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शनिवार, 21 नवंबर 2009

अपनों से नहीं, अपनों के लिए लड़े!

लेखक:- ओमप्रकाश अग्रवाल


Agrasen Maharaj bavadiकॉमनवेल्थ खेलों के समय विदेश से आने वाले मेहमानों को दिखाने के लिए अनेक स्थान निश्चित किये हैं। केवल बौ( धर्म के अनुयायियों को दिखाने के लिए दो दर्जन से अधिक स्थान चिन्हित किये है। इन स्थानों में अग्रवाल समाज का कोई भी स्थान नहीं है, क्योंकि हमने कभी अपने इतिहास की तरफ अग्रवाल समाज ने कोई चेष्टा ही नहीं की! मेरा मानना है कि अग्रवाल समाज के इतिहास अन्य समुदायों से कम नहीं है।
क्नॉट प्लेस के निकट हेली रोड पर स्थित अग्रसेन बावड़ी और महरौली के निकट सारबन ग्राम में प्राप्त एक शिलालेख अग्रवाल समाज की धरोहर है। महाराजा अग्रसेन बावड़ी और शिलालेख हमारे जनहितैशी कार्यों की हजारों वर्ष पुरानी परम्परा के साक्ष्य हैं। शिलालेख में लिखा है कि अग्रोदक; अग्रोहा का प्राचीन नामद्ध के वणिकों द्वारा जनहित में किये गये कार्यों के लिए यह प्रशस्ति लेख है।
Agrasen maharaj sheelalekh1911 में नई दिल्ली के निर्माण के समय अग्रवाल समाज बहुत ही समृद्ध था! 1857 की क्रांति में अकेले लाला रामदास गुड़वाले ने बहादुरशाह जफ़्फर को 2 करोड़ रूपये भेंट में दिये थे और परिणाम में उन्हें फाँसी पर लटकना पड़ा।
मेरा लिखने का अर्थ यह है कि आज जहाँ नई दिल्ली बसी हुई है, अग्रवाल समाज की बहुत सम्पदा थी। उदाहरण के लिए शहीद भगतसिंह मार्ग; गोल मार्किट को जाने वाला रास्ता पर अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर है। इसका अर्थ यह है कि अग्रसेन बावड़ी के समीप अग्रवाल समाज के बहुत परिवार थे। चाणक्यपुरी के मालचा गांव में अग्रवालों के 15 परिवार थे। इन परिवारों को ब्रिटिश सरकार ने बिना कोई मुआवजा दिये यहां से बेघर कर दिया था। भारत साधु समाज का कार्यालय उस समय के अग्रवाल पंचायती घर पर ही बना हुआ है। मौर्य शेरेटन होटल के सामने अग्रवाल प्याउ के अवशेष आज भी देखने को मिल जायेंगे।
अग्रवाल समाज द्वारा दिल्ली में आज 50 से अध्कि सार्वजनिक ;भवन व धर्मशालाएँ बनाई हुई हैं। 12 कॉलेज, 2 दर्जन से अधिक विद्यालय अनेक अस्पताल संचालित है।
साथ ही यह भी कटुसत्य है कि अग्रवाल समाज हमेशा अपनों से लड़ा है, अपनों के लिए नहीं! हिन्दी साहित्य के शलाका पुरूष विष्णु प्रभाकर बीमार होते हैं तो दिल्ली सरकार उनका खर्च वहन करती है और इसी तरह अग्रशिरोमणी बनारसी दास गुप्ता बीमार होते हैं तो हरियाणा सरकार उनका खर्च उठाती है। करोड़ों रूपये दान करने वाला समाज का एक चेहरा यह भी है। क्योंकि समाज के पास अपनों के लिए अन्यथा है ही नहीं।
अग्रसेन बावड़ी समीप जब बहुमंजिलें भवन का निर्माण हो रहा था, उस समय कमला नगर वाले स्व. लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, एडवोकेट ने हाईकोर्ट में एक मुकदमा दायर कर उसे रोकने का प्रयास किया था। लेकिन यह भी सत्य है कि अग्रवाल समाज के किसी बड़े नेता ने उनका साथ नहीं दिया।
यह सर्वविदित है कि दिल्ली से फाजिल्का जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग का नाम महाराजा अग्रसेन राष्ट्रीय राजमार्ग किया हुआ है। लेकिन इस मार्ग पर बन रहे पहला मैट्रो स्टेशन का नाम महाराजा अग्रसेन पर नहीं है। क्योंकि गौरव और रत्न की उपाधी से विभूषित और शिलालेखों पर अपने नाम लिखवाने वाले समाज के मठाधीशों के पास समय का अभाव है।
समाज के शुभचिंतकों से मेरा इस लेख के माध्यम से यही आग्रह है कि हम अपने उज्जवल इतिहास को जानने व उसे प्रकाशित करने के लिए सार्थक कदम उठायें।


सम्पर्क: युवा अग्रवाल, 8233 रानी झाँसी मार्ग, दिल्ली-6
मो.: 9310814014

हिंदी के लब्ध प्रस्थित साहित्यकार प्रोफ़ेसर कल्याण मल लोढ़ा नहीं रहे..

साहित्य जगत में शोक की लहर
लेखक: प्रकाश चंडालिया
लेखक कलकत्ता से प्रकाशित दैनिक राष्ट्रीय महानगर के संपादक हैं।



Prof.Kalyanmal Lodhaहिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार व जोधपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर कल्याण मल लोढ़ा का २१ नवम्बर की रात लगभग २.३० बजे जयपुर में निधन हो गया. वे ८९ वर्ष के थे। प्रोफ़ेसर लोढ़ा पिछले कुछ वर्षों से अस्वस्थ चल रहे थे।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने १९४३ में इलाहबाद विश्वविद्यालय, प्रयाग से हिंदी में एम ए किया। सन १९४५ में आप पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता आकर बस गए। कलकत्ता के जयपुरिया कॉलेज में आप हिंदी के विभाध्यक्ष नियुक्त हुए। १९४८ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंशकालिक प्राध्यापक के रूप में काम शुरू किया, फिर १९५३ में पूर्णकालिक प्राध्यापक नियुक्त हुए। १९६० में आप रीडर बने और १९७४ में प्रोफ़ेसर। १९६० से ८० तक आप कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे। इस लम्बे कार्यकाल में आपने हिंदी की विकास यात्रा में नए आयाम स्थापित किये। हिंदी के सुविख्यात विद्वान तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर लोढ़ा के शिष्य रहे। सन १९७९ से ८० तक आप राजस्थान के जोधपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किये गए। एक वर्ष के पश्चात आप पुनः कलकत्ता आ गए फिर सन १९८६ में आपने कलकत्ता विश्वविद्याला से अवकाश ग्रहण किया।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने ५० से अधिक शोध निबंध लिखे।
आपने दर्जनों पुस्तकों की रचना की, जिनमे प्रमुख हैं- वाग्मिता, वाग्पथ, इतस्ततः, प्रसाद- सृष्टी व दृष्टी , वागविभा, वाग्द्वार, वाक्सिद्धि, वाकतत्व आदि। इनमे वाक्द्वार वह पुस्तक है, जिसमे हिंदी के स्वनामधन्य आठ साहित्यकारों - तुलसी, सूरदास, कबीर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदानों का सुचिंतित तरीके से मूल्याङ्कन किया गया है। प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने प्रज्ञा चक्षु सूरदास , बालमुकुन्द गुप्त-पुनर्मूल्यांकन, भक्ति तत्त्व, मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ का संपादन भी किया।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा को उनके साहित्यिक अवदानों के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संसथान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमेरिकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया। आप अपनी ओजपूर्ण वाक्शैली के लिए देश भर जाने जाते थे। विविध सम्मेलनों में आपने अपना ओजश्वी वक्तव्य देकर हिंदी का मान बढाया। आप के के बिरला फाउन्डेसन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद सरीखी देश की सुप्रसिद्ध संस्थावों से जुड़े हुए थे।
प्रोफ़ेसर लोढ़ा के निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर है। उनका अंतिम संस्कार रविवार २२ नवम्बर को जयपुर में किया जा रहा है।

परिचय: प्रो.कल्याणमल लोढ़ा जी का


आज यहाँ हम एक ऐसे युगपुरुश के विषय में बात करेगें जिन्होंने न सिर्फ धर्मयुग तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में अनेक निबंध लिखे, बाद में वे पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हुए। वग्मिता, इतस्ततः तथा काकपथ - ये तीन संग्रह तो प्रसिद्ध हैं। अन्य भी चर्चित हैं। जी हाँ! इनका नाम है - प्रो.कल्याणमल जी लोढ़ा। इनके निबंधों में वैविध्य है, साथ ही कलकत्ता पर लिखे गए इनके निबंध नई जानकारियों से भरे हुए हैं।लोढ़ाजी कलकत्ता और बंगभूमि के प्रेमी है। अतः जब वे उसके इतिहास या उसकी र्दुगति को दिखाते हैं नगर प्रदूषण वगैरह, तो उनमें एक कसक, एक दर्द उभरता है। जब ये कलकत्ता के गौरव का वर्णन करते हैं, महिमा बखानते हैं, हिन्दी के विकास और पत्रकारिता के अभ्युदय की चर्चा करते हैं, तो उन्हें गौरव सा अनुभव होता है। वास्तव में इनके लेखों में कोलकाता महानगर का चित्र तात्विक हो उठता हैं। बंगला साहित्य में भी कोलकाता का इतना सुन्दर वर्णन देखने को नहीं मिलता।


विद्यार्थी जीवनः अपने विद्यार्थी जीवन में प्रो. लोढ़ाजी एक प्रतिभाशाली छात्र रहे। यद्यपि उनके ज्येष्ठ और कनिष्ठ भ्राताओं ने अपने लिए वकालत व न्याय का क्षेत्र चुना और उन दोनों ने इन क्षेत्रों में अपूर्व सफलता और यश अर्जित किया, तथापि प्रो. लोढ़ा ने अपने लिये शिक्षा और साहित्य की सास्वत अराधना का जीवन चुना, कोलकाता के विश्वविद्यालय में उच्चतम पद प्राप्त किया एवं राजस्थान विश्वविद्यालय के भी कुलपति मनोनीत हुए। व्यवसाय के क्षेत्र में कोलकाता में प्रवासी राजस्थानियों का वर्चस्व तो सर्वविदित है, किन्तु शिक्षा साहित्य और शोध के क्षेत्र में प्रो. लोढ़ा ने स्वयं जो कीर्तिमान बनाया है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। प्रो. लोढ़ा अपने लेखों में संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत, बंगला, अंग्रेजी सभी के विमर्शात्मक वाङ्मय से उद्वरण देकर अपने कथ्य को पुष्ट करते हैं। उनका कोई भी ग्रन्थ लें, वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वाक् को प्रथम पद बनाकर जिनका शीर्षक दिया गया है, ऐसे उनकेग्रन्थों की लम्बी श्रृंखला हैं- वाक्पथ, वाक्तत्व, वाग्विभव, वाग्दोह, वाक्सिद्धि- उन्हें देख लें। वाक् के उल्लेख से ग्रन्थों को अभिधान देकर उन्होंने अपनी पहचान को ही सार्थकता दी हैं। यह बात सभी जानते हैं कि वे स्फीत और प्रखर वग्मिता के, वाकशक्ति के, अभिव्यक्ति कौशल के, संप्रेषण रक्षता के धनी हैं। किन्तु समाज और संस्कृति के बड़े केनवस पर हिन्दी के आचार्य, विभागाध्यक्षा और कुलपति होने के साथ-साथ बल्कि उससे भी अधिक सुर्खियों में प्रो. लोढ़ा की छवि एक सुधी समीक्षक और पहचान एक साहित्य चिन्तक, और सहृदय सास्वत साधक के रूप में है। यह बात किसी भी प्रकार से अतिशयोक्ति नहीं लगती कि प्रो. लोढ़ा विश्वविद्यालीय हिन्दी जगत के गिने-चुने हुए प्रपितामह कोटि के वयोवृद्ध और वरिष्ठ आचार्यों में अग्रगण्य हैं तथा साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में प्रतीक पुरुष के तुल्य बन चुके हैं। बंगाल में हिन्दी के पण्डित और भाषिक महत्व का सिक्का जमाना आसान नहीं। यह भूमि विद्वानों और बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं की भूमि रही है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि मारवाड़ी समाज ने इस भूमि पर मेहनत की, संघर्ष किया, परन्तु जो सम्मान इन्हें, बंगाल की धरती में मिलना चाहिए था वह आज तक नहीं मिला। इस शहर में समाज के जितने उद्योगपति हैं यदि उसके अनुपात में एक प्रतिशत भी इनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान रहा होता, तो समय-समय पर इनको जो हीन भावना से ग्रसित होना पड़ता है वह शायद नहीं होता। समाज द्वारा जितना सेवाकार्य इस शहर में किया गया है उतना कार्य देश के किसी भी शहर में दिखाई नहीं पड़ता। इसी दौर में इस अंधकार भरे वातावरण के बीच एक आशा की किरण के रूप में प्रो. कल्याणमलजी लोढ़ा का पदार्पण एवं कोलकाता विश्वविद्यालय में इनकी सेवा ने आशा की एक ज्योत जला दी।
आपका जन्म 28 सितम्बर 1921 को जोधपुर में हुआ। आपके पिता श्री चन्दमलजी लोढ़ा तत्कालीन जोधपुर राज्य में उच्च अधिकारी थे। इनकी माता का नाम सूरज कंवर था जो एक मध्यवित्त परिवार की गृहिणी महिला थी। आपका परिवार जैन धर्म का अनुयायी रहा है। साथ ही हिन्दू धार्मिक पर्व जैसे नवरात्री, जन्माष्टमी, शिवरात्री का भी पालन करतें हैं।
उच्च मध्यवित्त परिवार में आपका पालन-पोषण बड़े ही सम्मानपूर्वक हुआ। नैतिक मूल्यों में आस्था थी। परिवार में प्रातःकाल उठकर सभी को प्रणाम करना पड़ता, पूजा करनी पड़ती थी।
आप जसवन्त कॉलेज के विद्यार्थी थे। आचार्य सोमनाथ गुप्त एवं अन्य अध्यापकों का उन्हें काफी स्नेह प्राप्त रहा। कॉलेज के समय से ही आपके आलेख प्रकाशित होने लगे।
22 जुलाई 1945 को आप कलकत्ता आ गए। आप तीन भाई है। इनके बड़े भाई उच्च न्यायालय मे उच्च न्यायाधीश एवं विचारपति रह चुक हैं एवं इनके अनुज भी न्यायालय में न्यायपति रह चुके हैं। इनका परिवार राजकीय सेवा में रहते हुए इनका ध्यान शिक्षा जगत की ओर ही रहा।
आप बताते हैं कि जोधपुर से मेरा बहुत लगाव हैं क्योंकि वह मेरी जन्मभूमि है। बंगाल मेरी कर्म भूमि है, प्रयाग मेरी मानसभूमि है तो जन्मभूमि, कर्मभूमि और मानस भूमि - यही इनके जीवन का त्रिकोण रहा। 1945 में आप कोलकाता स्थित सेठ आनन्दराम जयपुरिया कॉलेज में प्राध्यापक के रूप मे जुड़े, 1948 में आपको कलकत्ता विश्वविद्यालय में अल्पकालिक अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली। सन् 1953 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग को मान्यता मिली। एक प्रकार से धीरे-धीरे कोलकाता महानगर के प्रायः सभी कॉलेजों में हिन्दी विभाग की व्यवस्था कराने में आपका सक्रिय योगदान रहा।

कोलकाता महानगर सरस्वती का मंदिरः
आप बताते हैं कि बंगाली समाज में अपनी भाषा के प्रति जो लगाव हैं, लगन है वह या वो महाराष्ट्र में है या दक्षिण में। आपको बंगाल में बंकिमचन्द्र, रवीन्द्र एवं शरदचन्द्र की रचनावलियां मिलेंगी। यहाँ के लोग आपस में इन रचनाओं पर विचारो का आदान-प्रदान करते कहीं भी देखे जा सकते हैं।
वर्ष 2003 में आपको भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार-2003 से सम्मानित किया गया। श्री लोढ़ाजी को गुरुवर आचार्य लोढ़ा जी के नाम से सभी जानते हैं । कोलकाता महानगर में हिन्दी की जितनी सेवा आपने की वह आज एक शोध का विषय बन गया है। जिन लोगों ने आचार्य लोढ़ा के वक्तव्यों को सुना है, जिनको इनकी कक्षा में पढ़ने का सौभाग्य मिला है, वे सभी जानते हैं कि श्री लोढ़ाजी के जीवन में कविताओं का बहुत बड़ा स्थान रहा है।



पतझड़ के अभिशाप, तुम वसन्त के श्रृंगार हो ।
जीवन के सत्य और असत्य दोनों के प्रतिरूप ।
मैं तुम्हारी ही कहानी सुनना चाहता हूँ ।
पतझड़ की झकझोर आँधियों में क्या तुम्हारा हृदय निराश नहीं हुआ ।
एक के बाद एक अपनी लालसाओं को मिटते देख-क्या तुम हताश नहीं हुए ।


- शम्भु चौधरी

[script code: prof.kalyanmal Lodha]

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

श्री हरीश भादानी जी नहीं रहे़......

