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रविवार, 29 मई 2011

राजस्थानी शब्द का प्रयोग - शम्भु चौधरी


Rajputana Prant Before Independence of India
धीरे-धीरे मारवाड़ी शब्द संकुचित और रूढ़ीगत दायरे की चपेट से बाहर आने लगा है। अब यह शब्द देश के विकास का सूचक बनता जा रहा है। एक समय था जब इतर समाज के साथ-साथ समाज के लोग भी इसे घृणा का पर्यावाची सा मानने लगे थे। समाज के जो युवक पढ़-लिख लेते थे वे अपने आपको न सिर्फ समाज से अलग मानते थे, वरण कई ऐसे भी थे जो अपने नाम के आगे जाति सूचक टाइटल को भी हटा दिया करते थे ताकी उनको सरकारी नौकरी करने में सहुलियत हो। इसके प्रायः दो करण थे- पहला समाज में सरकारी नौकरी करना अच्छा नहीं माना जाता था। दूसरा नौकरी करने वाले बच्चे की शादी समाज के भीतर करना एक टेढ़ी खीर के बराबर थी। आज भी समाज में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जिसमें हम रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर श्री विमल जालान का नाम उदाहरण के तौर पर रखा जा सकता है। जबकी इनके पिता स्व. ईश्वरदास जालान जाति सूचक शब्द ‘मारवाड़ी’ में पूरी आस्था रखते थे एवं जाति सूचक ‘मारवाड़ी’ शब्द से शुरू की गई संस्था ‘‘मारवाड़ी सम्मेलन’’ के जन्मदाता के रूप में आपका नाम लिखा जाता है। कई बार हरियाणा के मारवाड़ी राजस्थानी शब्द को लेकर विचलित हो जाते हैं। कई सभाओं में इस बात का विवाद अनजाने में ही शुरु हो जाता है कि सभा में या संविधान में सिर्फ राजस्थानी भाषा और संस्कृति पर ही चर्चा क्यों होती है इस तरह क अनसुलझे प्रश्न सामने आते रहते है। जिसका समाधान भी खोजा जाता है, चुकिं उपयुक्त उत्तर के अभाव में विवाद को टालने के लिए सिर्फ ‘मारवाड़ी’ शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है।
जहाँ तक मेरा मानना है कि ‘मारवाड़ी’ - शब्द न कोई जाति, न धर्म और न ही किसी विषेश प्रान्त का ही द्योतक है जैसे- पंजाबी, बंगाली, गुजराती आदि कहने से अहसास होता है। राजस्थान व राजस्थानी सीमावर्ती इलाके जिसमें हरियाणा व पंजाब के कुछ हिस्से जो कालांतर भौगोलिक रेखाओं में परिवर्तन के चलते इन प्रान्तों में राजपुताना रियासतों का विलय कर दिया गया को, के प्रवासी लोगों को भारत के अन्य प्रान्तों या विदेशों में भी ‘मारवाड़ी’ शब्द से जाना व पहचाना जाता है। जबकि इन सबकी संस्कृति और भाषा राजस्थानी ही है। ( मुसलमानों को छोड़कर )।
यहाँ पंजाब और हरियाणा क्षेत्र के राजस्थानी जो एक समय राजपुताना के क्षेत्र में ही आते थे, अब भूगौलिक परिवर्तन व पंजाब और हरियाणा प्रान्तों के रूप में जाने व पहचाने जाने के चलते इस क्षेत्र का मारवाड़ी समाज अपने आपको पंजाबी या हरियाणवी ही मानने लगे हैं, जबकि इनकी बोलचाल-भाषा, पहनावे, रीति-रिवाज, राजस्थानी भाषा संस्कृति से मिलते ही नहीं राजस्थानी संस्कृति ही है। इसीलिए प्रवासी मारवाड़ी समाज के लिये आमतौर पर राजस्थानी शब्द का ही प्रयोग किया जाता है भले ही वे हरियाणा या पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्र से ही क्यों न आतें हो। पिछले दिनों यह प्रश्न उठा कि मारवाड़ी से तात्पर्य जब राजस्थानी भाषा और संस्कृति से ही लगाया जाता है तो हरियाणा की क्या कोई अपनी संस्कृति नहीं है? यह प्रश्न आज की युवा पीढ़ी का उठाना वाजिब सा लगता है जब हरियाणा एक समय पंजाब के अन्तर्गत आता था तो यह बात पंजाब के साथ भी उठती थी की हरियाणा की अपनी अलग संस्कृति है इसे पंजाब से अलग कर दिया जाय और हुआ भी और केन्द्र ने यह स्वीकार किया कि हरियाणा को एक अलग राज्य का दर्जा देना ही उचित रहेगा। परन्तु इस राज्य के अलग दर्जे को प्राप्त कर लेने से जो क्षेत्र राजस्थानी रियासतों के अधिन आते थे उनकी भाषा, संस्कृति, पहनावे, खान-पान, रीति-रिवाज हो या पर्व-त्यौहार सभी में समानता पाई जाती है जो थोड़ा बहुत अन्तर पाया जाता है वह सिर्फ आंचलिक बोली का ही है। ( देखें दिये गये एक चित्र के तीर निशान को जिसमें हिसार, भिवानी, रोहतक, गुड़गावं, लेहारू, महेन्द्रगढ़, पटियाला और दिल्ली का भी छोटा सा भाग राजपुताने क्षेत्र में दिखाया हुआ है। जो इन दिनों हरियाणा राज्य में आते हैं। ) इसलिए राजस्थानी शब्द की व्यापकाता पर हमें सोचने की जरुरत है न कि प्रान्तीयता के नजरिये से होकर हमें अपने अन्दर संकुचित विचार पैदा करने की।

