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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

राजस्थानी भाषा: चिन्ता का विषय -शम्भु चौधरी


Shambhu Choudhary

इस दिशा में जब जैसे-जैसे में गहराई से अध्यन करने लगा मेरा मन किया कि अब सिर्फ भाषा पर या इसके मान्यता से काम नहीं चलेगा क्यों कि राजस्थानी भाषा न सिर्फ एक गहरी साजिश की शिकार हो चुकी है इसके खुद के अन्दर भी कई विवाद जन्म ले चुके हैं। जो इस भाषा की मान्यता के रास्ते में बाधक बनी हुई है। जिसमें जिन तीन कारणों की तरफ मेरा ध्यान जाता है उसमें प्रमुख है। -
1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र
2. मोडिया लिपि का विलुप्त होना
3. राजस्थान की बोलियों में आपसी अंहकार।


यह विषय हमें जहाँ चिन्तीत करता है वहीं हमें सचेत भी करता है कि आखिर में हमारा समाज कर क्या रहा है? आये दिन धन की बर्वादी में सबसे आगे रहने वाले मारवाड़ी समाज के पास इतना भी धन और समय नहीं कि हम अपनी धरोहर को, अपनी भाषा को बचा सके। मेरी क्षमता इस कार्य को करने की नहीं है ना ही मैं भाषा का विद्वान ही हूँ कि जो कुछ मैं लिख दूगाँ उसे पूरा समाज स्वीकार कर लेगा। हाँ! यह तो जरूर होगा कि जिस दिशा में मेरे कदम बढ़ने लगे हैं। शायद इसमें मुझे कुछ हद तक सफलता जरूर मिलेगी ताकी आने वाली पीढ़ी को समाज की कुछ सामाग्री प्राप्त हो सके जो एकदम से समाप्त के कगार पर आ चुकी है। आज हम जिस कड़ी में यह बात लिख रहा हैं उनमें मोडिया भाषा के जानकारी रखने वाली पीढ़ी प्रायः समाप्त हो चुकी है। पिछले दिनों जब मैं कोलकाता से प्रकाशित एक हिन्दी मासिक पत्रिका ‘समाज विकास’ जो कि आखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन का मुखपत्र है का संपादन कार्य को देख रहा था उस कार्यकाल के दौरान सम्मेलन के तत्कालिन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नन्दलाल रुंगटा जी ने एक सादा पन्ना मेरे हाथ में थमा दिया जिसपर कुछ अक्षर लिखे हुए थे। उस वक्त मुझे लगा कि यह पन्ना मेरे क्या काम आयेगा, परन्तु पिछले माह राजस्थान से लौटकर मैं अपने सारे कागजात में उस सादे कागज को खोजने लगा। श्री रुंगटाजी, श्री सीताराम शर्माजी, श्री रतन शाहजी, श्री आत्माराम सोंथलिया जी, श्री जुगलकिशोर जैथलियाजी, श्री विजय गुजरवासिया जी और मेरे कई पारिवारिक मित्रों से यह अनुरोध किया कि वे मुझे मोडिया लिपि के कुछ पुराने दस्तावेज जिसमें खाते-बही, जमीन के पुराने पट्टे या चिट्ठी-पत्री आदि जो भी मिल सके देने की कृपा करें। श्री नन्दलालजी रुंगटा जी ने मुझसे लगातार मेरे कार्य के प्रगति के बारे में फोनकर पुछने भी लगे। इससे मेरे कार्य करने की क्षमता में काफी बृद्धि होने लगी। इससे पूर्व ही कोलकाता में मारवाड़ी युवा मंच की उत्तर मध्य कोलकाता शाखा द्वारा आयोजित ‘अवलोकन-2011’ में असम के श्री विनोद रिंगानिया, भाईजी श्री प्रमोद्ध सराफ और श्री रतन शाह जी के विचारों ने मुझे काफी झकझोर सा दिया था। हांलाकि उस गोष्ठी में श्री विनोद जी का मन मात्र एक वेवसाईट बनाने का था जिसमें राजस्थानी भाषा की कहावतें व समाज का इतिहास आदि को डालने पर कार्य करने का था जबकि श्री प्रमोद्ध सराफ जी चाहते थे कि समाज की तरफ से कोई एक ऐसा केन्द्र की स्थापना पर ध्यान देने की जरूरत है जिसमें समाज के महत्वपूर्ण दस्तावेजों को पुस्तकों व समाज की अन्य साहित्यिक, सांस्कृतिक जानकारियों को एकत्रित करना जिससे विश्वभर से आने वाले शोधार्थि छात्र-छात्राओं को वह समस्त सामाग्री एक ही जगह, एक छत के नीचे उपलब्ध कराया जा सके। वहीं श्री रतनजी शाह ने राजस्थानी भाषा की मान्यता पर किए जा रहे अपने प्रयासों की जानकारी दी। मेरे मन में लगातार एक प्रश्न उठ रहा था कि ऐसी क्या बात है जो राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आंठवीं सूची में मान्यता देने से रोकती है। हमें इसके उन पहलुओं को देखना और उसके समाधन के रास्ते निकालने की जरूरत पहले है ना कि भाषा के मान्यता की बात। यदि मान्यता हल्ला करने या आंदोलन से मिल सकती तो पिछले 40-45 सालों में अब तक कई छोटी-छोटी भाषा जिसमें नेपाली भाषा है को जब मान्यता मिल गई तो राजस्थानी भाषा तो मिल ही जानी चाहिए थी। इसके प्रकाश में श्री नन्दलाल रुंगटा जी का एक अध्यक्षीय लेख मुझे पढ़ने को मिला जिसमें भाषा विवाद का हल निकालने के लिए काफी महत्वपूर्ण सूझाव आपने दिये थे। देखें उनका लेख-
‘‘राजस्थान विधानसभा द्वारा 25 अगस्त 2003 को, राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने का एक संकल्प रूपी प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया कि ‘‘राजस्थान विधानसभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यह संकल्प करते हैं कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जिलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी आदि शामिल हैं।’’
यदि हम इस प्रस्ताव की गम्भीरता पर विचार करें तो, हम पाते हैं कि यह प्रस्ताव खुद में अपूर्ण और विवादित है। ‘‘इसमें कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि हम किस भाषा को राजस्थानी भाषा के रूप में मान्यता दिलाना चाहते हैं।’’ एक साथ बहुत सारी बोलियों को मिलाकर विषय को अधिक उलझा दिया गया है। इस प्रस्ताव से ही राजस्थान में पल रहे भाषा विवाद की झलक मिलती है। हम चाहते हैं कि राजस्थान सरकार अपनी बात को तार्किक रूप से स्पष्ट करे कि वो आखिर में केन्द्र सरकार से चाहती क्या है?’