लेखक: शम्भु चौधरी, कोलकाता



Harish Bhadaniकोलकाता:(दिनांक 2 अक्टूबर 2009): अभी-अभी समाचार मिला है कि राजस्थान के 'बच्चन' कहे जाने वाले प्रख्यात जनकवि हरीश भादानी का आज तड़के चार बजे बीकानेर स्थित आवास पर निधन हो गया। वे 76 वर्ष के थे। हरीश भादानी अपने पीछे तीन पुत्रियां और एक पुत्र छोड़ गए हैं। वे पिछले कुछ दिनों से अस्‍वस्‍थ चल रहे थे। शुक्रवार को उनकी देह अंतिम दर्शन के लिए उनके आवास पर रखी जाएगी। शनिवार को उनकी इच्छा के अनुरूप अंतिम संस्कार के स्थान पर उनके पार्थिव शरीर को सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए सौंपा जाएगा। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे भादानी ने हिन्दी के साथ राजस्थानी भाषा को भी संवारने का कार्य किया। राजस्‍थान के वि‍गत चालीस सालों के प्रत्‍येक जन आंदोलन में उन्‍होंने सक्रि‍य रूप से हि‍स्‍सा लि‍या था। राजस्‍थानी और हिंदी में उनकी हजारों कवि‍ताएं हैं। ये कवि‍ताएं दो दर्जन से ज्‍यादा काव्‍य संकलनों में फैली हुई हैं। मजदूर और कि‍सानों के जीवन से लेकर प्रकृति‍ और वेदों की ऋचाओं पर आधारि‍त आधुनि‍क कवि‍ता की प्रगति‍शील धारा के नि‍र्माण में उनकी महत्‍वपूर्ण भूमि‍का थी। इसके अलावा हरीशजी ने राजस्‍थानी लोकगीतों की धुनों पर आधारि‍त उनके सैंकड़ों जनगीत लि‍खें हैं जो मजदूर आंदोलन का कंठहार बन चुके हैं।


आज जैसे ही राजस्थान से श्री सत्यनारायण सोनी जी का फोन मिला, मैं स्तब्ध रह गया। हाथों-हाथ मैंने श्री अरुण माहेश्वरी से बात की, तो उन्होंने बताया कि आज सुबह ही उनका शरीर शांत हो गया। पिछले सप्ताह ही श्री भादानी जी अपने नाती (अरुण जी के लड़के) के विवाह में शरीक होने के लिये कोलकाता आये थे। उस समय आप स्वस्थ्य से काफी कमजोर दिख रहे थे परन्तु नाती के विवाह की खुशी और सरला के प्रेम ने उसे कोलकाता खिंच लाया था। श्री अरुण जी ने बताया कि पिछले 26 सितम्बर को ही वे राजस्थान लोट गये थे।


श्री हरीश भादानी का जन्म 11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में हुआ। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादन भी किया। कोलकात्ता से प्रकाशित मार्कसवादी पत्रिका 'कलम' (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें प्रकाशित हो चुकि है। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से "मीरा" प्रियदर्शिनी अकादमी", परिवार अकादमी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से "राहुल" । के.के.बिड़ला फाउंडेशन से "बिहारी" सम्मान से सम्मानीत किया जा चुका है। इनके व्यक्तित्व ने बीकानेर नगर के होली के हुड़दंग में एक नई दिशा देने का प्रयास किया। खेड़ा की अश्लील गीतों के स्थान पर भादानीजी ने नगाड़े पर ग्रामीण वेशभूषा में सजकर समाज को बदलने वाले गीत गाने की परम्परा कायम की, उससे बीकानेर के समाज में बहुत अच्छा प्रभाव परिलक्षित हुआ था। उनका सरल और निश्चल व्यक्तित्व बीकानेर वासियों को बहुत पसन्द आता है। भादानीजी में अहंकार बिल्कुल नहीं है। इनके व्यक्तित्व में कोई छल छद्म या चतुराई नहीं है।

हरीश भादानी ने अपने परिवारिक जीवन में भी इसी प्रकार की जीवन दृष्टि रखी है और ऐसा लगता है कि उनको यह संस्कार अपने पिता श्री बेवा महाराज से प्राप्त हुए हैं। उनके गले का सुरीलापन भी उनके पिता की ही देन समझी जानी चाहिए। लेकिन उनके पिताश्री के सन्यास लेने से भादानीजी अपने बचपन से ही काफी असन्तुष्ट लगते हैं और इस आक्रोश और असंतोष के फलस्वरूप उनका कोमल हृदय गीतकार कवि बना। छबीली घाटी में उनका भी विशाल भवन था। वह सदैव भक्ति संगीत और हिंदी साहित्य के विद्वानों से अटा रहता था। हरीश भादानी प्रारंभ में रोमांटिक कवि हुआ करते थे। और उनकी कविताओं का प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर एकसा पड़ता था। भादानी के प्रारंभिक जीवन में राजनीति का भी दखल रहा है। लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया हरीश भादानीजी एक मूर्धन्य चिंतक और प्रसिद्ध कवि के रूप में प्रकट होते गए। हरीश भादानीजी को अभी तक एक उजली नजर की सुई 1967-68 एवं सन्नाटे के शिलाखण्ड पर 1983-84 पर सुधीन्द्र काव्य पुरस्कार राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, द्वारा सुधीन्द्र पुरस्कार एक अकेला सूरज खेले पर मीरा पुरस्कार, पितृकल्प पर बिहारी सम्मान महाराष्ट्र, मुम्बई से ही प्रियदर्शन अकादमी से पुरस्कृत, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर से विशिष्ठ साहित्यकार के रूप में सम्मानित किए जा चुके हैं।


11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में आपका जन्म हुआ। आपकी प्रथमिक शिक्षा हिन्दी-महाजनी-संस्कृत घर में ही हुई। आपका जीवन संघर्षमय रहा । सड़क से जेल तक कि कई यात्राओं में आपको काफी उतार-चढ़ाव नजदीक से देखने को अवसर मिला । रायवादियों-समाजवादियों के बीच आपने सारा जीवन गुजार दिया। आपने कोलकाता में भी काफी समय गुजारा। आपकी पुत्री श्रीमती सरला माहेश्वरी ‘माकपा’ की तरफ से दो बार राज्यसभा की सांसद भी रह चुकी है। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादक भी रहे । कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका ‘कलम’ (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी प्रोढ़शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें राजस्थानी में। राजस्थानी भाषा को आठवीं सूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता। ‘सयुजा सखाया’ प्रकाशित। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से ‘मीरा’ प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी(महाराष्ट्र), पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से ‘राहुल’, । ‘एक उजली नजर की सुई(उदयपुर), ‘एक अकेला सूरज खेले’(उदयपुर), ‘विशिष्ठ साहित्यकार’(उदयपुर), ‘पितृकल्प’ के.के.बिड़ला फाउंडेशन से ‘बिहारी’ सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है । आपके निधन के समाचार से राजस्थानी-हिन्दी साहित्य जगत को गहरा आघात शायद ही कोई इस महान व्यक्तित्व की जगह ले पाये। हम ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं एवं उनकी आत्मा को शांति प्रदान हेतु ईश्वर से प्रथना करते हैं।

हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकें:




अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959 बीकानेर।
सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता।
हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963।
एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर)
सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966
नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981
सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर1982।
एक अकेला सूरज खेले (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1983 (दूसरा संस्करण-कलासनप्रकाशन, बीकानेर 2005)
रोटी नाम सत है (जनगीत) कलम प्रकाशन, कलकत्ता 1982।
सड़कवासी राम (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1985।
आज की आंख का सिलसिला (कविताएं) कविता प्रकाशन,1985।
विस्मय के अंशी है (ईशोपनिषद व संस्कृत कविताओं का गीत रूपान्तर) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1988ं
साथ चलें हम (काव्यनाटक) गाड़ोदिया प्रकाशन, बीकानेर 1992।
पितृकल्प (लम्बी कविता) वैभव प्रकाशन, दिल्ली 1991 (दूसरा संस्करण-कलासन प्रकाशन, बीकानेर 2005)
सयुजा सखाया (ईशोपनिषद, असवामीय सूत्र, अथर्वद, वनदेवी खंड की कविताओं का गीत रूपान्तर मदनलाल साह एजूकेशन सोसायटी, कलकत्ता 1998।
मैं मेरा अष्टावक्र (लम्बी कविता) कलासान प्रकाशन बीकानेर 1999
क्यों करें प्रार्थना (कविताएं) कवि प्रकाशन, बीकानेर 2006
आड़ी तानें-सीधी तानें (चयनित गीत) कवि प्रकाशन बीकानेर 2006
अखिर जिज्ञासा (गद्य) भारत ग्रन्थ निकेतन, बीकानेर 2007

राजस्थानी में प्रकाशित पुस्तकें:


बाथां में भूगोळ (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1984
खण-खण उकळलया हूणिया (होरठा) जोधपुर ज.ले.स।
खोल किवाड़ा हूणिया, सिरजण हारा हूणिया (होरठा) राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति जयपुर।
तीड़ोराव (नाटक) राजस्थानी भाषा-साहित्य संस्कृति अकादमी, बीकानेर पहला संस्करण 1990 दूसरा 1998।
जिण हाथां आ रेत रचीजै (कविताएं) अंशु प्रकाशन, बीकानेर।

इनकी चार कविताऎं:-


1.
बोलैनीं हेमाणी.....
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थेंघड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो? [‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]


2.
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!


3.
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
पसर गया है / घेर शहर को
भरमों का संगमूसा / तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
जड़े सुराखो तो जानूँ! / फेंक गया है
बरफ छतों से
कोई मूरख मौसम
पहले अपने ही आंगन से
आग उठाओ तो जानूँ!
चैराहों पर
प्रश्न-चिन्ह सी
खड़ी भीड़ को
अर्थ भरी आवाज लगाकर
दिशा दिखाओ तो जानूँ!
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
[‘एक उजली नजर की सुई’ से]


4.
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां

झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले

दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
[रोटी नाम सत है]


संपर्क:
पताः छबीली घाटी, बीकानेर फोनः 09413312930

रविवार, 2 अगस्त 2009

‘‘अन्तर्जातीय विवाह - कुछ अनुभव’’


नई पीढ़ी अपनी बात मनाने से पहले सोचे


- नन्दलाल रुँगटा


[टिप्पणी: पिछले दिनों अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन ने‘अन्तर्जातीय विवाह - कुछ अनुभव’ विषयक एक संगोष्ठी का कोलकाता में आयोजन किया। गोष्ठी के विषय की घोषणा के साथ ही समाज में एक सुगबुगाहट आरम्भ हो गयी। समर्थन के स्वर के साथ-साथ इस तरह के विषयों पर सम्मेलन द्वारा गोष्ठी आयोजित करने पर दबी जुबां में विरोध के स्वर भी सुनने को मिले।
गत साधारण सभा में भी सम्मेलन के कुछ सदस्यों ने इस सेमिनार पर अपना विरोध दर्ज कराते हुए कहा कि इस तरह के सेमिनार सम्मेलन के वैनर तल्ले करने से अन्तर्जातीय विवाह को बढ़ावा मिलेगा। एक सदस्य ने कहा कि वे 'अन्तर्जातीय विवाह' का समर्थन तो करते हैं परन्तु 'अन्तरधर्मिय विवाह' को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर यह लिखा जा सकता है कि समाज की मानसिकता इस बात को अभी भी खुले तौर पर स्वीकार नहीं कर पाई है। सम्मेलन सभापति 'साधरण सभा' में बचाव की मुद्रा में देखे गये। - संपादक]


Seminar On Intercast Mariage


श्रीमती उमा झुनझुनवाला माइक पर अपने अनुभव रखती हुई, नीचे सभागार में विवाहित जोड़े संदीप बजाज एवं रीता बजाज (यादव)। मंच पर दायें से राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हरिप्रसाद कानोड़िया, सम्मेलन सभापति श्री नन्दलाल रुँगटा, पूर्व अध्यक्ष श्री सीताराम शर्मा, कोषाध्यक्ष आत्माराम सोंथलिया।


कोलकाताः दिनांक 11 जुलाई कोलकाता स्थित ‘‘दी कोलकाता ट्रामवेज कम्पनी’’ के सभागार में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन द्वारा आयोजित एक सेमीनार
‘‘अन्तर्जातीय विवाह कुछ अनुभव’’
विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी की अध्यक्षता सम्मेलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नन्दलाल रुँगटा ने की। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि अन्तर्जातीय विवाह एक सामयिक विषय है। सम्मेलन हमेशा से सम-सामयिक विषयों पर ऐसी संगोष्ठियाँ आयोजित करते आया है। जहाँ वक्ता अपने निजी विचार व्यक्त करते हैं और समाज उस पर चिन्तन करता है। आपने आगे कहा कि सम्मेलन अन्तर्जातीय विवाह विषय पर अपनी कोई राय नहीं रखता, यहाँ विचार रखने वालों के विचार उनके खुद के विचार माने जायेंगे। अन्तर्जातीय विवाह के संदर्भ में सम्मेलन की कोई राय अभी तक स्पष्ट रूप से नहीं बन पाई है, परन्तु समाज के युवाओं में इसके बढ़ते प्रचलन के प्रति समाज के बच्चों को इसके दूरगामी परिणाम के प्रति सजग करना भी हमारा कर्तव्य बन जाता है। समाज के अभिभावक नई पीढ़ी के समक्ष अपनी बात किस प्रकार से रखें या नई पीढ़ी अपनी बात मनाने से पहले अभिभावकों के समक्ष किस प्रकार का आचरण करे यह बात समाज को सोचने के लिये मजबूर कर रही है। इस मौके पर श्रीमती उमा झुनझुनवाला ने अपने अनुभव बयान करते हुए युवाओं को संदेश दिया कि उन्हें ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे उनके परिवारवालों को कोई ठेस पहुँचे। प्रो. अजहर ने इस बात पर खुशी जताई कि मारवाड़ी समाज में ऐसे विषयों पर संगोष्ठी आयोजित की जाती है। एक अन्तर्जातीय विवाहित जोड़े संदीप बजाज एवं रीता बजाज (यादव) ने भी अपने खुशहाल वैवाहिक जीवन का जिक्र करते हुए कहा कि किसी को ठेस पहुँचाकर किया गया कार्य सफल नहीं होता। जो माँ-बाप हमें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं वे हमारा भला सोचते हैं। इसलिए ऐसे मामलों में उनकी रजामंदी काफी अहमियत रखती है। हमें उनको विश्वास में लेकर ही कोई अहम कदम उठाना चाहिए। इस मौके पर श्री जयगोविन्द इन्दौरिया, एडवोकेट तारा व्यास ने अन्तर्जातीय विवाह से उत्पन्न हो रही विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला। उपाध्यक्ष हरिप्रसाद कानोड़िया, कोषाध्यक्ष आत्माराम सोंथलिया आदि मंचस्थ थे। धन्यवाद ज्ञापन संयोजक कैलाशपति तोदी तथा संचालन संयुक्त राष्ट्रीय महामंत्री संजय हरलालका ने किया। सह संयोजक दिलीप गोयनका ने आगत अतिथियों का स्वागत किया।
इस अवसर पर सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष श्री सीताराम शर्मा ने बताया कि सम्मेलन का काम सामाजिक बुराईयों पर लोगों की सोच में वैचारिक परिवर्तन लाना है। हम मन परिवर्तन कर सामाजिक बुराइयों पर अंकुश लगाने के पक्षधर हैं। उन्होंने कहा कि सिर्फ मारवाड़ी समाज ही एक ऐसा समाज है जहाँ सम्मेलन जैसी संस्था है जो स्वयं में सुधार का प्रयत्न करती है। मुझे 2002 का वाकया स्मरण हो आया जब हैदराबाद में आन्ध्र प्रदेश मारवाड़ी महिला सम्मेलन द्वारा ‘क्या अन्तर्जातीय विवाह उचित है’ विषयक एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। सम्मेलन के तत्कालीन महामंत्री के रूप में समापन वक्तव्य के लिये मुझे आमंत्रित किया गया था। करीबन एक घण्टे से अधिक विभिन्न महिला वक्ताओं को, जिनमें बुजुर्ग, वयस्क, युवतियाँ-विवाहित एवं अविवाहित सभी शामिल थी को सुना। विषय की समझ, वैचारिक परिपक्वता एवं स्पष्टवादिता ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया। जब मेरे बोलने की बारी आयी तो मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि ‘‘विषय के पक्ष या विपक्ष पर मैं नहीं बोलना चाहता, मुझे तो इस बात पर सन्तोष एवं गर्व है कि मारवाड़ी समाज की महिलायें जो कुछ दशक पहले तक पर्दे में रहती थी, शिक्षा का अभाव था, वह मारवाड़ी महिला समाज आज मारवाड़ी सम्मेलन के बैनर के तले एकत्रित होकर इन विषयों पर खुलकर चर्चा कर रही हैं।’’
Seminar On Intercast Mariageमारवाड़ी सम्मेलन एक वैचारिक संस्था है जो विचार परिवर्तन के माध्यम से समाज सुधार एवं समरसता का कार्य करती है। समाज के सम्मुख जो भी प्रश्न, समस्याएँ, कुरीतियाँ प्रस्तुत होती हैं उन पर सम्मेलन विचार कर समाज को उनसे आगाह करता है। विभिन्न समय पर विभिन्न सामाजिक प्रश्नों पर सम्मेलन ने कार्य किया है चाहे वह पर्दा प्रथा हो या मृत भोज, विधवा विवाह हो या तलाक, दहेज या दिखावा, समरसता या राजनीति में भागीदारी, टूटते परिवार या बुजुर्गों के प्रति सम्मान में कमी- समय के साथ-साथ प्रश्न बदलते गये हैं।
उक्त गोष्ठी में चार अन्तर्जातीय विवाहित जोड़ों को अपने अनुभव बाँटने के लिए आमंत्रित किया गया था। दो जोड़े पधारे एवं दो जोड़े अंतिम समय पर अनिर्णय की स्थिति में नहीं आ सके। एक जोड़े ने बड़ी अच्छी बात कही कि ‘‘वे बिना अपने माता-पिता के आशीर्वाद के विवाह नहीं करना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने सात वर्ष तक इन्तजार किया। अब वे खुश हैं और उनके परिवार भी।’’
यह एक सच्चाई है कि सभी माता-पिता अपने लड़के-लड़की का विवाह अपनी जाति में ही करना चाहते हैं, यह उनकी प्राथमिकता भी है, एक सामाजिक मान्यता भी। अन्तर्जातीय विवाह अभी भी एक अपवाद के रूप में है। विभिन्न समाजों में पिछले वर्षों में इसमें एक बढ़ोत्तरी हुयी है, अपना मारवाड़ी समाज भी इससे अछूता नहीं है। आज के सामाजिक जीवन में अन्तर्जातीय विवाह एक यथार्थ के रूप में उभर कर आ रहा है। सम्मेलन कभी भी किसी भी विषय पर चर्चा करने से नहीं कतराया है। समाज के समक्ष जो भी परिस्थितियाँ हैं, उनसे आँख मूँद लेना कूपमण्डूकता होगी। सच्चाई का सामना करते हुए उस पर विवेचना कर समाज को सही दिशा प्रदान करना सम्मेलन का कर्तव्य बनता है। किसी विषय पर बातचीत या मुक्त चर्चा करना न तो उसका समर्थन है न ही उसका विरोध।

[Script Code: Marwari Samaj vs Intercast Mariage]

