आपणी भासा म आप’रो सुवागत

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रविवार, 30 मार्च 2008

समाज विकास का मार्च अंक - 2008

Dear Friends,
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" Samaj Vikas March 2008 "

In this Issue
1] Holi ki uppadhi
2] Hullar Murradavadi ki do Kavita
3] chutki gulal ki
4] Mahadevi Verma vishes
5] Sri Kalyan Mull Lodha kaa prichay
6] Hind-Yugm

Co-Editor
shambhu choudhary [09831082737]

गुरुवार, 6 मार्च 2008

होली के रंग अनेक - शम्भु चौधरी

अब जब होली की बात हो और ब्रज का नाम ना आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। होली शुरु होते ही सबसे पहले तो ब्रज रंगों में डूब जाता है। सबसे ज्यादा मशहूर है बरसाना की लट्ठमार होली। बरसाना, भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय राधा का जन्मस्थान। उत्तरप्रदेश में मथुरा के पास बरसाना में होली की धूम, होली के कुछ दिनों पहले ही शुरु हो जाती है और हो भी क्यों ना, यहाँ राधा रानी जो पली बढी थी। दो सप्ताह तक चलने वाली इस होली का माहौल बहुत मस्ती भरा होता है। एक बात और यहाँ पर रंग और गुलाल जो प्रयोग किया जाता है वो प्राकृतिक होतें है। आजकल कुछ लोभी व्यापारी के चलते इसमें मिलावट भी देखने को मिलती है। इस होली को देखने के लिये देश विदेश से हजारो सैलानी बरसाना पहुँचते है।
नैनीताल की संस्कृति: नैनीताल में परम्परागत कुमाँऊनी संस्कृति बनी हुई है। क्योंकि नन्दा देवी मन्दिर की उपस्थिति से इसका धार्मिक महत्व है। यहाँ पर होली के गीत होली त्यौहार के अवसर पर गाये जाते हैं। होली के गीतों को मुख्य रुप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- खड़ी होली, बैठकी होली तथा महिला होली।
कई प्रदेशों में फगुआ भी कहा जाता है. फगुआ मतलब फागुन, होली। इस वेला में आम के पेड़ों में मंजर निकल आतें है। खेतों में गेहूँ की बालियाँ हवाओं के साथ अठखेलियाँ करने लगती है। सरसों के फूलों से लदे खेतों की छंटा ही कुछ निराली हो उठती है, आलू खेतों से निकल कर बाजारों में जाने लगते हैं। जिस तरह हम दिवाली के समय अपने घरों की साफ-सफाई करते हैं, यह वक्त किसानों के घरों में खुशियाली के साथ- साथ साफ- सफाई का समय भी होता है।
इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीतों में देवी-देवताओं का जितना महत्व तो होता ही है, प्रकृति का भी काफी महत्वपूर्ण स्थान रहता है।
एक लोकगीत को देखें:
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
इन्द्रलोक से इन्द्र जी आए, घटा उठे घनघोर,
बूँद बरसत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आए,पोथियां लिए हाथ,
वेद बांचत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
शिवलोक से शिवजी आए , गौरा लिए साथ,
भांग घोटत आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
वृन्दावन से कान्हा आए राधा लिए साथ.
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
असम में इस समय ढोल की थाप और बांस की बांसुरी की आवाज से सारा का सारा असम गुंजायमान हो जाता है। जगह-जगह ढोल और बांसुरी की थाप व तान पर लोगों को डांस करते देखें जा सकतें हँ। असमी नववर्ष यानी बोहाग बिहू नामक इस त्यौहार का लोग हर साल बेसब्री से इंतजार करते हैं। हांलाकि बिहू असम का जातीय त्योहार है।
फिर भी इसकी तुलना बसन्तोत्सव से की जा सकती है। बिहू के लोकगीतों में प्रेम, ऋगांर, प्रकृति, सम्मान एवं आध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण गीत-श्लोकों से असम की धरती मानों प्रकृति प्रदत भाव गीतों के रूप में स्वयं प्रस्फुटित हो गई हो।
राजस्थानी और प्रवासी राजस्थानी ( मारवाड़ी)
इस अवसर पर हिन्दू धार्मिक परम्परा के अनुसार होलिका दहन की परंपरा रही है, राजस्थानी और प्रवासी राजस्थानी ( मारवाड़ी) के घरों में दस दिनों पहले से ही इस होलिका दहन की तैयारी शुरू हो जाती है, घर-घर में बड्डकुल्ला ( गोबर के होला-होली,चान्द-सितारा, चकला-बेलन, पान-सुपारी, ढाल-तलवार आदि) बनाये जाते हैं, सुख जाने के बाद इनकी रोली, अबीर, गुलाल आदि रंगों से सजाया जाता है, होलिका दहन के दिन ठीक समय में सभी घरों में प्रायः एक ही वक्त पर पूरे परिवार के साथ पूजा की जाती है, बच्चे अपने माता-पिता, दादा-दादी , बड़ों से चरण छूकर आशिर्वाद ग्रहण करते हैं। घर के सभी लोग खाशकर नवनवेली दुल्हन एक सार्वजनिक स्थान पर जहाँ समाज की तरफ से होलिका दहन का स्थान तय किया जाता है, उस स्थान में जाकर इन पूजे गये बड़कुल्लें को जो कि कई मालाओं में पिरोये रहते हैं को प्रज्वलित होलिका स्तल में अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। इस दिन हर राजस्थानी परिवारों में होली के पकवान भी बनाये जाते हैं, जो दूसरे दिन छारंडी तक चलते हैं। होली की बात हो तो बिहार- यू.पी. की कादो- कीचड़ और कपड़ा फाड़ होली की बात न हो तो होली की बात ही नहीं पूरी होती। परन्तु सबसे डर इस बात से लगता है जब भी होली आने का समय होता है तो ट्रेन से गुजरने वाले यात्रियों की तो शामत ही आ जाती है। बच्चे खेत और खलियानों से कादो के मोटे-मोटे ढेले बना-बना कर सामने से गुजरती ट्रेनों पर फेंकने लगते हैं हालांकि बच्चे इसे मनोरजन का माध्यम समझते हैं परन्तु कई बार इससे चोट भी लग जाती है। इसे हम होली कह लें या होली के नाम पर कुछ शरारत जो भी कह लें हमें इस समय सावधान होकर ही सफर करना पड़ता है। अरे भाई सिर्फ गांव के लोग ही इसके लिये दोषी नहीं अब देखिये कोलकाता शहर की ही बात लें यहाँ तो सभी पढ़े-लिखे लोग रहतें हैं। कोलकाता शहर के बड़ाबाजार का हाल कुछ इससे भी बुरा होता है। बड़े-बड़े भवन की छतों से पता नहीं कब आपके सर पर रंग भरा पानी का गुब्बारा आ टपकेगा , किसी को पता नहीं। भाई ये तो रंग खेलने का अलग- अलग अंदाज है। बस मजा आपको लेना है। नाराज हो तो होते रहें, मेरी बला से।- शम्भु चौधरी, एफ.डी.- 453, साल्ट लेक सिटी, कोलकाता-700106 (India)

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