(संदर्भ अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन का मुखपत्र जून 2009 वर्ष 59 अंक 6)
इस दिशा में जब जैसे-जैसे में गहराई से अध्यन करने लगा मेरा मन किया कि अब सिर्फ भाषा पर या इसके मान्यता से काम नहीं चलेगा क्यों कि राजस्थानी भाषा न सिर्फ एक गहरी साजिश की शिकार हो चुकी है इसके खुद के अन्दर भी कई विवाद जन्म ले चुके हैं। जो इस भाषा की मान्यता के रास्ते में बाधक बनी हुई है। जिसमें जिन तीन कारणों की तरफ मेरा ध्यान जाता है उसमें प्रमुख है। -
1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र
2. मोडिया लिपि का विलुप्त होना
3. राजस्थान की बोलियों में आपसी अंहकार।



1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र

भारत सरकार की ओर से हुई 1861 में जनगणना के आंकड़ों के अनुसार सिंधी बोलने वाले लोग 13,71,932 थे, नेपाली 10,21,102, कोंकणी के 13,52,363 और राजस्थानी के 1,49,33,016 लोग बोलने वाले थे। इसप्रकार सर्वाधिक राजस्थानी बोलने वालों की संख्या 1961 तक हर दस बरसों बाद की गई जनगणना में राजस्थानी भाशा को स्वतंत्र भाशा माना है परंतु इसके बाद हुई जनगणना में 1971, 1981, 1991, 2001 और अब 2011 में राजस्थान को हिन्दी प्रांत मान कर इस जनसंख्या को भी हिन्दी भाषियों के साथ न सिर्फ जोड़ दिया गया वरन प्रवासी राजस्थानियों को तो जनगणना में हिन्दी भाषी ही माना गया है। यदि राजस्थान की जनसंख्या को ही गैर हिन्दीभासी प्रान्त मान लिया जाए तो इसकी जनसंख्या 2001 के जनगणनानुसार आठ करोड़ है। इसमें प्रवासी मारवाड़ियों की संख्या का अनुमान लगया जाए तो शेष भारत में 3 करोड़ से अधिक ही मानी जाएगी। इसी प्रकार वर्ष 2011 के आंकड़े का अनुमान लगाया जाये तो राजस्थानी बोलने और समझने वालों की जनसंख्या वर्तमान में 13 करोड़ के कुल आंकड़े को पार कर चुकी है। जबकि जनगणना विभाग की माने तो पुरे देश में सन् 2001 तक मारवाड़ी या राजस्थानी बोलने वालों की जनसंख्या मात्र 79,36,183 है जिनमें 62,79,105 राजस्थान में और शेष पूरे भारत में जिसमें महाराष्ट्र-1076739, गुजरात में - 206895, कर्नाटका में - 60731, मध्यप्रदेश में - 50754, पश्चिम बंगाल में -48113, आंध्रप्रदेश में - 43195 एवं झारखण्ड में 40854 इसमें यु.पी., असम, उड़ीसा और बिहार का नाम ही दर्ज नहीं है। देश के अन्य महत्वपूर्ण प्रदेश व वर्ष 2001 के पहले बने प्रान्तों को भी छोड़ दिया गया है। अर्थात मारवाड़ी अथवा राजस्थानी भाषा बोलने वालों की जनसंख्या सन् 1861 की जनगणना 1,49,33,016 से घटकर मात्र 79,36,183 रह गई है।
जारी...