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

मारवाड़ी समाज की बदलती तस्वीर -शम्भु चौधरी


मारवाड़ी समाज की बदलती तस्वीर के बारे में आज हम यहाँ चर्चा करेंगे। आप सभी को याद होगा कि जैमनी कौशिक बरुआजी ने कोलकाता में लगभग दो-तीन दशक पूर्व कई सीरिज में एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया था-‘‘मैं मारवाड़ी समाज को प्यार करता हूँ’’ इस पुस्तक का कोई अस्तित्व नहीं रहा, कारण कि समाज के कुछ चुने हुए एवं संपन्न परिवारों की स्तुति के अलाव उस पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे समाज अपने पास बचा कर रख पाता। इससे पूर्व उड़ीसा के पं.भैरवलाल नन्दवाना, पत्रकार ने लगभग 60 साल पहले एक पुस्तक लिखी थी- ‘‘उड़ीसा और मारवाड़ी समाज’’ जिसमें समाज के सभी वर्गों को जोड़ने का प्रयास किया गया था। इस पुस्तक में लिखा है ‘‘उड़ीसा में मारवाड़ी समाज के जागृति के आधार - श्री सीताराम सेकसरिया और श्री बसन्तलाल मुरारका’’ एक बार तो मैं भी चौंक गया, समाज के इन मनीषियों का उड़ीसा से क्या लेना-देना, परन्तु जब इतिहास बोलता है तो उसे स्वीकार कर लेना पड़ता है। पिछले दिनों हमने ‘वागर्थ’ में श्रीमती कुसुम खेमानी द्वारा लिखा संस्मरण ‘भागीरथ कानोड़िया’ पर लेख पढ़ा। तो लगता है कि मारवाड़ी समाज ने जो कार्य किये उसमें राष्ट्रीयता की झलक तो देखने को मिलती ही है समाज की तत्काल जरुरतों को भी पूरा करने के लिये कई संस्थाओं का जन्म हुआ था, परन्तु आज समाज सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में लगा है। युग का यह परिवर्तन डॉ.डी.के.टकनेत की पुस्तक ‘‘मारवाड़ी समाज’’ में भी देखने को मिलता है। जबकि एक समय स्व.राधाकृष्ण नेवटिया के द्वारा लिखी, संकलित पुस्तक ‘‘राजनीतिक क्षेत्र में मारवाड़ी समाज की आहुतियां’’ इस काल के समय लिखी बातों में समाज की सोच दर्शाती हैं। इन पुस्तकों में जो तस्वीर मारवाड़ी समाज की झलकती है उनके द्वारा किये कार्यों के अनुपात में आज के कार्यों में काफी ह्नास देखने को मिल रहा है। कितना गौरवशाली हमारा समाज था जिसकी तस्वीर आज हमें खोजनी पड़ रही है, उनके किये कार्यों के संस्मरणों को पढ़ने से मन रोमांचित हो उठता है और कहाँ आज का समाज है जो अपने धन का प्रदर्शन करने की होड़ में लगा है। लोग खुद के किये कार्यों के प्रचार में लगे हैं। समाज के कुछ अच्छे लोग जो आज भी अपने धन को जनसेवा के कार्य में लगा रहे हैं उसमंे काफी कमी आई है, जबकि पहले की अपेक्षा आज समाज के पास धन की कोई कमी नहीं, समाज के पास कार्य करने के संसाधन भी बढ़े हैं। बल्कि समाजसेवा के नाम पर दुकानदारी करने वाले की भीड़ ने उनके धन का गलत इस्तेमाल कर उनका विश्वास खो दिया है। पिछले दो दशकों में कोई भी ऐसी एक संस्था सामने नहीं आई जो निःस्वार्थ भाव से जनसेवा का कार्य कर रही हो। समाज की कुछ संस्थायें तो पॉकिट संस्था बन कर रह र्गइं, जिनमें सिर्फ धन की ऊपज जारी है, साथ ही समाज में कई ऐसी संस्थाएं भी हैं जो धन के अभाव में अपना दम तोड़ने के कगार पर हैं। समाज में आई इस नैतिक मूल्यों में गिरावट के लिये हम खुद को ही दोषी मानते हैं।
दो दशक पूर्व एक लेख ने मुझे काफी प्रभावित किया था।। ‘समाज विकास’ में प्रकाशित डॉ.कमल किशोर गोयनका का वह लेख - ‘‘एक से अनेक होकर लौटा’’ आज जब हम समाज के कार्यक्रमों में जाते हैं तो खुद को अलग-थलग पाते हैं। आप और हम नित्य नये कार्यक्रम करते हैं परन्तु इन कार्यक्रमों में समाज सेवा या समरसता की कोई झलक देखने को नहीं मिलती, समाचार पत्र वाले हमारे कार्यक्रमों की खिल्ली उड़ाते नजर आते हैं, हम हैं कि खुद की फोटो समाचार पत्रों में देखकर फूले नहीं समाते। रोजाना औसतन पूरे देश में करोड़ रुपये से भी अधिक की राशि समाज के द्वारा विभिन्न मदों (जनसेवा के कार्यों) में खर्च हो रही है। परन्तु इसके संकलित आंकड़ों के अभाव में समाज के कार्यों का सही तरीके से आंकलन नहीं किया जा सका है। सच तो यह है कि मारवाड़ी समाज ने जितना जनसेवा का कार्य किया है, उसे देख कर यदि यह भी लिख दिया जाय, कि इसकी तुलना में एक हिस्सा कार्य भी मदर टरेसा ने नहीं किया तो कोई चूक नहीं होगी, परन्तु समाज को आजतक कोई नोबल पुरस्कार नहींमिल सका। हर व्यक्ति खुद को स्थापित करने की दौड़ में लगा हुआ है और समाज का धन पानी की तरह बहे जा रहा है।
समाज की इस बदलती तस्वीर के लिये हम किसे दोषी ठहरायें-किसे नहीं? इतना जरूर है कि समाज का एक वर्ग मारवाड़ी समाज की दानशीलता के गलत इस्तेमाल में लगा है। समाज की सही तस्वीर को प्रस्तुत करने के लिए जरूरी है कि समाजसेवा के नाम पर नाटक करने वाले ऐसे तत्त्वों को समाज से अलग-थलग किया जाना चाहिये।[end. Script Code- Marwari]

विनय सरावगी अध्यक्ष निर्वाचित



विनय सरावगी

झारखण्ड प्रा. मा. सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित

Binay Sarawagi


श्री विनय सरावगी झारखण्ड प्रान्तीय मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने अपने प्रतिद्विन्दी को 82 मतों से पराजित किया। श्री विनय सरावगी को 110 एवं श्री धर्मचंद बजाज को 28 मत मिले।
श्री विनय सरावगी सुप्रसिद्ध समाजसेवी, उद्योगपति एवं अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री हनुमान सरावगी के छोटे सुपुत्र हैं।
श्री सरावगी झारखण्ड प्रान्तीय मारवाड़ी सम्मेलन में प्रान्तीय उपाध्यक्ष एवं प्रान्तीय मंत्री के पद पर अपना महत्वपूर्ण योगदान दे चुके हैं।
[Binay Sarawagi, Ranchi]

सोमवार, 29 जून 2009

सोंधी माटी का बिहार - डॉ. शांति जैन



दिशा-दिशा में लोकरंग का तार-तार है
महका-महका, सोंधी माटी का बिहार है।

भारत भू के मानचित्र का, जो धु्रवतारा
वहीं जहाँ पर लोकतंत्र की पहली धारा
अम्बपालिका के नूपुर की गूँज अभी तक
घोल रही कानों में मीठी रसधारा
प्रिय अशोक का स्तंभ बना इक यादगार है।

कहीं गूँजते आल्हा ऊदल के अफसाने
कजरी, झूमर औ फगुआ के मस्त तराने
चौपालों में चैता घाटो की बहार है।

सामाचाको सा मिथिला का खेल अनूठा
छठ मैया के गीतों से गंगातट गूँजा
अंग देश में सती बेहुला की पुकार है।

महावीर के चरणों से पावन वैशाली
तपोपूत है बोधिवृक्ष की डाली डाली
गुरुवाणी का मंत्र हृदय के आर-पार है।

देशरत्न राजेन्द्र से हुआ मस्तक ऊँचा
आज़ादी का मंत्र यहीं गांधी ने फूँका
जय प्रकाश का सपना सबका ऐतवार है।

कुँवर सिंह की कटी बाँह गंगा की थाती
कीर्ति पताका सात जवानों की फहराती
अमर शहीदों की यादों का ये मज़ार है
महका महका, सोंधी माटी का बिहार है।
दिशा-दिशा में लोकरंग का तार-तार है
महका-महका, सोंधी माटी का बिहार है।

भारत भू के मानचित्र का, जो धु्रवतारा
वहीं जहाँ पर लोकतंत्र की पहली धारा
अम्बपालिका के नूपुर की गूँज अभी तक
घोल रही कानों में मीठी रसधारा
प्रिय अशोक का स्तंभ बना इक यादगार है।

कहीं गूँजते आल्हा ऊदल के अफसाने
कजरी, झूमर औ फगुआ के मस्त तराने
चौपालों में चैता घाटो की बहार है।

सामाचाको सा मिथिला का खेल अनूठा
छठ मैया के गीतों से गंगातट गूँजा
अंग देश में सती बेहुला की पुकार है।

महावीर के चरणों से पावन वैशाली
तपोपूत है बोधिवृक्ष की डाली डाली
गुरुवाणी का मंत्र हृदय के आर-पार है।

देशरत्न राजेन्द्र से हुआ मस्तक ऊँचा
आज़ादी का मंत्र यहीं गांधी ने फूँका
जय प्रकाश का सपना सबका ऐतवार है।

कुँवर सिंह की कटी बाँह गंगा की थाती
कीर्ति पताका सात जवानों की फहराती
अमर शहीदों की यादों का ये मज़ार है
महका महका, सोंधी माटी का बिहार है।

समाज का संगठन-सम्मेलन की भूमिका

- प्रो.(डॉ.)विश्वनाथ अग्रवाल-
‘‘संधे शक्ति कलेयुगे’’


लेखक सैंतीस वर्षों तक राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर, बिहार कॉलेज सेवा आयोग के सदस्य (1987-90) तथा नालन्दा खुला विश्वविद्यालय के कुलपति बिहार प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन के महामंत्री (1977-80), उपाध्यक्ष (1980-82) सम्मेलन के मुखपत्र ‘बिहार सम्मेलन’ के अनेक वर्षों तक सम्पादक, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन की समितियों के सदस्य रहे हैं। सम्प्रति अनेक समाज सेवी, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं। सम्पर्क: 703ए, ह्नाईट हाउस अपार्टमेन्ट, बुद्ध मार्ग, पटना-800001 - सम्पादक


संगठन ही समाज की शक्ति का आधार होता है। शक्ति से परिवार और परिवारों के समूह से समुदाय तथा समाज का निर्माण होता है। समाज में रहकर ही व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तथा उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति समाज पर आश्रित होता है। इसलिए यह आवश्यक तथा उचित है कि व्यक्ति समाज में रहे, समाज से सहयोग प्राप्त करे तथा समाज को सहयोग प्रदान करे। व्यक्ति समाजसापेक्ष है क्योंकि वह एक सामाजिक प्राणी है। व्यक्ति और समाज में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है।
समाज में संगठन कैसे हो? परस्पर मिलन, विचारों का आदान- प्रदान, सामूहिकता की भावना, दुःख-सुख में भागीदारी, एक-दूसरे की भावनाओं का आदर, प्रत्येक व्यक्ति का समादर एवं सम्मान, स्वार्थरहित व्यवहार, छल-प्रपंच का तिरस्कार, परस्पर सौहार्द्धपूर्ण सहानुभूति एवं सद्भावना आदि चन्द ऐसे लक्षण हैं जो समाज को एकता के सूत्र में पिरो सकते हैं। समाज के अन्य व्यक्तियों द्वारा किये गये अच्छे कार्यों की सराहना, किसी पर संकट आने पर सहानुभूति जताना तथा संकट से उबारने में सहयोग एवं समर्थन प्रदान करना सभ्य और सुसंस्कारी समाज के परिचायक तत्त्व हैं। तभी समाज में एकता एवं अखंडता आती है।
मारवाड़ी समाज एक प्रबुद्ध समाज है। यह एक गतिशील एवं क्रियाशील समाज है। इस समाज का हर वयस्क व्यक्ति उद्यम तथा परिश्रम द्वारा अपनी आजीविका अर्जित करता है। वह परमुखापेक्षी रहना नहीं चाहता। अपनी बुद्धि और पराक्रम का प्रयोग कर वह जीवन की सुख-सुविधायें जुटाने का उपक्रम करता है। उद्भव तथा विकास के मार्ग पर चलने के यत्न-प्रयत्न करता है। ये बातें अच्छी लगती हैं। किन्तु इस समाज का अभीष्ट मानो धनोपार्जन ही हो गया है। शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, कला, संगीत, क्रीड़ा, मनोरंजन, विज्ञान, आध्यात्म आदि से यह समाज विमुख-सा प्रतीत होता है। किसी समाज का सर्वांगीण विकास तभी माना जाता है जब वह धनोपार्जन के साथ इन क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बनाये। धनपति के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान तथा जीवन की अन्य विधाओं में भी हम शीर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करें, तभी एक विकसित-आधुनिक समाज की श्रेणी में हमारी गणना हो सकेगी। इक्का - दुक्का उपलब्धियां पर्याप्त नहीं मानी जा सकती हैं।
उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिये समाज को संगठित करना आवश्यक प्रतीत होता है। परस्पर संपर्क अर्थात् मिलन बहुत बड़ा कारक बनता है। संपर्क से संवाद, विचारों का आदान-प्रदान और फलस्वरूप सौहार्द्ध, सद्भाव, सहयोग, सेवा और समर्पण का वातावरण निर्मित होता है। आपसी वैमनस्य तिरोहित होता है, जानने-समझने के अवसर उत्पन्न होते हैं तथा सामंजस्य एवं सन्तुलन का भाव जागृत होता है।
शहर हो या कसबा अथवा गाँव - समाज के लोग समय, निर्धारित कर लें कि माह में एक बार सभी लोग साथ मिल बैठेंगे-धनी, मध्यम वर्ग तथा अन्य सभी एक स्थान पर मिलकर बैठेंगे। सुख-दुःख बाँटें, प्रेम एवं आत्मीयता का सम्बन्ध बढ़ायें, सहयोग करें। इसके अतिरिक्त पर्व-त्यौहारों जैसे होली, दशहरा, दीपावली, जन्माष्टमी आदि तथा पारिवारिक एवं सामाजिक समारोहों यथा महापुरुषों की जयंती, स्थानीय समाज के किसी विशिष्ट व्यक्ति की पुण्यतिथि, कोई पुण्यार्थ निर्माण अथवा समर्पण कार्य आदि अवसरों पर मिलने, कुशल-क्षेम बाँटने तथा आनन्द के क्षण भोगने के अवसर उपलब्ध कराये जायें। समाज की बैठकों में व्यक्तिगत/परिवार सम्बन्धी चर्चाओं के अतिरिक्त अन्य विषयों पर परिचर्चा भी की जानी चाहिये।
वातावरण एवं पर्यावरण का प्रदूषण मानवजाति के लिए एक संकटपूर्ण चुनौती बन गया है। हम बैठकों में अपने नगर,कसबे या ग्राम में सामूहिक रूप से इस सम्बन्ध में योगदान कर सकते हैं-वृक्ष लगाना तथा उनकी देखभाल करना एक प्रमुख कार्य हो सकता है। सामूहिक रूप से हम अपने क्षेत्र में स्वच्छता बनाये रखने, विद्यालय, चिकित्सालय, पुस्तकालय, खेलकूद की सुविधायें, साहित्य कला तथा संगीत के लिये संस्थान, छात्रावास, धर्मशाला, विवाह भवन, मन्दिर आदि की स्थापना तथा संचालन में संलग्न होकर एक सुन्दर समाज को साकार कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। बैठकों में राजनीति पर भी परिचर्चा होनी चाहिये-खासकर एक जागरुक मतदाता के रूप में मतदान अवश्य करें। समाज के किसी योग्य,समाजसेवी तथा निष्ठावान व्यक्ति की राजनैतिक

आंचलिक समरसता और मारवाड़ी समाज

- महेश जालान, पटना -


Mahesh Jalan, Patnaपरिचयः श्री महेश जालान बिहार प्रान्तीय मारवाड़ी युवा मंच के संस्थापक अध्यक्ष और अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। अनेक सामाजिक और आध्यात्मिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं और एक प्रखर वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। -संपादक


भारत अनेकताओं में एकता का देश है। विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, जाति और भाषा के लोग यहाँ रहते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कामरूप तक, अलग-अलग बोली, पहनावा खान-पान, रहन-सहन और रस्मों-रिवाज, देश फिर भी एक। यह बहुत बड़ी विशेषता है जो भारत को दुनियाँ के अन्य देशों से अलग और विशिष्ट बनाती है। इस विशेषता को बनाए रखने के लिए सबसे आवश्यक है आंचलिक समरसता। सौभाग्य से मारवाड़ी समाज में आंचलिक समरसता का गुण कूट-कूट कर भरा है।
आंचलिक समरसता का अर्थ है प्रदेश के स्थानीय (मूल) निवासियों से घुल-मिल जाना, उनके सुख-दुःख में भागीदार बनना, उसकी बोली और संस्कृति को अपनाना एवं उनके धर्म का सम्मान करना। राजस्थान की भूमि शौर्य और संघर्ष की जननी है। जिस किसी ने भी भारत को गुलाम बनाकर उस पर शासन करना चाहा, उसे सबसे पहले राजस्थान के राजपूतों ने नाकों चने चबवाए। भारत का इतिहास लगभग सात सौ वर्षों तक राजस्थान के इर्द-गिर्द घूमता रहा। देश की आजादी और विकास में महाराणा प्रताप, राजा हम्मीर, दुर्गादास राठौर, राजा मानसिंह, राणा सांगा, रानी पद्मिनी के योगदान और बलिदान की गाथा आज किसी भारतवासी से छिपी नहीं है। राष्ट्रीय चेतना के संदेशवाहक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सेठ जमनालाल बजाज, गोविन्द दास, डॉ. राम मनोहर लोहिया, हनुमान प्रसादजी पोद्दार, भागीरथ कानोड़िया जैसे नाम और उनका काम कौन नहीं जानता?
लगातार आक्रमणों से खिन्न और अपने प्रदेश की भौगोलिक स्थिति से विवश होकर मारवाड़ी विस्थापित होेने लगे। आजीविका की खोज में मारवाड़ी विभिन्न स्थानों पर फैल गए। दूर-दराज के छोटे-छोटे गाँवों में, पहाड़ी बस्तियों में, बीहड़ों और जंगलों में, जहाँ भी ये गए, उद्यमी और संघर्षशील होने के कारण वहीं पर बस गए। कहते भी हैं कि ‘‘जहाँ न जाए बैलगाड़ी वहाँ जाए मारवाड़ी।’’
प्रवासी मारवाड़ियों की यह सबसे बड़ी विशेषता रही है कि जिस प्रकार चीनी अपनी मिठास को कायम रखते हुए दूध में घुल जाती है उसी प्रकार ये अपनी संस्कृति और संस्कारों का पालन करते हुए जिस प्रदेश में भी बसे, वहाँ के स्थानीय निवासियों की संस्कृति में शामिल हो गए। इतना ही नहीं, उनके सुख-दुःख के साथी बनकर मारवाड़ियों ने लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त किया। लोकोपकार और सांस्कृतिक उदारता की यह प्रवृत्ति न केवल व्यापार की समृद्धि का कारण बनी बल्कि इससे सम्पूर्ण देश की भावनात्मक एकता को भी बल मिला।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के शब्दों में, ‘‘मारवाड़ी भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। वे जिस प्रदेश में बसते हैं, वहाँ की तरक्की के लिए बहुत कुछ करते हैं और साथ ही अपनी मातृभूमि को भी नहीं भूलते। मारवाड़ी अपनी मेहनत और बुद्धि से सम्पन्न होते हुए भी घमण्ड नहीं करते, यह इनकी खूबी है।’’
राजस्थान के विभिन्न इलाकों से विस्थापित हुए बिड़ला, सिंघानिया, बजाज, गाड़ोदिया और कानोड़िया आदि घराने आज भारत के विभिन्न प्रान्तों में अपने उद्योगों एवं व्यवसाय के द्वारा एक ओर जहाँ रोजगार की समस्या को हल करते हुए राष्ट्रीय उत्पादन में अपना योगदान दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर स्थानीय नागरिकों के कल्याण हेतु करोड़ों-अरबों का सेवा कार्य भी कर रहे हैं।
बड़े-बड़े महानगरों में ही नहीं अपितु छोटे-छोटे शहरों, गाँवों और पहाड़ी इलाकों में भी सार्वजनिक स्थान, स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय, अस्पताल, धर्मशाला, प्रशिक्षण केन्द्रों का निर्माण एवं संचालन यह साबित करता है कि मारवाड़ी समाज आज के भोगवादी युग में भी लोकहित की बात सोचता है और परहित के कार्यों में खर्च करता है। देश में जितने भी छोटे-छोटे स्वैच्छिक समाजसेवी संगठन और गैर-सरकारी कल्याणकारी प्रकल्प चल रहे हैं उनमें से अधिकांश या तो मारवाड़ी समाज द्वारा स्थापित हैं या उनमें बहुत बड़ा योगदान इस समाज का है।
मारवाड़ी समाज की इस अनूठी और अन्यत्र दुर्लभ सेवा-भावना का आकलन करते हुए सोशलिस्ट नेता श्रीकृष्णन ने कहा है कि ‘‘मारवाड़ी समाज के लोग अगर वापिस राजस्थान की ओर मुड़ते तो वह मरुभूमि नहीं रहता, राजस्थान की काया-पलट हो जाती, लेकिन ऐसा नहीं है। ये प्रवासी मारवाड़ी जहाँ भी गए वहीं उद्योग-धंधा शुरु किया, वहीं के करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी के साधन बने, जहाँ गए हमेशा वहीं की भलाई और विकास के लिए चिन्ता की, मारवाड़ी समाज की यह विशेषता अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है।’’ भारत की विशेषता है कि यहाँ हर सौ किलोमीटर पर बोली बदलती है। मारवाड़ी समाज के लोग आज विभिन्न ग्रामीण, शहरी और पहाड़ी इलाकों में वहाँ की स्थानीय बोली इस कदर बोलते पाए जाते हैं कि उन्हें स्थानीय निवासियों से अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को प्रवास में रहकर भी यह समाज नहीं भूलता है बिहार की छठ-पूजा, पंजाब की बैसाखी, आसाम के बिहू, तमिल के पोंगल, केरल के ओणम, कर्नाटक के उगाड़ी और महाराष्ट्र के गणपति की खुशी में झूमते मारवाड़ी आंचलिक समरसता के पर्याय कहे जा सकते हैं। ग्रामीण अंचलों में विशेषकर अपने ग्राहकों और कर्मचारियों से स्थानीय बोली में धारा-प्रवाह वात्र्तालाप करते, स्थानीय पर्व-त्यौहारों को उत्साह और श्रद्धापूर्वक मनाते मारवाड़ी भारत की विविधता में रंग भरती कूची हैं।
आज जबकि देश की एकता और अखंडता को अपने ही देशवासियों से खतरा है, ऐसी विकट परिस्थिति में यह अनिवार्य हो जाता है कि अन्य समुदाय भी मारवाड़ी समाज का आंचलिक समरसता का यह गुण अपने आचरण में उतारें ताकि देश को मिल सके सम्पूर्ण एकता का वह कवच जिसपर कोई भी विघटनकारी, अलगाववादी या आतंकवादी तत्त्व प्रहार करने की हिम्मत नहीं कर सके और हम कह सकें कि ‘‘हम सब सुमन एक उपवन के।’’

