- डॉ. दुलाराम सहारण
इतिहास एक ऐसा विषय है जो लोकयात्रा को सत्य-अक्षरों में लिखते हुए खुद को तारीखों में पिरोता चलता है। इस मार्ग के अनेक पड़ाव हैं। सम्पूर्ण पड़ावों से होते हुए जब मार्ग तय होता है तो एक सुनहरा अतीत बनता है। और तो और, इस मार्ग पर चलने वाले स्वयं एक इतिहास बन जाता है। परंतु, वह क्या बन सकता है जो इतिहास को संजोता है तथा कलम के चमत्कार से संपूर्ण विश्व के सामने उसे रखता है?
इतिहासकारों के इतिहास की बात आती है तो राजस्थान के चूरू शहर के श्री गोविंद अग्रवाल का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। श्री गोविंद अग्रवाल पहले ऐसे विद्वान हैं जो लोक-इतिहास के बूते पर अपनी सशक्त पहचान रखते हैं। नब्बे साल के लगभग की अपनी इस जीवनयात्रा में श्री गोविंद अग्रवाल ने अपनी ज्ञान भरी तीक्ष्ण दृष्टि का प्रसार इस भांति किया है कि हर एक पारखी भी उनसे रू-ब-रू होते हुए संकुचाता है।
लोक-इतिहास में ‘चूरू मण्डल का शोधपूर्ण इतिहास’ एक ऐसा कीर्ति-स्तम्भ है जो अकेला श्री अग्रवाल को अमर रखेगा।
श्री गोविंद अग्रवाल का जन्म राजस्थान के चूरू शहर में भाद्रपद कृष्णा 1, वृहस्पतिवार, विक्रम संवत् 1979 तद्-अनुसार 17 अगस्त, 1922 ई. को श्री दुर्गादत्त केजड़ीवाल के यहां हुआ। गोविंदजी का यह सौभाग्य रहा कि उनके पिताश्री दुर्गादत्तजी एवं बड़े भाई श्री सुबोधकुमारजी अग्रवाल साहित्यिक संस्कारों वाले थे। गोविंदजी को उनका सहयोग मिला।
1942 ई. का समय देश में राजनीतिक उठा-पटक का समय था। ठीक इसी वक्त में गोविंदजी की कलम ने आंदोलन छेड़ा और ललित गद्य-काव्य और अतुकांत कविताओं का सृजन रूपी परिणाम सामने आया। सन् 1944-45 में साप्ताहिक ‘अर्जुन’ में कई गद्य-काव्यमयी रचनाओं का प्रकाशन हुआ। पहली अतुकांत कविता ‘हल’ शीर्षक से सन् 1947 में अलवर से प्रकाशित होने वाले मासिक ‘राजस्थान क्षितिज’ में छपी। सन् 1947 में ही मासिक ‘तरुण’, इलाहाबाद में गोविंदजी का एक आलेख छपा।
सन् 1957 के आसपास भोज प्रकाशन, धार (मध्य प्रदेश) से छपने वाली मासिक ‘उषा’ गोविंदजी की रचनाओं की चहेती पत्रिका बनी। इस पत्रिका में गोविंदजी ने चतुरसेन शास्त्री के प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोली’, ‘सोना और खून’ तथा ‘वयं रक्षामः’ की समीक्षा की। जो काफी लोकप्रिय हुईं।
शोध दृष्टि के हुए विकास का सांगोपांग दर्शन सन् 1960 में ‘बिड़ला एज्युकेशन ट्रस्ट’ के राजस्थानी विभाग की मुख पत्रिका ‘मरु भारती’ में हुआ। सन् 1985 तक गोविंदजी इस पत्रिका में निरंतर लिखते रहे। अगर इस पत्रिका में छपे उनके आलेखों को देखना हो तो कोई 1500 पृष्ठ खंगालने पड़ेंगे। इन 1500 पृष्ठों की सामग्री में गोविंदजी ने राजस्थानी लोककथाएं, लोकगीत, लोक इतिहास के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला है। राजस्थानी लोककथाओं का काम सन् 1964 में भारती भण्डार, इलाहाबाद से पुस्तक रूप में दो भागों में छपा। प्रथम भाग की भूमिका प्रसिद्ध विद्वान डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल तथा दूसरे भाग की भूमिका उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा ने लिखी। काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, मोरारजी देसाई, यूजीसी के अध्यक्ष डॉ. दौलतसिंह कोठारी आदि विद्वानों ने इसकी जमकर तारीफ की।
