्षा डूंगर कॉलेज, बीकानेर से की आगे चलकर आपने एम.ए. एलएल.बी. की परिक्षाएं भी दी।
डूंगर कॉलेज, बीकानेर में पढ़ाई करते वक्त राजस्थानी भाषा के विद्वान के संपर्क में रहने के चलते आपमें भी राजस्थानी भाषा की सेवा का भाव जग उठा। सन् 1947-48 आपने बीकानेर से जयपुर आकर रेडक्रॉस सोसायटी में सेक्रेट्री पद पर कार्य करने लगे, आप सेवानिवृत्त तक इसी संस्था में ही कार्य करते रहे। इस संस्था में रहते-रहते ही आपने राजस्थानी भासा पर अपना कार्य जारी रखा। इस दौरान आपने ‘मरुवाणी’ मासिक का प्रकाशन भी करने लगे जो 1953 से लगभग 20 सालों तक लगातार प्रकाशित होती रही। इस पत्रिका के प्रकाशन के साथ-साथ आपने ‘राजस्थान भासा प्रचार सभा’ की भी स्थापना कर इस संस्था के माध्यम से कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन किया। श्री सारस्वत सभा की तरफ से वर्ष में चार बार राजस्थानी भाषा की परिक्षाएं लेते जिसमें हर वर्ष हजारों छात्र भाग लेते रहे। आपके द्वारा राजस्थान के सैकडों साहित्यकारों को सामने आने का अवसर मिला औ उनको प्रसिद्धि भी मिली।
आप में राजस्थानी भाषा के प्रति गजब का प्रेम था, कई बार आप अपनी मासिक तनखाह से पुस्तकें खरीद लाते और बच्चों का भूखा ही पालते रहते। आप कवि, नाटककार, निबंधकार, समीक्षक, संपादन, अनुवादक, कोषकार एवं शोधकार की प्रतिभा से पूर्ण थे। राजस्थानी भासा मान्यता के प्रबल समर्थक आपको कई सम्मानों से भी नवाजा जा चुका है। 16 दिसम्बर, सन् 1988ई. को आप इस संसार से भावपूर्ण विदाई लेकर खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दिए।

आपकी उपरोक्त कविता में वीर राजपुत युवा अपनी मां से आर्शीवाद मांग रहा है और कह रहा है कि मां मुझे अब युद्ध में जाने दो मेरे माथे पर बहन से कहो कि वो रोळी के लहू जैसे चंदन से टीका करे और मुझे खांडो अर्थात तलवार से सजा दे। राजस्थान के कण-कण में इस तरह की गाथाएं छुपी पड़ी है। मरूभूमि का शायद ही ऐसा कोई कवि होगा जिसने इन वीर गाथाओं से अपनी रचनाओं का श्रृंगार न किया हो। उपरोक्त कविता राजस्थान के महान भासा प्रेमी स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी की ‘‘बखत रै परवाण ’’ से ली गई है। -संपादक

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

अ.भ. मारवाड़ी युवा मंच : दशम राष्ट्रीय अधिवेशन

अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच का
राष्ट्रीय अधिवेशन
भव्य आडम्बर युक्त पंडाल में शुरू हुआ।


कोलकातः 16 नवम्बर 2011- रिर्पोट मंच सदस्यों द्वाराः
अखिल भारतीय मारवाड़ी युवामंच का दशम् राष्ट्रीय अधिवेशन भव्य आडम्बर युक्त पंडाल में अव्यवस्था और हंगामे के साथ संपन्न हुआ। नासिक में संपन्न हुए इस चार दिवसीय दशम राष्ट्रीय अधिवेशन के आयोजन पर जहाँ आयोजकों ने समाज के धन को पानी की तरह बहाया, वहीं मंच के सदस्यों को ठहरने के लिए सही व्यवस्था भी नहीं कर पाये, सारी व्यवस्था पैसे के जोर पर या ‘‘इभेन्ट मेनेजमेंट’’ के जिम्में सौंप कर आयोजकों ने देश भर से आये मंच के हजारों सदस्यों को रात भर ठहरने की जगह खोजने में ही लगावा दिया। भूखे-प्यासे सदस्य शहर में बच्चों व समान को लेकर भटकते रहे।
जैसे-जैसे मंच के सदस्य नासिक स्टेशन पंहुचते गये उनकी व्यवस्था चरमराने लगी, मानो सब कुछ हवा में चल रहा था। रात को ग्यारह बजे पंहुचे कुछ सदस्यों ने बताया कि उसे घंटों शहर के चक्कर लगाने के बाद भी ठहरने की जगह नहीं मिल पाई। छः छः घंटे मंच के सदस्य अपनी ठहरने की जगह तलाशते रहे। होटल में जो व्यवस्था थी वह भी बड़ी अजिबों-गरीब स्थिति का बयान कर रही थी। एक रूम में 5-6 सदस्यों को ठहराया गया दो-तीन को पलंग पर और तीन को जमीन पर सोने को मजबूर होना पड़ा। दो करोड़ रुपिये के बजट के इस आडम्बर में मंच सदस्यों को सिर्फ निराशा ही हाथ लगी। आयोजक प्रान्त की तरफ से सभी सदस्यों को होटल में ठहराने की बात शुरू से प्रचारित की गई थी। रहने, ठहराने व स्थानिय यातायात के नाम पर प्रति सदस्य 1500/- रुपया बतौर शुल्क भी चार्ज किया गया था।
दशम् राष्ट्रीय अधिवेशन की झलकः
1. अव्यवस्था को आलम यह था कि अधिकतर मंच सदस्यों अपने आवास को लेकर परेशान दिखे। कईयों को जगह नहीं मिली तो, वे आपा खो बैठे और राष्ट्रीय सभा के दौरान जम के हंगामा किए। जिसके चलते राष्ट्रीय सभा भी कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी व पुनः 10-15 मिनट में ही सभा को समाप्त कर दी गई।
2. अधिवेशन स्थल के मंच पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं था। जिसे जो मन में आया आकर माईक से कुछ घोषणा कर जाता था एक महोदय तो उद्घाटनकर्ता की सीट खाली देख जाकर मंच पर ही बैठ गये।
3. पुर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों को किनारे एक कोने में धकेल दिया गया।
4. मंच के एक सदस्य को ‘‘मंच के संस्थापक’’ बताया जाता रहा जबकि मंच के इतिहास में इस महान पुरुष का कोई अता-पता नहीं है। उस व्यक्ति का नाम बार-बार मंच के संस्थापक के रूप में प्रचारित किया जाता रहा।
6. उद्घाटन सत्र दो बार हुआ
1) श्री जगन्नाथ पाहड़िया जी माननीय राज्यपाल जी, हरियाणा द्वारा 2) श्री नितिन गडकरी जी द्वारा।
7. ‘राष्ट्रीय सभा’ जो कि मंच का प्राण सभा मानी जाती है इसे 15 मिनट में समाप्त कर दिया गया।
8. ट्रेडफेयर: जमीन के व्यापारियों से ही सिर्फ अटा-पटा है।
9. विश्व मारवाड़ी सम्मेलन:
विश्व मारवाड़ी सम्मेलन के नाम से जो प्रचार किया गया इसका कोई भी स्वरूप देखने को नहीं मिला।
10. मंच के सदस्यों ने आपा खोयाः
रजिस्ट्रेशन के दौरान आयोजकों के व्यवहार से खफा होकर मंच के कुछ सदस्यों ने आयोजकों की तरफ की एक सदस्य के साथ हाथा-पाई तक कर डाली।
11. ‘शौच’ की पूरी व्यवस्था अधिवेशन स्थल पर नहीं थी। सदस्यों को सड़कों पर शौच करने जाना पड़ा।

टिप्पणीः
पाणी-पाणी हो ग्यो, भींग ग्यो सैं ळाज।
पाणी सां’रो सूं ग्यो, तिंस ग्या म्हें आज।।

