मारवाड़ी समाज की बदलती तस्वीर के बारे में आज हम यहाँ चर्चा करेंगे। आप सभी को याद होगा कि जैमनी कौशिक बरुआजी ने कोलकाता में लगभग दो-तीन दशक पूर्व कई सीरिज में एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया था-‘‘मैं मारवाड़ी समाज को प्यार करता हूँ’’ इस पुस्तक का कोई अस्तित्व नहीं रहा, कारण कि समाज के कुछ चुने हुए एवं संपन्न परिवारों की स्तुति के अलाव उस पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे समाज अपने पास बचा कर रख पाता। इससे पूर्व उड़ीसा के पं.भैरवलाल नन्दवाना, पत्रकार ने लगभग 60 साल पहले एक पुस्तक लिखी थी- ‘‘उड़ीसा और मारवाड़ी समाज’’ जिसमें समाज के सभी वर्गों को जोड़ने का प्रयास किया गया था। इस पुस्तक में लिखा है ‘‘उड़ीसा में मारवाड़ी समाज के जागृति के आधार - श्री सीताराम सेकसरिया और श्री बसन्तलाल मुरारका’’ एक बार तो मैं भी चौंक गया, समाज के इन मनीषियों का उड़ीसा से क्या लेना-देना, परन्तु जब इतिहास बोलता है तो उसे स्वीकार कर लेना पड़ता है। पिछले दिनों हमने ‘वागर्थ’ में श्रीमती कुसुम खेमानी द्वारा लिखा संस्मरण ‘भागीरथ कानोड़िया’ पर लेख पढ़ा। तो लगता है कि मारवाड़ी समाज ने जो कार्य किये उसमें राष्ट्रीयता की झलक तो देखने को मिलती ही है समाज की तत्काल जरुरतों को भी पूरा करने के लिये कई संस्थाओं का जन्म हुआ था, परन्तु आज समाज सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में लगा है। युग का यह परिवर्तन डॉ.डी.के.टकनेत की पुस्तक ‘‘मारवाड़ी समाज’’ में भी देखने को मिलता है। जबकि एक समय स्व.राधाकृष्ण नेवटिया के द्वारा लिखी, संकलित पुस्तक ‘‘राजनीतिक क्षेत्र में मारवाड़ी समाज की आहुतियां’’ इस काल के समय लिखी बातों में समाज की सोच दर्शाती हैं। इन पुस्तकों में जो तस्वीर मारवाड़ी समाज की झलकती है उनके द्वारा किये कार्यों के अनुपात में आज के कार्यों में काफी ह्नास देखने को मिल रहा है। कितना गौरवशाली हमारा समाज था जिसकी तस्वीर आज हमें खोजनी पड़ रही है, उनके किये कार्यों के संस्मरणों को पढ़ने से मन रोमांचित हो उठता है और कहाँ आज का समाज है जो अपने धन का प्रदर्शन करने की होड़ में लगा है। लोग खुद के किये कार्यों के प्रचार में लगे हैं। समाज के कुछ अच्छे लोग जो आज भी अपने धन को जनसेवा के कार्य में लगा रहे हैं उसमंे काफी कमी आई है, जबकि पहले की अपेक्षा आज समाज के पास धन की कोई कमी नहीं, समाज के पास कार्य करने के संसाधन भी बढ़े हैं। बल्कि समाजसेवा के नाम पर दुकानदारी करने वाले की भीड़ ने उनके धन का गलत इस्तेमाल कर उनका विश्वास खो दिया है। पिछले दो दशकों में कोई भी ऐसी एक संस्था सामने नहीं आई जो निःस्वार्थ भाव से जनसेवा का कार्य कर रही हो। समाज की कुछ संस्थायें तो पॉकिट संस्था बन कर रह र्गइं, जिनमें सिर्फ धन की ऊपज जारी है, साथ ही समाज में कई ऐसी संस्थाएं भी हैं जो धन के अभाव में अपना दम तोड़ने के कगार पर हैं। समाज में आई इस नैतिक मूल्यों में गिरावट के लिये हम खुद को ही दोषी मानते हैं।
दो दशक पूर्व एक लेख ने मुझे काफी प्रभावित किया था।। ‘समाज विकास’ में प्रकाशित डॉ.कमल किशोर गोयनका का वह लेख - ‘‘एक से अनेक होकर लौटा’’ आज जब हम समाज के कार्यक्रमों में जाते हैं तो खुद को अलग-थलग पाते हैं। आप और हम नित्य नये कार्यक्रम करते हैं परन्तु इन कार्यक्रमों में समाज सेवा या समरसता की कोई झलक देखने को नहीं मिलती, समाचार पत्र वाले हमारे कार्यक्रमों की खिल्ली उड़ाते नजर आते हैं, हम हैं कि खुद की फोटो समाचार पत्रों में देखकर फूले नहीं समाते। रोजाना औसतन पूरे देश में करोड़ रुपये से भी अधिक की राशि समाज के द्वारा विभिन्न मदों (जनसेवा के कार्यों) में खर्च हो रही है। परन्तु इसके संकलित आंकड़ों के अभाव में समाज के कार्यों का सही तरीके से आंकलन नहीं किया जा सका है। सच तो यह है कि मारवाड़ी समाज ने जितना जनसेवा का कार्य किया है, उसे देख कर यदि यह भी लिख दिया जाय, कि इसकी तुलना में एक हिस्सा कार्य भी मदर टरेसा ने नहीं किया तो कोई चूक नहीं होगी, परन्तु समाज को आजतक कोई नोबल पुरस्कार नहींमिल सका। हर व्यक्ति खुद को स्थापित करने की दौड़ में लगा हुआ है और समाज का धन पानी की तरह बहे जा रहा है।
समाज की इस बदलती तस्वीर के लिये हम किसे दोषी ठहरायें-किसे नहीं? इतना जरूर है कि समाज का एक वर्ग मारवाड़ी समाज की दानशीलता के गलत इस्तेमाल में लगा है। समाज की सही तस्वीर को प्रस्तुत करने के लिए जरूरी है कि समाजसेवा के नाम पर नाटक करने वाले ऐसे तत्त्वों को समाज से अलग-थलग किया जाना चाहिये।[end. Script Code- Marwari]
Father day
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-*शंभु चौधरी*-
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
चाँद को वो खिलौना बना
खिलाते थे हमें,
हम खेलते ही रहे,...
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