गोविंद अग्रवाल राजस्थानी कहावतों पर श्री भागीरथ कानोड़िया के साथ मिलकर सन् 1979 में पुस्तक रूप में भी आए। इसमें 3209 कहावतें भावार्थ के साथ तथा 350 कहावतें संदर्भ कथा के साथ दी गईं। लोक मर्मज्ञ डॉ. सत्येंद्र ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी। इस पुस्तक के संदर्भ मेँ डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी ने लिखा- ‘‘राजस्थानी कहावत कोश के संपादक ने स्मृतिकार की भूमिका निभाई है। ये लोकोक्तियां मील का पत्थर हैं और यह कोश एक संदर्भ ग्रंथ है।’’
गोविंदजी की रुचि लोक तथा लोक-इतिहास में रही। इसको परवान चढ़ाने हेतु चूरू में अपने तीन साथियों- श्री सुबोधकुमार अग्रवाल, कुंजबिहारी शर्मा तथा श्रीनिवास दिनोदिया के सहयोग से ‘लोक संस्कृति शोध संस्थान, नगरश्री’ की सन् 1964 में स्थापना की। आगे चलकर इसका खुद का भवन भी स्थापित हुआ।
नगरश्री से ‘मरुश्री’ नाम से शोध पत्रिका सन् 1971 में प्रारम्भ हुई। चूरू अंचल एवं दूसरी जगहों से शोध संग्रहालय में पुरानी मूर्तियां, पुरातात्विक सामग्री, हस्तलिखित पाण्डुलिपियां, ताड़पत्री प्रतियां, पुराने अभिलेख तथा बहियां आदि इक्कट्ठी की गईं। इस संग्रहालय में भाड़ंग, कालीबंगा, रंगमहल, करोती, सोथी तथा पल्लू के थेहड़ों से संग्रहित पुरातात्विक सामग्री मौजूद है, जो काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। नगरश्री ने स्वयं के पुस्तकालय की स्थापना की। नगरश्री सभागार में नगर के महापुरुषों, ऐतिहासिक स्थलों आदि के 1200 से ज्यादा चित्रों की शृंखला संयोजित की गई। प्रकाशन विभाग से पुस्तकों का प्रकाशन किया गया। ऐतिहासिक- साहित्यिक- सांस्कृतिक आयोजनों का सिलसिला शुरू हुआ। विद्वानों का सम्मान एक परम्परा के तहत किया जाने लगा।
सन् 1966 में श्री गोविंद अग्रवाल की पुस्तक ‘जैन धर्म को चूरू जिले की देन’ छपी। इस पुस्तक के माध्यम से इस क्षेत्र का एक हजार वर्षों का जैन-इतिहास पहली दफा सामने आया।
चूरू नगर के मंदिर-देवलों के भित्तिचित्र, शिलालेख तथा उनसे जुड़े हुए विभिन्न तथ्यों के संगम से पुस्तक ‘चूरू के मुख्य मंदिर’ प्रकाश में आई। दूसरी पुस्तक ‘हमारी सांस्कृतिक परम्पराएं’ नाम से संपादित की गई। ‘चूरू चंद्रिका’ नाम से छपे संग्रह में चूरू के सम्पूर्ण पक्षों को सहेजा गया।
चूरू के लोकप्रिय समाजसेवी स्वामी गोपालदास के संघर्ष को ‘स्वामी गोपालदासजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ पुस्तकों में प्रस्तुत किया गया। यह पुस्तक सन् 1968 में छपी।
