आपणी भासा म आप’रो सुवागत

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अब तक की जारी सूची:

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

चाळो राजस्थानी बांचणो सीखां-६ - शंभु चौधरी

विवेचनाः
आधुनिक राजस्थानी भाषा में हिन्दी के प्रायः रोजाना इस्तेमाल में आने वाले बहुत सारे शब्द समाहित हो चुके हैं जिसे समझने में कोई विशेष परेशानी नहीं होती है। नीचे के चन्द शब्दों की तरफ विशेष तौर पर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। जैसे - भ्रस्टाचार(भ्रष्टाचार), मुगती(मुक्ति), हाल (समाचार), सै’योग (सहयोग), संस्क्रति (संस्कृति), मैनत (मेहनत), वैवस्था (व्यवस्था), विसवास (विश्वास), टेसण(स्टेशन), म्हैं(हम), म्हारी (हमारी), हुयग्यौ(हो गये), सुण’र(सुनकर)।
जबकि राजस्थानी भाषा शब्दों के विशाल भंडार में ऐसे भी शब्द हैं जो हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं से अलग हटकर अपना स्वरूप बनाये हुए है। जैसे -
ओळ्यूं, हिवड़ा, सगळा, कोनी, घणौ, पाछा, कुचां, थारा, घणीं, सुहाली, गफ्फी, बटको, अंवेर, अंगेज’र, ओळखाण आदि-आदि।



राजस्थानी - हिन्दी

बीं रो सै’योग करण री हामळ(हामी) भरी।
उसको सहयोग करने की स्वीकृति दी।


अण्णा हजारे रै सागै आखो देस पगां होयग्यो।
अण्णा हजारे के साथ पूरा देश एक हो गया।


हर हिन्दुस्तानी अण्णा हजारे बणग्यो।
हर हिन्दुस्तानी अण्णा हजारे बन गया।


आज आखो देस भ्रस्टाचार सूं मुगती चायै।
आज पूरा देश भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहता है।


ओळ्यूं आवै, ओळ्यूं आवै।
हाल सुणां जद जलम भोम रो,
हिवड़ा में खुशियां नीं मावै।
हिन्दी में
तेरी याद आती है, तेरी याद आती है।
जन्म भूमि का समाचार जैसे ही सुनता हूँ,
मेरा में दिल खुशियों से झूम उठता है।


राजस्थानी - हिन्दी
सै’योग - सहयोग
हामळ, हामी - स्वीकारना
आखो - पूरा
पगां - एक होना
भ्रस्टाचार - भ्रष्टाचार
मुगती - मुक्ति
ओळ्यूं - याद
आवै - आना
सुणां - सुनना
जलम - जन्म
भोम - भूमि
हिवड़ा - दिल, घड़कन
नीं मावै - झूमना, नाचना

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

चाळो राजस्थानी बांचणो सीखां-५ - शंभु चौधरी


लक्ष्मीनारायण रंगा’र दोहा
लक्ष्मीनारायण रंगा के दोहे

1.
संस्क्रति में घुळर्यों, किसौ कोढियो अंस
घर-घर रावण जनमिया, गांव-गांव में कंस।
हिन्दी में -
संस्कृति में घुल रहा, कैसा कोढ़िया अंस
घर-घर में रावण जन्म लिया, गांव-गांव में कंस।
2.
सदनां मांही चल रया, खुरसी, जूता जंग
जनता पर भी चढरयो, ओ संसदिया रंग।
हिन्दी में -
सदन के अंदर चल रहा, कुर्सी, जूता की लड़ाई
जनता पर भी चढ़ गया, यही संसद का रंग।


रामजीलाल घेड़ेला ‘भारती’ की कविता -
1.
भारत रै लोकतंत्र में
सगळा मौज मनावै।
जिणनै मिलै मौको
लूट-लूट’र खावै ।।


हिन्दी में -
भारतीय लोकतंत्र में
सभी मौज मनाते।
जिनको अवसर मिला
वही लूट-लूट के खाते।।