जैसे-जैसे मंच के सदस्य जिस आशा और उत्साह से इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए नासिक पहुचने लगे। वैसे-वैसे ही फोन पर सदस्यों की पीड़ा और चीख सुनाई देने लगी। मानो मंच का यह दशम् अधिवेशन, अधिवेशन ना हो कर कोई राजनैतिक मंच हो गया हो। जहाँ गांव से भैंड़-बकरियों को बुलाकर खुद का प्रोजेक्सन करना मात्र इस अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य रह गया हो। जिस प्रकार धन की बर्वादी इस अधिवेशन में की गई इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि व्यवस्थापक समूह केवल लिफाफेबाजी कर चकाचौंध तामझाम को ही अधिवेशन मान बैठे हैं।
राष्ट्रीय सभा को 15-20 मिनट में समाप्त कर देना, खुलेसत्र में किसी को बोलने न देना, आवास की अव्यवस्था, पीने के पानी की कमी, प्रभात रैली तीन-चार घंटा सिर्फ नेता ना आने के करण विलम्ब कर देना इस बीच चाय-नास्ते की व्यवस्था का न होना, बाथरूम का पानी पीने के जार में डाल कर देना। अधिवेशन स्थल तक आने-जाने का कोई साधन आयोजकों द्वार उपलब्ध ना करा सकना। ठंठा भोजन, अधिनेशन स्थल पर चाय-पानी की कोई व्यवस्था का ना होना। आखिर यह चंदा जो जमा किया गया वह खर्च हुआ तो हुआ किधर?
मंच के सदस्यों के लिए अलग खाने की व्यवस्था और खुद के मेहमानों लिए अलग व्यवस्था। यह भांत किस बात के लिए?
विश्व मारवाड़ी सम्मेलन के नाम पर जितना हल्ला हुआ, वैसा कुछ भी तो नहीं दिखा इस अधिवेशन में।
नासिक शाखा के साथ हमारी पूरी सहानुभूती है। मंच के सदस्य इन तकलिफों के बाबजूद उनको भरपूर सहयोग देते रहे, परन्तु आयोजकों ने अपनी अभर्दता दिखाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी।
जगजीत सिंह की एक गजल है-
मुहं की बात कहे हर कोई,
दिल का दर्द ना जाने कौन
आवाजों के बाजारों में,
खामोशी पहचाने कौन?

हमें राजनेताओं के भाषण से जो गर्व होता है वह एक चिन्ता का विषय भी है कि क्या अब समाज के कार्यों का प्रमाण-पत्र इन भ्रष्ट राजनेताओं से लेना होगा? इससे तो बेहतर होता मराठी भाषा के साहित्यकारों, कुछ सामाजिक हस्थियों को भी इनके साथ-साथ इस अधिवेशन का हिस्सा बनाते और उनके श्रीमुख निकले हुए संदेश देश भर में हमें गर्व का अहसास तो कराते ही साथ ही अमर हो जाते वे शब्द, परन्तु अफसोस इस बात रहा है कि ‘‘घर फूंक तमाशा देखें’’ वाली कहावत चिरथार्त लगती है। इतनी बड़ी धनराशि खर्च होने के बाद भी हम सिर्फ बदनामी ही ले पाये। समाज के लोग जब धन का अवव्यय करते हैं तो हम उन पर दोषारोपन करते नहीं थकते। आज मंच के सदस्य इस प्रवृति को ही सही ठहरा देगें तो समाज के बीच कौन सा मुंह लेकर जाएंगें ये लोग अब? अपरोक्ष रूप से मुझे धमकी मिल चुकी है।

समीक्षाः मंचिका अधिवेशन विशेषांक -
मंच के अन्दर अब नई जेनेरेशन को नेतृत्व कैसे मिले इस विषय पा चर्चा करनी जरूरी है। पुराने लोगों की दादागीरी तभी समाप्त होगी जब हम उनके विचारों को हम मानने से इन्कार कर देगें। नासिक अधिवेशन की 'मंचिका' तो भाई उनके विचारों का आईना है। मंच शाखाओं की कोई सामग्री इनको मिली ही नही। मंच-दर्शन, मंच का इतिहास, पूर्व अध्यक्षों के सूझाव व लेख कुछ भी तो नहीं है इस स्मारिका में। फिर यह स्मारिका किस रूप से हुई। स्मारिका के शाब्दीक अर्थ का भी ज्ञान संपादक जी को नहीं है। उन्हें पता ही नहीं कि युवा मंच क्या है। इसका क्या इतिहास रहा है। लगता है कोई जोड़-तोड़ लेखक है जिसने समाज की बहुत सारी सामग्री एकत्रित कर छाप दी हो। हां! संपादक जी ने अपने संपादकीय में यह जरूर ईमानदारी बरती है कि उनको किसने यह भार दिया है।
राजस्थानी व मराठी भासा के महान नाटक/निबंधकार स्व॰ शिवचंद्र भरतिया को तो शायद इनका समाज जानता तक नहीं होगा। मंचिका के संपादक को या दैनिक लोकमत, नासिक के संपादक श्री हेमंत कुलकर्णीजी को तो पता होना ही चाहिए था। संभतः इनको मेरी बात बुरी लगे, परन्तु जब मारवाड़ी समाज के ‘रेफरेंस बुक’ की बात करते हैं तो इस बात का ज्ञान तो रहना ही चाहिए कि ‘रेफरेन्स बुक’ का अर्थ क्या होता है। केवल रंगीन पृष्ठ छाप देने से स्मारिका या जोड़-तोड़ से कोई किताब ‘रेफ्रन्स बुक' जैसा की इन्होंने दावा किया है, नहीं बन जाती है। इस प्रवृति पर कैसे रोक लगे पर विचार करना होगा। इस बार मंचिका का मूल्य भी अंकित किया गया है 200/- यदि किसी को डाक से मंगवानी हो तो 50/- पोस्टेज चार्य अतिरिक्त देय होगा। - शंभु चौधरी

मोडीया लिपि ‘महाजनी’ / Modiya Script

एक समय में राजस्थान अंचल में ‘मोडीया लिपि’ का प्रचलन था। इसको देश भर में ‘महाजनी’ के नाम से भी इसे जाना जाता था। इन दिनों इसका प्रचलन समाप्त को चुका है। देश भर के मारवाड़ी व्यापारी इसका प्रयोग खाता-बही लिखने व हुण्डी काटने आदि में प्रयोग करते थे। महाजनी में अंक को ‘पहाडा’ कहा जाता है। जिसमें एक आणा, दो आणा या एक, दो, तीन, चार बोला जाता था। इसके विषय में अगले लेख में जानकारी दूंगा। आज आपको यहाँ पर मोडभ्या लिपि देखने में कैसी होती थी इसका नमूना नीचे चित्र में दे रहा हूँ। - शंभु चौधरी


Modiya Script "Mahajani"

Modiya Script

बुधवार, 9 नवंबर 2011

राजस्थानी भासा साथै धोखो?

राजस्थान विधानसभा रे माथै 25 अगस्त 2003 णै एक प्रस्ताव ‘राजस्थानी भाषा’री मान्यता खातिर भारत रे संविधान’रि आठवीं अनुसूची में सामिळ करै ताणी एक प्रस्ताव पारित कियो ग्यो थो। जिमें कह्यौ ग्यौ कि
‘‘राजस्थान विधानसभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यो संकल्प ळैवै है कि राजस्थानी भाषा णै संविधान रि आठवीं अनुसूची में सम्मिलित कियो जावै। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जिलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी आद सामिल है।’’

अठै आपं ईं प्रस्ताव रि गम्भीरता पर विचार करैगां कि राजस्थानी भासा साथै धोखो कियो ग्यो है कै? जिं टैम यौ प्ररसताव विधानसभा में लियो ग्यो थो विं टैम भी असोकजी’रि सरकार थी। बिणासै पुछो जावै कि ये प्रस्ताव थो कि जैर?
http://samajvikas.blogspot.com/2009/06/blog-post_844.html