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

भविष्य के लिए नये संकल्प बुनें

-ललित गर्ग-


Lalit Gargएक वर्ष का विदा होना सिर्फ कैलेन्डर का बदल जाना भर नहीं है। छोटा ही सही लेकिन यह हमारे जीवन का एक अहम पड़ाव तो होता ही है, जो हमें थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों की तैयारी का अवसर देता है। एक व्यक्ति की तरह एक समाज, एक राष्ट्र के जीवन में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। नये वर्ष की दस्तक जहां आह्वान कर रही है, वहीं बीते वर्ष की अलविदा हमें समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है।
अलविदा और अगवानी के इस संगम के अवसर पर हम जहां अतीत को खंगालें वहीं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनें। हमें यह देखना है कि बीता हुआ वर्ष हमें क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है। जो अच्छी घटनाएं बीते वर्ष में हुई हैं उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति का माहौल बना-
एक अन्ना क्रांति का सूत्रपात हुआ। लेकिन जाते हुए वर्ष ने अनेक घाव दिये हैं, महंगाई एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंची, जहां आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है। राजनीतिक स्तर पर केन्द्रीय मंत्रियों एवं अन्य बड़ी हस्तियों के घोटालों की त्रासदी को उजागर किया और उन्हें तिहाड़ पहुंचा दिया वहीं लोकपाल बिल के लिये सकारात्मक वातावरण का निर्माण होना एक क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है। ऐसा भी प्रतीत हुआ कि बीते साल में राजनीति और सत्ता गरीब विरोधी दिशा में अधिक गतिशील बनी। गरीब अधिक गरीब और अमीर अधिक अमीर बने हैं। समतामूलक समाज का सपना धुंधलाया है।
पुराना कैलेंडर बदलते वक्त हमेशा उस पर वक्त के कई निशान दिखाई देते हैं- लाल, काले और अनेक रंगों के। इस बार लगा जैसे वक्त ने ज्यादा निशान छोड़े हैं। देश-विदेश में बहुत घटित हुआ है। अनेक राष्ट्र आर्थिक कर्ज में बिखर गये तो अनेक बिखरने की तैयारी में हैं। अच्छा कम, बुरा ज्यादा। यह अनुपात हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। शांति और भलाई के भी बहुत प्रयास हुए है। पर लगता है, अशांति, कष्ट, विपत्तियां, हिंसा, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और अन्याय महामारी के रूप में बढ़ रहे हैं। सब घटनाओं का जिक्र इस लेख के कलेवर में समा ही नहीं सकता। बीते साल की आर्थिक घटनाओं के संकेत हैं कि हम न सिर्फ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं बल्कि किसी भी तरह का झटका झेलने में सक्षम है। इस साल सेंसेक्स ने लगातार ज्वारभाटा की स्थिति बनाए रखी हालांकि पेट्रोल की कीमतों एवं बैंक की बढ़ी ब्याज दरों ने काफी परेशान किया। जब दुनिया की बड़ी आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ताएं धराशायी हुई तब भी भारत ने स्वयं को संभाले रखा।
सबसे बड़ी बात उभरकर आई है कि झांेपड़ी और फुटपाथ के आदमी से लेकर सुपर पावर का नेतृत्व भी आज भ्रष्ट है। भ्रष्टाचार के आतंक से पूरा विश्व त्रस्त है। शीर्ष नेतृत्व एवं प्रशासन में पारदर्शी व्यक्तित्व रहे ही नहीं। सबने राजनीति, कूटनीति के मुखौटे लगा रखे हैं। सही और गलत ही परिभाषा सब अपनी अलग-अलग करते हैं। अपनी बात गिरगिट के रंग की तरह बदलते रहते हैं। कोई देश किसी देश का सच्चा मित्र होने का भरोसा केवल औपचारिक समारोह तक दर्शाता है।
खेल के मैदान से लेकर पार्लियामेंट तक सब जगह अनियमितता एवं भ्रष्टाचार है। गरीब आदमी की जेब से लेकर बैंक के खजानों तक लूट मची हुई है। छोटी से छोटी संस्था से लेकर यू.एन.ओ. तक सभी जगह लाबीवाद फैला हुआ है। साधारण कार्यकर्ता से लेकर बड़े से बडे़ धार्मिक महंतों तक में राजनीति आ गई है। पंच-पुलिस से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक निर्दाेष की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। भगवान की साक्षी से सेवा स्वीकारने वाला डाक्टर भी रोगी से व्यापार करता है। जिस मातृभूमि के आंगन में छोटे से बड़े हुए हैं, उसका भी हित कुछ रुपयांे के लालच में बेच देते हैं। पवित्र संविधान की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठने वाला करोड़ों देशवासियों के हित से पहले अपने परिवार का हित समझता है। नैतिक मूल्यों की गिरावट की सीमा लांघते ऐसे दृश्य रोज दिखाई देते हैं। इन सब स्थितियों के बावजूद हमें बदलती तारीखों के साथ अपना नजरिया बदलना होगा। जो खोया है उस पर आंसू बहाकर प्राप्त उपलब्धियों से विकास के नये रास्ते खोलने हैं। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना है कि अच्छाइयां किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं होतीं। उसे जीने का सबको समान अधिकार है। जरूरत उस संकल्प की है जो अच्छाई को जीने के लिये लिया जाये। भला सूरज के प्रकाश को कौन अपने घर में कैद कर पाया है?
