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शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

छत्तीसगढ़ में वैश्य समाज - रमेश कुमार जैन


भारतीय गणतंत्र के 26 वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ का उदय 1 नवम्बर 2000 को हुआ। इसके पूर्व यह क्षेत्र मध्यप्रदेश का हिस्सा था। 1 नवंबर 1956 को मध्य प्रदेश के निर्माण के रूप में यह मध्य प्रांत एवं बरार का अंग था। प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ का उत्तरी भाग (रायपुर, बिलासपुर क्षेत्र) दक्षिण कौशल के नाम विख्यात था, जबकि दक्षिणी भारत (बस्तर क्षेत्र) दंडकारण्य, महाकांत्तार, चक्रकोट के नाम से जाना जाता था।
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था व अतंर्गत ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र चार वर्ण आते थे। धर्म के कर्ता-धर्ता होने के कारण ब्राम्हणों से संबंधित तथा राजकीय प्रमुख होने के कारण क्षत्रियों से संबंधित विवरण बहुतायद से मिलते हैं, किन्तु वैश्य समाज का उल्लेख यदा-कदा ही मिलता है, छत्तीसगढ़ के प्राचीन अभिलेखों में वैश्य समाज से संबंधित दो नाम बड़े महत्व के साथ मिलते हैं। प्रथम जाजल्लदेव के रतनपुर शिलालेख कलचुरी संवत् 866 (ई. 1114) में श्रेष्ठी यश का उल्लेख हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि रत्नदेव (प्रथम) के समय श्रेष्ठी यश रतनपुर का नगर प्रमुख था। इसी प्रकार पृथ्वी देव द्वितीय के समय के कोटगढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है, कि रत्नदेव द्वितीय की माता लाच्छल्लादेवी वल्लभराव नाम वैश्य को अपने दत्तक पुत्र जैसा मानती थी। यह रत्नदेव द्वितीय का सामन्त था, इस अभिलेख में वल्लभराज द्वारा निर्मित हटकेश्वर निर्मित हटकेश्वर पुरी का उल्लेख है तथा इसके द्वारा एक सरोवर बनाने की जानकारी मिलती है।
छत्तीसगढ़ में वर्तमान में बड़ी संस्था में अग्रवाल जाति के लोग निवास करते है। इन्हें छत्तीसगढ़ अग्रवाल के नाम जाता है। स्थानीय परंपरा के अनुसार जहांगीर के शासनकाल में छत्तीसगढ़ में कल्याण साय नामक एक राजा हुए। कल्याण साय के दिल्ली जहांगीर के दरबार में जाने का विवरण इतिहास में मिलता है। कहा जाता है, कि दिल्ली से लौटते समय राज व्यवस्था को ठीक से संचालित करने के लिये कल्याण साय अपने साथ 5 घर ब्राम्हण, क्षत्रिय 5 घर कायस्थ और 5 घर अग्रवालों को लेकर आये थे। इन्ही अग्रवालों को कालान्तर में छत्तीसगढ़ अग्रवाल के नाम से संबोधित किया जाने लगा, कुछ लोग मंडला से अग्रवालों के आने की कथा बताते है और कुछ कहना है कि औरंगजेब के शासनकाल में धर्मपरिवर्तन से बचने के लिये छत्तीसगढ़ आ गये। छत्तीसगढ़ी अग्रवालों को यंहा दाऊ भी कहा जाता है, जो प्रतिष्ठा का सूचक है। परंपरा के रूप में छत्तीसगढ़ अग्रवालों के गोत्र सिंहल सिंघल, गोयल, गर्ग, नागल, वसिल, मुद्गल आदि मिलते है।
छत्तीसगढ़ अग्रवालों ने दान आदि क विशेष उल्लेखनीय कार्य किये है। जैतूसाव क द्वारा पुरानी बस्ती में मंदिर का निर्माण कराया गया था बाद में जहां मंहत लक्ष्मी नारायण दास हुये थे। जो एम. एल. ए. राज्य सभा सदस्य और कांग्रेसाध्यक्ष भी रहे। तरेंगा के दाऊ कल्याण सिंह के नाम पर है, इसके अतिरिक्त दाऊ कल्याण सिंह ने अपने पिता के कहने पर टी. बी. अस्पताल बनवाया था, इन्हें रायबहदुर और दीवान बहादुर की उपाधियां भी अंग्रेज सरकार ने दी थी ।
जहां तक वर्तमान में छत्तीसगढ़ के वैश्य समाज का प्रथम लगभग 19 वी शताब्दी में आवागमन के विकास के साथ बड़ी संख्या में यहां वैश्यों का आगमन हुआ। जिसमें मुख्यरूप से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बुंदेलखंड गुजरात के वैश्य उल्लेखनीय है। इनका आगमन लगभग 150-200 वर्शों का है।
छत्तीसगढ़ में वैश्य समाज अलग-अलग क्षेत्रीय समुदायों में अपनी-अपनी विरासत के अनुसार जीवन निर्वाह कर रहा है। इनकी कोई एक साथ समग्र पहचान नही है।
छत्तीसगढ़ के सामाजिक राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन में वैश्यों का विशेश महत्व रहा है, आवश्यकता इस बात की है कि इसे सिलसिलेवार एकत्रित समग्ररूप से प्रकाश में लाया जावे।
छत्तीसगढ़ के वैश्यों की अन्य शाखा में तेली (साहू), जायसवाल की जानकारी भी यहां मिलती है। छत्तीसगढ़ की प्रतिद्ध धार्मिक नगरी राजिम का संबंध राजीव अथवा तेलिन से है। यहां का प्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर का संबध उनसे स्थापित किया जाता है, छ.ग. में तेलीय वैश्य बड़ी संख्या में है। इसी प्रकार जायसवाल समाज से संबंधित किवदंतियां एवं लोक कथाये भी यहां पर प्रचलित है।