राजनीति में मारवाड़ी समाज का योगदान

- प्रो. रामपाल अग्रवाल ‘नूतन’ -


Rampal Agarwal'Nutan'परिचयः प्रो.रामपाल अग्रवाल ‘नूतन’ का जन्म बनेड़ा (मेवाड़) राजस्थान में 23 जनवरी 1932 को हुआ। प्रारम्भिक पढ़ाई बनेड़ा में हुई। मैट्रिक राजस्थान से बी0ए0 पंजाब युनिवर्सिट से एम.ए, एल.एल.बी. व साहित्य रत्न अहमदाबाद से किया। विशारद कलकत्ता से किया। कुछ दिन गुजरात कालेज अहमदाबाद एवं सेन्ट जेवियर्स स्कूल अहमदाबाद में पढ़ाया। प्रारम्भ से सार्वजनिक सेवा में रूचि रही। गोरक्षा आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़े तथा इसी सन्दर्भ में 1954 में दिल्ली में गिरफ्तार हुए तथा 1955-56 में कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी जेल में एवं 1971 में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बन्द हुए। 1963 में कलकत्ता से पटना एक सभा में गये। बैठक भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद जी के सानिध्य में हुई। राजेन्द्र बाबू ने नूतन जी के गोसम्वर्धन सम्बन्धी ज्ञान से प्रभावित होकर बिहार में रह जाने का आह्वान किया और 1964 से आप पटना वासी हो गये। 1987 से 1989 तक आप बिहार प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। 2001 से 2002 में आप भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय गोवंश आयोग के सलाहकार रहे। सम्प्रति आप अ.भा.गोशाला फेडरेशन तथा बिहार सरकार द्वारा गठित पशु संरक्षण एवं गोशाला विकास समिति के अध्यक्ष हैं। पताः 16 श्रीकुँज अपार्टमेन्ट, बुद्धा कॉलोनी पटना-1, दूरभाष: 09334116334 - सम्पादक



मारवाड़ राजस्थान में है और ‘राज’ शब्द जुड़ा है राजस्थान में तो मारवाड़ी राजनीति से भिन्न अथवा दूर कैसे हो सकता है? राजस्थान का पुराना नाम राजपूताना, तो यहाँ भी बात राज की ही हो रही है। इसका अर्थ यह हुआ है कि प्रारम्भिक काल से ही इस प्रदेश का प्रत्येक व्यक्ति राजनीति से न्यूनाधिक परिचित व सम्बन्धित रहा है।
मारवाड़ी लोग राजस्थान से बाहर गये तो राजनीतिक चेतनता की अपनी इस विशेषता का परित्याग नहीं किया। मुगल बादशाह अकबर के प्रमुख सेनापति राजा मानसिंह जब दिल्ली से कूच कर पूर्वी भारत में मुगल साम्राज्य के विस्तार के क्रम में आये तो अपने साथ अनेक मारवाड़ी प्रशासनिक, व्यापारिक एवं युद्ध कौशल वीरों को लेकर आये। इनमें से कई मारवाड़ी पुनः लौट कर नहीं गये। यहीं रह गये। इस तरह यह कहा जा सकता है कि लगभग सोलहवीं सदी के आस-पास की अवधी में अच्छी संख्या में लोगों का मारवाड़ के क्षेत्रों से चलकर पूर्वी भारत में बिहार, बंगाल, उड़ीसा और आसाम आना प्रारम्भ हुआ जो निरन्तर बढ़ते चले गये। इसी तरह आक्रमण के समय मराठवाड़ा, विदर्भ तथा अन्य प्रदेशों में मारवाड़ी लोग गये। राज्य में कई तरह के दायित्व होते हैं। राजाओं के रूप में, भिन्न-भिन्न भांति की व्यवस्थाओं का दायित्व। सभी दायित्वों को निभा कर राजनीति में मारवाड़ी समाज का योगदान हुआ।
मारवाड़ में रहने वालों को अनेक विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करने का अभ्यास होता है। श्रम उनका स्वभाव। ईमानदारी, विनम्रता एवं समरसता उनके संस्कार। इन विशेषताओं का उन्हें सर्वत्र लाभ मिला। जहाँ भी जिस प्रदेश में गये, वहाँ की भाषा सीखली, वहाँ के लोगों में घुलमिल गये। उदारता, औरों की भलाई, जैसे मारवाड़ियों के गुणों के कारण ही इस समाज ने पैसा भी कमाया और सर्वत्र चिकित्सालय, शिक्षालय, कुँए, बावड़ी, प्याऊ, अनाथालय, गौशालाओं का अम्बार लगा दिया जो इस समाज की देश भर में अपनी अलग पहचान बनाती है।
राजस्थान से जो लोग अन्य प्रदेशों में गये, उन्हें मारवाड़ी कहा जाने लगा। यद्यपि मारवाड़ राजस्थान का एक क्षेत्र है। पूरा राजस्थान मारवाड़ नहीं है। जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर का विस्तृत हिस्सा बालू के
अधिक्य वाला है। मरु प्रदेश अथवा बालू या फिर रेत की अधिकता वाला क्षेत्र इसमें रहने वाले मारवाड़ी स्वभावतः मारवाड़ी कहाये।
ऐसे मारवाड़ से आने वाले लोग मारवाड़ी समाज की पहचान व्यापारी के रूप में बनी। उपरोक्त वर्णित विशेषता लिये हुए थे। बाद में उदयपुर (मेवाड़) हो या जयपुर स्टेट या हाड़ोती क्षेत्र या राजस्थान के किसी भी हिस्से से आये लोग मारवाड़ी ही कहलाये।
क्षत्रित्व की पृष्ठभूमि: यद्यपि राजस्थान से आने वाले लोग प्रायः व्यापारी थे, लेकिन इनके पूर्वज क्षत्रिय राजा थे। जैसे मारवाड़ी समाज में अग्रवालों की संख्या सर्वाधिक रही थी जो महाराज अग्रसेन की सन्तान हैं। अग्रसेन एक क्षत्रिय राजा थे, जो किवदन्तियों के अनुसार लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व महारानी लक्ष्मी के आदेश पर वैश्य बने। इनके रीतिरिवाजों में आज भी राजाओं के प्रतीकों का उपयोग होता है। इसी तरह एक बड़ा वर्ग माहेश्वरी समाज है। जैन समाज, खण्डेलवाल आदि क्षत्रिय थे जो बाद में वैश्य बने। तब से लेकर इस अवधि में जो लोग देश के कोने-कोने से आये वे अग्रवाल, माहेश्वरी, खण्डेलवाल आदि कहलाये। इस तरह कहना चाहिये कि यह व्यापारी समाज राजघरानों की पष्ठभूमि से आया है। इसलिये राजनीति इनके लिये नयी नहीं है। इनके खून में है।
मुगल काल हो या इसके पूर्व का, यह स्पष्ट उल्लेख प्रायः मिलता है कि राजाओं के दीवान व खाजांची तथा अन्य व्यवस्थायें वैश्य समाज करता था। इसलिये राजाओं के रूप में इनकी संख्या कम होती चली गयी, लेकिन राज्य को स्थिर कर व्यवस्था का प्रमुख स्तम्भ इन्हीं लोगों के हाथ में रहा। राजनीति के क्षेत्र में यह सबसे बड़ा योगदान है।
हम इस आलेख में राजनीति के क्षेत्र में मारवाड़ी समाज के योगदान की बात कर रहे हैं, उसे अंग्रेजी काल की अवधि के योगदान की बात भारत की स्वतत्रंता के लिये किये गये संघर्ष में रही राजनैतिक हिस्सेदारी का विवरण प्रस्तुत करना है।
यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मारवाड़ी शब्द का अर्थ केवल वैश्य समाज से नहीं है। मारवाड़ी ब्राह्मण हो या अन्य किसी जाति का, जैसे अंगरेज का काम करने वाला या नाई का काम करने वाला व्यक्ति, या किसी पेशे से जुड़ा हुआ हो, वह मारवाड़ी ही कहाया। मारवाड़ी शब्द एक संस्कार विशेष से जुड़ गया। संस्कृति का प्रतीक बन गया। शाकाहार, सात्विकता, सादगी व समरसता तथा समन्वय की क्षमता वाला क्षमाशील व्यापारी। ईमानदारी, उदारवृत्ति आदि इसकी प्रारम्भिक पहचान बनी। ये गुण राजनीतिक कुशलता के लक्षण माने जाते थे।
यह सर्वविदित है कि मारवाड़ी में अद्भुत सहनशीलता होती है, और अंग्रेजों के समय इसी गुण के कारण ये व्यापार व उद्योग के शीर्ष पर पहुँच गये। व्यापार का सीधा सम्बन्ध प्रशासन से होता है। इसलिये राज्य जिसका भी होगा व्यापारी हो या उद्योगपति, उसे ‘राजा’ से मिल कर चलना पड़ेगा। व्यापार ही क्यों यदि राजा अत्याचारी, शासक, दबंग होगा तो हर नागरिक को झुक कर चलना पड़ेगा। कौन नहीं जानता कि सात समन्दर पार से आये अंग्रेजों ने जो दमन चक्र चलाया, उसके सभी वर्ग शिकार हुए लेकिन जब अन्याय व जुल्मों-सितम के विरुद्ध विद्रोह की टीस ने अंगड़ाई ली तो देश का कोई कोना बाकी नहीं रहा। बाल, लाल, पाल की त्रिवेणी अवतरित हुई। बाल अर्थात् बाल गंगाधर तिलक, लाल अर्थात लाला लाजपत राय और पाल अर्थात विपिनचन्द्र पाल। इनमें लाला लाजपत राय अग्रवाल समाज में उत्पन्न हुए। फिर शेष मारवाड़ी समाज कैसे पीछे रहता। अंग्रेजों ने पूरे भारत में लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक राज किया। सन् 1857 में खुला विद्रोह हुआ तो विद्रोह बढ़ता ही चला गया। बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गान्धी, लाला लाजपत राय, वीर सावरकर, भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस जैसे राष्ट्र भक्तों ने एवं उनके साथ जिन महत्त्वपूर्ण लोगों ने स्वतन्त्रता संघर्ष यात्रा का पथ पकड़ा, ऐसे शूरवीरों की शंृखला में मारवाड़ी समाज के सैंकड़ों प्रमुख लोगों ने अपने जीवन की आहुति दी, कई विख्यात हैं। अनेकों के नाम मालूम नहीं हंै और अधिकांश अंधेरे की ओट में शहीद बन कर गुमनाम हो गये।
मारवाड़ी एसोसियेशन: 1885 में कांग्रेस का जन्म हुआ जिसका राष्ट्रीय स्वरूप बना। देश भर में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त हो रहा था उसकी अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनी। अंग्रेजों ने राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली एकता को तोड़ने का प्रयास किया और इसी क्रम में बंगाल में मारवाड़ी समाज का, जो विशेष रूप से उद्योग एवं व्यापार में अपना प्रभुत्व बढ़ाता जा रहा था, के साथ राजनैतिक भेदभाव किया जाने लगा। इसीके विरुद्ध 1898 में मारवाड़ी एसोसियेशन नामक संगठन बना जो मारवाड़ी समाज के हितों का प्रहरी बना। इसने राजनैतिक लड़ाई लड़ी। आगे जाकर यह संस्था अपना अस्तित्व सुरक्षित नहीं रख पायी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस संस्था के कई लोगों का अंग्रेजों के साथ ताल-मेल बन गया, लेकिन यह स्वरूप सामने आया कि इस संस्था से जुड़े कुछ लोगों का ध्यान अंग्रेजों से उपाधियाँ लेने में अधिक रहा। जैसे राय साहब, राय बहादुर, सर आदि। बदनाम होने पर यह संस्था समाप्त हो गयी। पुनः मारवाड़ी समाज को बंगाल में दोयम श्रेणी का नागरिक बनाये जाने का खतरा उत्पन्न हुआ तो इसका जोरदार विरोध हुआ। प्रतिक्रियास्वरूप 1935 में रामदेव जी चोखानी की अध्यक्षता में अ.भा. मारवाड़ी सम्मेलन की स्थापना हुई। मारवाड़ी सम्मेलन ने अपने प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक राजनैतिक चेतना और समाज सुधार के लिये अनेक संघर्ष किये। हम स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय में अ.भा.मारवाड़ी सम्मेलन के कार्यकत्र्ताओं द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध किये गये संघर्ष का मूल्यांकन किसी से कम नहीं मानते। उसीका प्रभाव बिहार के मारवाड़ी समाज पर पड़ा तथा राजनीति में समाज का अद्भुत योगदान रहा तथा 1940 में सशक्त बिहार प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन की स्थापना हुई।
जमनालाल बजाज: मैं यहाँ मारवाड़ी समाज के सबसे चर्चित नाम जमनालाल बजाज से प्रारम्भ करता हूँ। जमनालाल जी को शतप्रतिशत मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधि के रूप में स्वतन्त्रता सेनानी कह सकते हैं। एक सीधे सादे, सज्जन प्रवृत्ति के चरम सीमा के ईमानदार, सम्पन्न, दानवीर मारवाड़ी व्यवसायी। अनेक गुणों से परिपूर्ण सन् 1915 से ही आप राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से प्रभावित हो उनके सम्पर्क में आये, और गांधीजी ने भी जमनालाल जी को भरपूर अपनत्व दिया, यहाँ तक कि गांधीजी के 5वें पुत्र के रूप में जमनालाल जी कहाये जाने लगे। बजाज जी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने में गांधी के सत्याग्रह का नेतृत्व किया। बहुत बड़े उद्योगपति, सुकोमल शरीर, परन्तु न केवल स्वयं, अपनी पत्नी जानकी देवी को खद्दर के कपड़े पहनाये। जमनालाल जी के इस त्याग का प्रभाव यह पड़ा कि मारवाड़ी समाज के नवयुवकों तथा महिलाओं ने स्वतंत्रता के इस आन्दोलन में अपने को जोड़ लिया। यदि किसी राष्ट्रीय नेता की गिरफ्तारी होती तो मारवाड़ी समाज की संख्या वाले बाजार पहले बन्द होते थे।
27 अगस्त 1930 में एक अंग्रेज अधिकारी ए.एच. गजनवी द्वारा तत्कालीन वायसराय के कार्यालय को एक निजी पत्र भेजा गया। उसमें उल्लेख किया कि यदि महात्मा गांधी के आन्दोलनों से मारवाड़ी समाज को अलग कर दिया जाय तथा बंगाल का आंदोलन केवल बंगाल वासियों के हाथ में छोड़ दिया जाय तो नब्बे प्रतिशत आंदोलन अपने आप ही समाप्त हो सकता है। गजनवी ने मारवाड़ी समाज के उन स्वतन्त्रता प्रेमियों की सूची भी भेजी जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सहस्त्रों लोगों को जेल में डाल दिया, उनके घर का खर्च चलाने, आजादी के अवसर पर होने वाले व्यय का अधिकांश हिस्सा मारवाड़ी समाज के लोगों ने प्रदान किया। स्वयं भी जेल में गये। कई क्रान्तिकारी बने, कइयों को फांसी हुई।
गांधीजी ने जमनालाल जी की सहायता से दक्षिण में हिन्दी प्रचार के कार्य में सुविधा का अनुभव किया, अग्रवाल समाज को तथा मारवाड़ी समाज को संगठित कर उन्हें स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। श्री कृष्ण जाजू ने अपने को स्वतंत्रता के लिये समर्पित कर दिया। मुम्बई के श्री मदनलाल जालान जैसे सैंकड़ों मारवाड़ी कार्यकत्र्ताओं ने जेल भर दिया। साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय की पीठ पर इतनी लाठियाँ पड़ी कि अन्त में इसी पीड़ा से उनकी मृत्यु हो गयी।
बंगाल स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख केन्द्र बना हुआ था। 1930 के नमक सत्याग्रह में देश भर में मारवाड़ी समाज ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।