बीते वर्ष में न केवल देश की अस्मिता एवं अस्तित्व पर ग्रहण लगा बल्कि चन्द्रमा पर भी जाते-जाते वर्ष में ग्रहण लगा, वह भी पूर्णिमा की रोशनीभरी रात में अंधकार की ओट में आ गया। यह चन्द्र ग्रहण भी मनुष्य जीवन के घोर अंधेरों की ही निष्पत्ति कही जा सकती है। यहां मतलब है मनुष्य की विडम्बनापूर्ण और यातनापूर्ण स्थिति से। दुःख-दर्द भोगती और अभावों-चिन्ताओं में रीतती उसकी हताश-निराश जिन्दगी से। आज किसी भी स्तर पर उसे कुछ नहीं मिल रहा। उसकी उत्कट आस्था और अदम्य विश्वास को राजनीतिक विसंगतियों, सरकारी दुष्ट नीतियों, सामाजिक तनावों, आर्थिक दबावों, प्रशासनिक दोगलेपन और व्यावसायिक स्वार्थपरता ने लील लिया है। लोकतन्त्र भीड़तन्त्र में बदल गया है। दिशाहीनता और मूल्यहीनता बढ़ रही है, प्रशासन चरमरा रहा है। भ्रष्टाचार के जबड़े खुले हैं, साम्प्रदायिकता की जीभ लपलपा रही है और दलाली करती हुई कुर्सियां भ्रष्ट व्यवस्था की आरतियां गा रही हैं। उजाले की एक किरण के लिए आदमी की आंख तरस रही है और हर तरफ से केवल आश्वासन बरस रहे हैं। सच्चाई, ईमानदारी, भरोसा और भाईचारा जैसे शब्द शब्दकोषों में जाकर दुबक गये हैं। व्यावहारिक जीवन में उनका कोई अस्तित्व नहीं रह गया है।
आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में मेरी अभिव्यक्ति का आधार छुपा है। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत हो, अजंता के चित्र हों, वाल्ट व्हिटमैन की कविता हो, कालिदास की भव्य कल्पनाएं हों, प्रसाद का उदात्त भाव-जगत हो... सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होते, रंगों-रेखाओं, शब्दों-ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होता, तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनी, थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव-जाति ने जो कुछ रचा है, उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव-नस्ल की सामूहिक विरासत है। एक व्यक्ति किसी सुंदर पथ पर एक स्वप्न देखता है और वह स्वप्न अपने डैने फैलाता, समय और देशों के पार असंख्य लोगों की जीवनी-शक्ति बन जाता है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त है, सुंदर है, सार्थक और रचनामय है, वह सब जीवन दर्शन है और इसी जीवन दर्शन में भविष्य के सपनें बुनें जा सकते हैं।
नये वर्ष की ओर कदम बढ़ाते हुए हमें सकारात्मक होना होगा। तमाम तरह की तकलीफों एवं परेशानियों के बावजूद लोगों की आमदनी कई गुना बढ़ी है। वे बेहतर खा-पहन रहे हैं, बेहतर तालीम पा रहे हैं, गरीबी की मार कम हुई है, गांवों में भी कुछ तो रोशनी दिखाई देती है। अब भी आप कहते हो कि ये सब तो ठीक, लेकिन भाई, अमीर-गरीब का पफासला तो बढ़ा है, पल्यूशन कितना बढ़ चुका है, जिंदगी का मतलब टेंशन हो गया है और अब तो पूरी दुनिया खतरे में आ गई है... तो कोफ्त होना लाजिमी है। लेकिन कब तक हम-आप तरक्की को सराहने से बचने के लिए खामियां तलाशते रहेंगे? मैं समझता हूं, तारीफ से बचने और खामियां खोजने का यह बेमिसाल जज्बा इस मुल्क का कोई निराला गुण है। आखिर हम ऐसे क्यों है?
सदियों की गुलामी और स्वयं की विस्मृति का काला पानी हमारी नसों में अब भी बह रहा है। भारत ने पता नहीं कितनी सदियों से खुद को आगे बढ़ता नहीं देखा। यह लंबा इतिहास, जो हमारी परम्पराओं में पैठ चुका है, हमें भविष्य को लेकर ज्यादा आशावादी होने से बचना सिखाता है। यह जंगल का सरवाइकल मंत्र है कि डर कर रहो, हर आहट पर संदेह करो, हर चमकती चीज को दुश्मन समझो और नाराजगी कायम रखो। इसलिए अगर आमदनी बढ़ रही है, तो उसमें जरूर कोई दमघोंटू फंदा छिपा होगा। तरक्की जरूर बर्बादी की आहट होगी, आजादी में गुलामी के बीज जरूर मौजूद होंगे। इन मानसिकताओं से उबरे बिना हम वास्तविक तरक्की की ओर अग्रसर नहीं हो सकते । जीवन की तेजस्विता के लिये हमारे पास तीन मानक हैं- अनुभूति के लिये हृदय, चिन्तन और कल्पना के लिये मस्तिष्क और कार्य के लिये मजबूत हाथ। यदि हमारे पास हृदय है पर पवित्रता नहीं, मस्तिष्क है पर सही समय पर सही निर्णय लेने का विवेकबोध नहीं, मजबूत हाथ हैं पर क्रियाशीलता नहीं तो जिन्दगी की सार्थक तलाश अधूरी है।
आज देश के जो जटिल हालात बने हुए है, उनमें निम्न प्रसंग हमारे लिये प्रेरणा बन सकता है। बहुत पुरानी बात है। एक राजा ने एक पत्थर को बीच सड़क पर रख दिया और खुद एक बड़े पत्थर के पीछे जाकर छिप गया। उस रास्ते से कई राहगीर गुजरे। किन्तु वे पत्थर को रास्ते से हटाने की जगह राजा की लापरवाहियों की जोर-जोर से बुराइयां करते और आगे बढ़ जाते। कुछ दरबारी वहां आए और सैनिकों को पत्थर हटाने का आदेश देकर चले गए। सैनिकों ने उस बात को सुना-अनसुना कर दिया, लेकिन पत्थर को किसी ने नहीं हटाया।
उसी रास्ते से एक किसान जा रहा था। उसने सड़क पर रखे पत्थर को देखा। रुककर अपना सामान उतारा और उस पत्थर को सड़क के किनारे लगाने की कोशिश करने लगा। बहुत कोशिशों के बाद अंत में उसे सफलता मिल गई। पत्थर को हटाने के बाद जब वह अपना सामान वापस उठाने लगा तो उसने देखा कि जहां पत्थर रखा हुआ था वहां एक पोटली पड़ी है। उसने पोटली को खोलकर देखा। उसमें उसे हजार मोहरें और राजा का एक पत्र मिला। जिसमें लिखा था- यह मोहरें उसके लिए हैं, जिसने मार्ग की बाधा को दूर किया। यह प्रसंग हर बाधा में हमें अपनी स्थिति को सुधारने की प्रेरणा देती है।
समय के इस विषम दौर में आज आवश्यकता है आदमी और आदमी के बीच सम्पूर्ण अन्तर्दृष्टि और संवेदना के सहारे सह-अनुभूति की भूमि पर पारस्परिक संवाद की, मानवीय मूल्यों के पुर्नस्थापना की, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और चारित्रिक क्रांति की। आवश्यकता है कि राष्ट्रीय अस्मिता के चारों ओर लिपटे अंधकार के विषधर पर आदमी अपनी पूरी ऊर्जा और संकल्पशक्ति के साथ प्रहार करे तथा वर्तमान की हताशा में से नये विहान और आस्था के उजालों का आविष्कार करे।