2.
इण लाकेतंत्र मांय
केइयां रा सूरज छिपै नीं।
रात दिन करै मैनत
उण रा चुल्हा जगै नीं।।


हिन्दी में -
इस लोकतंत्र में
कितनों का सूरज डूबता ही नहीं।
रात दिन मेहनत करे
उनके घर चुल्हा जले नहीं।।


दौलतराम टोडासरा की कविता -
1. दान
मुनीम जी रो
के लागै पल्लैऊं
दे देवै दान
सेठजी रै गल्लैऊं।


2. कीं
बीं में कोनी कीं
जको कैवै कीं
करै कीं?


हिन्दी में -
1. दान

मुनीम जी का
क्या जाता पल्ले से
दे देतें हैं दान
सेठजी के गल्ले से


2. कुछ
उनमें कुछ नहीं
कहता है कुछ
करता है कुछ?


राजस्थानी - हिन्दी
संस्क्रति - संस्कृति
सगळा - सभी
मैनत - मेहनत
केइयां - कितनों
के लागै - क्या जाता
पल्लैऊं - पल्ले से
गल्लैऊं - गल्ले से
बीं में - उनमें
कोनी - नहीं
कीं - कुछ

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

चाळो राजस्थानी बांचणो सीखां-४ - शंभु चौधरी

राघव अर निधि रौ रिजल्ट निकळ्यौ।
राघव और निधि का रिजल्ट निकल गया।


निधि फस्ट डिविजन पास होगी।
निधि प्रथम श्रेणी से पास हो गई


राघव थर्ड डिविजन होयौ।
राघव तीसरी श्रेणी से पास हुआ।


राघव फूट-फूट कै रोबो लाग्यौ।
राघव फूट-फूट कर रोने लगा।


यादां घणी है, बातां घणी है।
यादें बहुत सी है, बातें भी बहुत है।


म्हैं भावां रै अर यादां रै समन्दर मांय हिबोला खावता।
हम विचारों और यादों के समन्दर में डूबकी लगते हुए।


अखबार छोटो हुवै चायै मोटो।
अखबार छोटा हो या बड़ा।


बाबूजी आपरै टाबरिये सागै मेळो देखण गया।
पिता जी अपने बच्चों के साथ मेला देखने गये।


सारा टाबर सबड़ड़-सबड़ड़ खीर सूंतण लागग्या।
सभी बच्चे खीर को गटकने लगे।


रुपिया री वैवस्था कोनी व्हेइ सकी।
रुपया की व्यवस्था नहीं हो सकी।


ब्याज माथै रुपियां री वैवस्था करावौ।
ब्याज दे दूंगा पर रुपया की व्यवस्था करवा दो।


अगाला दिन बुला’र रुपिया दे’र मदद कीदी।
अगले दिन बुलाकर रुपया देकर मदद किया।


पापाजी घरै कोनी। औ मोबाइल घरै ई रैवे है।
पापा जी घर पर नहीं हैं। यह मोबाइल घर पर ही रहता है।


घणौ जरूरी काम है।
बहुत जरूरी काम था।


वां रो विसवास कोनी राख सक्यौ।
उनका विश्वास नहीं रख सके।


राजस्थानी - हिन्दी
सबड़ड़-सबड़ड़ - चाट-चाट कर खाना
वैवस्था - व्यवस्था
बुला’र - बुलाकर
दे’र - देकर
कोनी - नहीं
घणौ - बहुत
विसवास - विश्वास