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

धरती धौरां री... से मुलाकात - शम्भु चौधरी


स्व॰ श्री कन्हैयालाल सेठियाजी की पुण्य तिथि 11 नवम्बर पर विशेष लेख


Kanhaiyallal setia
कोलकात्ता सन् 2008 की बात है उन दिनों मैं ‘समाज विकास’ पत्रिका का संपादन देख रहा था। अचानक मेरे एक मित्र ने फोन पर मुझे बताया कि श्री सेठिया जी काफी अस्वस्थ्य चल रहे हैं उसी दिन मैंने उनके निवास पर जाने का मन बना लिया। मई का महिना था कोलकाता में वैसे भी काफी गर्मी पड़ती थी सो शाम पाँच बजे श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के निवास स्थल 6, आशुतोष मखर्जी रोड पंहुच गया। ‘समाज विकास’ का अगला अंक श्री सेठिया जी पर देने का मन बना लिया था, सारी तैयारी चल रही थी, मैं ठीक समय पर उनके निवास स्थल पहुँच गया। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया जी से मुलाकत हुई। थोड़ी देर उनसे बातचीत होने के पश्चात वे, मुझे श्री सेठिया जी के विश्रामकक्ष में ले गये । बिस्तर पर लेटे श्री सेठिया जी का शरीर काफी कमजोर हो चुका था, उम्र के साथ-साथ शरीर थक सा गया था, परन्तु बात करने से लगा कि श्री सेठिया जी में कोई थकान नहीं । उनके जेष्ठ पुत्र भाई जयप्रकाश जी बीच-बीच में बोलते रहे - ‘‘ थे थक जाओसा.... कमती बोलो ! ’’ परन्तु श्री सेठिया जी कहाँ थकने वाले, कहीं कोई थकान उनको नहीं महसूस हो रही थी, बिल्कुल स्वस्थ दिख रहे थे। बहुत सी पुरानी बातें याद करने लगे। स्कूल-कॉलेज, आजादी की लड़ाई, अपनी पुस्तक ‘‘अग्निवीणा’’ पर किस प्रकार का देशद्रोह का मुकदमा चला । जयप्रकाश जी को बोले कि- वा किताब दिखा जो सरकार निलाम करी थी, मैंने तत्काल दीपज्योति (फोटोग्राफर) से कहा कि उसकी फोटो ले लेवे । जयप्रकाश जी ने ‘‘अग्निवीणा’’ की वह मूल प्रति दिखाई जिस पर मुकद्दमा चला था । किताब के बहुत से हिस्से पर सरकारी दाग लगे हुऐ थे, जो इस बात का गवाह बन कर सामने खड़ा था । सेठिया जी सोते-सोते बताते हैं - ‘‘हाँ! या वाई किताब है जीं पे मुकद्दमो चालो थो...देश आजाद होने’रे बाद सरकार वो मुकदमो वापस ले लियो।’’ थोड़ा रुक कर फिर बताने लगे कि आपने करांची में भी जन अन्दोलन में भाग लिया था। स्वतंत्राता संग्राम में आपने जिस सक्रियता के साथ भाग लिया, उसकी सारी बातें बताने लगे, कहने लगे ‘‘भारत छोड़ो आन्दोलन’’ के समय आपने कराची में स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ० चौइथराम गिडवानी जो कि सिंध में उन जमाने में कांग्रेस के बड़े नेताओं में जाने जाते थे, उनके साथ कराची के खलीकुज्जमा हाल में हुई जनसभा में भाग लिया था, उस दिन सबने मिलकर स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ० चौइथराम गिडवानी के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला था, जिसे वहाँ की गोरी सरकार ने कुचलने के लिये लाठियां बरसायी, घोड़े छोड़ दिये, हमलोगों को कोई चोट तो नहीं आयी, पर अंग्रेजी सरकार के व्यवहार से मन में गोरी सरकार के प्रति नफरत पैदा हो गई। आपका कवि हृदय काफी विचलित हो उठा, इससे पूर्व आप ‘‘अग्निवीणा’’ लिख चुके थे। उनके चेहरे पर कोई शिथिलता नहीं, कोई विश्राम नहीं, बस मन की बात करते थकते ही नहीं।
श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्शों से ज्यादा समय से बंगाल में है। आप बताते हैं कि आप 11 वर्श की आयु में सुजानगढ़ कस्बे से कलकत्ता में शिक्षा ग्रहन हेतु आ गये थे। उन्होंने जैन स्वेताम्बर तेरापंथी स्कूल एवं माहेश्वरी विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा ली, बाद में रिपन कॉलेज एवं विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा ली थी।
‘धरती धौरां री..’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ की रचना करने वाले अमर व्यक्तित्व के सामने मुझे तो ऐसा लग रहा था कि मैं अपने पिता के पास हूँ। सारी बातें राजस्थानी में हो रही थी सो अपनापन का ऐहसास तो हो ही रहा था मुझे। उनके अपनत्व से भी मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती मां उनके मुख से स्वयं बोल रही हो। शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा लग रहा था मुझे ये सब। फिर अपनी बात बताने लगे- ‘‘ ‘आकाश गंगा’ तो सुबह 6 बजे लिखण लाग्यो जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी।’’ मैं तो बस उनसे सुनते रहना चाहते था, वाणी में मां सरस्वती का विराजना साक्षात देखा जा सकता था। मुझे बार-बार एहसास हो रहा था कि मैं किसी मंदिर में हूँ जहां ईश्वर से साक्षात दर्शन हो रहे हैं। यह तो मेरे लिये सुलभ सुयोग ही था कि मैं उनके शहर में ही रहता था।
इस ऐतिहासिक मुलाकात के बाद ही श्री सेठिया जी चन्द दिनों बाद ही 11 नवम्बर 2008 को अनन्त में लील हो गये। यह एक महज संयोग ही था।
करोड़ों राजस्थानियों की धड़कनों का प्रतिनिधि गीत ‘धरती धोरां री’ एवं अमर लोकगीत ‘पातल और पीथल’ के रचयिता, राजस्थानी अकादमी, उदयपुर द्वारा ‘साहित्य- मनीषी’ की उपाधि से विभूषित पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया का जन्म राजस्थान के सुजानगढ़ शहर में 11 सितम्बर, 1919 ई0 को हुआ और इनकी मृत्यु 11 नवम्बर 2008 को कोलकाता में हुई। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा सुजानगढ़ में एवं स्नातकीय शिक्षा कलकत्ता में हुई। साहित्यसेवा एवं सहृदयता आपको अपने पिता छगनमलजी एवं माता मनोहरी देवी से विरासत में प्राप्त हुई। आपकी प्रथम हिन्दी काव्य पुस्तक ‘वनफूल’ 1940 में प्रकाशित हुई एवं शीध्र ही क्रान्तिकारी विचारों का प्रस्फुटन करती हुई दूसरी पुस्तक ‘अग्निवीणा’ लोगों के सामने आई। यह पुस्तक जमींदारी उत्पीड़न के विरुद्ध एक सशक्त स्वर की बुलन्दी थीं, अतः आप पर मुकद्दमा, चला एवं भारत स्वाधीन होने के बाद ही उससे राहत मिली। 1976 ई0 में आपकी राजस्थानी काव्यकृति ‘लीलटांस’ साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा उस वर्श की सर्वश्रेष्ठ राजस्थानी कृति के नाते पुरस्कृत की गई। 1981 ई0 में आपको राजस्थानी में उत्कृष्ट रचनाओं के हेतु लोक संस्कृति शोध संस्थान, चुरू द्वारा प्रवर्तित ‘डॉ० तेस्सीतोरी स्मृति स्वर्णपदक’ प्रदान किया गया। सेठियाजी को मूर्तिदेवी साहित्य पुरस्कार उनके काव्य ग्रन्थ ‘निर्ग्रन्थ’ पर दिया गया है। ‘निर्ग्रन्थ’ में कवि की 82 कविताएं संकलित हैं। प्रत्येक कविता के साथ दर्शन जुड़ा है।
राजस्थानी में 14 एवं उर्दू में दो पुस्तक प्रकाशित है। इनमें से कुछ पुस्तकें अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई हैं। यद्यपि समय की आवश्यकता एवं पुकार पर उन्होंने कई पुस्तकें क्रान्तिधर्मा स्वर की लिखी यथा ‘अग्नि वीणा’ एवं ‘आज हिमालय बोला’ पर उनके अधिकांश साहित्य का या ठीक कहें तो उत्तरकाल के साहित्य का मूल स्वर आध्यात्मिक चिन्तन पर आधारित सनातन सत्य का प्राकट्य ही है। दर्शन पर आधारित उनकी रचनाओं में ‘प्रणाम’, ‘मर्म’, ‘अनाम’, ‘निर्ग्रन्थ’, ‘देह-विदेह’ एवं ‘निष्पत्ति’ (हिन्दी में) तथा ‘कूंकूं’, ‘लीलटांस’, ‘दीठ’ एवं ‘कक्को कोड रो’ ‘लीक लकोळिया’ (राजस्थानी) रचनाएँ हैं। इनमें से प्रत्येक पर एक-एक स्वतन्त्र समालोचनात्मक ग्रन्थ लिखा जा सकता है । ‘दीपकिरण’ (हिन्दी) में भी उनके 160 एक-से-एक उत्तम गीत हैं।
हिन्दी में आपकी 15 ग्रन्थ - बनफूल, अग्निवीणा, मेरा युग, दीपकिरण, प्रतिबिम्ब, आज हिमालय बोला, खुली खिड़कियां चौड़े रास्ते, प्रणाम, मर्म, अनाम, निर्ग्रन्थ, स्वगत, देह-विदेह और आकाश गंगा, राजस्थानी में- मींझर, गळगचिया, कूंकूं, धर कूंचा धर मजलां, लीलटांस एवं रमणिये रा सोरठा सहित 10 ग्रन्थ, उर्दू में ‘ताजमहल’ एवं अंग्रेजी में ‘रिफलेक्शन्स इन ए मिरर’ (अनुवाद) प्रकाशित हुए हैं। ‘निर्ग्रन्थ’ का बांग्ला में एवं ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते, का मराठी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। आपके साहित्य में भारतीय जीवन-दर्शन का गहन तत्त्व जिस सहजता से प्रकट हुआ है, आधुनिक युग में उसकी मिसाल मिलना कठिन है।
आपकी मान्यता था कि राजस्थानी जैसी समृद्ध भाषा की, जिसके कोश में सर्वाधिक शब्द हैं, उपेक्षा घातक है। राजस्थानी के व्यवहार के पक्ष में आपकी लिखित पुस्तक ‘मायड रो हेलो’ एक सशक्त दस्तावेज है।
‘प्रतिबिम्ब’ भी उनके गीतों की एक और भावपूर्ण पुस्तक है जिसमें विविधता भरी है। ‘लीलटांस’ को 1976 में साहित्य अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा की उस वर्श की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत किया गया एवं ‘निर्ग्रन्थ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला। 1987 में आपकी राजस्थानी कृति ‘सबद’ पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च ‘सूर्यमल्ल मिश्रण शिखर पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। 2004 में आपको ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया है। नोटः आपके समस्त साहित्य को ‘राजस्थान परिषद’ कोलकाता ने ने चार खंडों में ‘समग्र’ के रूप में प्रकाशित किया है । एक खंड में राजस्थानी की 14 पुस्तकें, दो खंडो में हिन्दी एवं उर्दू की 20 पुस्तकें समाहित हैं। चौथा खंड इनके 9 ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद का है। 8