संपर्क:
दिगंबर जैन मंदिर के पास, मालवीय रोड, रायपुर
फोन नं.: 09893184467

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

आपणी भाषा आपणी बात


अखबार में कोई एक कॉलम कैसे शुरू होता है और कैसे हिट होता है इसे दैनिक भास्कर के श्रीगंगानगर एडिशन में नियमित प्रकाशित हो रहे `आपणी भाषा आपणी बात´ स्तंभ की अंतरकथा जानकर ही अंदाज लगाया जा सकता है। यह स्तंभ मेरी अब तक की पत्रकारिता का यादगार प्रसंग तो है ही और इससे यह भी समझा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े दैनिक भास्कर पत्र समूह ने अपने संपादकों, स्टाफ को काम करने, नए प्रयोग की भरपूर आजादी भी दे रखी है। अपनी भाषा के प्रति क्या दर्द और क्या सम्मान होता है यह उज्जैन (मध्यप्रदेश) से उदयपुर (राजस्थान) स्थानांतरण के बाद ही समझ आया। जैसे गांधीजी ने आजादी के लिए अकेले संघर्ष शुरू किया और लोग जुड़ते गए। कुछ वैसा ही राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के आंदोलन को राजेंद्र बारहठ, शिवदान सिंह जोलावास, घनश्यामसिंह भिंडर आदि से थोड़ा बहुत समझ पाया। इसे एक दिल से जुड़े मुद्दे के रूप में उदयपुर में `मायड़ भाषा´ स्तंभ से शुरू किया और राजस्थान की भाषा संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को आतुर लोगों ने मान लिया कि संवैधानिक दर्जा दिलाना अब भास्कर का मुद्दा हो गया है। अप्रैल 08 में उदयपुर से श्रीगंगानगर स्थानांतरण पर इस मुद्दे को उठाने की छटपटाहट तो थी, लेकिन पहली प्राथमिकता थी दोनों शहरों का मिजाज समझना। एक शाम मोबाइल पर हरिमोहन सारस्वतजी ने संपर्क किया। वो मेरे लिए नए थे, लेकिन उन्होंने जिस तरह बारहठ जी और बाकी परिचितों के नाम के साथ बातचीत शुरू की तो मुझे लग गया कि मैं यहां नया हो सकता हूं लेकिन मेरी पहचान कई लोगों को करा दी गई है। सारस्वतजी से संपर्क बना रहा, आग्रह करते रहे कि सूरतगढ़ आएं। ब्यूरो कार्यालय की बैठक आदि के संदर्भ में जाना हुआ भी, लेकिन उनसे मुलाकात का वक्त नहीं निकाल पाया। एक शाम तो राजस्थानी मनुहार में हरिमोहन जी ने आदेश सुना ही दिया- सुगनचंद सारस्वत स्मृति में दिए जाने वाले वार्षिक साहित्यिक पुरस्कार समारोह में राजस्थानी भाषा के युवा कवि-परलीका के विनोद स्वामी को सम्मानित करने आना ही है। इंकार कर नहीं सकता था। फिर भी कह दिया अच्छा आप गाड़ी भिजवा देना फिर देखेंगे। कार्यक्रम से एक दिन पहले फिर मैसेज आ गया श्रीगंगानगर से ही राजकीय महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. अन्नाराम शर्मा और युवा साहित्यकार कृष्ण कुमार आशु (राजस्थान पत्रिका) आपको साथ लेकर आएंगे। अब तो न जाने के सारे बहानों के रास्ते बंद हो चुके थे। कार्यक्रम राजस्थानी भाषा के सम्मान से जुड़ा था। सोचा मालवी में बोलूंगा लेकिन ठीक से बोलना आता नहीं और गलत तरीके से राजस्थानी बोलना मतलब बाकी लोगों का दिल दुखाना और खुद की हंसी उड़ाना। राजस्थानी भाषा मान्यता आंदोलन के प्रदेश महामंत्री राजेंद्र बारहठ ही अंधेरे में आशा की किरण बने। फोन पर उन्हें मैंने अपने प्रस्तावित वक्तव्य की भावना बताई। उन्होंने राजस्थानी में अनुवाद किया और फोन पर ही मैंने भाषण नोट किया। राजस्थानी भाषा के इस भाषण को पढ़ने के अभ्यास