प्रेषकः
ललित गर्ग
संपादक
समृद्ध सुखी परिवार
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25 आई पी एक्सटेंसन, पटपड़गंज, दिल्ली-110092
फोनः-22727486, मोबाईल:- 9811051133

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

राजस्थानी-मोड़िया फॉन्ट

Modiya Font
राजस्थानी-मोड़िया फोन्ट रो निर्माण कार्’य जारी है। आपां संगळा’णै यो पैळो दर्शन को अवसर मिळो है।
[script: मोड़िया फॉन्ट, मोड़ीया फॉन्ट, मोडीया फॉन्ट, Modiya Font, Modia, Rajasthani Font]

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

राजस्थानी’री लिपि-

Rajasthani Bhasha


घणा दिनां सूं राजस्थानी लिपि बनाणै’री चेष्टा जारी ही। मोडिया लिपि (MURIA LIPI) खोजी, अभ्यास कियो। अब जा’र कुछ रूपक त्यार कर पाऊं हूँ। संतोष तो घणो कोणी होयो। पर एक छोटो सो प्रयास कियो है, जो आप सबां’रे सामणै है। कि-बोर्ड’री फान्ट भी बनाने’री घणी चेष्टा करी। सफल कोणी हो पायो। आपां सैं मिल’र फान्ट निर्माण रो प्रयास कर सकां हां। यदि कोई जानकार मित्र मिल जावै तो यो काम आसान हो जासी। -आपणी भासा णै समर्पित।