‘मरुश्री’ पत्रिका नगरश्री की मुख्य पत्रिका थी। इसमें सन् 1974 से 1977 तक गोंिवंद अग्रवाल का राजस्थानी गद्यकाव्य ‘नुक्तीदाणा’ छपा। सन् 1978 में ये 101 नुक्ती दाणा पुस्तक रूप में आए। पुस्तक की यह खास बात थी कि राजस्थानी, हिंदी तथा अंग्रेजी तीनों भाषाओं में ये नुक्तीदाणा दिए गए।
‘मरुश्री’ पत्रिका सन् 1971 में प्रारम्भ हुई थी। इसमें ‘ग्राम दर्शन’, ‘खोज की पगडंडियां’, ‘बस्तों-बुगचों से’ जैसे स्थायी स्तम्भ थे। इस पत्रिका के माध्यम से लोक-इतिहास पर अनोखा काम हुआ।
गोविंदजी की अगुवाई में सन् 1964 में एक योजना बनी थी कि चूरू मण्डल का प्रामाणिक इतिहास लिखा जाए। चूरू के इतिहास पर यह एक भांति पहला ही काम था, इस कारण काफी मेहनत एवं परिश्रम वाला था। परंतु, जब 542 पृष्ठ, 21 अध्याय, 44 परिशिष्ट और 101 चित्र, मानचित्र, अभिलेख, शिलालेख, ताम्रपत्र और हस्तलिखित ग्रंथों के चित्राम लेकर यह ग्रंथ सार्वजनिक हुआ तो सभी ने दांतों तले अंगुली दबा ली। इस ग्रंथ का नाम ‘चूरू मण्डल का शोधपूर्ण इतिहास’ रखा गया। चूरू अंचल के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को इसमें भली-भांति समायोजित किया गया। ग्रंथ की भूमिका प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ ने लिखी। ग्रंथ का 25 अप्रैल, 1974 को चूरू शहर में बड़ा समारोह आयोजित कर विमोचन किया गया। इस समारोह में देश के नामी इतिहासकारों ने शिरकत की।
यह ग्रंथ आज आंचलिक इतिहास के मार्ग पर मील का पत्थर माना जाता है। मुड़िया लिपि के गोविंदजी ख्यातनाम जानकार हैं। इस लिपि को पढ़ने के लिए आज काफी यत्न किए जाते हैं। गोविंदजी मुड़िया लिपि को पढ़ने वाले ही नहीं अपितु गहरे जानकार भी हैं। इस लिपि में लिखी व्यापारिक घरानों की बहियों को ढूंढ़कर संग्रहित करते हुए उन पर महत्त्वपूर्ण काम किया। चूरू के पोतदार संग्रह में संग्रहित 200 वर्ष पुराने अभिलेख और 15-20 कीलो की बहियों को गोविंदजी ने खंगाला तथा उनके ऐतिहासिक महत्त्व को प्रगट किया। यह काम सन् 1976 में ‘पोतदार संग्रह के अप्रकाशित कागजात’ के नाम से पुस्तक रूप में आया।
व्यापारिक घरानों में मुनीम-गुमाश्तों का जबरदस्त योगदान होता है। परंतु, किसी ने इस पर काम नहीं किया। गोविंद अग्रवाल ने इसको चुनौती माना और सन् 1983 में ‘वाणिज्य व्यापार में मुनीम-गुमाश्तों की भूमिका’ पुस्तक छपकर पहचान बनाने में कामयाब रही।
चूरू के पोतदार (पोद्दार) संग्रह में महाराजा रणजीतसिंह और नाभा, पटियाला, जिंद, कपूरथला आदि के शासकों के साथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पदाधिकारियों आदि के फारसी परवाने थे। गोविंद अग्रवाल ने इनकी खोज की और डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ ने 250 अभिलेखों का फारसी अनुवादक मुंशी काजी करामतुल्लाह से अनुवाद करवाया। यह काम ‘पोतदार संग्रह के फारसी कागजात’ नाम से पुस्तक रूप में आया।
‘उन्नीसवीं शती पूर्वार्द्ध में समृद्ध भारतीय बीमा पद्धति’ पुस्तक श्री गोविंद अग्रवाल 1987 ई. में प्रकाशित करवाते हैं, जो कि बीमा इतिहास प्रकट करती है। यह पुस्तक राजस्थान के शिक्षा पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित रही।