के वक्त लगा कि सोनिया गांधी के हिंदी भाषण की खिल्ली उड़ाकर हम लोग कितनी मूर्खता करते हैं। सूरतगढ़ तक के रास्ते में अन्नाराम जी और आशु चिंतन चर्चा करते रहे। यह भी मुद्दा उठा कि समारोह में राजस्थानी में ही बोलना चाहिए। मेरी जेब में राजस्थानी में लिखा भाषण रखा था, लेकिन इन दोनों भाषाई धुरंधरों के सामने यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि मैं भी राजस्थानी भाषा में बोलूंगा। कार्यक्रम शुरू हुआ तो जिला प्रमुख पृथ्वीराज मील भी राजस्थानी में जितना मीठा बोले उतना ही मनमोहक उनका पारंपरिक पहनावा भी था। मेरी बारी आई, भाषण लिखा हुआ था, लेकिन हाथ-पैर कांप रहे थे। शुरुआत से पहले विनोद स्वामी से पूछ लिया था। उन्होंने बताया मासी को यहां भी मासी ही बोलते हैं। मैंने मंच से जब कहा कि मालवी और राजस्थानी दोनों बहनें हैं। इस तरह मैं अपनी मासी के घर आया हूं, राजस्थानी में भाषण पढूंगा तो उपस्थितजनों ने तालियों के साथ स्वागत किया और मेरी हिम्मत खुल गई। इस मंच से अच्छा और कोई मौका कब मिलता। मैंने राजस्थानी भाषा में स्तंभ शुरू करने की घोषणा कर दी। समारोह समापन के बाद हम सब चाय-नाश्ते के लिए बढ़ रहे थे। उसी वक्त सूरतगढ़ भास्कर के तत्कालीन ब्यूरो चीफ सुशांत पारीक को सलाह दी कि इस पूरे कार्यक्रम की राजस्थानी भाषा में ही रिपोर्ट तैयार करें। वहीं विनोद स्वामी, रामस्वरूप किसान, सत्यनारायण सोनी से स्तंभ के स्वरूप को लेकर चर्चा हुई। सोनी जी के पुत्र अजय कुमार सोनी को श्रेय जाता है राजस्थानी भाषा को नेट पर जन-जन से जोड़ने का। इस समारोह की रिपोर्ट राजस्थानी भाषा में प्रकाशित होने का फीडबेक अच्छा ही मिलेगा, यह विश्वास मुझे इसलिए भी था कि अखबारों में क्षेत्रीय भाषा में हेडिंग देने के प्रयोग तो होते ही रहते हैं। किसी कार्यक्रम की पूरी रिपोर्ट क्षेत्रीय भाषा में प्रकाशित करने का संभवत: यह पहला अनूठा प्रयोग जो था। खूब फोन आए। बस स्तंभ के लिए सिलसिला शुरू हो गया। किसी भी काम की सफलता तय ही है बशर्ते उस काम से सत्यनारायण सोनी, विनोद स्वामी जैसे निस्वार्थ सेवाभावी जुड़े हों। इन दोनों को अपने नाम से ज्यादा चिंता यह रहती है कि मायड़ भाषा का मान कैसे बढ़े। हमने रोज फोन पर ही चर्चा कर योजना बनाई। मेरा सुझाव था कि इस कॉलम में हम भाषा की जानकारी इतने सहज तरीके से दें कि आज की पब्लिक स्कूल वाली पीढ़ी भी आसानी से जुड़ सके और भविष्य में प्राथमिक-माध्यमिक स्तर की पढ़ाई के लिए राजस्थानी भाषा की पुस्तक भी तैयार हो जाए। कॉलम को भारी-भरकम साहित्यिक भाषा वाला बनाने पर खतरा था कि सामान्यजन रुचि नहीं दिखाएंगे। इस स्तंभ का उद्देश्य यही है कि जिन्हें राजस्थानी नहीं आती वो इस मनुहार वाली भाषा की मिठास को समझें और जिन्हें आते हुए भी बोलने में झिझक महसूस होती है उनकी झिझक टूटे। `भास्कर´ ने इस स्तंभ के लिए स्थान जरूर मुहैया कराया है, लेकिन सामग्री जुटाना, राजस्थानी भाषा में तैयार करना, कॉलम के लिए विशेष अवसर पर प्रमुख कवियों-साहित्यकारों से लिखवाना यह सारा दायित्व इन दोनों ने ले रखा है। जैसे शोले सलीम-जावेद के कारण सफाई हुई तो `भास्कर´ में `आपणी भाषा आपणी बात´ स्तंभ परलीका निवासी सोनी-स्वामी की जोड़ी से ही हिट हो रहा है।