Rajasthani Script


राजस्थानी अक्षरों का संयुक्त प्रयोग

‘र’ अक्षर का संयुक्त प्रयोग में ‘कृ’ को ‘क्री’ लिखा जाता रहा है। परन्तु इन दिनों इसका दोनों प्रयोग स्वीकार है। उदाहरण के तौर पर ‘पृथ्वी’ को प्रिथ्वी या ‘परथवी’ भी लिखा जाता रहा है। ‘र’ अक्षर को तीन प्रकार से जोड़ा जाता है। देखें-
कारय - कार्य, [ यहाँ ‘र’ के साथ ‘य’ को संयुक्त किया गया है। ]
करम - क्रम [ यहाँ ‘क’ के साथ ‘र’ को संयुक्त किया गया है।]
किरति - कृति [ यहाँ ‘कि’ के साथ ‘र’ को संयुक्त किया गया है।]

राजस्थानी भासा में अक्षरों का संयुक्त प्रयोग आधुनिक राजस्थानी भासा के जनक ‘शिवचंद्र भरतिया’ जो कि 19वीं शताब्दी के प्रथम उपन्यासकार लेखक माने जाते हैं से माना जा सकता है। आपने अपने राजस्थानी नाटकों में संयुक्त अक्षरों का प्रयोग खुलकर किया है।
यहाँ हम राजस्थानी भासा में संयुक्त अक्षरों के प्रयोग को देखेगें।
ज्ञ को ग्य, जैसे ज्ञान - ग्यान
‘ज्ञ’ के बदले ग्य का प्रयोग राजस्थान की लिपि में अक्षरों के कमी के चलते था। चुकि अब देवनागरी के ‘ज्ञ’ को राजस्थानी लिपि में ग्रहित कर चुकी है इसलिए इसके दोनो विकल्प सही माने जाते है, फिर अभी भी बहुत सारे साहित्यकार ‘ग्य’ अक्षर को ही सही मानते हैं। उनका मानना है कि ‘ग्य’ अर ‘ज्ञ’ दोनों के उच्चारण करने में कोई अंतर नहीं रहते हुए भी आधुनिक साहित्यकारों ने अभी तक का जो साहित्य रचा है उसमें ‘ग्य’ अक्षर का ही प्रयोग जारी रखा है।
इसी प्रकार देवनागरी या हिन्दी में ‘र् यो’ शब्द को राजस्थानी में ‘र् अर य’ को ‘र्य’ की तरह न दिखाकर ‘‘र् अर य ’’ को जुड़ा दिखया जाता है। इनमें पधार्+योड़ा, पड़्यो, पढ़्या आदि शब्दों की तरफ सहज ही आपका ध्यान चला जायेगा। ‘ऋतु’ को ‘रितु’ और ‘ऋषि’ को ‘रिसी’ का प्रयोग राजस्थानी भाषा में आम प्रचलन है। इसीप्रकार ‘संस्कृति’ शब्द को ‘संस्क्रति’ , ‘प्रगट’ को ‘परगट’ और ‘सर्वसम्मति’ को ‘सरबसम्मति’ किया जाता है।
इस विषय में राजस्थानी में प्रयोग को हम नीचे दिये गये चित्र में देखेगें।
Rajasthani Joint Latter


यहाँ मोडीया में ‘क’ अक्षर के बदलते स्वरूप को नीचे दिये गये चित्र में देखेगें।

Changing in Modia 'K' Latter


तुलनात्मक अध्यनः
गुजराती, पंजाबी और बंगाल की लिपि में अंतर -

गुजराती, पंजाबी और बंगाल की लिपि में अंतर -
राजस्थानी लिपि पर काम करते वक्त इस बात पर भी ध्यान दिया कि राजस्थान प्रान्त से लगे दो प्रान्त और बंगाल प्रान्त जो राजस्थान की भासा व संस्कृति से काफी प्रभावित रहा है उनकी लिपि में व राजस्थान की लिपि, देखने में कैसे नजर आतें हैं। देखें चित्र-


Difrences With Other Scrpit


संशोधन सूझाव प्राप्त:
मोड़ीया / मुडिया लिपि (MURIA LIPI)लिपि के कुछ अक्षरों का हुबहु नकल नीचे बनाये गये हैं। राजस्थानी लिपि बनाते समय ये दानों अक्षरों को ध्यान में रखा जाना है। जैसे-जैसे सूचना सार्वजनिक होती जा रही है मेरे पास कुछ सूचनाऐं विभिन्न स्त्रोंतो से आनी शुरू हो गई है। यदि आप इसमें कोई सूझाव देना चाहें अथवा कोई जानकारी भेजना चाहें तो मेरे ईमेल पते पर आप भी संपर्क कर सकते हैं।
ehindisahitya(@)gmail.com

Modia Lipi


Marathi "Modi" Script Vs Rajasthani "Modiya" Script:


Modi-vs-Modiya

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

श्री गुलाब खंडेलवालजी का संक्षिप्त परिचयः


Sri Jugal Kishore Jaithelia, Gulab Khandelwal and Shambhu-Choudhary
श्री गुलाब खंडेलवाल का जन्म अपने ननिहाल राजस्थान के शेखावाटी प्रदेश के नवलगढ़ नगर में २१ फरवरी सन्‌ १९२४ ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम शीतलप्रसाद तथा माता का नाम वसन्ती देवी था। उनके पिता के अग्रज रायसाहब सुरजूलालजी ने उन्हें गोद ले लिया था। उनके पूर्वज राजस्थान के मंडावा से बिहार के गया में आकर बस गये थे। कालान्तर में गुलाबजी प्रतापगढ़, उ.प्र. में कुछ वर्ष बिताने के पश्‍चात अब अमेरिका के ओहियो प्रदेश में रहते हैं तथा प्रतिवर्ष भारत आते रहते हैं।
[चित्र में बांयें श्री जुगलकिशोर जैथलिया बीच में श्री गुलाब खंडेलवालजी एवं दायें लेखक शंभु चौधरी,
दिनांक 01.12.2011 कोलकाता।]


Gulab Khandelwalश्री गुलाब खंडेलवाल की प्रारम्भिक शिक्षा गया (बिहार) में हुई तथा उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९४३ में बी. ए. किया। काशी विद्या, काव्य और कला का गढ़ रहा है। अपने काशीवास के दौरान गुलाबजी बेढब बनारसी के सम्पर्क में आये तथा उस समय के साहित्य महारथियों के निकट आने लगे। वे वय में कम होने पर भी उस समय के साहित्यकारों की एकमात्र संस्था प्रसाद-परिषद के सदस्य बना लिये गये जिससे उनमें कविता के संस्कार पल्लवित हुए। महाकवि गुलाब खंडेलवाल, साहित्य की अजस्र मंदाकिनी प्रवाहित करनेवाले प्रथम कोटि के साहित्यकारों की पंक्ति में अग्रणी हैं। पिछले छः-सात दशकों से प्रयाग, दिल्ली, बंबई, कोलकाता, मद्रास, भारत, अमेरिका और कनाडा आदि देशों के साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन को गुलाबजी अपनी सारस्वत-साधना से गौरव-मंडित कर रहे हैं। उनका ’सौ गुलाब खिले’ हिन्दी की अपनी कही जाने योग्य स्तरीय ग़ज़लों का पहला संकलन है। इसके बाद उन्होंने ’पंखुरियाँ गुलाब की’, ’कुछ और गुलाब’, ’हर सुबह एक ताजा गुलाब’ जैसी अन्य कृतियों में ३६५ ग़ज़लें लिखकर इस प्रयोग को पूर्णता तक पहुँचा दिया। उत्तरप्रदेश-सरकार ने उनकी छः रचनाओं - उषा, रूप की धूप, सौ गुलाब खिले, कुछ और गुलाब, हर सुबह एक ताज़ा गुलाब और अहल्या को पुरस्कृत करके कवि के साथ-साथ साहित्य-साधना को भी सम्मानित किया है। पिछले दो दशकों में उन्होंने न केवल छन्दमुक्त रचना के विविध प्रयोग ही किये हैं, तुलसी, सूर, मीरा की भक्तिगीतों की धारा में प्रायः एक सहस्र गीतों का सृजन करके साहित्य से संगीत को पुनः जोड़ने का महान कार्य भी संपादित किया है। इसके अतिरिक्त गुलाबजी ने ’गीत-वृन्दावन’, ’सीता-वनवास’ तथा ’गीत-रत्नावली’ जैसे गीति-काव्यों की रचना करके राधा, सीता और रत्नावली के जीवन की त्रासदी को भी नये परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इधर की ही लिखी हुई उर्दू मसनवी की शैली में उनकी नवीन रचना, ’प्रीत न करियो कोय’, हिन्दी के काव्य-साहित्य में एक नया आयाम जोड़ती है। जहाँ इस रचना द्वारा वे उर्दू के प्रमुख मसनवी-लेखक, मीर हसन और दयाशंकर ’नसीम’ की श्रेणी में आ गये हैं वहीं अपने भक्तिगीतों की सुदीर्घ श्रृंखला द्वारा उन्होंने कबीर, सूर, तुलसी और मीरा की परंपरा में अपना स्थान सुरक्षित करा लिया है।
1941 ई. में उनके गीतों और कविताओं का संग्रह ‘कविता’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका महाकवि निराला जी ने लिखी और तब से अब तक उनके 46 काव्यग्रंथ और 2 गद्य-नाटक प्रकाशित हो चुके है। उन्होंने हिन्दी में गीत, दोहा, सॉनेट, रुबाई, गज़ल, नया शैली की कविता और मुक्तक, काव्य नाटक, प्रबंधकाव्य, महाकाव्य आदि के सफल प्रयोग किये हैं। गुलाबजी पिछले 10 वर्षों ‘अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के सभापति हैं।
अपनी कविताओं से लोकमानस को अपनी ओर आकर्षित करते हुये उनकी साहित्यिक मित्रमंडली तथा शुभचिन्तकों का दायरा बढने लगा। सर्वश्री हरिवंश राय बच्चन, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, डॉ॰ रामकुमार वर्मा, आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, न्यायमूर्ति महेश नारायण शुक्ल, प्राचार्य विश्वनाथ सिंह, माननीय गंगाशरण सिंह, शंकरदयाल सिंह, कामता सिंह 'काम' आदि इनके दायरे में आते गये।
मित्र मंडली में कश्मीर के पूर्व युवराज डॉ॰ कर्ण सिंह, डॉ॰शम्भुनाथ सिंह, आचार्य विश्वनाथ सिंह, डॉ॰ हंसराज त्रिपाठी, डॉ॰ कुमार विमल, प्रो॰ जगदीश पाण्डेय, प्रो॰ देवेन्द्र शर्मा, श्री विश्वम्भर ’मानव’, श्री त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ मिश्र ’प्रभात’, भवानी प्रसाद मिश्र, नथमल केड़िया, शेषेन्द्र शर्मा एवं इन्दिरा धनराज गिरि, डॉ॰ राजेश्वरसहाय त्रिपाठी, पं॰ श्रीधर शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र, अर्जुन चौबे काश्यप आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। आजकल कवि गुलाब अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के अध्यक्ष है।


