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शुक्रवार, 26 मार्च 2010

क्रेडिट कार्ड से नहीं चलती हमारी अर्थव्यवस्था


एक बात तो साफ हो गई कि भारत की अर्थव्यवस्था भारतीय किसानों के भाग्य पर निर्भर नहीं करती। पिछले दो सालों से माननीय कृषि मंत्री श्री शरद पवारजी ने देश में अनाज की भारी कमी का रोना रो-रोकर खाद्य प्रदार्थों के दाम दुगने से भी अधिक कर दिये। चीनी- 40 से 45 रुपया किलो बिकने लगी, गेहूँ- 18 से 20 रुपये किलो, दाल- 120 रूपये किलो मानो खाद्य प्रदार्थ नहीं कोई सोना-चाँदी हो गया है।
देश के प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक अर्थशास्त्री हैं और मुझे यह लिखने में जरा भी संकोच नहीं कि ‘‘ये अर्थशास्त्री नहीं कुछ और ही हैं’’। माननीय कृषिमंत्री को जब यह पता चला कि पंजाब में गत दो सालों से लाखों टन गेहूँ सरकारी गोदाम के खुले आसमान के नीचे पड़ा-पड़ा सड़ चुका तो बोलने लगे कि हम पता करंेगे। सफाई में कहते हैं कि आप कोई अर्थशास्त्री नहीं हैं, परन्तु अनाजों की दामों में बेहताशा वृद्धि के लिए जिम्मेदार शास्त्री तो जरूर हैं हमारे कृषि मंत्री जी।
जब तक देश की अर्थव्यवस्था दिल्ली के संसद भवन से गुजरती हुई भारतीय रिजर्व बैंक के लॉकरों की ठंडी हवा तक बहती रहेगी यह देश कभी शक्तिशाली नहीं हो सकता। इस देश को आत्मनिर्भर करने के लिए यहाँ की गर्म हवा में देश की अर्थव्यवस्था का नया अध्याय लिखना होगा। अर्थशास्त्री बनने के लिए उन्हें विदेशों की डिग्री नहीं गाँवों में किसानों की समस्याओं का अध्ययन करना होगा। भारतीय अर्थशास्त्रियों को समझना होगा कि आखिर क्या कारण है कि जो किसान सोना पैदा करता है वह आत्महत्या क्यों करता है। भारतीय अर्थशास्त्रियों को यह समझना होगा कि भारत अखिर गरीब कैसे है? जबकि इस देश में आबादी से कई गुणा अधिक उपजाऊ और खनिज सम्पदा से परिपूर्ण भूमि है। इन्फोसीस के साफ्टवेयर से देश की अर्थव्यवस्था बदलने की जगह किसानों की अर्थव्यवस्था को हमें पहले बदलना होगा। चन्द लोगों को समृद्ध बनाने की जगह देश को खुशहाल बनाने की बात हमें सोचनी होगी।
भारतीय अर्थशास्त्री इस बात को समझने का प्रयास करें कि जब किसान दो रुपये प्रति किलो में अपना सारा आलू बेच देता है तो कोल्डस्टोरेज में जाकर वह बीस रुपया किलो कैसे हो जाता है? क्या माँग एवं सप्लाई का अन्तर यहाँ भी लागू होता है। भारतीय अर्थशास्त्रियों को समझना होगा कि पंजाब में जब लाखों टन गेहूँ गत दो साल से खुले आसमान के नीचे सड़ रहा था तो देश में अनाज की कमी का रोना क्यों रोया गया। सात रुपये किलो खरीदा हुआ अनाज कैसे 20 रुपया किलो बिकने लगा? भारतीय अर्थशास्त्रियों को यह भी समझना होगा कि यह अनाज किसी अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा तेल व्यापार की तरह ट्रेड नहीं होता फिर इसके दाम कौन और किस तरह बढा रहा है?
हमारी अर्थव्यवस्था क्रेडिट कार्ड से नहीं चलती। हमारी अर्थव्यवस्था किसान के खलिहान में भरे अनाज से चलती है। देश की अर्थव्यवस्था को टैक्स लादकर सुधारा नही जा सकता देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए व्यवस्था में सुधार लाने की जरूरत पर बल देना होगा। परन्तु लगता हैं कि सत्ता की मजबूरी ने माननीय कृषि मंत्री जी के बयानों से समझौता कर लिया है। अन्यथा दामों पर नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है। -शम्भु चौधरी

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