बिहार में मारवाड़ी समाज की भूमिका: स्वतंत्रता संग्राम में रामकृष्ण डालमिया द्वारा दिये गये सहयोग से सब परिचित हैं। पूरे बिहार में चलने वाले कांग्रेस के अधिकांश व्यय का भार रामकृष्ण डालमिया ने उठाया। एक बार बिहार में कांग्रेस के खर्च को लेकर रामकृष्ण डालमिया और बिहार कांग्रेस के नेताओं में कोई विवाद हो गया तो जमनालाल बजाज ने समझौता करवाया। उस समय गांधी जी ने कहा ‘‘रामकृष्ण तुमने इलेक्सन का खर्चा देना स्वीकार करके मेरा बिहार का बोझ हल्का कर दिया।’’
उपरोक्त एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि बिहार के स्वतंत्रता आन्दोलन में मारवाड़ी समाज का कितना बड़ा योगदान रहा है।
वस्तुतः बंगाल द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन में जो मारवाड़ी समाज की भूमिका रहती थी उसका प्रभाव बिहार के मारवाड़ी समाज पर पड़ता था। मारवाड़ी समाज की एक अन्य महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अनेक प्रकाशनों तथा समाचार पत्रों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने का और स्वतत्रंता के पश्चात् देश को आगे बढ़ाने का। बिहार और बंगाल के मिलेजुले प्रयत्न होते थे। बिहार के सत्यपाल धवले जैसे अनेक बिहारी कार्यकत्र्ताओं का पूरा व्यय कलकत्ते का मारवाड़ी समाज उठाता था जो बंगाल व बिहार में राजनीतिक चेतना की कड़ी बने हुए थे।
बात 1950 की है जब मैं राजस्थान से मैट्रिक कर आगे की पढ़ाई करने कोलकाता जाकर बसा। दो वर्ष के भीतर वहां के मारवाड़ी समाज के सम्पर्क में आ गया। उस समय लगभग 80 वर्षीय श्री ओंकारमल जी सराफ गांधीजी के आह्वान पर कई बार जेल हो आये थे। उनकी गिनती अग्रणी स्वतत्रंता सेनानियों में आती थी। चित्तरंजन एवेन्यू में उनका मकान था।
‘‘बंगाल के हिन्दी कवि’’ नाम से प्रकाशित की जाने वाली पुस्तक के सन्दर्भ में पटना एवं देवघर आने का मुझे कई बार अवसर पड़ा। उस समय श्री मोतीलाल जी केजरीवाल की गिनती बिहार के वरिष्ठ स्वतत्रंता सेनानियों में होती थी।
1930 के नमक सत्याग्रह में भाग लेने वाले कलकत्ता मारवाड़ी समाज के अग्रणी महानुभावों यथा सीताराम जी सेक्सरिया, बसन्त लाल मुरारका, राम कुमार भुवालका आदि के बारे में जानकारी हुई। बिहार के मुजफ्फरपुर में पैदा हुए ईश्वर दास जी जालान 1952 में प्रथम बंगाल विधान सभा के अध्यक्ष बने। उस समय बड़ाबाजार जोड़ा बागान, जोड़ासांकू की विधान सभाओं में मारवाड़ी समाज की जन संख्या कम नहीं थी। श्री आनन्दी लाल पोद्दार,बाद में दैवकी नन्दन पौद्दार, और सत्यनारायन बजाज भी इन्हीं क्षेत्रों से विजयी होकर बंगाल विधान सभा में पहुँचे। ईश्वर दास जी जालान के बाद रामकृष्ण सरावगी विधायक बने। श्री सरावगी अ.भा.मारवाड़ी समाज के अध्यक्ष भी रहे जिन्होंने रांची अधिवेशन में पदभार ग्रहण किया। वर्तमान में श्री दिनेश बजाज इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहें हैं।
स्वामी करपात्री जी द्वारा देश में अनेक जगह राम राज्य परिषद की स्थापना की गई। परिषद की ओर से कलकत्ता के बड़े बाजार से बाबू लाल सराफ खड़े होते थे। बिहार में भी मारवाड़ी समाज के आर्थिक सहयोग से 1952 की प्रथम विधान सभा में उस समय राम राज्य परिषद के 5 सदस्य निर्वाचित हुए। बिहार में भागलपुर क्षेत्र मारवाड़ी समाज का गढ़ है। यहाँ से सम्भवतः दूसरी लोकसभा के लिये श्री बनारसी दास झुनझुनवाला चुन कर गये। इसी तरह लोक सभा में चुन कर गये बांका से श्री बेणी शंकर शर्मा। जब वाजपेयी जी का मंत्रीमण्डल बना उस अवधि में चतरा से श्री धीरेन्द्र अग्रवाल लोक सभा से चुन कर गये। कलकत्ता में प्रभू दयाल जी हिम्मतसिंहका का नाम स्वतंत्रता संग्राम में घनश्याम दास जी बिड़ला के साथ आता था। लेकिन कलकत्ता तथा दुमका से वे दोनों बार लोक सभा सीट पर हार गये। बिहार विधानसभा में मारवाड़ी समाज की उपस्थिति 4-5 सदस्यों की अवश्य हो जाती है जो कम है फिर भी महाराष्ट्र विधान सभा के बराबर या कुछ अधिक हो जाती है।
1951 से 1957 की अवधि में ही मैं राम राज्य परिषद से जुड़ा और मुझे 1956 में मुम्बई के चौपाटी पर हुए अधिवेशन में अखिल भारतीय राम राज्य परिषद का प्रचार मंत्री चुना गया। देश की राजनीतिक पार्टियों में केवल राम राज्य परिषद ही ऐसा राजनैतिक दल था जिसने गौहत्या बन्दी को अपने चुनाव घोषणा पत्र का प्रमुख सूत्र रखा। दिल्ली तथा कलकत्ता में राम राज्य परिषद के संस्थापक स्वामी करपात्री जी द्वारा चलाये गये गौरक्षा आन्दोलन में मैं 1954 में 15 नवम्बर को जवाहर लाल जी नेहरू की कोठी 3 मूर्ति भवन के समक्ष गिरफ्तार हुआ। सितम्बर 1956 में कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी जेल में बन्द हुआ, पुनः 1971 में दिल्ली की तिहाड़ जेल में डेढ़ माह तक बन्दी रहा। बिहार के श्री सीताराम जी खेमका मुंगेर के रहने वाले थे, उन्होंने देश भर में राम राज्य परिषद को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। राम राज्य परिषद एवं गौरक्षार्थ अहिंसात्मक धर्म युद्ध समिति के राष्ट्रीय महामंत्री बने। इसी तरह कलकत्ता के 29 स्ट्रेन्ड रोड के भागीरथ जी मोहता 1952 में अ.भा. हिन्दु महा सभा के उपाध्यक्ष थे। जैसे घनश्याम दास जी बिड़ला कांग्रेस को आर्थिक मदद देने वालों में माने जाते रहे उसी तरह जुगल किशोर जी बिड़ला ने हिन्दु महासभा को आगे बढ़ाने में सर्वाधिकं सहयोग किया। जुगल किशोर जी बिड़ला ने न केवल अ.भा.हिन्दु महा सभा दिल्ली को संरक्षण दिया बल्कि पटना में सब्जी बाग में निर्मित बिड़ला मन्दिर में हिन्दु महा सभा के लिये स्थान प्रदान किया।
ऐसा नहीं है कि मारवाड़ी समाज केवल मध्यमार्गी अथवा दक्षिणपन्थी संस्थाओं से ही जुड़ा रहा। कलकत्ता में 1951 में मेरे बड़े भ्राता बंशी लाल अग्रवाल ने कई बार कम्यूनिस्ट आन्दोलन में सम्मिलित होकर जेल यात्रायें की। सरला माहेश्वरी कम्युनिष्ट पार्टी की ओर से सांसद रही।
मुझे याद है कि कलकत्ता के सम्पन्न मारवाड़ी समाज द्वारा बिहार के राजनैतिक कार्यकत्र्ताओं को जीवन निर्वाह के लिये अच्छी राशि दी जाती थी। सीतामढ़ी के श्री निरंजन खेमका 1940, 45 से हिन्दु महासभा के वरिष्ठ नेता थे। भाई हनुमान प्रसाद जी पोद्दार ने बम्बई और कलकत्ता में राजनीतिक चेतना संचारित करने का काम किया। 1942 में अनेक मारवाड़ी अग्रणियों की भांति वे भी जेल गये।
मुझे स्वयं को राम राज्य परिषद, हिन्दु महासभा व जनसंघ के एकीकरण के सिलसिले में वाराणसी में 1955 में रामराज्य परिषद के दो सांसदों के साथ हिन्दु महासभा के प्रधान मन्त्री श्री बी. जी. देशपाण्डे तथा जनसंघ के वरिष्ठ नेता दीन दयाल जी उपाध्यक्ष के साथ मन्त्रणा का अवसर मिला।
बेतिया के श्री रामकुमार जी झुनझुनवाला पूरे बिहार में स्वतन्त्रता संग्राम के दीप की लौ जलाये हुए थे। वे बिहार प्रदेश मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष भी थे। इतना ही नहीं 1917 में जब गांधी जी ने बिहार की धरती से नील खेती के विरुद्ध प्रथम किसान आन्दोलन चलाया, तब मोतिहारी, बेतिया, रक्सौल व आस-पास के सैंकड़ों मारवाड़ी नवयुवकों ने सत्याग्रह में भाग लिया। चाहे स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है आन्दोलन, चाहे अवज्ञा आन्दोलन, चाहे असहयोग आन्दोलन, चाहे नमक सत्याग्रह, चाहे विदेशी वस्त्र जलाओं आन्दोलन, चाहे भारत छोड़ो आन्दोलन-मारवाड़ी समाज विशेषकर बिहार का मारवाड़ी समाज सदैव आगे की पंक्ति में दिखायी पड़ता है। गांधी जी ने वर्ष 1917 में चम्पारण के किसान आन्दोलन के समय इस क्षेत्र में 3-4 गौशालाओं की स्थापना की। उनका भार मारवाड़ी समाज ने उठाया। बेतिया, मोतीहारी, चकिया में स्थापित गौशालायें इसका प्रमाण हैं।
गांधी जी द्वारा इन गौशालाओं में कहे गये वचन मारवाड़ी समाज को अपने कर्तव्य का स्मरण करा रहे हैं।
स्वतन्त्रता संग्राम में या बाद की राजनीति में मारवाड़ी समाज का बहुत बड़ा योगदान रहा है, तथापि यह कहना पड़ता है कि आज मारवाड़ी समाज यदि संगठित हो जाय तो बिहार की दो लोक सभा सीटों पर उसका क्लेम बनता है। यों राज्य सभा में भी मारवाड़ी समाज का योगदान रहता आया है, लेकिन राज्य सभा में जिन लोगों को प्राथमिकता मिलती है उनमें अर्थ की
प्रधानता रहती है। वर्तमान सरकार के केन्द्रीय कम्पनी मन्त्री श्री प्रेम चन्द गुप्ता बिहार से ही राज्य सभा के सदस्य हैं। यों मैं व्यक्तिगत रूप में जातीय आधार पर टिकट दिलाने के पक्ष में नहीं हूँ, लेकिन बिहार में टिकट प्राप्ति में जातियों की प्रधानता रहती है इस स्थिति को समाप्त होना चाहिये।
यह कहते हुए हर्ष होता है कि 1955 में बिहार विधान सभा में पहली बार अलग झारखण्ड राज्य की मांग करने वाले
विधान पार्षद श्री जयदेव जी मारवाड़ी ही थे। उनकी मूर्ति झारखण्ड में लगायी जानी चाहिये।

मारवाड़ी समाज एक सशक्त राजनीतिक मंच बने, जो ईमानदार, अनुभवी व ज्ञानी युवा लोगों को आगे बढ़ाने का काम करे। यों बिहार के मारवाड़ी समाज का प्रदेश व देश की राजनीति में जो योगदान है उसे उजागर करने के लिये स्वतन्त्र रूप से प्रयत्न करने की जरूरत है। इसी कड़ी में हम यह कह सकते हैं कि डॉ. राम मनोहर लोहिया जो मारवाड़ी समाज में पैदा हुए, देश के सबसे बड़े मौलिक चिन्तक हुए। डॉ. लोहिया ने सबसे पहले बिहार में सरकार बनवायी। ऐसे महापुरुषों को, केवल मारवाड़ी समाज तक सीमित रखा जाना इनके साथ न्याय नहीं होगा।
1952 में तत्कालीन कांग्रेसी नेता व मारवाड़ी समाज के गौरव हीरा लालजी सराफ; वर्तमान में बि.प्रा. मारवाड़ी सम्मेलन के वरिष्ठ अग्रणी श्री गोपी कृष्ण सराफ के पिता बिहार में कदाचित सर्वप्रथम बिहार चैम्बर ऑफ कॉमर्स की ओर से विजयी होकर विधान सभा के मारवाड़ी विधायक चुने गये। बिहार में जनसंघ को बढ़ाने में श्री शंकर लाल बाजोरिया जैसे अनेक सुदृढ़ कार्यकर्ताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान था। भागलपुर के ही सन्त लाल जी ने स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक लाठियाँ खायी। भागलपुर के सीताराम किशोरपुरिया 1967 में बिहार में मारवाड़ी विधायक बने 1977 में सुगौली के मोहन लाल मोदी, कटिहार से सीताराम चमड़िया अपनी कर्मठता के आधार पर विधायक बने। मारवाड़ी समाज में महिलायें भी पीछे नहीं रही। कांग्रेस की ओर से राजकुमारी हिम्मतसिंहका दुमका की विधायक बनी। धनबाद जिला से सत्य नारायण दूधानी बिहार
विधान सभा में कुछ अवधि तक विरोधी दल के नेता रहे। दरभंगा से श्री रमा वल्लभ जी जालान साम्यवादी दल की ओर से
विधायक बने। बि.प्रा. मारवाड़ी सम्मेलन के भूतपूर्व अध्यक्ष ताराचन्द दारूका विधान पार्षद रहे। साहबगंज (संथाल परगना) से भाजपा की ओर से रघुनाथ सुडानी जी ने दो बार विधान सभा में प्रतिनिधित्व किया।
बिहार में जिन लोगों ने राजनीतिक क्षेत्र में विधायक या विधान पार्षद से ऊपर उठ कर मन्त्री तक का दायित्व सम्भाला उनमें बरहरवा के स्व. नथमल जी डोकानिया कैबिनेट व वारसोई के सोहन लाल जी राज्य स्तर के मन्त्री बने। श्री शारडा जी भी केबिनेट मन्त्री रहे। श्री शंकर प्रसाद टेकरीवाल मारवाड़ी समाज के ऐसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं जिन्हें स्वयं को पार्टी की जितनी आवश्यकता हुई उससे कम जरूरत पार्टियों को उनकी नहीं रही। शंकर बाबू ने कई बार बिहार सरकार के वित्त, खनन तथा परिवहन जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग सम्भालें तथा राज्य के विकास में अहम भूमिका निभायी।
वत्र्तमान में भाजपा की ओर से निर्वाचित दरभंगा के युवा
विधायक संजय सरावगी ने कुछ ही समय में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। कटिहार के विधान पार्षद मोहन लाल जी अग्रवाल एवं ठाकुरगंज के गोपाल अग्रवाल ओजस्वी विधायक हैं। अपने बलबूते पर स्वतन्त्र रूप से जीतने वाले प्रदीप जोशी मारवाड़ी विधायक हैं। और अन्त में हम नाम ले रहे हैं श्री सुशील कुमार मोदी जी का जो न केवल 4 बार से निरन्तर विधायक हैं बल्कि बिहार के उपमुख्य मंत्री हैं। बीच में आप सांसद भी बने। आपने यह उपलब्धि मारवाड़ी समाज में उत्पन्न होने से नहीं पायी, बल्कि बिहार के आम आदमी के संरक्षण व विकास के लिये अपने त्याग व सेवा के कारण पायी है। पर यह भी सत्य है कि मारवाड़ी समाज, संस्कारवश जो ईमानदार होता है कर्मठ होता है यथासम्भव निस्वार्थ होता है, भद्र मानुष होता है, इन गुणों ने मोदी जी को ऊँचा उठाने में बिहार के उपमुख्य मन्त्री पद तक पहुँचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। आपको सत्ता के शीर्ष स्थान पर देखकर हमारा समाज ही नहीं बिहार के आम आदमी प्रसन्न हैं। इसलिये कि हम सभी इस प्रदेश के नागरिक हैं। इस प्रदेश की उन्नति में ही हम सबकी उन्नति है।