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

चाळो राजस्थानी बांचणो सीखां -३ - शंभु चौधरी

पाठ - 3
रेल मुगलसराय टेसण पर रूकी। - रेलगाड़ी मुगलसराय स्टेशन पर रूकी।
पारवती खड़की सूं झांकी। - पार्वती खिड़की से झांकने लगी।
घणी भीड़ छी। - बहुत भीड़ थी।
टाबर भूखा छा। - बच्चा भूखा था।
दूध लेबा टेसण पे उतरी। - दूध लेने स्टेशन पर उतरी।
बै दिन तो बे ही दिन हा। - वे दिन तो कुछ ओर दिन थे।
गंगासागर सूं पाछा हावड़ा आवतां म्हानै खासी रात पड़गी। - गांगासागर से लौटते वक्त हमें बहुत रात हो गई।
कोलकाता रै बाजार में हर तरै रौ सामान मिलै। - कोलकाता के बाजार में हर तरह का सामान मिलता है।
इंया पल्लौ झाड़ियां काम कोनी चालै। - इस तरह पल्ला झाड़ने से काम नहीं चलेगा।



यहाँ एक जगह ‘री’ एवं दूसरी जगह ’र का प्रयोग हुआ है।
यहां इसका प्रयोग इस प्रकार समझें -

म्हैं म्हारी अम्मी री बात सुण’र चुप हुयग्यौ।
हम हमारी अम्मा की बात सुन कर चुप हो गये।

यहाँ दो जगह ‘री’ का प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ अलग-अलग निकलता है
यहां इसका प्रयोग इस प्रकार समझें -

आठ-बरसां री उडीक पाछै केस री आखरी तारीख आई।
आठ वर्षों से इंतजार करने के बाद केस की आखिरी तारीख्र आई।


राजस्थानी - हिन्दी
टेसण - स्टेशन
खड़की - खिड़की
घणी - बहुत
छी - थी
लेबा - लेने
म्हैं - हम
म्हारी - हमारी
र, रा, री - क, का, की
बै - वे
बे ही - कुछ ओर
हा - थे
सूं - से
पाछा - वापस
आवतां - लोटना
म्हानै - हमें
खासी - बहुत
पड़गी - हो गई
रै - के
तरै - तरह
रौ - का
इंया - इस तरह से
पल्लौ - पल्ला, साड़ी का पल्ला
झाड़ियां - झाड़ना
कोनी - नहीं
चालै - चलेगा

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

राजस्थानी कहावतां-१


राजस्थानी कहावतां -


ऊपर थाली नीचै थाली मांय परोसी डेढ सुहाली।
बांटण आली तेरा जणीं, हांते थोड़ी हाले घणीं।।

दो थाली के बीच में खाने की बहुत सारी सुहाली (मैदे या आंटा से बना हुआ खाने का सामान जो छोटी रोटी नूमा होती है जिसे घी या तेल में तल कर बनाया जाता है) जिसे 13 औरतें खाने वाले को बांटती (भोजन परोसना) है परन्तु खाने वाला ललचाई आंखों से उनको देखते ही रह जाते हैं तब उनमें से एक जन कहता है कि 13 जनी सुहाली लेकर केवल हिल रही है पर देती नहीं है।

अर्थात केवल दिखावा है। आडम्बर अधिक है।


आंधे री गफ्फी बोळै रो बटको।
राम छुटावै तो छुटे, नहीं माथों ई पटको।।

आंघे और बहरे आदमी से पिंड छुड़ाना कठिन कार्य है।


आगम चौमासै लूंकड़ी, जै नहीं खोदे गेह।
तो निहचै ही जांणज्यों, नहीं बरसैलो मेह।।

वर्षाकाल के पूर्व लोमड़ी यदि अपनी ‘घुरी’ नहीं खोदे तो निश्चय जानिये कि इस बार वर्षा नहीं होने वाली है।


इस्या ही थे अर इस्या ही थारा सग्गा।
वां के सर टोपी नै, थाकै झग्गा।

संबंधी आपस में एक-दूसरे की इज्जत नहीं उझालते। इसी बात को गांव वाले व्यंग्य करते हुए कहतें हैं कि यदि आप उनकी उतारोगे तो वह भी अपकी इज्जत उतार देगें दोनों के पूरे वस्त्र नहीं है - ‘‘ एक के सर पर टोपी नहीं तो दूसरे ने अंगा नहीं पहना हुआ है।’’