सोमवार, 7 नवंबर 2011

बंगला साहित्य में राजस्थान - प्रो. शिवकुमार

चारण कवि रंगलाल की कविता पर आधारित
बंगाला साहित्य ‘राजस्थान के इतिहास’ से पटा पड़ा है। आज हम इसी संदर्भ में बंगला साहित्य के कुछ पन्नों को पलटते है।
रानी पद्मिनी के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर उसे प्राप्त करने के लिए सम्राट अलाउद्दीन चित्तौड़ पर आक्रमण करता है। युद्ध में असफलता होने के पश्चात वह राजा भीम सिंह के पास एक प्रस्ताव भेजता है- ‘‘कि यदि एक बार उसे रानी पद्मिनी का दर्शन हो जाय तो वह दिल्ली लौट जायेगा।’’
बंगला साहित्य में इस घटना का वर्णन देखें -

एई रूप कत दिन होइलो समर।
दिवा विभावरी रणे नाहि अवसर।।
तथापिउ यवनेर ना होइलो जय।
अभेद्य दुर्गम दुर्ग, कार साध्य लय?

एकबार देखा चाई से रूप ताहार।।
आसार आशाय फल लाभ होले बांचि।
इहार अधिक मिछे मने मने आंचि।।
नाहि चाहि रत्नभार, चित्तौरे देश।

देखिबो से मोहिनीरे, एई धार्य शेष।।
एतो भावि पत्र लिखि दूत पाठाइलो।
संधिर पताका शुभ्र, शून्ये उडाइलो।।

(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.147)

सम्राट अलाउद्दीन चित्तौड़ पर जय नहीं होने के बाद जब इस तरह का अपमान जनक सन्धि प्रस्ताव पा कर राजा राणा भीम सिहं क्रूद हो उठता है परन्तु तब तक वह युद्ध के कारण काफी कमजोर हो चुका था। तब रानी पद्मिनी ने सूझाव दिया कि आप उसे दर्पण छाया देखने का प्रस्ताव दे कर कुल को नष्ट होने से वचाव करें। अगर वह सिर्फ मेरी छाया देख कर दिल्ली लौट जाता है तो इससे हमारे वीरों की प्राण रक्षा हो सकेगी।

दुर्जन दलन, सुजन पालन,
एई तो राजार नीति।

निरखि आभाय, शत्रु यदि जाय,
सब दिक रक्षा पाय।
तबे हे आमारे, देखाउ ताहारे,
निरुपाये सदुपाये।।
साक्षत् आभाय, यदि देखे राय
होबे तबे कुले कालि।
देखुक अर्पाणे, छाया दरशने
वंशेते ना रबे गालि।।

(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.149)
पद्मिनी महारानी ने राजा को जनता के प्रति अपना धर्म याद दिला कर संन्धि प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने को कहा। इस बीच में बंगाला कवि देश की जनता को याद दिलाता है कि अंग्रेजों से भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। धीरे धीरे कवि रानी के जौहर की तरफ बढ़ता चला जाता है।
अंत मे कवि हुंकार भर उठता है-

ओई शनु ! ओई शुनो !
भेरहर आवाज हे, भेरीर आवाज।
साज साज साज बोले, साज साज साज हे,
साज साज साज।।
चलो चलो चलो सबे, समर-समाज हे,
समर समाज।
राखोहो पैतृक धर्म, क्षत्रियेर काज हे,
क्षत्रियेर काज।
आमादेर मातृभूमि राजपूतानानार हे
राजपूतानार।

जौहर की कथा का गुनगान करते हुए कवि देशवसियों को हुंकार भरता है कि- कि वे भी उठो जगो और अंग्रेजों से लोहा लेने की कसम खा लो।

भारतेर भाग्य जोर, दुःख विभावरी भेर
घूम-घोर थाकिवे कि आर?
इंगराजेर कृपाबले, मानस उदयाचले
ज्ञानभनु प्रभाय प्रचार।।

(संदर्भ: रंगलाल रचनावली, पद्मिनी उपाख्यान पृ.172)

रविवार, 6 नवंबर 2011

व्यंग्य: लोकतंत्र’रा स्तम्भ

बेईमान व्यक्ति के हाथ में कलम हो या तलवार उसकी बेईमानी छुपती नहीं है। इन दिनों देश में पत्रकारिता में भी बेईमानी झलकने लगी है। देश के कई पत्रों के संपादक करोड़ों में बिकने लगे। ईनाम की रकम इतनी मंहगी हो चुकि है कि एक लाख का ईनाम लेने के लिए हर शख्स अपना ईमान बेचने में लगा है। कल तक देश में नेता लोग व्यापारियों को जी भर के गालियां देते रहे। पत्रकार भी जम कर उनको लताड़ते थे। जनता उसके मजे ले-ले पेट भरती रही। आज देश में इन नेताओं की जब बारी आई तो पत्रकारों की एक जमात बगलें झांकती नजर आती है। इस संदर्भ में व्यंग्य को देखें -

एक पत्रकार दूसरे पत्रकार से
मित्र- सोहनजी थारी तलवार निचे पड़गी !
ना’रे आ तो म्हारी कलम है !
मित्र- नेता’रे गलै तो आई रोजना फिरै !
अब कठै काल ही म्हारे बॉस ने ‘वो’ खरिद लियो !
मित्र- अब तू कै लिखसी ?
आ अब उलटी चालसी
मित्र- कियां?
अब देश’री जनता को सर कलम करसी।
मित्र- पर या तो गद्दारी होसी?
मेरो पेट कुण भरसी तू कि या जनता?
मित्र- पर फैर भी आपां देश का चौथा लोकतंत्र’रा स्तम्भ हां।
जद तीनों पाया लड़खड़ायरा है तो चौथे खड़ो रह भी कै कर लेसी?


व्यंग्यकार: शंभु चौधरी, कोलकाता

तुलसी जी का ब्याह-

तुलसाँजी औड़ै कुंवारा हो राम!