गोविंदजी विद्वता के बलबूते पर इतिहास अनुसंधान परिषद, दिल्ली की ओर से 2 वर्ष हेतु सीनियर फैलोशिप प्राप्त करने में सफल भी हुए। दूसरी अनेक संस्थाओं ने भी उनका काफी मान-सम्मान किया। परंतु खास बात यह रही कि गोविंदजी पुरस्कार लेने से शर्माते रहे। उनमें यह प्रवृत्ति अब भी जिंदा है। वे फोटो खिंचवाते हैं तो आज भी लजा या शर्मा जाते हैं।
अग्रवालजी की दृष्टि तीक्ष्ण है। उनकी आदत है कि वे किसी पुस्तक का अध्ययन करते हैं तो लाल पेंसिल हाथ में रखते हैं। जहां-जहां वे गलती देखते हैं वहां-वहां लाल घेरा कर देते हैं। तथ्य की परख और भाषा का ज्ञान उनका गजब है। उन्होंने राजस्थान शिक्षा विभाग की पाठ्य-पुस्तकों में अनेक बार संशोधन करवाए। राजस्थान गजेटियर विभाग की तरफ से निकाले गए चूरू गजेटियर में संशोधन करवाया। जनसंपर्क विभाग, चूरू की तरफ से निकाली गई ‘चूरू दर्शन’ पुस्तक पर तो गोविंदजी की निकाली गई गलतियों के कारण रोक भी लगा दी गई।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास ‘गोली’ में गोविंदजी ने अनेक गलतियां निकालीं। जो अगले संस्करण में सुधारी गईं। उपेन्द्रनाथ अश्क के ‘गिरती दीवारें’ उपन्यास का द्वितीय संस्करण 1951 में प्रकाशित हुआ। गोविंदजी ने इसको लाल घेरों से सज्जित करके अश्कजी के पास भिजवाया। तीसरा संस्करण जब 1957 में छपा तो अश्कजी ने दो शब्द लिखते हुए उपन्यास में सुधार हेतु जिनका आभार प्रकट किया उनमें गोविंद अग्रवाल, चूरू एवं प्रो. बोस्क्रेनी, अध्यक्ष, हिंदी विभाग, लेनिग्राड विश्वविद्यालय के नाम थे।
श्री गोविंद अग्रवाल आज अपने लड़कों के पास कर्नाटक के कुमारपट्टनम् नगर में रहते हैं। परंतु, उनके पास जो पुस्तक, पत्रादि पहुँचते हैं उन पर सटीक टिप्पणी और पुस्तक लाल घेरों के साथ वापिस जरूर आती है।
अग्रवालजी का इतिहास तथा साहित्य में जो योगदान है वह शब्दातीत है। गोविंदजी एक ऐसे तपस्वी हैं जो मां सरस्वती से मुंहमांगा वरदान लेकर धरती पर आए और अथक रूप से आजतक सरस्वती-भण्डार को भरने में लगे हैं।
यहां यह बात लिखनी भी जरूरी हो जाती है कि श्री गोविंद अग्रवाल के बड़े भाई श्री सुबोधकुमार अग्रवाल आयोजनधर्मी एवं यात्राशील मनुष्य थे। उनकी यात्राएं एवं आयोजन नगरश्री संस्थान तथा नगरश्री संग्रहालय को गति देते। इससे गोविंदजी को सहायक सामग्री तथा बल मिलता।
लोक संस्कृति शोध संस्थान, नगरश्री की यात्रा निरंतर जारी है। श्री रामगोपाल बहड़, डॉ. शेरसिंह बीदावत, श्री श्यामसुंदर शर्मा, श्री रामचंद्र शर्मा आदि विद्वान अग्रवाल बंधुओं की धरोहर को अच्छे ढंग से संभाले हुए हैं एवं नित्यप्रति उसमें वृद्धि कर रहे हैं। मूल रूप से यह आलेख उन्हीं की देन हैं।
उम्मीद की जा सकती है कि गोविंदजी के काम को इसी भांति गति मिलती रहेगी। गोविंदजी का लेखन अमर रहेगा तथा उनकी साधना को नमन् करते हुए विद्वान वर्ग आगे बढ़ता रहेगा।
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