Gulab Khandelwal

किस सुर में मैं गाऊँ?


किस सुर में मैं गाऊँ?
भाँति-भाँति के राग छिड़े हैं, किससे तान मिलाऊँ?

गाऊँ मिल मोरों के गुट में
चिड़ियों की टी, वी, टुट, टुट में?
या गाते सरसिज सम्पुट में
मधुकर-सा सो जाऊँ!

मान यहाँ हर ध्वनि का होता
किसके बस न हुए हैं श्रोता!
यदि मैं गहरे में लूँ गोता
मोती कहाँ न पाऊँ!

पर जो छवि बैठी इस मन में
नव-नव धुन रचती क्षण-क्षण में
क्यों न उसीका करूँ वरण मैं
जग से दृष्टि फिराऊँ

किस सुर में मैं गाऊँ?
भाँति-भाँति के राग छिड़े हैं, किससे तान मिलाऊँ?
[तिलक करें रघुवीर]

नाम लेते जिनका दुख भागे


नाम लेते जिनका दुख भागे
मिला उन्हें तो जीवन-भर दुख ही दुख आगे-आगे

छूटा अवध साथ प्रिय-जन का
शोक असह था पिता-मरण का
देख कष्ट मुनियों के मन का
वन के सुख भी त्यागे

वन-वन प्रिया-विरह में फिरना
'कैसे हो सागर का तिरना?'
भ्राता का मूर्छित हो गिरना
नित नव-नव दुख जागे

गूँजी ध्वनि जब कीर्ति-गान की
फिर चिर-दुख दे गयी जानकी
माँग उन्हीं-सी शक्ति प्राण की
मन! तू सुख क्या माँगे!

नाम लेते जिनका दुख भागे
मिला उन्हें तो जीवन-भर दुख ही दुख आगे-आगे
[सीता वनवास से]


तुम खेल रहे......
तुम खेल सरल मन के सुख से, अब छोड़ मुझे यों दीन-हीन
मलयानिल-से जा रहे, निठुर! कलिका की सौरभ-राशि छीन!

पढ़ विजन-कुमारी के उर की गोपन भाषा सहृदय स्वर से
अब व्यंग्य हँसी लिखते हो तुम पंखुरियों पर निर्दय कर से

उपकारों का प्रतिकार यही! आभार यही आभारी का!
तुम खेल रहे अंगार-सदृश ले हृदय हाथ में नारी का

चंचल लावण्य-प्रभा जिसकी पाती हो प्रात न स्नेह-स्फूर्ति
निष्प्रभ थी दीपशिखा-सी ही नारी निशि की श्रृंगार-मूर्ति

अंचल फैलाये सरिता की तट लाँघ सिसकती लहरी-सी
उड़ायाद्रि-क्षितिज पर ज्यों कोई तारिका विनत-मुख ठहरी-सी

करुणा, दुख, ईर्ष्या, रोष-विभा परिवर्तित जिसके क्षण-क्षण की
भावों के अभिनय में चित्रित नैराश्य-व्यथा-सी जीवन की
[कच-देवयानी से]

ग़ज़ल
उन्हें बाँहों में बढ़कर थाम लेंगे
कभी दीवानेपन से काम लेंगे

ग़ज़ल में दिल तड़पता है किसीका
उन्हें कह दो, कलेजा थाम लेंगे

ये माना ज़िन्दगी फिर भी मिलेगी
नहीँ हम ज़िन्दगी का नाम लेंगे

अँधेरे ही अँधेरे होंगे आगे
पड़ाव अगला जहां कल शाम लेंगे

मिला दुनिया से क्या, मत पूछ हमसे
तुझीमें, मौत! अब आराम लेंगे

गुलाब! इस बाग़ की रंगत थी तुमसे
वे किस मुँह से मगर यह नाम लेंगे!
[ सौ गुलाब खिले से]


संपर्क: 56, जय अपार्टमेन्ट, आई.पी.एक्सटेंशन-102, पडपडगंज, नई दिल्ली - 110092 दूरभाषः 011 2726934/2450525
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