आज म्हारी मंगणी, काल म्हारो ब्याव।
टूट गयी अंगड़ी, रह गया ब्याव।।

जल्दीबाजी में अति उत्साहित हो कर जो कार्य किया जाता है उसमें कोई न कोई बाधा आनी ही है।


कुचां बिना री कामणी, मूंछां बिना जवान।
ऐ तीनूं फीका लगै, बिना सुपारी पान।।

स्त्री के स्तनों का उभार न हो, मर्दों को मूंछें और पान में सूपारी न होने से उसकी सौंदर्यता नहीं रहती।


दियो-लियो आडो आवै।

दिया-लिया या अपना व्यवहार ही समय पर काम आता है।


धण जाय जिण रो ईमान जाए।

जिसका धन चला जाता है उसका ईमान भी चला जाता है।


धन-धन माता राबड़ी जाड़ हालै नै जाबड़ी।

धन आने के बाद आदमी का शरीर हिलना बन्द कर देता है। इसी बात को व्यंग्य करते हुए लिखा गया है कि राबड़ी खाते वक्त दांत और जबड़ा को को कष्ट नहीं करना पड़ता है।


ठाकर गया’र ठग रह्या, रह्या मुलक रा चोर।
बै ठुकराण्यां मर गई, नहीं जणती ठाकर ओर।।

ठाकुर चले गये ठग रह गये, अब देश में चोरों का वास है।
अब वैसी जननी मर चुकी, जो राजपुतों को जन्म देती थी।।
कहावत का तात्पर्य समाज की वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य करना है। जिसमें देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की तरफ इशारा करते हुए कहा जा सकता है कि अब देश के लिए कोई कार्य नहीं करता। सब के सब ठग हो चुके हैं जो देश को चारों तरफ को लूटने में लगे हैं।


टुकरा दे-दे बछड़ा पाळ्या,
सींग हुया जद मारण आया।

मां-बाप बच्चों को बहुत दुलार से पालते हैं परन्तु जब वह बच्चा बड़ा हो जाता है तो मां-बाप को सबसे पहले उसी बच्चे की लात खानी पड़ती है।


जावै तो बरजुं नहीं, रैवै तो आ ठोड़।
हंसां नै सरवर घणा, सरवर हंस करोड़।।

जाने वाले को रोकना नहीं चाहिए, वैसे ही ठहरने वाले को जगह देनी चाहिए। जिस प्रकार हंस को बहुत से सरोवर मिलते हैं वैसे ही सरोवर को भी करोड़ों हंस मिल जाते हैं। अर्थात किसी को भी घमण्ड नहीं करना चाहिए।


जात मनायां पगै पड़ै, कुजात मनायां सिर चढ़ै।

समझदार व्यक्ति को समझाने से वह अपनी गलती को स्वीकार कर लेता है जबकि मूर्ख व्यक्ति लड़ पड़ता है।


राजस्थानी शब्दों का हिन्दी अर्थ

आंधे री गफ्फी - अंधे से हाथ, आली - क्रिया स्त्री., आडो - समय पर, इस्या - ऐसे ही, कामणी - स्त्री, कुचां - स्तन, कुजात - मूर्ख या ना समझ, गेह - घर, घणीं, घणा - अधिक, बहुत, जाड़ - दांत, जाबड़ी - जबड़ा, जांणज्यों - जानिये, जणीं - स्त्री, जिण रो - जिसका, जात - समझदार, परोसी - बांटना, बोळै रो बटको - बहरे को समझाना, बरजुं - रोकना मेह - वर्षा, मांय - बीच में, मुलक - देश, डेढ - बहुत सारी, ठोड़ - जगह, तेरा - 13, थे - आप, थारा - आपका, थाकै - आपके, निहचै - निश्चय, लूंकड़ी - लोमड़ी, वां के - उनके, सुहाली - मैदे या आंटा से बना हुआ खाने का सामान जो छोटी रोटी नूमा होती है जिसे घी या तेल में तल कर बनाया जाता है। हांते -देना, हाले - हिलना।