श्री कीर्ति राणा, संपादक - दैनिक भास्कर ( श्रीगंगानगर संस्करण) मो:09829990299
kriti_r@raj.bhaskarnet.com

रविवार, 11 जनवरी 2009

समाजवाद के प्रणेता अग्र शिरोमणि महाराजा अग्रसेन

सुरेश कुमार बसंल (लेघांवाला)



महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। वे समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, रामराज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो "सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः" कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें। महाराजा अग्रसेन केवल अग्रवालो के कुल प्रर्वतक ही नही थे अपितु महान लोकनायक, अर्थनायक, सच्चे पथ प्रदर्शक एवं विश्व बंन्धूत्व के प्रतीक थे। उनमें अलौकिक साहस, अविचल दृढ़ता गम्भीरता, अद्भुत सहनशिलता दुरदर्शिता, विस्तृत दृष्टिकोण गुण विद्यमान थे। इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चौंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवशीं क्षत्रिय कुल के महाराजा बल्लभसेन के घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में आज से 5133 वर्ष पुर्व हुआ था।
युग पुरुष महाराजा अग्रसेन ने तत्कालीन एक तन्त्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया, उन्होने पुनः वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागु कर राज्य की पुनर्गठन में कृषी-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकाश के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया। उन्होने अमीर-गरीब तथा उंच-नीच के भेदभाव को समाप्त कर सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये। महाराजा अग्रसेन ने एक रुपया और एक ईंट के आदर्श द्वारा जहाँ एक और अपने राज्य को बेकारी बेरोजगारी-निर्धनता जैसे अभिशापों से मुक्त कर वहाँ सदाचार एवं भाईचारे की गहरी नींव रखी। महाराजा अग्रसेन इसलिए पूजनीय नहीं है कि वह अग्रवाल जाति के जनक थे वरन इसलिए पूजनीय है कि उन्होंने समय की मांग को देखते हुए तात्कालीन डांवाडोल परिस्थितियों में अहिंसा एवं समाजवाद के आधार पर एक सुदृढ़ गणतन्त्र की ठोस शुरुआत की जिस पर अग्रवालों के साथ-साथ पुरा राष्ट्र एवं विश्व गर्व करता है, समाजवाद, लोकतन्त्र एवं विश्व बन्धूत्व का इससे बढ़िया उदाहरण पुरी दुनिया के इतिहास में कहीं देखने सुनने को नही मिलेगा।
अग्रवाल समाज भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का केन्द्र बिन्दू रहा है। विश्व में न जाने कितनी सभ्यताएं और सस्कृंतियां पनपी और काल के गाल में समा गई, किन्तु अग्रवाल समाज आज भी बड़े ही गर्व के साथ अपनी दान-धर्म परोपकार की परम्पराओं के साथ-साथ ईमानदारी और कर्मठता के कारण साहित्य, शिक्षा, धर्म, ज्ञान-विज्ञान, राजनिति, उद्योग कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो इस समाज के योगदान से महिमान्वित न हुवा हो, सभी धर्मो को अपना समाज मानते हुए अपनी श्रद्धा और सम्मान के अलावा अपने ठोस योगदान के साथ हर समय तैयार रहता है। लाला लाजपतराय, जमनालाल बजाज, दानवीर भामाशाह, वैश्य शिरोमणि महात्मा गाँधी, भाई हनुमानजी प्रसाद पौद्दार, डॉ.