आसाढ़ सुदी ग्यारस णै देव सोज्यावै ईं लिए उनणै ‘‘देव सयाणी ग्यारस’’ कह्यो जावै तथा कातक सुदी ग्यारस णै ‘‘देव उठणी या जागरणी ग्यारस’’ कह्यो जावै। ईं बीच में आपणा घरां में कोई बड़ो शुभ काम कोणी कियो जावै। अर देव उठणी ग्यारस णै सैं सूँ पैला तुलसाँजी रो ब्याव कियो जाय। ई अवसर पर आपणै घरां में लुगाईयां एक लोक गीत भी गाया करै जिको बोहत ही लोकप्रिय गीत है।

तुलसाँजी रो ब्याव के अवसर पर गावै जावै वालो लोकगीत -

सांतू सहेल्यां ळ-मिल चाळी,
तो सांतू ईं इक उणियारै हो राम!
भरने गई जळ जमना रो पाणी,
सांतु री सांतु यूँ उठ बोळी-
तुलसाँजी औड़ै कुवांरा हो राम!
साथनियां रो ओ ताणो
तुलसाँजी’रे कालजे खुभगो अर वै....



(सात सहेलियां एक साथ जमना तट पर पानी भरने जाती है। और सातूं सहेलियां आपस में मिलकर तुलसाँ नाम की लड़की को ताना मारने लगी। ‘‘अरै या तो अभी भी कुंवारी है’’ बस यह बात तुलसाँजी को चुभ जाती है।)

रोवत ठिणकत आई बाई तुलसॉ
तो बाबोजी गोद विठाई हो राम!
कै बाई तन्नै भाउजी मारी?
तो कै मायड़ दुतकारी हो राम!



(इस तरह उसके दादाजी तुलसाँ को अपने गोद में बैठाकर उसका लाड़-प्यार करते हुए पुचकारते हुए एक-एक का नाम ले-ले कर उससे पुछते हैं कि तुमको किसने छेड़ा, तब तुलसाँ बोलती है।)


ना बाबोजी कोई म्हानै मारी
नो कोई दुतकारी हे राम!
म्हारी सहेल्यां यूं मैणै बोली-
‘‘तुलसाँजी औड़ै कुवांरा हो राम!’’


(इस तरह तुलसाँ रो-रो कर अपना दुखड़ा दादाजी को बताती है। तब दादाजी उसको भ्रह्माजी, चांद, सूरज के साथ विवाह की बात कहते है। तो तुलसाँ जबाब में कहती है कि ना-ना आपणै घरै जो सालगराम जी है वही मुझे पसंद है आप उसी से मेरा ब्याह रचा दो।)


बाबोजी -
तो कै विरमाजी परणावां हो राम!
के बाई चांदो वर हे राम!
तो कै सूरज परबाबां हो राम!
तुलसाँजी -
म्हारै तो बाबोजी सालगराम बर हेरो
वे म्हारै मन भाया हो राम
वो री म्हारी जोड़ी हो राम!


(इस प्रकार जब तुलसीजी नै अपनी इच्छा बता दी तो पिताजी उके ब्याह की तैयारी करने में जूट गये।)


आळा-गीळा बांस कटाया, तो तोरण-थांम रुपाया हो राम!
पाटा सूतां ताणियां खिंचाई, मांडेळा मांड़ा छबाया हो राम!
लाडू-पेड़ा सरस जलेबी, तुलसा री जान जिमाई रो राम!
पीली हळ्दी पीला ही चावल, तुलसा रो गांठ जुडायो हो राम!
पान-सुपारी रोक रुप्यो तुलसा री गांठ जुड़ायी हो राम!


(इस प्रकार जब सभी तैयारी हो जाती है और बाई तुलसाँ का हाथ पीळा कर ब्याह की सभी रश्में विधि पूर्वक पूरी की जाती है बाई तुलसाँ की बिदाई कर दी जाती है।)


पैळो फेरो लियो बाई तुलसॉ,
तुलसाँ बाबोजी णै प्यारा हो राम!
दूजो फेरो लियो बाई तुलसॉ,
तुलसाँ दादीजी रा दुलारा हो राम!
तीजो फेरो लियो बाई तुलसॉ,
तुलसाँ भाऊजी णै प्यारा हो राम!
चौथे फेरो लियो बाई तुलसॉ,
तुलसाँ मायड़ री लाडल हो राम!
तुलसाँ हुई रै पराई हो राम!



राजस्थानी शब्दों का हिन्दी मायने-
ताणो - ताना, खुभगो - चुभना, भाउजी - भाभीजी, मायड़ - मां ने, बाबोजी - पिताजी या दादाजी, सालगराम - शालीग्राम, काला पत्थर जिसे कृष्ण भगवान का स्परूप माना गया है। , तोरण-थांम रुपाया - विवाह के अवसर पर बांस का एक खंभा घर क आंगन में गाड़ना, ताणियां - पीले रंग से रंगा हुए चौकोर कपड़े को उस बांस से बांध देना जो आंगन में लगाया गया है, मांडेळा मांड़ा छबाया - धर के अंदर और बाहर तंबू लगवाना।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

भुपेन हजारिका कोणी रया

भुपेन हजारिका
(8 सितंबर, 1926 - ५ नवम्बर २०११)
आपां सैं मिल’र उणाणै आपणी श्रद्धांजलि अर्पित करां हां।
Bhupen Hazarika
मानीज्ता भुपेन हाजारिका रो काल शनिवार 5 नवंबर 2011 णै मुंमबई में आपको सवरगवास होग्यो। आपको जन्म 8 सितंबर 1926 को हो। 86 वरीसीय हाजारिका जी को जनम असम रे सादिया गांव में होयो थे। आप दस बरस री उमर से ही गीत लिखण अर गाणणा लाग्या था। ‘‘दिल हूम-हूम करे’’ और ‘‘ओ गंगा बहती हो क्यूं’’गीत सूं आपणै देशभर में आपरो बड़ो नाम होग्यो। आपको एक गीत ‘‘ओ गंगा बहती हो क्यूं’’ रो राजस्थानी अनुवाद असम का राजू खेमका ने कियो है जिको आपां उणणै आपणी श्रद्धांजलि स्वरूप अठै प्रस्तुत करां हैं। आपको राजस्थान से काभी ळगाव भी रयो है। मानीज्ता गजानन वर्मा आपका नजदिक का मितरां में हा। आपकी गीत के प्रति लगण देख असम का युग पुरुष स्व.ज्योति परसाद अगरवाल जी, आपणै मंच पर गाणै री प्ररेणा दी थी। तब सूं आप असम के गीत संगीत पर राज करतां आया ।


ओ गंगा बहती हो क्यूं?
© - डॉ.भूपेन हजारिका -




[मूल असमिया भाषा से हिन्दी में रूपान्तर]
विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम
ओ गंगा बहती हो क्यों ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुआ
निर्लज्य भाव से बहती हो क्यों ?
अनपढ़ जन खाध्य विहीन,
नेत्र विहीन देख मौन हो क्यों ?
इतिहास की पुकार, करें हँकार
ओ गंगा की धार, निर्वल जन को सकल संग्रामी
समग्रगामी बनाती नहीं हो क्यों ?
व्यक्ति रहे व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निष्प्राण समाज नहीं तोड़ती हो क्यों ?
स्त्रोतस्विनी तुम न रही, तुम निश्चय चेतना नहीं
प्राणों से प्रेरणा बनती न क्यों ?



[मूल असमिया भाषा से राजस्थानी में रूपान्तर]
लांबी है अथाग, प्रजा दोन्यू पार
करे त्राय-त्राय, अणबोली सदा ओ गंगा तू
ओ गंगा बैवे है क्यूं ?
नेकपाणो नष्ट हुयो, मिनख पणो भ्रष्ट हुयो,
निरलज्जा बण बैवे है क्यूं
अणभणिया आखरहीन, अणगिण जन रोटी स्यूं त्रीण
नैत्रहीन लख चुप है क्यूं
इतिहास की पुकार, करें हुंकार-
हे गंगा की धार निवले मानव ने जुद्ध वणी,
सब ठौरजयी वणावै नहीं है क्यूं ?
मिनक रहवै मिनखांचारी, सगळा समाज निभ्हे स्वैच्छाचारी
प्राणहीन समाज नै तोड़े नहीं हैं क्यूं ?
सुरसरी तू ना रै वै, तू निश्चय चेतना हीन
प्राणों में प्रेरणा बणै नहीं है क्यूं ?
ओ गंगा बैवे है क्यूं

Translated In Rajsthani by : Raju Khemka, Assam

परिचय: श्री चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’