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प्रकाशकः राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति जनहित प्रन्यास
द्वारा- बैद बोरड एण्ड कम्पनी
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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

चाळो राजस्थानी बांचणो सीखां- २ - शंभु चौधरी

पाठ - 2


राजस्थानी-
लोक साहित्य संसार रा सगळा देसां कै सगळै मानखै री सुभाविक चेतना, जीवन रा बिस्वास अर संस्कृति रौ साचै प्रतीक हुया करै। साहित्य दो भागां मै बांटीज्यो है। पैलो लोक साहित्य अर दूजी सिस्ट साहित्य। लोक साहित्य आतमा सूं जुड़ियोड़ी विद्या है। आ सिस्ट साहित्य सूं जूनी है। समाज री भांत-भंतीली जड़ां अर बिगसाव री डाळ्यां रौ चितराम लोक साहित्य मै मिलै जको आपां रै सिस्ट साहित्य मै मिलणी मुसकल। - उजास ग्रन्थ माला से


हिन्दी -
लोक साहित्य संसार के समस्त देशों के समस्त मानव जाति का स्वाभविक चेतना, जीवन का विश्वास और संस्कृति का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है। साहित्य को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला लोक साहित्य एवं दूसरा आम साहित्य। लोक साहित्य आत्मा से जूड़ी हुई विद्या है। वहीं आम साहित्य का सृजन किया जाता है। समाज से जूड़ी कई प्रकार की जीवन शैली के विकास की शाखाओं का फैलाव जो लोक साहित्य में देखने को मिलता है वैसा आम साहित्य में देखना असंभव सा है। - उजास ग्रन्थ माला से


राजस्थानी - हिन्दी
सगळा, सगळै - समस्त
मानखै, मिनख - मानव
सुभाविक - स्वाभविक
बिस्वास - विश्वास
साचै - सच्चा
बांटीज्यो - बांटा जा सकता
पैलो - पहला
दूजी - दूसरा
सिस्ट - आम
आतमा - आत्मा
जुड़ियोड़ी - जूड़ी हुई
सूं जूनी - सृजन किया
भांत-भंतीली - कई प्रकार की
बिगसाव - विकास
डाळ्यां - शाखाओं
चितराम - फैलाव
मुसकल - असंभव सा, मुश्किल


राजस्थानी -
लोक साहित्य संसार रा सगळा देसां कै सगळै मानखै री सुभाविक चेतना, जीवन रा बिस्वास अर संस्कृति रौ साचै प्रतीक हुया करै।
हिन्दी -
लोक साहित्य संसार के समस्त देशों के समस्त मानव जाति का स्वाभविक चेतना, जीवन का विश्वास और संस्कृति का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है।


राजस्थानी -
साहित्य दो भागां मै बांटीज्यो है। पैलो लोक साहित्य अर दूजी सिस्ट साहित्य।
हिन्दी -
साहित्य को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला लोक साहित्य एवं दूसरा आम साहित्य।


राजस्थानी -
लोक साहित्य आतमा सूं जुड़ियोड़ी विद्या है। आ सिस्ट साहित्य सूं जूनी है।
हिन्दी -
लोक साहित्य आत्मा से जूड़ी हुई विद्या है। वहीं आम साहित्य का सृजन किया जाता है।


राजस्थानी -
समाज री भांत-भंतीली जड़ां अर बिगसाव री डाळ्यां रौ चितराम लोक साहित्य मै मिलै जको आपां रै सिस्ट साहित्य मै मिलणी मुसकल।
हिन्दी -
समाज से जूड़ी कई प्रकार की जीवन शैली के विकास की शाखाओं का फैलाव जो लोक साहित्य में देखने को मिलता है वैसा आम साहित्य में देखना असंभव सा है।