हस्या लोककथा: अक्खड़ स्वभाव - नथमल केडिया


राजस्थान प्रदेश में राजपूत जाति के लोग बहुत अक्खड़ स्वभाव के होते हैं। चलती पून (पवन) से लड़ाई करना उनका स्वभाव है। मिनटों में सिर फुड़ोबल तथा मरने-मारने को तैयार। वैसे जबान के एकदम पक्के, जो मुँह से बोल दिया वह लोहे की लकीर। पर जल्दी से कोई क्यों उलझे इसलिये बनिये आदि उनसे व्यवहार करने में कतराते है। हाँ तो एक बार जंगल में एक राजपूत तथा एक बनिया साथ-साथ जा रहे थे। वे एक दूसरे से थोड़े बहुत परिचित तो पहले से थे और रास्ता आपस में परिचय को बहुत जल्द पनपा भी देता है। इसलिये आपस में बातचीत शुरु हो गई।
एकाएक राजपूत सज्जन बोले-देखो वह जो बहुत दूर पर पेड़ दिखाई देता है, रास्ते के दाँयी ओर बड़ा-सा घेर घुमेरदार, वह पीपल का पेड़ है। बणिये ने स्वाभाविक रूप से ही कह दिया-नहीं, ठाकर साब! वह तो बड़ का पेड़ है। पर राजपूत को यह कहाँ गवारा था कि वे कोई बात बोले और दूसरा उसको काटे। वे थोड़ी अक्खड़ आवाज में बोले-मेरे हिसाब से तो वह पीपल का पेड़ है पर
इधर बनिये को स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि पेड़ बड़ का है। उसने भी कह दिया-नहीं यह बड़ का पेड़ है। बस इतनी-सी बात हुई कि राजपूत सज्जन तेश में आकर बोले-देख! यदि पीपल का पेड़ हुआ तो मैं तुम्हारी गरदन उतार लूँगा और बड़ का निकला तो तुम मेरी गरदन उतार लेना। बेचारे बनिये ने ऐसी शर्त कभी तीन पुश्त में नहीं की थी पर उसके आगे सिवाय हाँ भरने के कोई चारा नहीं था। उसको मंजूरी देनी पड़ी। और वे जब पेड़ के पास आये तो वह पेड़ बड़ का निकला। तब राजपूत ने कहा-सेठ! मैं होड़ (शर्त) हार गया। यह लो मेरी तलवार और मेरी नाड़ काट लो। पर बनिये बेचारे को कहाँ किसी का सिर काटना था उसने कहा-ठाकराँ! मुझे तो आपका सिर काटना नहीं है। आप राजी खुशी घर जायें। पर उस राजपूत ने कहा-देखो! जो होड़ हुई है वह पक्की है। अब तुम मेरा सिर नहीं काटते हो तो कोई बात नहीं है पर अब से मेरे गले का ऊपर का सब हिस्सा तुम्हारा हो गया। यह तुम्हारी अमानत मेरे पास है। बनिये बेचारे ने हाँमी भर ली और अपना पिण्ड छुड़ाया।
पर महीना भर भी नहीं बीता होगा कि उसे पता चला कि उसका पिण्ड कहाँ छूटा है? वह तो और ज्यादा शिकंजे में कस गया है। उस दिन उसने अपनी दुकान खोली ही थी और बोहनी के लिये ग्राहक की बाट जोह रहा था, ये महाशय ऊँट पर चढ़े हुए पहुँचे। खूब बढ़िया तेल फुलेल लगाये हुए तथा सिर पर कीमती साफा (पग्गड़) पहने हुए थे। आकर दुकान पर शान से बैठ गये। बणिये ने जब उनकी ओर देख कर जिज्ञासा की तो गरजती सी आवाज में बोले-सेठ बताओ, यह मुंड (गले के ऊपर का हिस्सा) मेरा है या तुम्हारा? तब बनिये के ध्यान में आया कि यह जंगल में होड़ में हारा वही राजपूत है। बिचारा, हिचकिचाते हुए बोला-मेरा! सुनकर ठाकर बोला-तो इसको साफ सुथरा रखने में इतने का साबुन लगा इतने का तेल-फुलेल लगा और कंघी चोटी में इतना लगा, कुल 80/- रुपये लगे सो दो। सेठ बिचारा क्या करे यदि ना-नू करे तो अभी यहाँ सीन खड़ा कर दे। गल्ले से चुपचाप 80/- रुपये निकाल कर दे दिये।
अब महीना सवा महीना बीतते न बीतते राजपूत महाशय सेठ की दुकान पर आ बिराजे और मूंड को खिलाने-पिलाने, रख-रखाव के 80/- - 100/- ले जाय। सेठ बिचारा इससे छुटकारा कैसे मिले इस चिन्ता में घुलकर आधा रह गया। इस तरह छह-आठ महीने बीत गये। बार-बार ठाकर का आना सेठ के पड़ोसी दुकानदार भी देख रहे थे और ताज्जुब करते थे कि क्या बात है? यह ठाकर-ठाठ से ऊँट पर आता है और मूँछों पर ताव देते हुए घड़ी आध घड़ी में लौट जाता है। एक दिन उनमें से एक ने सेठ से पूछा-भाइजी! मुझे पूछना तो नहीं चाहिये पर आपने इससे कोई रकम उधार ले रखी है क्या? सेठ ने माथे पर हाथ रखते हुए अपनी सारी पीड़ा खोल कर बताई। सुनकर पहले तो पड़ोसी दुकानदार सोच में डूब गया पर दो-चार दिन के बाद ही दोनों ने कानों कान सलाह मशविरा किया। उस दिन पहली बार इस सेठ के मुँह पर कुछ मुस्कान नजर आई। हाँ तो अपने समय पर राजपूत महोदय को तो आना ही था। सदा की तरह आकर बड़े रोब से ऊँट से उतरे और दुकान के गद्दे पर बैठ गये और अपना डॉयलाग बोलना चालू किया पर आज सेठ ने कहा-ठाकराँ! अभी जल्दी क्या है? आये हैं तो बैठिये। हमारे इस मूंड को जल व चिलम तम्बाकू पिलाइये फिर इतमिनान से ले जाइयेगा। और उनको बैठे आठ दस मिनट ही हुई होंगी कि बगलवाला दुकानदार आया और बोला-भाइसाहब! आज एक ग्राहक अजीब चीज माँग रहा है। दाम भी आकरा (बहुत अच्छा) देने को तैयार है। मुझे तो नहीं पता यह कैसे-कहाँ मिलेगा? मैंने कहा-मेरे पास नहीं है तो बोला-मुझे अरजेन्ट चाहिये कहीं से भी जोगाड़ कर के ला दो। सेठ ने पूछा-क्या चीज? तो संकोचवश सेठ के कान में बताया पर सेठ जोर से बोला-यह तो मैं ही दे सकता हूँ पर 200/- लगेंगे। दुकानदार 150/- देने पर राजी हुआ। आखिर में 175/- में सौदा पटा। फिर इस बनिये ने राजपूत महोदय की ओर मुखातिब होकर कहा-ठाकराँ यह मूंड मेरा है कि आपका? ठाकर ने कहा-आपका। इसीलिए तो रख-रखाव में 90/- लगे वे लेने आया हूँ। वे इतनी बात कर रहे थे कि अगल-बगल के दो-चार लोग और आ गये और बात सुनने लगे। अब इस बनिये ने बगल की दुकानवाले से कहा-आपको एक कान चाहिये तो? उसने कहा-हाँ। उसके हाँ बोलने के साथ उसे छुरी देते हुए कहा-इस ठाकर का एक कान काट कर ले जाओ और 175/- नगदी रख जाओ। अब ठाकर की चमकने की बारी थी, बोला-यह क्या? बात पूरी की पूरी मूंडी काटने की थी। सेठ बोला-ठाकराँ हम तो दुकानदार हैं। हमलोग बोरे के बोरे चीजों के थोक में खरीदते हैं और सेर-आध सेर, पाव, खुदरा में बिक्री करते हैं। आज एक कान का ग्राहक आया है तो उसे कान दे देवेंगे, कल यदि नाक का ग्राहक आया तो उसको नाक दे देंगे। भगवान करे कोई आँख का ग्राहक मिल जावेगा तो इस मूंड का बहुत अच्छा दाम मिल जावेगा। इतनी बात बोलते-बोलते उस दुकानदार की ओर देखकर बोला-देखते क्या हो मैं कहता हूँ ना एक कान काट कर ले जाओ और रोकड़ी 175/- रुपये रख जाओ। अब ठाकर हाय तोबा करने लगा। कुछ देर में गिड़गिड़ाने लगा। आखिर में लोगों ने बीच-बचाव किया और ठाकर को अपना 2000/- रुपये की कीमत का ऊँट देकर सेटलमेन्ट करना पड़ा।
संपर्क: -4ए, शम्भूनाथ पण्डित स्ट्रीट, कोलकाता-20 मो. - 9331042827

स्मरण: भागीरथ कानोड़िया - कुसुम खेमानी

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता की स्थापना में जिन दो लोकसेवियों ने निर्णायक भूमिका निभाई उनमें स्वर्गीय सीताराम सेक्सरिया और स्वर्गीय भागीरथ कानोड़िया का योगदान ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है। भारतीय भाषा परिषद की मंत्री डॉ. कुसुम खेमानी की यह रचना उन्हीं में से एक स्वर्गीय भागीरथ कानोड़िया की स्मृति को समर्पित है। -संपादक


‘पीड़ पराई जाणै सोई भागीरथो.....सोई कानूड़ियो’ - यह कोई लोकोक्ति नहीं, मुकुंदगढ़, सीकर, चूरू आदि के गांव वालों के आपसी बातचीत के उद्गार हैं। ...हाँ घटता है कभी ऐसा भी कि कोई व्यक्ति जीते जी कहावत बन जाता है.... छिपता रहता है वह कि लोग उसे पहचानें नहीं, पर कस्तूरी की गंध छिपे कैसे? सैकड़ों व्यक्तियों और संस्थाओं का अभिन्न अंग ‘भागीरथ कानोड़िया’ हमेशा ऐसी स्थिति से तो बच निकलता था कि कहीं भूले से भी उसका फोटो न उतर जाए-पर लोगों के मनों से कैसे बचता?
जब कभी प्रयास किया गया कि उनका अभिनन्दन किया जाए तो उनका एक ही उत्तर होता, ‘मनै जीते जी क्यूँ मारो।’ अपने गुण और दान का दिखावा तो बहुत दूर, शायद उन्होंने पैदाइशी इन्हें छिपाना ही सीखा था। क्या मजाल कि बन्दे का कोई फोटो किसी सार्वजनिक सभा में भी खींच जाए...किसी जादुई कला से वे अपने आपको वहाँ से नदारद कर लेते थे।
करुणा और दया के महीन स्पर्श को समझना हो तो भागीरथजी को देखना चाहिए। जैन साधु जैसे राह चलते कीड़े-मकोड़ों को हटा देते हैं कि वे कुचलकर मर न जाएँ कुछ ऐसी ही संवेदना...। करुणा एक सहज उद्रेक की तरह स्थायी भाव था उनका, जो उनके कार्य-कलापों में छलछलाता रहता था। राहत कार्य हज़ारों होते हैं और नहरें भी मजदूरी हेतु खोदी ही जाती हैं, पर क्या कभी किसी ने देखा-सुना है कि एक प्रौढ़ कृशकाय धनी व्यक्ति हाथों में चप्पलों की जोड़ियाँ उठाए राजस्थान की तपती बालू में चल रहा है, और उन्हें नहर खोदते मजदूरों के पैरों में पहना रहा है।
क्या कभी किसी ने देखा है कि कोई लाखों का दान गर्दन झुकाकर, नज़रें नीची कर, मुट्ठी बंद कर और चेहरे पर सारी दुनिया की शर्म बटोरकर करता है? जिसका एकमात्र लक्ष्य होता है कि औरों की तो ‘खैर सल्ला’ खुद लेने वाले को भी पता न चले कि उसे कुछ दिया गया है। ये बातें सुनी हुई नहीं आँखों देखी हैं।
देखने में एक साधारण किसान जैसे निरीह भाव वाले कानोड़ियाजी दर्शन-शास्त्र के सार-तत्त्व को अपनी जीवनचर्या में कैसे ढाल चुके थे, इसकी एकाध बानगी....
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ बड़ा रूमानी और खूबसूरत ख्याल है, पर आज यह सिर्फ ख्याल ही रह गया है, इसे हकीकत में सिर्फ भागीरथजी सरीखे ही जीते हैं।....1976 के फरवरी महीने में, मंडावा (झंुझुनू के पास का एक गाँव) की घटना है यह। ड्याोढ़ी से ‘ठाकराँ जी’ दौड़ते से आए और बोले, ‘मुकुन्दगढ़ से कानोड़िया आया है।’
‘काकोजी ! यहाँ कैसे? ‘उनसे पूछा तो बोले, ‘यहाँ से गुज़र रहा था, पता चला तुम आई हो तो मिलने आ गया।’ बात खत्म.
पर दूसरे दिन फिर पता चला कि काकोजी मंडावा आए हैं। पूछा तो फिर वही हँसी भरा उत्तर...कि तुम...यहाँ...।
मैंने कहा-‘काकोजी, साची बात बताओ। क्यूँ रोज-रोज मंडावा आओ हो?’
वे थोड़ा ठहर कर बोले...‘अमुक सेठ सै बात होई है, बै मंडावा में स्कूल बणा देसी। सोचूँ हूँ जमीन देखकर काम शुरू करा देऊँ तो स्कूल बण जासी।’
अस्वस्थ काया और स्वस्थ मन लिए भागीरथजी जीप का डंडा पकड़े मुकुन्दगढ़ से आते और घंटो ‘खटराग’ झेलते। हाई स्कूल तो उन्होंने बनवा ही दिया, यह बात इतर है कि उसमें पढ़ने वाला और उसे देखने वाला कोई भी यह नहीं जानता कि इसमें भागीरथजी का भी योगदान है। मुकुन्दगढ़ का बाशिंदा मंडावा के लोगों की चिंता में घुला जाए-यह बात क्या विश्वसनीय लग सकती? पर धरती का कण-कण जिसे अपना घर लगता हो उसके बारे में क्या कहा जाए।
काकोजी और बाबूजी
पता नहीं क्यों काकोजी की बात करते ही सीताराम बाबूजी की याद आ जाती है। काकोजी और बाबूजी जब तक जीवित थे, तब हर वक्त ऐसा नहीं होता था, पर काकोजी (उनका निधन बाबूजी से पहले हो गया था) के जाने के बाद तो जैसे यह आदत ही पड़ गई। बाबूजी के जीते जी ही ऐसा घटने लगा था कि हरेक मुलाकात में किसी न किसी बात पर काकोजी की चर्चा होती है।
बाबूजी की स्नेहभाजन बनने के बाद शुरूआती दिनों में मैं दोनों को एक दूसरे के अच्छे दोस्त के रूप में तो जानती थी पर उनके सम्बन्धों की अथाह गहराई का अन्दाज मुझे नहीं था।
घटना 1971 के जनवरी महीने की है। बाबूजी के पैर की हड्डी टूट जाने के कारण उनको अस्पताल में भर्ती किया गया था, पर हड्डी से ज़्यादा सबकी चिन्ता का विषय था उनका रक्त-चाप। पन्ना बाई (उनकी बड़ी बेटी) कुछ ज़्यादा ही उद्विग्न और आकुल व्याकुल सी लगीं, जैसे वे किसी विशेष बात के लिए छटपटा रही हों। मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला- ‘बाई, मामाजी (अशोक सेकसरिया, सीतारामजी के बड़े बेटे) दिल्ली हैं, इसीलिए इतना घबड़ा रही हैं? आप बिलकुल चिंता मत कीजिए, एमरजेंसी कहने से एक टिकट तो मिल ही जाएगा और वे जरूर आ जाएँगे।’ बाई ने उसी सांस भरे स्वर में कहा- ‘अरे एक टिकट भी मिल जाए तो कम से कम चाचाजी (भागीरथ जी) तो आ जाएँ?’
मैं दंग...सोचने लगी-बाबूजी और काकोजी के सम्बन्धों की इन्तहा। अशोक मामा और बाबूजी का एक दूसरे से मोह और टकराव भी किसी से छिपा नहीं था। हम सब इसे नजदीक से अनुभव करते थे कि अशोक मामा की अपने साथ की गई ज़्यादतियों से बाबूजी किस तरह आहत हो जाया करते थे। दरअस्ल बाबूजी, उस माँ की तरह थे जो अपने कमजोर बेटे को ज़्यादा प्यार करती है....और उन्हीं अशोक मामा के लिए बाई फिर किसी से कह रही थीं, ‘पोपी’ (अशोक मामा के घर का नाम) छोड़ तो चाचाजी ही नहीं आ पा रहे, देखो क्या होता है? अरे भाई! एक टिकट भी मिल जाए तो कम-से-कम चाचाजी तो आ जाएँ।’
प्रभु की कृपा से कालांतर में बाबूजी के नजदीक आने पर पन्ना बाई के उस उद्गार का अर्थ एक छवि की तरह मेरे सामने साफ होता चला गया।
रोज़मर्रा के जीवन में यह वाक्य हम अक्सर दुहराते रहते हैं, ‘वे तो दो शरीर एक आत्मा हैं।’ वैसे इस वाक्य को भी हमने एक तरह की ंिकंवदंती ही मान लिया है। कई शब्द और वाक्य समाज में इसलिए चल पड़ते हैं कि ऐसा हो तो सकता नहीं अतः जहाँ थोड़ी अर्थछाया भी दिखे इसे जड़ दो, लेकिन बाबूजी और काकोजी को देख मुझे लगा कि नहीं, यह मात्र मुहावरा या किंवदंती नहीं, ऐसा घट भी सकता है। हालांकि अभी मुझे दो-चार बातें ही याद आ रही हैं पर यदि आप भी उन्हें जानें तो शायद मेरा यह कहना आपको अतिशयोक्तिपूर्ण न लगे।
बाबूजी को सन् 1972-73 के आसपास एक ‘झख’ चढ़ी (उनके लिए तब यही शब्द हमलोग बोला करते थे) कि कलकत्ते में सभी भाषाओं के साहित्य के प्रसार के लिए एक संस्था स्थापित करनी चाहिए। अब तक बाबूजी मातृ सेवा-सदन, मारवाड़ी बालिका विद्यालय और श्री शिक्षायतन स्कूल-कॉलेज जैसी संस्थाएँ स्थापित कर चुके थे। नई परिकल्पना के लिए लोगों से चन्दा जुटाना, जमीन खोजना, भवन बनाना आदि के बारे में सोचकर अच्छे-अच्छे जवान भी घबरा जाते हैं; पर बाबूजी थे कि 80 साल की उम्र में भी एक नौजवान की तरह ख़म ठोककर तैयार थे और पूरी तरह भरोसेमन्द कि काम तो होगा ही।
उनके घर-बाहर के आत्मीय-स्वजन थोड़े चिंतित भी थे। कोई कहता- ‘इतनी मेहनत इस उम्र में?’ कोई कहता-‘समाज में चंदे का मानस ही नहीं रहा’, तो कोई कहता- ‘बाबूजी, लोग कहेंगे आप ‘जक’ (चैन) नहीं लेने देते, कुछ न कुछ अडं़गा करते ही रहते हैं’ पर बाबूजी की चिन्ता में भी एक निश्ंिचतता थी काम के पार पड़ने की।
और लोगों की तरह मैंने भी चक्की पीसने वाले (बाबूजी की कल्पनाओं की रोटियों के लिए आटा तैयार करने वाले काकोजी) से पूछ ही लिया, ‘काकोजी, के सांच्याईं बाबूजी नई संस्था बणावैगा? बण ज्यासी?’
काकोजी का बिना अटके सीधा-सपाट जवाब था, ‘इन्नाक जची है तो बणाणी तो पड़सी ई। हो सकै है पार भी पड़ ज्यावै।’
वह संस्था (भारतीय भाषा परिषद) बनी ही नहीं बाबूजी के सपनों के अनुरूप ही बनी। पर जरा उस व्यक्ति के बारे में सोचिए जिसका एकमात्र ध्येय था सीतारामजी के कहे हुए को, सोचे हुए को, पूरा करना-बिना किसी दुविधा के, बिना किसी देर के।
और यही बाबूजी जो परिषद के लिए लाखों जुटा लाए थे काकोजी के बिना कैसे हो गए थे?
काकोजी को गए (मृत्यु हुए) थोड़े ही दिन हुए थे। मैं बाबूजी के पास बैठी थी। एक पत्र आया, ‘दुर्लभ पाण्डुलिपियों के लिए जो आलमारियाँ आप खरीदवाना चाहते थे, उनके बारे में छानबीन की, तो पता लगा, दस हज़ार की जगह साढ़े सात हज़ार में ही काम हो जाएगा। आप जैसे ही रुपए भेजेंगे आलमारियाँ लखनऊ से आ जाएँगी।
बाबूजी ने हताशा से पत्र एक ओर रख दिया और बोले, ‘भागीरथ जी तो रहे नहीं और लन्द-फन्द इतने बढ़ा लिए! कैसे करें? क्या हो?’ मैं हैरान। एक ओर तो हाल ही में बनाई गई लाखों की संस्था और दूसरी ओर बाबूजी को चिन्तित कर दिया, इस सामान्य सी राशि ने?
वह काम कैसे पूरा हुआ यह अलग बात है; पर उनकी यह एक उक्ति ही व्याख्या कर देती है उस पूरे सम्बन्ध की। एक ऐसा
सम्बन्ध, जिसमें कुछ कहना तक न पड़े और दूसरा बिना कहे ही पूरी बात समझ ले।
यों भी बाबूजी को जब किसी बात का उदाहरण देना होता तो वे काकोजी के जीवन से दे देते, चाहे वह ‘उस’ भिखारिन की घटना हो जिसे काकोजी महीना दिया करते थे, और एक बार न मिलने पर उसे कहाँ-कहाँ ढूँढ़ते फिरे थे, चाहे सत्रह वर्ष की आयु में रिश्तेदारों की पंचायती के फैसले पर- ‘भोत आयो युधिष्ठिर की औलाद’ जैसा फतवा सुनने की बात हो।
नहीं, नहीं करते भी काकोजी की दिनचर्या से सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। हालाँकि मैंने उनको बहुत नहीं जाना फिर भी शायद एक पूरी रात काफी न रहे यदि भागीरथ कानोड़िया का जिक्र छिड़ जाए। कई बार तो ऐसा लगता है कि उनका हरेक दिन अपने आप में एक अलग बानगी लिए रहता होगा और स्वाभाविक तौर पर अनुकरणीय।
मैंने सीकर में काकोजी द्वारा स्थापित टी.वी. अस्पताल से लौट कर एक घटना बाबूजी को सुनाई, कि कैसे काकोजी इतने बड़े चिकित्सा-शिविर, जो अस्पताल में लगाया गया था, जिसमें पूरे भारत से नामी-गिरामी सर्जन आए थे, की सारी उपलब्धियों को भूल कर एक बणजारे की शिकायत की शोध में लग गए। पूरा वर्णन खत्म कर मैं गद्गद् कण्ठ से कह बैठी, ‘बाबूजी, सच पूछें तो मुझे काकोजी आपसे भी महान लगे।... बहुत बड़े।’ बाबूजी थोड़ा चौंंके...क्योंकि वे मुझे बचपन से जानते थे और यह भी जानते थे कि मेरी आँखों के अंतिम क्षितिज वे ही थे। वे कुछ रुके फिर बोले- ‘ठीक कहती हो तुम!....अरे! भागीरथजी की क्या बात!...वे तो ‘फड़द’ हैं, ‘फड़द’ (मारवाड़ी में फड़द का अर्थ होता है, जिसका जोड़ न बना हो, जो एकदम अनोखा, अनूठा, बेजोड़ हो)।’
बाबूजी और काकोजी इतने अभिन्न थे कि एक की बात करते हुए दूसरे का जिक्र न हो यह संभव ही नहीं। यह मैंने उनके रहते हुए भी स्वयं देखा जाना है। महाभारत में एक प्रसंग है, धृतराष्ट्र के मरने की खबर सुनते ही उसके प्राणसखा संजय के प्राण पखेरू उड़ गए। कुछ-कुछ वैसी ही काकोजी की बीमारी के समय (उनके तरह-तरह के परीक्षणों के समय) बाबूजी की दशा थी। मरना तो उनके वश में नहीं था पर अधमरे तो वे हो ही गए थे।
उन्हें बड़ा बताते वक्त क्या बाबूजी का कद और ऊँचा नहीं हो जाया करता है? दोनों का स्नेह सम्बन्ध देख भगवान देवी (सीतारामजी की पत्नी) काकोजी के लिए यों ही नहीं कहा करती थी कि ‘भागीरथजी तो इन्नाकी भू है (भागीरथ जी तो इनकी पुत्र वधू हैं)।’ इसमें ध्वनि उस आज्ञाकारी बहू की होती थी जिसका एकमात्र ध्येय अपनी सास की सारी आज्ञाओं का पालन करना हो। काकोजी और बाबूजी के सम्बन्धों की और काकोजी की निस्पृहता की एक झाँकी-साक्षी-कुसुम खेमानी।
बाबूजी घर से बाहर निकल ही रहे थे कि काकोजी घुसे। बाबूजी बोले, ‘भागीरथजी! मैं कुसुम कै सागै जा रह्यो हूँ, काल मिलाॅगा।’
‘ठीक है’ कह कर काकोजी मुड़ लिए। तभी बाबूजी ने कुछ याद आया ऐसी मुद्रा में आवाज दी- ‘भागीरथजी!... कै होयो आज ट्रस्ट में?’
‘कोई खास बात कोनी,काल कर लेस्याँ’-काकोजी ने कहा।
बाबूजी बोले- ‘फेर भी, कुछ तो होयो ई होसी।’
‘मैं ट्रस्ट छोड़ दियो।’...(काकोजी)
‘कै?....के बोल्या थे? ट्रस्ट छोड़ दियो?....यो थे के कर्या?’ कहते हुए बाबूजी ने अपना रुख वापस भीतर की ओर कर लिया। उनके संगमरमरी रंग पर क्रोध की गुलाबी आभा कनपटी तक खिंच गई।
‘छोड़ आया? इतै बड़े ट्रस्ट नै एक मिनट में छोड़ दियो? बरसाँ तक खट्या, मर्याँ थे और अब दूसराँ कै भरोसै छोड़ दियो? कोर्ट थानैं सम्हलायो थो यो ट्रस्ट....थे या कै करी?..’ बाबूजी के चेहरे पर क्षोभ और हताशा का भाव छाया था। काकोजी चुपचाप, उनकी बातें सुनते रहे-अंत में एक ही वाक्य बोले, ‘सीतारामजी, आदमी मर भी तो जावै, समझ लो मैं ई ट्रस्ट के लिए मरग्यो।’
आज छोटी से छोटी संस्था में पदों को लेकर खींचातानी चलती रहती है। बिना कुछ किए धरे ही हम सरीखे लोग बहुत सा नाम और पद पा लेना चाहते हैं। ऐसे घटाटोप में भागीरथ कानोड़िया जैसे लोग बेजोड़ ही कहे जाएँगे। हाँ, बेजोड़-उस ‘फड़द’ की तरह जिसे बुनकर जुलाहा अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर कह देता है कि, इस नमूने का जोड़ा बनाना मेरा बूते से बाहर है।
- साभार: वागर्थ, मई-09