अय जरा आवाज कम करो! - शंभु चौधरी



15 अक्टूबर 2011 शनिवार, कोलकाता।
कहीं ईंट-पत्थर तौड़ने की आवाज आती हो तो हमें समझ लेना चाहिए कि कोई निर्माण कार्य चल रहा है जो हमारे सपने को साकार करने में लगा होगा। हमारी मजबूरी यह है कि हम उन्हें मजदूर समझ बैठे। जिस कड़वाहट भरी आवाज से हमारी नींद में खलल पैदा हो जाती है और अनायास ही हम उन पर चिल्ला पड़ते हैं -
‘‘अय जरा आवाज कम करो!’’
शायद हम यह समझने में भूल कर देते हैं कि यही ठक-ठक की आवाज हमारे भविष्य का निर्माण कर रही है। इस भागदौड़ भरे जीवन के बीच कल में कोलकाता शहर की एक छोटी सी गली से गुजरता हुआ मारवाड़ी समाज के सुपरिचित कवि, शायर एवं गीतकार श्री चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’
जी के घर जा पँहुचा। दोपहर के लगभग तीन बज चुके थे आपके निवास स्थल 49/2ए, बीडन रो, कोलकाता-700006 में उनसे एक संक्षिप्त मुलाकात हुई। इस दौरान आपसे जो बातें हुई इसे आप सभी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
श्री चम्पालाल जी का परिचय आपकी ही इन पंक्तियों के साथ शुरू करना चाहूँगा-
Champa Lal Mohata 'Anokha'
जीवन देने वाले मुझको जीने के अधिकार तो देते
झोली भर कर दर्द दिए हैं, मुट्ठी भर कर प्यार तो देते
होने को वीरान हमारी बगिया तो ये हो जाएगी
वीराने से पहले लेकिन थोड़ी बहुत बहार तो देते। -‘‘अनोखा कवि से’’


मारवाड़ी समाज के विख्यात गीतकार श्री चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’ (77 वर्ष) मूल रूप से कोलकाता के बड़ाबाजार अंचल के राजस्थानी गणगौर गीतों के रूप में जाने जाते रहें हैं। राजस्थान की सांस्कृतिक राजधानी बीकानेर में सन् 1934-35 में श्री चंपा लाल मोहता स्व. मानक लाल मोहता एवं श्रीमती इमारती देवी मोहता के पुत्र रूप में जन्में। जन्म के ठीक 19 दिन पहले ही आपके पिताश्री का स्वर्गवास हो गया। 9 वर्ष के होते होते ममतामई माँ भी चल बसी। बड़े भाई मोहनलाल एवं भाभी रतनी देवी ने माता-पिता की भूमिका निभाई प्राथमिक शिक्षा बीकानेर में ही हुई। सन् 1942 के आस-पास द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आपका कोलकाता आना हुआ परन्तु उस समय भगदड़ के चलते वापिस बीकानेर लौट गए। इसी दौरान माँ की मृत्यु हुई सन् 1945-46 में वापिस कोलकाता आये और तब से यहीं के होकर रह गए सन् 1946 में श्री महेश्वरी विद्यालय में प्रवेश लिया भाई साहब जितना कमाते थे उसमें स्कूल की फीस देना संभव नहीं था। चम्पालाल जी पढ़ना चाहते थे विद्यालय व्यवस्थापकों से फीस माफ करवा कर, किसी तरह दसवीं कक्षा तक आपने अपनी पढाई पूरी की।
विद्यार्थी जीवन में ही उनकी रचनाएँ महेश्वरी विद्यालय की पत्रिका ‘भारती’ में प्रकाशित होने लगी विद्यालय के उप प्रधानाध्यापक श्री वी.एन.टी. ने चम्पालाल जी की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें ‘अनोखा’ कहा तो उसे ही उन्होंने अपने उपनाम के रूप में अपना लिया।


सन् 1952-54 के मध्य कवि सम्मेलनों-मुशायरों में शिरकत करते हुए, एक उभरते हुए सितारे के रूप में स्थापित हुआ युवा शायर चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’ हिन्दुस्तान के तमाम बड़े और मशहूर कवियों, शायरों के साथ ‘अनोखा’ ने अपने अनोखे रंग-ढंग में काव्य-पाठ किया। उस समय कोलकाता और आस-पास के अंचलों में प्रायः सभी कवि सम्मेलनों में उनकी उपस्थिति दर्ज होती मूनलाईट थियेटर के लिए भी ‘अनोखा’ गीत लिखते रहे कोलकाता बाल परिषद के प्रकाशन नई-किरण, खिलते कमल में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हुई।
अनिरुद्ध कर्मशील के संपादन में, साप्ताहिक विश्वमित्र में सर्वप्रथम रचनाएँ प्रकाशित हुई लगातार सिलसिला चला देश भर में कई पत्र पत्रिकाओं ने ‘अनोखा’ को प्रकाशीत किया सन् 1955 में पुरूलिया निवासी ‘कशी’ से विवाह के बाद, नौकरी के सिलसिले में वे राऊरकेला चले गए 18 मार्च सन 1957 को एक हृदय विदारक अगलगी की घटना ने जीवन साथी छीन लिया उस घटना में ‘अनोखा’ भी इतने गंभीर रूप से जख्मी हुए की छः महीने अस्पताल में रहे। संकटमय जीवन यापन करते हुए आपने अपना दूसरा विवाह श्रीमती पुतली देवी जो आगरा शहर की, से अन्तर्जातीय-अंतरवर्णीय विवाह कर पुनः अपना संसार बसा लिया। आपको तीन बेटे क्रमशः रवीन्द्र (52), मनोज (49) एवं विनोद (41) हुए। वर्तमान में आप सबसे छोटे बेटे श्री विनोद मोहता के साथ रह रहे है।
दुविधाओं के एक दौर से जीवन गुज़र रहा है
बसे-बसाए घर का तिनका-तिनका बिखर रहा है
पग-पग पसरी है। पीड़ायें, पल-पल है चिन्तायें
सच तो ये है-अब साँसे लेना भी अखर रहा है। -‘‘अनोखा कवि से’’


उनके भाई साहब को अब यह चिंता सताने लगी कि कहीं यह लड़का भटक न जाए रोजी रोटी के जुगाड में कोलकाता आये साहसी युवक कविताई के चक्कर में भूखों न मरे इसलिए एक उपन्यास, ‘मधुशाला’ के प्रत्युत्तर में 125 छंदों में रचित ‘रणशाला’ सहित ढेरों गीत-गजलों की पांडुलिपियाँ तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं का रजिस्टर भाई साहब ने चार-आने किलो के भाव कबाड़ी को दे दिया अस्पताल से लौटे ‘अनोखा’ पर यह भीषण वज्रपात साबित हुआ वह विद्रोही हो गये।
मारवाड़ी समाज की दशा पर आपने अपने दर्द का इजहार कुछ इस प्रकार बयान किया - ‘‘इस आकाश को हिस्सों में मत बांटों। कोई अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल, जैन क्यों नहीं सभी अपने को मारवाड़ी कहते अब समय आ गया है कि इन जातियता के भेद को हमें समाप्त कर देना चाहिए’’.... बोलते-बोलते कुछ सोचने लगे फिर बोले दुष्यन्त कुमार जी एक गज़ल समाज के लिए आपको सुनाता हूँ -
‘‘तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं।
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।।’’


आपने समाज में साहित्य के प्रति आई उदासीनता पर अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए कहा कि एक समय था जब स्व. भंवरमल सिंघी, सीताराम सेक्सरिया, राम निवास ढंढारिया, रमणलाल बिन्नाणी, भागीरथजी कानोड़िया, राम निवास जाजू, बुधमल श्यामसुखा ने इस दिशा में बहुत ही सराहनीय प्रयास किये थे उनको बहुत हद तक सफलता भी मिली परन्तु धन की चकाचौंध में हम सब कुछ खोते जा रहे हैं मनी ओरियेन्टेट समाज होता जा रहा है अब। अच्छी बात है परन्तु सिर्फ पैसा...पैसा...पैसा... इससे समाज की छवि खराब भी होती जा रही है...थोड़ा रुके... बड़ाबाजार पुस्तकालय, कुमारसभा पुस्तकालय के कार्यक्रमों में समाज के लोगों की कमी इस स्थिति का जीता जागता उदाहरण हमारे सामने है। श्री प्रमोद शाह का नाम लेते हुए आगे कहने लगे गोपाल कलवानी, केशव भट्ठड़, संजय बिन्नाणी अभी भी समाज में इस अलख को जगाये हुए परन्तु इनको समाज का सहयोग नहीं के बराबर है।’’
‘अनोखा’ के नाम से जाने व पहचाने जाने वाले कवि इन दिनों गले के केंसर से ग्रसित है। डाक्टरों ने उनको कम बोलने की सलाह दी है। मुझे पास पाकर वे कहाँ रूकते पास में उनकी पत्नी श्रीमती पुतली देवी मोहता जी ने उनके स्वभाव के बारे में मुझे कुछ बताने लगी, इलाज में कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ा था पर उनको यह सब कहाँ सुनना पसंद बीच में ही टोक दिए ....शंभुजी आएं हैं चाय तो पिलाओ! भाभीजी उठकर किंचन चाय बनाने चली गई। तब तलक श्री संजय विन्नानी जी भी आ गए थे और हमारी बातों का नया दौर शुरू हो गया।