चाळो राजस्थानी बांचणो सीखां- १ - शंभु चौधरी

पाठ - 1


राजस्थानी-
किणी भी समाज रै जातीय-चरित्र री खरी-खरी ओळखाण उणरै लोक-साहित्य सूं हुय सकै। उण समाज रा मोल अर मानतावां कांई है? उणरी नैतिक अवधारणावां कांई है? वो समाज कुणसा जीवनदर्शां नैं अंगेज’र चालै है। उणरै जीवण री रीत-भांत कांई है? बो कुण-सी जातीय स्मृतियां नैं अंवेर राखणो चावै है, आद-आद मोकळी बातां री जाणकारी उण समाज रै लोक-साहित्य सूं हुय सकै है। जो समाज जितरो परम्परा-समृद्ध, सांस्कृतिक दीठ सूं जितरो सजग अर जीवन-रस सूं जितरो लबालब है उणरो लोक-साहित्य भी उतरो ही सांवठो, रस अर रंग भीनो हुया करै है। - उजास ग्रन्थ माळा से
हिन्दी-
चलैं राजस्थानी पढ़ना सीखतें हैं।
किसी भी समाज के जातिय-चरित्र की सच्चाई की जानकारी उस समाज के लोक-साहित्य से हो सकती है। उस समाज की हैसियत और मान्यता क्या है? उनकी नैतिक अवधारणा कैसी है? वह समाज किनके जीवन-दर्शनों का अनुशरण करता है। उनके जीवन की रीत-भेष-भूषा कैसी है? वह कौन सी जातीय स्मृतियों को बचाकर रखना चाहता है, आदि-आदि बहुत सी बातों की जानकारी उनके समाज के लोक-साहित्य से हो सकती है। जो समाज जितना परम्परा-समृद्ध सांस्कृतिक विचारधाराओं से जितना सजग और जीवन-रस से जितना लबालब है उनका लोक-साहित्य भी उतना ही समृद्ध, रस और रंग से भरा हुआ करता है। - उजास ग्रन्थ माळा से

राजस्थानी- हिन्दी
खरी-खरी - किसी बात को हूबहू बताना
ओळखाण - जानकारी होना
उण, उणरै, उणरी - उन, उनके, उनकी
मानतावां - मान्यता
कांई - क्या
कुणसा - कौन सा
कुण-सी - कौन सी
अंगेज’र - अनुशरण करना
चालै- चलना
रीत-भांत - रीत-रिवाज
अंवेर - बचाना, संभालना
राखणो - रखना
चावै - चाहना
आद-आद - आदि-आदि
मोकळी - बहुत सी
बातां - बातें
दीठ - रूप में
जितरो - जितना
सांवठो - समृद्ध, मजबूत पक्ष
भीनो - भींगा हुआ


राजस्थानी-
किणी भी समाज रै जातीय-चरित्र री खरी-खरी ओळखाण उणरै लोक-साहित्य सूं हुय सकै।
हिन्दी-
किसी भी समाज के जातीय चरित्र की सच्चाई की जानकारी उस समाज के लोक-साहित्य से हो सकता है।


राजस्थानी-
उण समाज रा मोल अर मानतावां कांई है? उणरी नैतिक अवधारणावां कांई है?
हिन्दी-
उस समाज की क्या हैसियत और मान्यता क्या है? उनकी नैतिक अवधारणा कैसी है?


राजस्थानी-
वो समाज कुणसा जीवनदर्शां नैं अंगेज’र चालै है।
हिन्दी-
वह समाज किनके जीवन दर्शन का अनुशरण करता है।


राजस्थानी-
उणरै जीवण री रीत-भांत कांई है?
हिन्दी-
उनके जीवन की रीत-भेष-भूषा कैसी है?


