इस दिशा में जब जैसे-जैसे में गहराई से अध्यन करने लगा मेरा मन किया कि अब सिर्फ भाषा पर या इसके मान्यता से काम नहीं चलेगा क्यों कि राजस्थानी भाषा न सिर्फ एक गहरी साजिश की शिकार हो चुकी है इसके खुद के अन्दर भी कई विवाद जन्म ले चुके हैं। जो इस भाषा की मान्यता के रास्ते में बाधक बनी हुई है। जिसमें जिन तीन कारणों की तरफ मेरा ध्यान जाता है उसमें प्रमुख है। -
1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र
2. मोडिया लिपि का विलुप्त होना
3. राजस्थान की बोलियों में आपसी अंहकार।
यह विषय हमें जहाँ चिन्तीत करता है वहीं हमें सचेत भी करता है कि आखिर में हमारा समाज कर क्या रहा है? आये दिन धन की बर्वादी में सबसे आगे रहने वाले मारवाड़ी समाज के पास इतना भी धन और समय नहीं कि हम अपनी धरोहर को, अपनी भाषा को बचा सके। मेरी क्षमता इस कार्य को करने की नहीं है ना ही मैं भाषा का विद्वान ही हूँ कि जो कुछ मैं लिख दूगाँ उसे पूरा समाज स्वीकार कर लेगा। हाँ! यह तो जरूर होगा कि जिस दिशा में मेरे कदम बढ़ने लगे हैं। शायद इसमें मुझे कुछ हद तक सफलता जरूर मिलेगी ताकी आने वाली पीढ़ी को समाज की कुछ सामाग्री प्राप्त हो सके जो एकदम से समाप्त के कगार पर आ चुकी है। आज हम जिस कड़ी में यह बात लिख रहा हैं उनमें मोडिया भाषा के जानकारी रखने वाली पीढ़ी प्रायः समाप्त हो चुकी है। पिछले दिनों जब मैं कोलकाता से प्रकाशित एक हिन्दी मासिक पत्रिका ‘समाज विकास’ जो कि आखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन का मुखपत्र है का संपादन कार्य को देख रहा था उस कार्यकाल के दौरान सम्मेलन के तत्कालिन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नन्दलाल रुंगटा जी ने एक सादा पन्ना मेरे हाथ में थमा दिया जिसपर कुछ अक्षर लिखे हुए थे। उस वक्त मुझे लगा कि यह पन्ना मेरे क्या काम आयेगा, परन्तु पिछले माह राजस्थान से लौटकर मैं अपने सारे कागजात में उस सादे कागज को खोजने लगा। श्री रुंगटाजी, श्री सीताराम शर्माजी, श्री रतन शाहजी, श्री आत्माराम सोंथलिया जी, श्री जुगलकिशोर जैथलियाजी, श्री विजय गुजरवासिया जी और मेरे कई पारिवारिक मित्रों से यह अनुरोध किया कि वे मुझे मोडिया लिपि के कुछ पुराने दस्तावेज जिसमें खाते-बही, जमीन के पुराने पट्टे या चिट्ठी-पत्री आदि जो भी मिल सके देने की कृपा करें। श्री नन्दलालजी रुंगटा जी ने मुझसे लगातार मेरे कार्य के प्रगति के बारे में फोनकर पुछने भी लगे। इससे मेरे कार्य करने की क्षमता में काफी बृद्धि होने लगी। इससे पूर्व ही कोलकाता में मारवाड़ी युवा मंच की उत्तर मध्य कोलकाता शाखा द्वारा आयोजित ‘अवलोकन-2011’ में असम के श्री विनोद रिंगानिया, भाईजी श्री प्रमोद्ध सराफ और श्री रतन शाह जी के विचारों ने मुझे काफी झकझोर सा दिया था। हांलाकि उस गोष्ठी में श्री विनोद जी का मन मात्र एक वेवसाईट बनाने का था जिसमें राजस्थानी भाषा की कहावतें व समाज का इतिहास आदि को डालने पर कार्य करने का था जबकि श्री प्रमोद्ध सराफ जी चाहते थे कि समाज की तरफ से कोई एक ऐसा केन्द्र की स्थापना पर ध्यान देने की जरूरत है जिसमें समाज के महत्वपूर्ण दस्तावेजों को पुस्तकों व समाज की अन्य साहित्यिक, सांस्कृतिक जानकारियों को एकत्रित करना जिससे विश्वभर से आने वाले शोधार्थि छात्र-छात्राओं को वह समस्त सामाग्री एक ही जगह, एक छत के नीचे उपलब्ध कराया जा सके। वहीं श्री रतनजी शाह ने राजस्थानी भाषा की मान्यता पर किए जा रहे अपने प्रयासों की जानकारी दी। मेरे मन में लगातार एक प्रश्न उठ रहा था कि ऐसी क्या बात है जो राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आंठवीं सूची में मान्यता देने से रोकती है। हमें इसके उन पहलुओं को देखना और उसके समाधन के रास्ते निकालने की जरूरत पहले है ना कि भाषा के मान्यता की बात। यदि मान्यता हल्ला करने या आंदोलन से मिल सकती तो पिछले 40-45 सालों में अब तक कई छोटी-छोटी भाषा जिसमें नेपाली भाषा है को जब मान्यता मिल गई तो राजस्थानी भाषा तो मिल ही जानी चाहिए थी। इसके प्रकाश में श्री नन्दलाल रुंगटा जी का एक अध्यक्षीय लेख मुझे पढ़ने को मिला जिसमें भाषा विवाद का हल निकालने के लिए काफी महत्वपूर्ण सूझाव आपने दिये थे। देखें उनका लेख-
‘‘राजस्थान विधानसभा द्वारा 25 अगस्त 2003 को, राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने का एक संकल्प रूपी प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया कि ‘‘राजस्थान विधानसभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यह संकल्प करते हैं कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जिलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी आदि शामिल हैं।’’
यदि हम इस प्रस्ताव की गम्भीरता पर विचार करें तो, हम पाते हैं कि यह प्रस्ताव खुद में अपूर्ण और विवादित है। ‘‘इसमें कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि हम किस भाषा को राजस्थानी भाषा के रूप में मान्यता दिलाना चाहते हैं।’’ एक साथ बहुत सारी बोलियों को मिलाकर विषय को अधिक उलझा दिया गया है। इस प्रस्ताव से ही राजस्थान में पल रहे भाषा विवाद की झलक मिलती है। हम चाहते हैं कि राजस्थान सरकार अपनी बात को तार्किक रूप से स्पष्ट करे कि वो आखिर में केन्द्र सरकार से चाहती क्या है?’