रघुवीर, जयदयाल गोंइन्का, राममनोहर लोहिया, सर गंगाराम आदि विभूति इसी समाज की ही देन है। वर्तमान में फोर्ब्स पत्रिका न्यूयार्क अमेरिका ने संसार के सबसे धनी व्यक्तियों की सुची जारी की उसमें भी अग्रवाल समाज के श्री लक्ष्मीनिवास मित्तल को प्रथम स्थान मिला है। इसके अलावा इसी समाज के सुनील मित्तल (ऐयरटेल भारती समूह), नवीन जिन्दल , राहुल बजाज, सुभाष गोयल, नरोतम सेक्सरिया आदि भी इसी कड़ी में अपने-अपने उद्योग क्षेत्रों में राष्ट्र के नवनिर्माण में अपना योगदान देते हुए बुलन्दियो के झण्डे गाड़े हुए हैं। हमें हमारे समाज और हमारे पूर्वजो पर गर्व है।
अग्रवाल का अर्थ है आगे रहने वाला, सबका नेतृत्व करने वाला जो कि हमारे पूर्वजों ने किया, किन्तु वर्तमान में आधुनिकता और पाश्चात्य की चकाचौध, स्वार्थपरक नीति, व्यस्त जीवन प्रणाली में हम कुछ गुमराह से हो रहे हैं, सोच का दायरा अपने तक सिकुड़ कर सिमित रह गया है, सबको साथ लेकर चलने की सदासयता विलुप्त सी हो रही है। आवश्यकता से अधिक कमाए गए धन के घमण्डी धनाढ़य लोग अपने वैभव और समृद्धि का नगां नाच नाचते नजर आते है , शिक्षा के नाम पर सस्कारों का हनन हो रहा हैं, परम्पराएँ समाज से लुप्त होती जा रही हैं, समाज तो समाज परिवार सिकुड़ते जा रहे हैं, महाराजा अग्रसेन की मान्यताओं की धज्जीया उड़ाने में हम सभी में दौड़ लगी हुई है। अग्रवाल समाज का लक्ष्य क्या था और हम आज कहाँ जा रहे है? जरा चिन्तन करें।
आज महाराजा अग्रसेन कि जयंती हैं, अग्रवाल समाज पुरे देश में अपने-अपने स्थानीय स्तर पर अग्रसेन जयंती का आयोजन करता है, इन आयोजनो की भव्यता और विशालता से इन्कार नहीं किया जा सकता, पुरखों कि स्मृति को जीवन्त रखने हेतू जयंतीयों हमारे दायित्व के साथ-साथ एक माध्यम हैं। लेकिन प्रश्न है कि इन जयंतीयों से क्या हम महाराजा अग्रसेन के नियम और उद्देश्यों को पुरा करा पाते हैं, महाराजा अग्रसेन के जीवन उसके आदर्श उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से समाज को कहाँ तक परिचित करा पाते है। मेरी सोच में आज हम महाराजा अग्रसेन के सिद्धान्तों से भटक रहे हैं। यदि हमें महाराजा अग्रसेन के अनुयायी कहलाना है तो, आइये ! हम महाराजा अग्रसेन जयंती पर एक बार पुनः सच्चे मन से उनके आदर्शों पर चलने का संकल्प लें, हम सब एक नयी सामाजिक क्रान्ति को जन्म देने कि तैयारी करें, समाज बन्धूवों में परस्पर घनिष्ठता एवं सहयोग कि भावना बढ़ाते हुए समाज में व्याप्त कुरीतियों व बुराइयों को दूर करने के लिए संगठित होकर कार्य करने और अपनी एकता का परिचय देकर हर समय प्रयत्नशिल रहें, हमारा अग्रवाल समाज नित नवल ज्योत्सना की सुधा से सरोवार हो। यदि हम अपने को अग्रसेन की सन्तान मानते हैं तो हमें भी अपने को प्रमाणित करना पड़ेगा, उनके जीवन चरित्र से प्रेरणा लेकर स्वयं के जीवन को अग्रमय बनाने का संकल्प लेना होगा, यही उस युग पुरुष को सच्ची श्रद्धाजंली होगी और जयंती कि सार्थकता होगी।