राजस्थानी-
बो कुण-सी जातीय स्मृतियां नैं अंवेर राखणो चावै है।
हिन्दी-
वह कौन सी जातीय स्मृतियों को बचाकर रखना चाहता है।


राजस्थानी-
आद-आद मोकळी बातां री जाणकारी उण समाज रै लोक-साहित्य सूं हुय सकै है।
हिन्दी-
आदि-आदि बहुत सी बातों की जानकारी उनके समाज के लोक-साहित्य से हो सकती है।


राजस्थानी-
जो समाज जितरो परम्परा-समृद्ध, सांस्कृतिक दीठ सूं जितरो सजग अर जीवन-रस सूं जितरो लबालब है।
हिन्दी-
जो समाज जितना परम्परा-समृद्ध सांसकृतिक विचारधाराओं से जितना सजग और जीवन-रस से जितना लबालब है।


राजस्थानी-
उणरो लोक साहित्य भी उतरो ही सांवठोए रस अर रंग भीनो हुया करै है।
हिन्दी-
उनका लोक साहित्य भी उतना ही समृद्ध, रस और रंग से भरा हुआ, हुआ करता है।

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

कोलकाता में बने राजस्थान भवन –केशव भट्टड़

  • बंगाली समाज के साथ राजस्थानी मध्यमवर्ग का सांस्कृतिक संवाद जरुरी
  • मारवाड़ी संस्थाएं अपनी कला-संस्कृति का करे बंगाल में प्रदर्शन