आपने अपनी पहली रचना माहेश्वरी विद्यालय के तुलसी जयन्ती के कार्यक्रम में सन् 1950 में सुनाई थी उसके बाद तो आपको जो उत्साह मिला तब से आजतक आप लगातार लिखतें और कुछ नये सृजन में लगे रहते है। आप कोलकाता में मूनलाइट थियेटर के लिए भी कई राजस्थानी गीत लिखे थे।
सन् 1961-62 में आपकी लिखी एक राजस्थानी गीत-
‘‘चम-चम चमकै चाँद, चाँदनी रस बरसावै रे।
थारे बिना ओ बालम म्हारे जी घबरावै रै’’


शे’र, गज़ल, रुबाई, कत्आत, होली गीत, गणगौर गीतों आदि में प्रायः सभी जगह आपने कई जगह राजस्थानी शब्दों का मिश्रण इनकी रचनाओं की पहचान बन चुकी है। अनोखा जी का सिर्फ नाम ही नहीं इनकी पहचान भी ‘अनोखा’ है। एक गज़ल को देखें -
‘‘आने को सब आये लेकिन वो नहीं आये
मुद्दत से दिल जिनकी बाट उडीक रहा है।’’


यहाँ ‘‘बाट उडीक’’ राजस्थानी शब्द है जिसका अर्थ है बैचेनी से किसी का इंतजार करना। आपकी इस अलग पहचान ने प्रायः सभी कवि मंचों पर आपकी एक विशिष्ठ पहचान हो जाती थी। श्री गजानन वर्मा, विश्वनाथ शर्मा ‘‘विमलेश जी’’, डाॅ॰ शम्भुनाथ सिंह, भारत भूषण, गोपाल सिंह ‘‘नेपाली’’, जानकी वल्लभजी शास्त्री, नागार्जुन, अनवर मिर्जापुरी, सोज सिकन्दरपुरी, हकीम झुनझुनवी, वसीम बरेलवी, कैफ़ी आजमी, अली सरदार जाफ़री कई महान हस्तियों के साथ आपने कवि सम्मेलनों, मुशायरों, महफिलों की शान बढ़ाई है। डा॰ कृष्ण बिहारी मिश्र जी लिखते है। ‘‘ शेरो-शायरी की महफिल से जुड़े ‘अनोखा’ जी’ मेरे मन इतने करीब कैसे पहुँच गये? सोचता हूँ तो उनका प्रेम-पागल रूप मेरी आँखों के सामने खड़ा हो जाता है।’’ श्री मृत्युंजय उपाध्याय जी एक जगह आपके संस्मरण का जिक्र करते हुए लिखा कि ‘‘ आपकी एक कविता बम्बई से प्रकाशित ‘गौरी’ को छपने भेजी जो सधन्यवाद वापस लौट आयी थीं पुनः आपने इसी कविता को ‘चम्पा मोहता’ के नाम से भेज दी संपादक ने किसी लड़की का नाम समझा और अगले ही अंक में कोभर पृष्ठ के अंदर वाले पृश्ठ पर छाप दी, इस संपादकीय आईने ने संपादक की कलाई तो खोलकर रख ही दी, संपादक महोदय को इसके लिए जब उन्हें यह पता चला कि उन्होंने इसी रचना को पहले अस्वीकृत कर दिया था माफी भी मांगनी पड़ी’’


आप अपने बारे में लगातार कुछ न कुछ सुनाते जा रहे थे चाय आ चुकी थी हम तीनों चाय पीने लगे तभी आपने सुनाना शुरू किया-
‘‘कोई बुलंदियों में तो कोई अभाव में
हर शख़्स जी रहा है यहाँ पर तनाव में
कल तक जो उठाते थे ज़माने पे उंगलियाँ
वो आज कठघरे में हैं अपने बचाव में।’’


प्रकाशन: कोलकाता शहर की एक जानी पहचानी संस्था ‘अकृत’ ने इनकी बिखरी हुई प्रायः सभी रचनाओं (वर्ष 2010 तक की) को एकत्रित कर एक काव्य ग्रंथ ‘‘अनोख कवि’’ के रूप में प्रकाशित किया है जिसका मूल्य: रु0 500 मात्र, जिसका संपादन श्री केशव भट्ठड़ एवं श्री संजय बिन्नाणी ने किया है।
प्रकाशक: अकृत, 4, तनसुख लेन, कोलकाता- 700007.


चम्पालाल मोहता की कुछ रचनाएं -
राजस्थानी गीत
चम-चम चमकै चाँद, चाँदनी रस बरसावै रे।
थारै बिना ओ बालम म्हारो जी घबरावै रे।।
खिली म्हारी जोबन री फुलवारी
पिया मैं सुध-बुध भूला सारी
रहे नहीं मन अब मेरो इस में
जवानी नाच रही नस-नस में
सारी-सारी रात सजनवा नींद न आवै रै! थारै बिना.....


जुल्फ लहरावै काळी-काळी
आँख म्हारी हिरणी सी मतवाली
गाल म्हारा गोरा, होठ गुलाबी
कमर पतली लचके ज्यूँ डाली
घड़ी-घड़ी म्हारी छाती स्यूँ आँचल उड़ जावै रे! थारै बिना.....


पिया घर जल्दी वापस आणा
नहीं पल भर भी देर लगाणा
लग्या सै म्हारै लै’र जमाणा
कठै लुट जावै ना म्हारा खजाणा
पाड़ोसी को छोरो म्हाँसू आँ लड़ावै रे! थारै बिना.....
(मूनलाइट थियेटर के लिए सन् 1961-62 में रचित)


अपना मुकद्दर है तू.....


अंधेरों में बन रोशनी की किरन
हक जो ना मिले, कर शिकवे ना गिले
राहें नई, खुद ही बना
अपना मुकद्दर है तू


तेरी हिम्मत के सदके, तेरी मेहनत के सदके
तेरी फितरत के सदके, तेरी गैरत के सदके


परेशानियों से तू झुकना नहीं
घबरा के ख़तरों से रुकना नहीं
आसाँ हो जाएगी मुश्किल तेरी
कदमों को चुमेगी मंजिल तेरी
उठ हर बुलन्दी को छू - अपना मुकद्दर है तू.....


दिलों से दिलों की कड़ी जोड़ तू
आँधी-ओ-तूफाँ का रूख मोड़ तू
ज़मीं है तेरी आस्माँ है तेरा
सारा का सारा जहाँ है तेरा
सितारों से कर गुफ्तगू - अपना मुकद्दर है तू.....


हिम्मत के लिख तू फसाने नये
उल्फ़त के गा तू तराने नये
दिन भी तेरे हों रातें तेरी
सब की जुबाँ पे हो बातें तेरी
हर दिल का बन तू सुकूँ - अपना मुकद्दर है तू.....


ख़्वाबों को अपने हक़ीक़त बना
बेहतर से बेहतर जहाँ तू बना
अंधेरों में बन रोशनी की किरन
ज़माना भी देखे जऱा तेरा फ़न
नया इक सफ़र कर शुरू - अपना मुकद्दर है तू.....



शे’र


कांटों की हो चुभन या अंगार का दहकना
मिल-जुल के आओ बाँटे, हम दर्द अपना-अपना
जीने का हक जहाँ में सबको मिले बराबर
उजड़े न कोई बगिया, टूटे न कोई सपना। -‘‘अनोखा कवि से’’


तूँ ढूँढ़ता फिरे है जिस दर-ब-दर अय दोस्त
तुझको ख़बर नहीं वो तेरे आस-पास है
हमको ये तेरी व़ज्म का अंदाज ‘‘अनोखा’’
भाया न एक पल, न कभी आया रास है। -‘‘अनोखा कवि से’’


दुविधाओं के एक दौर से जीवन गुज़र रहा है
बसे-बसाए घर का तिनका-तिनका बिखर रहा है
पग-पग पसरी है। पीड़ायें, पल-पल है चिन्तायें
सच तो ये है-अब साँसे लेना भी अखर रहा है। -‘‘अनोखा कवि से’’


गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है-


गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है-
महका-महका सा आज हमारा आँगन है।
गृहलक्ष्मी आओ, स्वागत है अभिनन्दन है।।


बाबुल के घर छोड़ पिया के घर आई।
डोली में खुशियाँ ही खुशियाँ भरकर लाई
सुख सबको पहुँचाने की अनुपम अभिलाषा
सजनी के नैनों में है साजन की भाषा
पग-पग पर बिखरा कुंकुम्, केसर, चंदन है।
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है....