राजस्थानी भाषा में शपथ नहीं ली जा सकती


खुद की भाषा नहीँ बची तो भारतीय संस्कृति कैसे बचेगी?-
भास्कर न्यूज
Friday, January 02, 2009 10:39 [IST]
जयपुर. तेरहवीं विधानसभा के पहले सत्र के पहले ही दिन राजस्थानी भाषा का मुद्दा छाया रहा। कुछ सदस्यों ने राजस्थानी भाषा में शपथ लेने की अपनी भावनाओं से सदन को अवगत कराया। विधानसभा के अस्थायी अध्यक्ष को बार बार व्यवस्था देकर सदस्यों को यह बताना पड़ रहा था कि राजस्थानी भाषा आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है इस कारण इसमें शपथ नहीं ली जा सकती।
भाजपा के डॉ.गोपाल कृष्ण जोशी ने विधानसभा कार्य संचालन नियमों का हवाला भी दिया और कहा कि अध्याय दो में सदस्यों के शपथ लेने के बारे में तो लिखा हुआ है लेकिन किस भाषा में लिया जाए इसका उल्लेख नहीं है। अध्यक्षीय व्यवस्था के बाद उन्हें भी हिंदी में शपथ लेनी पड़ी। राजस्थानी में शपथ की मांग भाजपा के अजरुन लाल गर्ग, कसमा मेघवाल, कल्याणसिंह चौहान, बाबूसिंह राठौड़, राजकुमार रिणवा, शंकरसिंह रावत निर्दलीय नानालाल, कांग्रेस के प्रदीपकुमार सिंह, प्रमोदकुमार भाया ने की। राजस्थानी में शपथ लेने की मांग की। उल्लेखनीय है कि सदस्यों को राजस्थानी में शपथ लेने के लिए अखिल भारतीय राजस्थानी भासा मान्यता संघर्ष समिति की ओर से प्रेरित किया गया। समिति के प्रदेश अध्यक्ष (पाटवी) हरिमोहन सारस्वत और प्रदेश महामंत्री डॉ. राजेंद्र बारहठ ने न सिर्फ सभी सदस्यों को नववर्ष की शुभकामनाओं पत्र भेजा अपितु इसके साथ शपथ का राजस्थानी प्रारुप भी भेजा ताकि किसी सदस्य को दिक्कत नहीं आए। पत्र में कन्हैयालाल सेठिया और रामस्वरूप किसान के दोहों का भी उल्लेख किया गया जिसमें मातृ भाषा को अपनाने की प्रेरणा दी गई है।


नोट: सरम आवै जद म्हें खुद नै राजस्थानी कह्‌वु. म्हें फक्त नांव रौ राजस्थानी, सरकार गुमान दरसावै राजस्थान रै इतिहास माथै अर जय जय राजस्थान रा नारा देवै बोट लेवण खातर.कांई आपां राजस्थानी ऎड़ा परवाड़ीयोड़ा हौ, कै आपां आपणी भासा नीं वापर सकौ. अबार रा चुणावां मांय जित्योड़ा MLA जद Assembly मांय राजस्थानी भासा मांय सौगंध लेवण लागा तौ वांनै रोक्या ग्या.कांई राजस्थांन मांय राजस्थानी बोलणी, पाप समझीयौ जावै है.अबार नीं चेत्या तौ घणौ मोड़ौ हु जासी...... चेत मानखा चेत जमानौ चेतण रौ आयौ ..

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