    कोलकाता 23 अप्रेल कोलकाता राजस्थान संस्कृतिक विकास परिषद के तत्वावधान में शनिवार को राजस्थान सूचना केंद्र में “बंगाल के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में मध्यम वर्ग की भूमिका – विशेष सन्दर्भ: मारवाड़ी समाज” विषयक संगोष्ठी का आयोजन कथाकार-संपादक दुर्गा डागा की अध्यक्षता में किया गया अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में दुर्गा डागा ने कहा कि यह बहुत ही गंभीर विषय है मारवाड़ी मध्यमवर्ग प्रतिभा और उर्जा से भरा हुआ है उसके पास सपने हैं राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरूकता के लिए सामाजिक संस्थाएं पहल करे कार्यक्रम के लिए समाज के लोगों को लेकर परामर्शमंडल बनाये और समाज में जागरूकता लाने का कार्य करे बंगाल के संस्कृतिकर्मियों से मेलजोल और संवाद हो सरकार के काम-काज पर सजगता से ध्यान रखें और संस्थाओं के माध्यम से अपनी आवाज़ उठायें मध्यम वर्ग के लड़के-लड़कियां राजनीति में रुचि लेकर आगे आये साहित्य पढ़ने से व्यक्तित्व का विकास होता है और जड़ों को समझने में आसानी सामजिक कार्यक्रमों में धर्म का विकल्प देने का प्रयास होना चाहिए मुख्य वक्ता पत्रकार विशम्भर नेवर ने कहा कि सारा मारवाड़ी समाज धार्मिक कार्यक्रमों में लगा है-राजनीति कौन करे? राजनीति में गठबंधन बंगाल से शुरू हुआ समाज में जो सांस्कृतिक रिसाव हो रहा है उसे रोकना जरुरी है वाम-सरकार का फायदा मारवाड़ियों ने उठाया अमुक राजनीतिक पार्टी अमुक को टिकट दे या तमुक को , इसका निर्णय वो राजनीतिक पार्टी ही करेगी मारवाड़ियों में सांगठनिक शक्ति होगी, तो पार्टियां उनके पीछे आएँगी पत्रकार राजीव हर्ष ने कहा कि मध्यमवर्ग समाज के आयाम निर्धारित करता है वैल्यू की स्थापना मध्यम वर्ग करता है महंगाई और अप-संस्कृति से यही वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होता है मध्यम वर्ग अपनी नैतिकता के दायरे में बंधा रहता है मध्यम वर्ग की रोज़गार परिस्थितियां उसे अन्य गतिविधयों में शामिल होने की अनुमति नहीं देती विज्ञान, कला संकाय आदि क्षेत्रों में हम कहाँ है? मारवाड़ी को डरपोक और पैसा कमाने वाले की संज्ञा दे दी गयी जागरण, भगवत कथा, धार्मिकता पर जितना ध्यान देते है उसमे से समय निकालकर अन्य चीजों पर भी ध्यान दे- राजस्थानी साहित्य-संस्कृति-कला की प्रदर्शनिया हो कथाकार विजय शर्मा ने कहा कि विश्लेषण न कर कार्य योजना बनाये बंगाली से बात करनी है तो उनके सिनेमा, साहित्य, संस्कृति में उसके समकक्ष खड़ा होना होगा हमारे कार्यों में पारदर्शिता होनी चाहिए मारवाड़ियों की तमाम खूबियां बयां करने वाली कहानियां खत्म हो रही है और हर्षद-हरिदास की कहानियां हावी हो रही है पत्रकार सीताराम अग्रवाल ने कहा कि मध्यम वर्ग समाज के उच्च और निम्न वर्ग के बीच सेतु का कार्य करता है मारवाड़ी मध्यम वर्ग अपनी ताक़त को पहचान ही नहीं पाया संगठन का ककहरा यहाँ के लोगो को मारवाड़ियों ने सिखाया, वे प्रदर्शन और दिखावे से बचे रहे सामाजिक संगठनो में कार्यकर्ताओं को सम्मान देना होगा, तभी एक शक्ति के रूप में यह वर्ग उभरेगा क़ानूनी सलाहकार ध्रुवकुमार जालन ने कहा कि हमने अपनी ताक़त नहीं पहचानी फिजूलखर्ची रोकनी होगी और उर्जा राजनीतिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में लगानी होगी डॉ.कडेल ने कहा कि मारवाड़ी लेखक-पत्रकारों ने मारवाड़ी समाज की समस्याओं पर लिखा ही नहीं नेतृत्व देने वाले खुद सामने आते है या समाज उन्हें ढूंढ निकलता है मारवाड़ी समाज का मध्यम वर्ग आत्मसम्मान विस्मृत कर चूका है तो इसकी क्या भूमिका रह जाति है सञ्चालन करते हुए केशव भट्टड़ ने कहा कि बंगाल में बंगाली मध्यमवर्ग जागरूक और संगठित है उनका नेतृत्व मध्यमवर्ग से आता है बुद्धदेव भट्टाचार्य हो, या ममता बनर्जी, ये सभी निम्न-मध्यवित्त वर्ग से आतें है, लेकिन मारवाड़ियों में इसका अभाव है पहले और वर्तमान में यह बड़ा अंतर आया है कोलकाता-राजस्थान की पृष्ठभूमि पर सत्यजित राय की फिल्म ‘सोनार किल्ला’ को उदाहरण रूप में रखते हुए उन्होंने कहा कि फ़िल्म में राय बताते हैं कि बंगाल के बंगाली और मारवाड़ी मध्यमवर्ग के बीच संवाद नहीं है, जो होना चाहिए कोलकाता में राजस्थान भवन की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि मीरा को सामने रखकर मारवाड़ी मध्यमवर्ग बंगाली मध्यमवर्ग के साथ सांस्कृतिक संवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान करें राजस्थानियों ने बंग प्रदेश में अपनी नागरिक पहचान नहीं बनायीं वे राजनीति में सीधे हस्तक्षेप से बचते हैं पर्यटकों के रूप में बंगाली समुदाय राजस्थान को प्राथमिकता देता है, लेकिन राजस्थानियों से उसका परिचय सांस्कृतिक रूप से नहीं हुआ यह विडम्बना है अतिथियों और श्रोताओं का पुष्पों से स्वागत संयुक्त संयोजक गोपाल दास भैया ने और आभार संयुक्त संयोजक बुलाकी दास पुरोहित ने किया


    केशव भट्टड़
    संयोजक, 9330919201
    कोलकाता-राजस्थान संस्कृतिक विकास परिषद
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