कहानी: भीतरी सन्नाटे - यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’


Yadwendra Sharma'chandra'परिचय: देश के जाने माने साहित्यकार और कथाकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का 3 मार्च, मंगलवार की देर रात बीकानेर में निधन हो गया। वे 77 वर्ष के थे। उनके परिवार में पत्नी और तीन पुत्र हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, राजस्थानी भाषा संस्कृति एवं साहित्य अकादमी बीकानेर सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ ने एक सौ से अधिक साहित्यिक कृतियों का सृजन किया। इनमें लगभग 70 उपन्यास और 25 कहानी संग्रह शामिल हैं। उनके चर्चित उपन्यास, ‘हजार घोड़ों पर सवार’ पर दूरदर्शन ने टेली फिल्म बनाई थी। उनकी कृति पर टेली फिल्म, गुलाबड़ी और चांदा सेठानी बनाई गई। ‘चन्द्र’ ने अपनी लेखनी से समाज को नई दिशा देने के लिए जीवनपर्यन्त सादगी व ईमानदारी से सृजन धर्म का निर्वाह किया। उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, कविता संग्रह एवं लघु नाटकों की 100 से ज्यादा पुस्तकों की रचना कर साहित्य के क्षेत्र में अपना अपूर्व योगदान दिया है जो सदैव एक मिसाल के रूप में जीवंत रहेगा। उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए यहाँ उनकी कहानी ‘भीतरी सन्नाटे’ प्रकाशित कर रहे हैं| संपर्क: - आशा लक्ष्मी, नया शहर बीकानेर - 334004
-संपादक