गुरुवार, 26 मई 2011

लोकतंत्र की भाषा - शम्भु चौधरी


Shambhu Choudharyमारवाड़ी समाज का एक बड़ा घड़ा राजनैतिक विचारधारा को सिर्फ व्यापारी नजरिये से देखने का प्रयास करता रहा है जिसका परिणाम यह हुआ कि एक समय समाज का नेतृत्व करने वाले तपस्वी राजनीति व्यक्तित्व यतः डाॅ.राममनोहर लोहिया, स्व. बृजलाल बियाणी, जमनालाल बजाज, सेठ गोविन्ददास मालपाणी, विजयसिंह नाहर, स्व. श्रीमती इन्दुमती गोयनका, स्व.ईश्वरदास जालान, सीताराम सेक्सरिया, प्रभूदयाल हिम्मतसिंहका की राजनीति जमीन को दरकिनार कर पीछे दरवाजे की राजनीति को समाज ने अपना लिया। ऐसे लोग राज्यसभा के सदस्य बनाये जाने लगे, जिसका समाज से काई सरोकार नहीं रहा। किसी ने खुद के धनबल पर तो किसी ने उद्योग घराने के सहयोग से समाज की छवि को राज्यसभा में नीलाम करते रहे। समाज इस तमाशे को तमाशबीन बन देखता रहा। जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज के आम राजनैतिक कार्यकर्ताओं का मनोबल धीरे-धीरे कमजोर होता गया। इसमें से कुछ अपनी स्थिती को बनाये रखने के लिए राजनैतिक दलों के खजांची बन गये, अर्थात समाज से धन उगाहने का कार्य करने लगे। मारवाड़ी समाज को इस सब से काई सरोकार नहीं रहा, चुनाव के समय कुछ नेताओं से दोस्ती बनाना एवं जब वे मंत्री बन जाय तो कुछ लागों को इसका लाभ कैसे मिले इस कार्य के संपादन में खुद की प्रतिष्ठा समझना तो दूसरी तरफ समाज अपने मतदान को महत्वहीन समझने लगा। मतदान के दिन को अवकाश का दिन मानकर ताश या अन्य किसी मनोरंजन को माध्यम अपना कर समय गुजार देते। कुछ तो राजनीति के पण्डित बन जाते, तो कुछ अपनी पंहुच का बखान करने से नहीं चुकते।


एक समय बंगाल के विधानसभा में मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधि का होना आवश्यक माना जाता था, आज 2011 के विधानसभा में समाज की उपस्थिती शून्य हो चुकी है। इस राजनीतिक शून्यता व हमारी राजनीतिक प्रतिवद्धता को राजनैतिक दलों ने न सिर्फ इसका मूल्यांकन नेगेटिभ रखा बल्की साथ ही साथ बन्द कमरे में समाज को दया का पात्र भी समझा। जहाँ एक तरफ इतर समाज के किसी भी संकट पर ये दल जो सजगता दिखाते हैं वहीं समाज के साथ होने वाली घटनाओं का राजनैतिक लाभ लेने में भी नहीं चुकते। कुल मिलाकर मारवाड़ी समाज दया का पात्र बन चुका है। हमारा आत्मसम्मान चन्द राजनैतिज्ञों के लिए दया का पात्र बन चुका है। समाज में सामाजिक व राजनैतिक कार्यकर्ताओं का इस दिशा में लगातार यह
प्रयास रहते हुए भी, कि किस तरह से समाज की इस उदासीनता को बदला जा सके, साकारत्मक पहल के कोई संकेत दूर-दूर तक हमें नहीं दिखाई दे रहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि राजनीति में समाज का प्रतिनिधित्व सिमटा जा रहा है।


जब हम अपने खुद के राजनैतिक मूल्यांकन पर सोचते हैं तो हमें बड़ी निराशा हाथ लगती है, भला कोई भी राजनैतिक दल आपकी सुरक्षा क्यों और किसलिए करेगा? समाज के किसी कार्यकर्ता को जब उसके खुद के प्रयास से किसी राजनैतिक दल की टिकट मिलती है तो हम उसके चुनाव प्रचार में सहयोगी होने की बात तो दूर, हम अपना वोट तक देने नहीं जाते। जिससे समाज के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी कमजोर हुआ है। हमें आज यह बात समझनी होगी कि राजनीति हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। लोकतंत्र में बोलने की भाषा सिर्फ और सिर्फ आपका मतदान है। जो समाज एकजुट होकर अपने मताधिकार का प्रयोग करेगा, उसी समाज की बात विधानसभा या संसद तक सुनी जायेगी, धन के बल पर की जाने वाली राजनीति भले ही किसी वर्ग विशेष को लाभ पंहुचाती हो परन्तु इससे समाज का कतई भला न तो हुआ है न होगा। जो समाज अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करेगा उसे लोकतंत्र की भाषा में गूंगा समाज समझा जायेगा।

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