(संदर्भ अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन का मुखपत्र जून 2009 वर्ष 59 अंक 6)
इस दिशा में जब जैसे-जैसे में गहराई से अध्यन करने लगा मेरा मन किया कि अब सिर्फ भाषा पर या इसके मान्यता से काम नहीं चलेगा क्यों कि राजस्थानी भाषा न सिर्फ एक गहरी साजिश की शिकार हो चुकी है इसके खुद के अन्दर भी कई विवाद जन्म ले चुके हैं। जो इस भाषा की मान्यता के रास्ते में बाधक बनी हुई है। जिसमें जिन तीन कारणों की तरफ मेरा ध्यान जाता है उसमें प्रमुख है। -
1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र
2. मोडिया लिपि का विलुप्त होना
3. राजस्थान की बोलियों में आपसी अंहकार।
1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र
भारत सरकार की ओर से हुई 1861 में जनगणना के आंकड़ों के अनुसार सिंधी बोलने वाले लोग 13,71,932 थे, नेपाली 10,21,102, कोंकणी के 13,52,363 और राजस्थानी के 1,49,33,016 लोग बोलने वाले थे। इसप्रकार सर्वाधिक राजस्थानी बोलने वालों की संख्या 1961 तक हर दस बरसों बाद की गई जनगणना में राजस्थानी भाशा को स्वतंत्र भाशा माना है परंतु इसके बाद हुई जनगणना में 1971, 1981, 1991, 2001 और अब 2011 में राजस्थान को हिन्दी प्रांत मान कर इस जनसंख्या को भी हिन्दी भाषियों के साथ न सिर्फ जोड़ दिया गया वरन प्रवासी राजस्थानियों को तो जनगणना में हिन्दी भाषी ही माना गया है। यदि राजस्थान की जनसंख्या को ही गैर हिन्दीभासी प्रान्त मान लिया जाए तो इसकी जनसंख्या 2001 के जनगणनानुसार आठ करोड़ है। इसमें प्रवासी मारवाड़ियों की संख्या का अनुमान लगया जाए तो शेष भारत में 3 करोड़ से अधिक ही मानी जाएगी। इसी प्रकार वर्ष 2011 के आंकड़े का अनुमान लगाया जाये तो राजस्थानी बोलने और समझने वालों की जनसंख्या वर्तमान में 13 करोड़ के कुल आंकड़े को पार कर चुकी है। जबकि जनगणना विभाग की माने तो पुरे देश में सन् 2001 तक मारवाड़ी या राजस्थानी बोलने वालों की जनसंख्या मात्र 79,36,183 है जिनमें 62,79,105 राजस्थान में और शेष पूरे भारत में जिसमें महाराष्ट्र-1076739, गुजरात में - 206895, कर्नाटका में - 60731, मध्यप्रदेश में - 50754, पश्चिम बंगाल में -48113, आंध्रप्रदेश में - 43195 एवं झारखण्ड में 40854 इसमें यु.पी., असम, उड़ीसा और बिहार का नाम ही दर्ज नहीं है। देश के अन्य महत्वपूर्ण प्रदेश व वर्ष 2001 के पहले बने प्रान्तों को भी छोड़ दिया गया है। अर्थात मारवाड़ी अथवा राजस्थानी भाषा बोलने वालों की जनसंख्या सन् 1861 की जनगणना 1,49,33,016 से घटकर मात्र 79,36,183 रह गई है।
जारी...
sahi kavo ho saa !!!
जवाब देंहटाएंसुंदर लिखा है शंभुजी।
जवाब देंहटाएंo shdyntr h bhart sarkar go saa or rajsthani ingi sikaar ho gii hh ....pr apa in bchava aapni snskriti nnn...tharo gno gnk aabar
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