उसकी नौकरी मुम्बई में लग गई। एक बड़ी प्राइवेट कम्पनी में। आखिर वह सी.ए. था। अपने कस्बे ‘नोखा’ से महानगर मुम्बई आ गया।
शुरू में वह एक मध्यवर्गीय होटल ‘गुलनार’ में रहा। एक बेडरूम का हवादार कमरा। फॉम का बिस्तर था पर उसकी दूध सी सफेद चादर पर एक हलका सा दाग था जिससे वह बेचैनी का अनुभव करने लगा। उसने चादर चेंज करा ली।
पहली बार जब वह अपनी कम्पनी में आया तो उसके मालिक जी.एस. चावला ने उसका स्वागत किया। उसे अपने खास-खास कर्मचारियों से मिलाया जिसमें उसकी स्टेनो मिस ‘वन्दना’ भी थी।
आठ-दस दिनों में उसने दफ्तर के काम को पूरी तरह समझ लिया तो एक दिन वन्दना ने कहा, ‘‘सर! इफ यू डॉन्ट माइन्ड तो कुछ कहूँ।’’
रोहन ने कहा, ‘कहो।’
‘‘यह श्रीशा है न, यह विचित्र युवती है। बहुत ही बातूनी, खुले दिमाग़ की, फ्लर्ट.....’’
‘‘वन्दना! तुम्हें ऑफिस के डिसीप्लीन का पता नहीं है। श्रीशा क्या करती है, क्या खाती-पीती है, क्या पहनती है, वह किस- किस के साथ घूमती है, इसकी ऑफिस में कोई फाइल नहीं है। यह सही है कि वह अपना काम जिम्मेदारी से करती है। मैं तुम्हारा बॉस हूँ। ऊल जलूल बातें मुझें पसंद नहीं। उसने कठोर स्वर में कहा।
‘सॉरी सर!’ वन्दना सिर झुका कर चली गई।
रोहन ने एक अच्छे अफसर की तरह अपने ऑफिस का कार्य संभाल लिया।
अब वह मकान की तलाश में लग गया। वह ऐसा मकान चाहता था जहाँ अभिजात्य वर्ग के लोग रहते हों। उसके सारे पड़ोसी पढ़े-लिखे हों, अंग्रेजीदा हों तो उत्तम! फ्लैट में पश्चिम की ओर बरामदा हो जहाँ पछुआ हवा बेरोक आती रहे। उस मकान के आस-पास झुग्गी-झोंपड़ियाँ और चालें न हों। उनकी मौजूदगी उसे कीड़े-मकोड़े की तरह रहने वाले लोगों के बारे में सोचने के लिए विवश करेंगी और वह निरर्थक तनाव से घिर जाएगा, वह जरा एकांतप्रिय था। वह यह वाक्य अपने पर आरोपित करता रहता था कि वह भीड़ में अपने को अकेला आदमी समझता है।
वह बचपन से ही मितभाषी था। फालतू बोलने वाले छात्र- छात्राओं से वह बचा करता था। वह उनसे लगभग दूर ही रहता था, जो अपने को काफी आधुनिक कहते थे और सिगरेट-शराब पीते थे, उनसे भी बचता रहता था। इसलिए वह चाहता था, एक अपने मनोनुकूल वातावरण वाला मकान। शांत और खुला।
वह नौकरी के बाद मकान ढूँढ़ता रहता था। जब वह थक जाता था तो मुम्बई की चौपाटी पर जाकर बैठ जाता था। लहरें गिनता रहता था। कई बार अपनी इच्छा के विरुद्ध वह चर्च गेट के स्टेशन के मुख्य द्वार पर खड़ा हो जाता था और आदमियों की भीड़ का रेला देखता रहता था। वह देखता-रंग-बिरंगी पोशाकें। भागमभाग।
उसे जल्दी ही इस बात का पता चल गया कि वह अपने मन के अनुकूल फ्लैट ले नहीं सकता। उसका मालिकाना हक और पगड़ी देना उसके वश का फिलहाल तो नहीं है। परिवार की जिम्मेदारियाँ तो ‘ताड़का’ राक्षसी के मुख की तरह फैली थीं। तीन कुँवारी जवान बहिनें। पेंशन पर दाल-रोती खाने वाले माँ-बाप। .....वह उद्विग्न हो गया। उसके आगे मीलों अनंत मरुस्थल के टीबें फैल गए।
एक दिन उसने अपने चीफ एकाउन्टेंट प्यारेलाल को अपनी समस्या बताई।
प्यारेलाल ने कहा, ‘‘आप या तो अपने सपनों को भंग कर दीजिए या फिर जीवन की कटुता समझ लीजिए। यह मुम्बई है, यहाँ सोना जितना चाहो कुछ ही मिनटों में खरीद सकते हैं पर सोने की जगह आसानी से नहीं मिल सकती।.....फिर भी आप मिस श्रीशा से बात कीजिए। वह काफी जानकारियाँ रखती हैं।’’
‘‘श्रीशा जो आपके पास.....।’’
‘‘हाँ-हाँ, वही श्रीशा.....।’’
‘‘उसके बारे में.....।’’
‘‘नहीं मिस्टर रोहन, चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष, सबके जीने का अपना-अपना तरीका है। व्यक्तिगत सुख और आनन्द भी सबके अलग होते हैं। रुचियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और परिभाषाएँ भी। मुझे कई बार लगता है कि यह श्रीशा जो है, वह नहीं है। इसने कृत्रिमता का एक लबादा पहन रखा है। उसकी एक क्वालिटी और है, वह सबकी मददगार भी है।’’
‘‘आप उसे मेरे पास भेजिए।’’
थोड़ी देर में श्रीशा उसके कैबिन में थी। आते ही विनम्रता से बोली, ‘गुड नून सर!’’
‘‘बैठिए.....आप मेरी प्रॉब्लम हल करने में मदद कर सकती हैं, मलकानी साहब कह रहे थे।’’
‘‘मुझे खुशी होगी यदि मैं आपके काम आ सकूँ तो।’’
‘‘श्रीशा जी! आप तो इसी शहर की उपज हैं। सारी एजुकेशन भी आपने यहीं पूरी की है। मैं सच कहता हूँ कि मैं आपको जरा भी कष्ट देना नहीं चाहता पर कई बार मनुष्य न चाहते हुए भी दूसरों को कष्ट देता है, मैं आपको......।’’
वह सहज मुस्कान अधरों पर लाते हुए बोली, ‘‘किसी भूमिका की जरूरत नहीं है। साफ-साफ बताइए कि आप मुझे क्या कष्ट देना चाहते हैं।’’
‘‘मैं कई रोज से फ्लैट के लिए परेशान हूँ।.....कभी मेरी जेब एलाऊ नहीं करती है और कभी......।’’
उसने संक्षिप्त रूप में बताया कि वह किस एरिया में और कैसा फ्लैट चाहता है।
‘और.....क्या खर्च कर सकते हैं?’
‘यही दो हज़ार....ज़्यादा से ज़्यादा तीन....इसके आगे मेरी क्षमता नहीं, मेरा भरा-पूरा परिवार है। उसकी भी परवरिश करनी है।’ रोहन ने कहा।
उसने ललाट में बल डाल कर अपना दायाँ कान खुजला कर कहा, ‘माफी चाहती हूँ।.....फिर आप किसी खोली में कमरा ले लीजिए। अपनी इच्छा का फ्लैट लेना है तो पाँच-सात हज़ार रुपए खर्च कीजिए या फिर पाँच-सात लाख पगड़ी दीजिए।’
‘यह संभव नहीं।’ उसने नई बात बताई, ‘दरअसल कम्पनी ने साफ-साफ कह दिया था कि तीन साल तक वह केवल तनख्वाह ही देगी। ऐसी स्थिति में.....।’
वह बीच में ही बोली, ‘मुझे आपकी बात बनती नज़र नहीं आती है। फिर भी मैं बाइ हर्ट, कोशिश करूँगी कि आपकी पाॅकेट के अनुसार काम हो जाए। फिर आपका लक।’
श्रीशा चली गई।
रोहन ने सोचा कि यह काफी आकर्षक है। गोरा रंग, कंजी आँखें, तीखे नाक-नक्श, फाँक की तरह अधर और निडर भी।
रोहन और उसके बीच संवाद कम ही थे। लेकिन मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। सहिष्णु होना ही पड़ा। श्रीशा से रोहन को सदैव पूछना ही पड़ता था।
लगभग तीन दिनों के प्रयास के बाद श्रीशा ने रोहन को बताया, ‘मैंने सभी इलाकों का सर्वेक्षण कर लिया है। आप जिस एरिया में फ्लैट चाहते हैं रोहन बाबू, इतना किराया तो आटे में नमक जैसा है। पूरी रसोई नहीं मिल सकती। कहने का मतलब है, कारवालों की एरिया में कम से कम पाँच हज़ार रुपए तो किराया और पाँच लाख पगड़ी, वह भी वन बेड रूम की। उसमें पछुवा हवा नहीं आ सकती, आ सकती है तो केवल पंखे की हवा। हाँ, मेनन साहब की चाल में कमरा पाँच सौ रुपयों में मिल सकता है, किराए पर। पगड़ी एक लाख अलग से।’
‘नहीं मैडम, यह संभव नहीं है। आपको पता नहीं, मेरे कंधों पर दायित्वों का भयंकर बोझ है। मुझे मेरे माँ-बाप ने बड़े कष्टों में पढ़ाया है।’
इसके बाद रोहन भी प्रयास करता रहा और श्रीशा भी।
श्रीशा ने एक दिन मुलायम स्वर में कहा, ‘सर! आप मेरे बॉस हैं। मैं आपकी मानसिक स्थिति समझती हूँ। महानगरों की यह समस्या खत्म होगी ही नहीं। हज़ार मकान बनते हैं साथ ही पाँच- दस हज़ार नए लोग आ जाते हैं। सारा खेल खत्म हो जाता है। समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। हाँ, यदि आप पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचें तो मैं आपके सामने अच्छा और सस्ता प्रस्ताव रख सकती हूँ। आप अपनी अनुकूलताओं की कटौती करें।’
‘आप पहेलियाँ मत बुझाइए। साफ-साफ कहिए। बोलती आप कुछ ज़्यादा ही हैं।’
‘यह सही है। बोलती ज़्यादा हूँ। मजाकिया हूँ सर! हर आदमी का अपना अलग स्वभाव होता है। अलग आनन्द होता है। मैं समझती हूँ कि हमारे भीतर कई इंसान हैं जो पल-पल सक्रिय होते रहते हैं।’
‘अपनी रहस्यपूर्ण बातें बंद करिए प्लीज। शॉर्ट में कहिए।’
‘हमारे फ्लैट में तीन कमरे हैं। पूरा सेकेंड फ्लोर हमारा है। आजकल हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। दस तारीख तक जेबें व बटुवे नंगे हो जाते हैं। मम्मी चाहती हैं कि हम कोई शरीफ और समय पर पैसा देने वाला पेईंग गेस्ट रख लें। जो कमरा हम आपको देंगे, उसमें अटेच्ड बाथरूम भी है। पूरब में खिड़की है, पछुवा हवा चलती है तो अवश्य कमरे में आती है। चूँकि मैं और मेरी मम्मी घर में दो ही जनें हैं, इसलिए घनघोर खामोशी भी रहती है। किराया दो हज़ार से कम नहीं होगा। यदि आप ब्रेकफास्ट, लंच व डिनर लेंगे तो एक हज़ार रुपए और, यानि तीन हज़ार में परिवार की तमाम सुविधाएँ। एकदम रीजनेबल रेट है यह। एक और कारण है। आजकल महानगरों का जीवन सुरक्षित नहीं है। अकेली औरतें आतंक से घिरी रहती हैं।’
‘मैं सोच कर बताऊँगा।’ उसने छोटा सा उत्तर दिया।
‘लेकिन जल्दी, तीन दिनों के भीतर! समझे। कई ग्राहक आ रहे हैं पर हमें परिचित व शरीफ पेईंग गेस्ट चाहिए।’ श्रीशा ने आँखों में स्पन्दन वाले भावों को चमकाया।
रोहन को अपने भीतर कुछ महसूस होता सा लगा। श्रीशा सिर झुका कर चली गई।
तीसरे दिन छुट्टी थी। गणेशोत्सव की। मुम्बई में अकल्पनीय हलचल। भाँति-भाँति की मूर्तियाँ! आकर्षक व भावभीनी। मूर्तिकारों की सारी सोच, कल्पना और श्रम गणेश जी को विभिन्न रूपों में साकार करने की योजनाएँ। योजनाएँ क्रियान्वित होती हैं पर जब वे श्रद्धामयी मूर्तियाँ पानी में समर्पित कर दी जाती हैं तो श्रीशा का मन तड़प उठता है।
उसने इसी कारण गणेशोत्सव में शामिल होना बंद सा कर दिया पर उसे नहीं पता, मिट्टी की मूर्ति अंत में मिट्टी में मिल जाती है।
सूरज के डूबने का समय था। क्षितिज लाल। स्त्री-पुरुष और बच्चे बेतहाशा समुद्र की ओर जा रहे थे। उनके चेहरों पर श्रद्धा का रंग दपदप कर रहा था।
श्रीशा अपने को प्रकृति के विभिन्न रंगों में डूबाना चाहती थी पर उसे क्यों बार-बार याद आ रहा था कि आज तीसरा दिन है। रोहन आज नहीं आएगा तो? उसकी आँखों में आशा का समुद्र सिकुड़ने लगा। उसकी आँखों में झिलमिलाते रंग मिटने लगे। आशा थी कि वे जरूर आएँगे। मकान की उन्हें बहुत जरूरत है पर साँझ का सूरज अस्त होने के करीब था।
सहसा उसने गणेश भगवान को स्मरण किया। कदाचित वह कहीं से रोहन को अपने भीतर कीड़े की तरह कुलबुलाते हुए महसूस कर रही थी।
सहसा घंटी बजी। वह लपक कर दरवाजे की ओर भागी। बिना सोचे और बिना जाने उसने तपाक से दरवाजा खोल दिया।
एक गोरा-गोरा मुरझाया चेहरा खड़ा था।
‘आइए सर।’
रोहन भीतर आया। घर पुराना पर साफ-सुथरा। श्रीशा उसे उसी कमरे में ले गई, जिसे उसे किराए पर देना था। कमरे में वह सब कुछ था जिनकी एक व्यक्ति को जरूरत होती है। पंखा, पर्दे, डबल-बेड, बाथरूम, अलमारी, सोफा और साइड स्टूलें।
इन सबको देख कर रोहन की आँखों में एक साथ कई प्रश्न चमके।
‘बैठिए सर! मैं पानी लेकर आती हूँ।’
वह कमरे से बाहर चली गई। वह नादान बालक की तरह कमरे को देखता रहा।
‘सर! पानी!’
उसने पानी पिया। गटागट।
‘चाय पीएँगे या कॉफी?’
‘कॉफी।’
चली गई श्रीशा।
वह सोचने लगा कि क्या यही वह श्रीशा है जो लोगों की नज़रों में काफी फ्लर्ट है। कुछ लोग तो इसे चालू भी कहते हैं। व्यंग्य में दबी जबान में गंदगी उछालते हैं कि इसके शरीर के समन्दर में कई लोग डुबकी लगा चुके हैं पर रोहन को वह बड़ी शालीन लगी।
वह कॉफी ले आई थी। कप हलके नीले रंग के थे। कॉफी के साथ उनका मेल अच्छा लग रहा था। अपने लिए भी वह कॉफी लाई थी।
‘इतनी देर में आपने कमरा तो देख लिया होगा?’ श्रीशा सहज स्वर में बोली, ‘अब आप मेरी बातों पर ध्यान रखकर यस-नो कहिए सर!’ श्रीशा की आँखों में सहसा सैलाब उभरा। स्वर का बुझापन बढ़ गया। बोली, ‘दबाव की बात नहीं है। आप हम पर दया नहीं करेंगे। यदि यह रूम आपको पसंद है तो आप यहाँ रहने आ सकते हैं। हमें भी किसी अच्छे किराएदार की तलाश है। आप सभी दृष्टियों से सही हैं। और लोग कहते हैं कि एक से भले दो और दो से तीन।’
रोहन चुप हो गया। गंभीर कोमलता उसके चेहरे से चिपक गई। क्षणिक गूँगापन!
कॉफी के एक साथ दो घूँट लेकर रोहन ने कहा, ‘मैं तुमसे उम्मीद रखूँगा कि तुम मुझे सच-सच बताओगी, चाहे वह सच नीम की तरह कडुवा भले ही हो। इस कमरे को देख कर मुझे लगा कि क्या पहले उसमें कोई रहता था?’
बुत-सी स्थिरता श्रीशा में आ गई। आँखों से लगा कोई संवाद उसके आगे प्रेतात्मा सा नाच रहा है।
रोहन ने फिर पूछा, ‘सच बताओ।’ वह सहसा उसके सन्निकट हो गया। आप से तुम पर आ गया। उसकी गर्दन झुक गई। लगता था कि वह किसी अपराध बोध से घिर गई हो। फिर भी साहस करके वह बुझे स्वर में आहिस्ता-आहिस्ता बोली, ‘हाँ, इसमें मेरे पति रहते थे। माइ हसबैंड!’
‘क्या?’ रोहन की आँखें विस्फारित हो गई। जैसे सब कुछ पल भर के लिए थम गया हो।
‘हाँ रोहन बाबू! इस कमरे में मैं और मेरे पति रहते थे। इस कमरे में जो कुछ भी है, उनका ही खरीदा हुआ है।’
‘अब वे कहाँ हैं?’
‘ही इज नो मोर सर! मैं इतनी भाग्यहीन हूँ कि तुरन्त विधवा हो गई।’
‘उन्हें क्या हुआ था?’
‘कुछ नहीं, वे अपाहिज थे। एक टाँग से लँगड़े थे। कहते थे कि किशोरावस्था में एक्सीडेंट हो गया था। प्रॉपर इलाज न होने के कारण वे बैसाखी के सहारे चलते थे।’
‘फिर तुमने शादी.....।’ रोहन की आँखों में विस्मय चमका।
वह उदास मुस्कान से बोली, ‘हमने प्रेम विवाह किया था। एक बार मैं दफ्तर से आ रही थी। एक मोड़ पर एक कार वाला उन्हें टक्कर मार गया। वे अचेत हो गए। मैंने देखा उन्हें कोई उठा नहीं रहा है। मैं नहीं जानती कि वह किसकी प्रेरणा थी पर मैं उन्हें राहगीरों की सहायता से अस्पताल ले गई। सुबह तक वह स्वस्थ हो गए। रात को मैं घर लौट आई थी। उनका एक मित्र आ गया था।’
‘जब वे अचेत थे तब मैंने गौर से उन्हें देखा था। वे एकदम गोरे थे। नाक-नक्शे भी अच्छे थे। बाल घुंघराले थे। मुझे सुन्दर लगे। अपाहिज न होते तो उनका व्यक्तित्व लगभग आप जैसा ही था।’
‘सुबह मैं फिर अस्पताल गई। डॉक्टर ने उन्हें छुट्टी दे दी। वे मुझे अपने घर पहुँचाने का आग्रह करने लगे। मैं उनके घर गई। यही घर था उनका। मैंने उनके लिए चाय बनाई। उन्होंने मेरा, दवाइयों व डॉक्टरों की फीस का हिसाब-किताब किया। उन्होंने पूछा, ‘इतने रुपये आप कहाँ से लाई? मैंने उन्हें बताया कि कल मुझे तनख्वाह मिली थी।’ मैं वहाँ से आने लगी तो उन्होंने कहा- ‘मैं आपका अहसान सदैव याद रखूँगा। आप मुझसे जरूर मिलिएगा। एक परिचित के रूप में ही सही।’ तभी उनकी नौकरानी आ गई।
मैं उनके यहाँ यदाकदा जाती रहती थी। किस आकर्षण के तहत जाती रही परिभाषित नहीं कर सकती। यह वास्तव में प्रेम भावना थी या उनके अपाहिजपन के प्रति मेरी करुण भावना द्रवित हो गई थी। बस, वे मुझे अच्छे जरूर लगने लगे थे। वे बहुत भावुक व वाक्य पटु भी थे।
एक बार नरेन ने कहा था, ‘देखो श्रीशा, प्रेम शब्दातीत है। वह केवल अनुभव किया जा सकता है। उसके अर्थ और मर्म मेरी दृष्टि में अनेक हैं। वह हृदय का सत्य है।’
वस्तुतः रोहन साहब! वह प्रेम की बहुत अधिक व्याख्याएँ करता रहता था। मैं उन्हें सुन-सुन कर हतप्रभ हो जाती थी। उनके भावुकतापूर्ण संवादों और मनमोहक महत्त्वाकांक्षाओं ने मुझे सम्मोहित सा कर दिया था। मैं स्वयं बेचैन रहने लगी उनके लिए।
एक दिन मैंने उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उन्होंने बताया, ‘सुनो, मैं इस संसार में अकेला हूँ। आज मेरी सात पीढ़ी में कोई नहीं है। यह फ्लैट मेरे मरहूम चाचा ने दिया था। वे कुँवारे थे। मैं जाति का कायस्थ हूँ। मुझे जो कुछ भी मिला है, अपाहिज होने के कारण मिला है।’ .... उसने पल भर रुक फिर कहा, ‘मुझे तुमसे शादी करके बहुत खुशी होगी। मेरा यह दुर्दान्त एकांत और चुभती ऊब मिट जाएगी। तुम्हें इस पर गंभीरता से सोचना है।’
मैंने अपनी माँ को नरेन की सारी स्थिति बताई। अपनी घरेलू स्थितियों का विश्लेषण किया। एक ‘खोली’ में रहने वाले निम्न मध्यवर्गीय परिवार के लिए यह सुनहरा अवसर था। .....पर माँ अकेली हो जाएगी। मैंने तय कर लिया कि माँ को अपने पास रखूँगी।
मैंने सारी बातें नरेन को बताई। नरेन ने सहर्ष स्वीकार कर लिया कि माँ जी हमारे साथ रहें, मुझे कोई एतराज नहीं।
शुभ मुहूत्र्त देखकर हमने कोर्ट-मैरिज कर ली। ......सही, पक्की और सस्ती अदालती शादी। साक्षी थे मेरी माँ, मेरी दो सहेलियाँ, नरेन के बॉस और उसके दो मित्र। इन लोगों को ही हमनें होटल में पार्टी दी।
सुहागरात भी हमने फूलों की खुशबू में मनाई। मुझे लगा कि नरेन पूरा पक्का और तगड़ा मर्द है। टूटे लुंज पुंज पाँव पौरुष के प्रदर्शन में बाधा नहीं बनते।
चंद ही दिनों के बाद मुझे महसूस हुआ कि चाहे एरेंज मैरिज हो या लव मैरिज, लेकिन यह पत्थर की लकीर की तरह अमिट सत्य है कि पति होते ही हर मर्द हुक्मरान बन जाता है। जैसे उसके हुक्म की तामील तुरन्त हो। मैंने जाना कि मर्द की देह नब्बे प्रतिशत उसकी अपनी होती है और स्त्री की दस प्रतिशत अपनी। यही हाल उसके मन का होता है। वह शादी के पूर्व नरेन मेरा भावुक दोस्त था पर शादी के पश्चात् वह मेरा स्वामी बन गया। यदि मैं उसकी कोई बात नहीं मानती तो उसकी आकृति पर रंग-बिरंगी भाव-रेखाएँ दिखाई पड़ती थीं। वह स्थिर सा हो जाता था। उसकी आँखों में मौन-आज्ञा की किरणें चमक उठती थीं।
उसके इस व्यवहार से मैं बर्फ बनती जा रही थी। अपने को अन्तस को उत्तेजित सहसा नहीं कर पाती थी। मैं उससे उबने लगी। असहिष्णु हो गई। वाक्य-युद्ध होने लगे। मैं बिल्कुल अजनबी हो जाती थी। माँ भी एक माह के बाद आ गई थी। उसके कारण मैं जरा खुश थी। अपने को सुरक्षित समझती थी। हमारा कोई विशिष्ट नहीं, सामान्य जीवन चल रहा था। क्योंकि मैं भी कमाती थी।
कई बार कुछ घटनाएँ अनायास घट जाती हैं। वे अच्छी भी होती हैं और बुरी भी।
एक दिन वे दफ्तर से वेतन लेकर आए। बाज़ार से मेरे लिए साड़ी और मिठाई लाए। मुझे वह नई साड़ी पहनाई। कहा, ‘आज मेरा जन्मदिन है।’ रात को उन्होंने कई बार शरीर के समन्दर में गोते लगाए। वे असीम आह्लाद से घिरे थे।
सुबह मैं उठ कर काम में लग गई। वे देर से उठे। चाय पी। लैट्रिन में घुसे। घुसे तो फिर बाहर ही नहीं निकले। मैंने कई बार पुकारा। कोई उत्तर नहीं। मैंने माँ को कहा। माँ भी घबराई।.... मैंने उन्हें जोर-जोर से पुकारा। दरवाजा भड़भड़ाया।
अब मेरा धैर्य जाता रहा। मैं भाग कर निचली मंजिल के मिस्टर जोशी को बुला कर लाई। उन्होंने भी प्रयास किया। हमारी चिंता व घबराहट बढ़ती ही जा रही थी। अमंगल आशंकाएँ हमारा घेराव करने लगी थीं।
मिस्टर जोशी भाग कर एक मिस्त्री को लाए। उसने दरवाजा उखाड़ा। वे अर्धनग्न फर्श पर पड़े थे। जोशी जी ने उन्हें झिंझोड़ा, बार-बार पुकारा। दिल की धड़कनें सुनी पर निष्फल। जोशी ने मुझे दर्द भरी लुक दी और कहा-‘‘आई थिंक, ही इज नो मोर!’’
तभी कुछ लोग और आ गए थे। एक भाग कर डाक्टर को ले आया। उसने भी कह दिया कि हंसा उड़ गया। ....रोहन! सोचो, सारा खेल चंद मिनटों में खत्म हो गया कितनी अकल्पनीय घटना थी। कितना ही अपना हो पर मृत्यु के बाद उसे जितना जल्दी हो सकता है, आग के हवाले हम कर देते हैं। नरेन का दाह-संस्कार कर दिया गया। उसे मुखाग्नि मैंने दी।
मेरी सहेलियाँ और उनके मित्र ‘उठावणी’ में आए। बारहवें दिन मम्मी के दबाव पर ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराया। उनके पकड़े गरीबों को बाँटे। उसकी बैसाखी समुद्र को दे दी, कभी वह लंगड़ा होगा या किसी को लंगड़ा करेगा तो उसके काम आएगी।
इसके बाद घर में धीरे-धीरे सन्नाटा पसर गया। प्रेतात्मा के घर का घुटनदार सन्नाटा। मुझे पीड़ादायक ऊब का अहसास पहली बार हुआ।
रोहन ! समय हर जख़्म को भर देता है। समय हर स्मृति को धुँधला कर देता है, समय पत्थर की लकीर को भी घिस देता है।
मैंने भी अपने को सामान्य कर लिया। जीने के लिए एक खूबसूरत व सुखद बहाना जरूरी है। भीतर के साँय-साँय करते सन्नाटों को मारने के लिए मैंने हँसी, मजाक, खुलेपन, सतहीपन से जीना शुरू कर दिया। लेकिन मेरा अन्तस पहाड़ी घाटियों की तरह सूना है। हाँ, नरेन के एक खास दोस्त ‘हाशमी’ को यह वहम हो गया था कि मैंने इस फ्लैट व लंगड़े पति से छुटकारा पाने के लिए उसकी हत्या कर दी है। उसने भाभीजान-भाभीजान कह कर मुझसे सम्पर्क भी बढ़ाया पर जब वह कुरेद-कुरेद कर सवाल पूछने लगा और कई बार उसने मेरा पीछा किया तो मैंने उसकी मनसा को भाँप लिया। मैंने उसे कह ही दिया, ‘मुझे उनके दोस्तों को सम्मान देना अच्छा लगता है पर मेरी जो जासूसी करता है, वह इंसान मेरे लिए घृणा के लायक है। हाशमी साहब! फिर कभी आप मुझसे बात नहीं करेंगे।’
अब आप ही बताइए, कई लोग निरर्थक हुशियारी करते हैं। सच तो यह है कि कोई मेरे निजी सच को नहीं जानता कि मैं कितनी दुखी और संकटों से घिरी हूँ। मैं इस देश की अधिकतर स्त्रियों की तरह जीती हूँ। मेरी आंतरिक पीड़ा को कोई नहीं समझता। लोग समझते हैं कि यह फ्लर्ट है। नहीं रोहन बाबू... मेरे भीतर कई ज्वार-भाटे हैं। दुखों, नीरसता, व्यर्थता और पलायन के कई प्रेत हैं। ये प्रेत कब मेरा गला घोंट दें मैं नहीं जानती। मैं अकेली भयभीत रहती हूँ।
रोहन इतनी देर खामोश बैठा था। बोला, ‘‘मैं यहाँ नहीं आऊँगा। न मैं तुम्हारे भीतर के सन्नाटों को तोड़ना चाहता हूँ और न बाहर की खुशियाँ मिटाना चाहता हूँ। मुझमें वह शक्ति भी नहीं है कि तुम्हारे पीड़ा के प्रेतों को भगा सकूँ। मैं शांति चाहता हूँ प्रगाढ़ शांति।’’
‘लेकिन आपको यहाँ आना ही है।’’
‘‘श्रीशा! औरत के साथ एक अकेला मर्द रहने से कई खतरें हैं। ये खतरें कई बार अनर्थ भी कर सकते हैं। मानसिक चैन को मिटा सकते हैं। गंदे विचार फैला सकते हैं। गलतफहमियों के कांटे चुभा सकते हैं।’’ उसके स्वर में तड़प थी।
‘‘रोहन बाबू! आपको यहाँ आना ही है। जरूर आना है और आपकी अपनी शर्तों पर आना है। झूठ चोर की तरह होता है, उसके पाँव कच्चे होते हैं अतः वह सच की झलक से भाग जाता है। हाँ, कई सयाने कहते हैं कि सच्चे व अच्छे आदमी के आने से वहाँ के सारे प्रेत भाग जाते हैं। मेरे अन्तस में कई प्रेत हैं। वे तो आपके आने से ही जरूर भाग जाएँगे। खतरों की बात? खतरों के बिना नये सुखों की तलाश नहीं होती।’ वह भावुक हो गई। उसकी आँखें छलक आई। रोहन उसे अपलक देखता रहा। वह थोड़ा सा मुस्कुराया।
सन्निकट स्थित मंदिर में शंख बज उठा। उसकी पवित्र और मधुर आवाज़ में प्रेरणाएँ थीं।

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