मन से मन का यह सुखद सुहाना मधुर मिलन
धरती से मानो आज मिला हो नील गगन,
कल तक जो अनजाने थे आज हुए अपने
साकार हो गए जीवन के सुन्दर सपने
जग में सबसे पावन परिणय का बंधन है।
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है....


उर में चिंतन की, सागर सी गहराई हो
मासूम विचारों में नभ की ऊँचाई हो
कर्तव्य-परायणता ही मानस का दर्पण
श्रद्धा में अन्तर्निहित ही मथुरा-वृन्दावन है।
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है....


गजल


सन्नाटे का शोर हवा में चीख रहा है
तनहाई में भीड़ का मंज़र दीख रहा है।
रंजो-अलभ से अब तो अपना है याराना
रफ़्ता रफ़्ता ग़म सहना दिल सीख रहा है।
नहीं कोई गुंजाइस अब कहने सुनने की
उसका कहना इक पत्थर की लीक रहा है।
अच्छे बुरे दिनों की चर्चा है बेमानी
मेरे लिए हर लम्हा इक तौफ़ीक़ रहा है।
उसका दिल अच्छा, उसकी बातें भी अच्छी
साफ बयानी में बस थोड़ा तीख रहा है।
वो बदनाम गली-कूचे का रहनेवाला
दोज़ख़ में रहकर भी बिलकुल ठीक रहा है।
दूर भले ही रहा नज़र से मेरी लेकिन
वो मेरे दिल के हरदम नज़दीक रहा है।
उन दोनों का साथ था जैसे चोली दामन
एक काफ़िया था तो एक रदीफ़ रहा है।
मार दिया बेमौत उसे अपने लोगों ने
जो उनके सुख दुःख में सदा शरीक रहा है।
गिरगिट जैसा रंग बदलता उसका चेहरा
कभी रक़ीबों सा है कभी रफ़ीक़ रहा है।
आने को सब आये लेकिन वो नहीं आये
मुद्दत से दिल जिनकी बाट उडीक रहा है।
खुद ही मुज़रिम, खुद फ़रियादी, खुद ही हाकिम
खुद ही अपने जुर्म का वो तस्दीक़ रहा है।
धुंध-धुंए से परे एक झुरमुट के पीछे
दूर खड़ा वो अलग ‘‘अनोखा’’ दीख रहा है।

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

राजस्थानी वर्णमाला- शम्भु चौधरी

श्री राजेन्द्र बारा रे’नुसार राजस्थानी भासा री वर्णमाला में 49 वर्ण ध्वनियां है जिणा मांय 11 स्वर अर 38 व्यंजन होवो है। जबकि श्री केसरी कान्त शर्मा‘केसरी’ जी राजस्थानी वर्णमाला कुल 47 वर्ण ध्वनियां ही माने है। अपरो लिखनो है कि 13 स्वर अर 34 व्यंजन ही होवो है।
श्री केसरी जी तीन श,ष,स ण एक ‘स’ ही माने है कारण भी स्पष्ट है कि राजस्थानी भासा में ‘श’ अर ‘ष’ रो प्रयाग कानी होया करै।
यदि श्री राजेन्द्र जी बारा ण ही सही माना तो 38 व्यंजना में 2 व्यंजन कम कियां भी 36 व्यंजन रह जाय है। सो अबार भी 2व्यंजना को फर्क साफ कोनी होयै।
क वर्ग - क ख ग घ ङ
च वर्ग - च छ ज झ ञ
ट वर्ग - ट ठ ड ढ ण
त वर्ग - त थ द ध न
प वर्ग - प फ ब भ म
य वर्ग - य र ल व स ह ग्य ड़ ळ - 34 व्यंजन ही होया।

जबकि श्री राजेन्द्र जी’रो माननो ईं प्रकार है।
राजस्थानी भासा री वर्णमाला में 49 वर्ण ध्वनियां है जिणा मांय 11 स्वर अर 38 व्यंजन है।
व्यंजन:
क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व व्
श ष स ह
ळ ड़
(.) अनुसाव अर (ः) विसर्ग - 38
श्री राजेन्द्र जी’रे अनुसार स्वर: अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ ऋ - 11 स्वर एवं

श्री केसरी जी’रे अनुसार स्वर: अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ आ औ अं अः ऋ - 13 स्वर
अठै जो फरक सामने आयो है वो है -
(.) अनुसाव अर (ः) विसर्ग को है श्री राजेन्द्रजी ईं दोणु ण व्यंजन माना है जबकि श्री केसरी जी ईंणै स्वर माना है।

श्री केसरी जी’री पोथी ‘ सहज राजस्थानी व्याकरण माथै आप अर स्पष्ट करां है कि राजस्थानी प्रयोग में

1.‘ऋ’ की जगह ‘रि’ को प्रयोग सही होसी।
2.‘ढ’ कै नीचै नुक्ता नहीं लगानो चाइज्यै।
3.‘श’ अर ‘ष’ की जगह ‘स’ को ही प्रयोग सही होसी।
4.मूर्धन्य ‘ल’ की जगह ‘ल’/ जठै जोर पड़ता हो बठै ‘ळ’ को प्रयोग होनो चाईज्ये।
5.‘न’ की जगह ‘ण’ रो प्रयोग विशेष ध्वनि माथै कियो जानो चाईज्यै।


श्र, श, ष, ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ शब्दां रे संबंध में कुछ स्पष्टीकरण री जरूरत होनी चाईज्यै।

जबकि श्र, श, ष, ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ देवनागरी में होते हुए भी राजस्थानी भासा में ईं व्यंजना रो प्रयोग णै कई राजस्थानी रा विद्वान सही कोनी माने। जबकि उणारी पोथी सूं आपने कई उदाहरण देने रो प्रय्रास कर रह्यों हूँ।
क्ष - भिक्षु - भिक्सु
श - दर्शन, कोशिश - दरसन, कोसिस
नोटः इन दिनों कई लेखकों ने धड़ल्ले से ‘श’ और ‘ष’ का प्रयोग शुरू कर दिया है। नीचे देखें -
संदर्भ - पाळ-पोष, नशैड़ी, नशैबाज, वर्ष, प्रदूषण, कृष्ण ‘बिणजारो’ पेज 170, 171, 85 अंक 2008, संदर्भ - ‘‘नैणसी’’ अङ्क जुलाई 2010 पेज 8, 9 में ‘ष’ व ‘श’ का प्रयोग सरलता के साथ किया गया है। देखें ‘‘नैणसी’’ पृष्ठ - 8 ‘‘ अनेक परीक्षावाँ रा प्रश्न-पत्र चुणता। शोध-विद्यार्थिया रा ग्रन्थ जाँचता, उणरी मौखिक परीक्षा लेता।’’
इस वाक्य में ‘क्ष’, ‘त्र’, ‘श’ का प्रयोग साफ दिखता है।
ऋ - संस्कृति - संस्क्रति
नोट- इन दिनों दोनों ही तरह से प्रयोग को स्वीकार कर लिया गया है। देखें ‘बिनजारो’ पेज 128 अंक 2008
ज्ञ - ज्ञान - ग्यान
नोटः स्वयं श्री केसरीकांत जी ने खुद’री हाइकू कविता म ज्ञान/ विज्ञान शब्दा रो प्रयोग कियो है।
त्र - कूं-कूं पत्री - कूं-कूं पतरी, निमंत्रण - निमंतरण
नोटः इन दिनों ‘त्र’ कां प्रयोग भी सामान्य रूप से होने लगा है देखें - बिणजारो पेज 50 अंक - 2008 अर्थत निमंत्रण और पत्री जैसे शब्दों का प्रयोग देवनागरी की तरह ही राजस्थानी में भी जस का तस ही होने लगा है।

मेरे बारे में कुछ जानें: