श्री गुलाब खंडेलवाल का जन्म अपने ननिहाल राजस्थान के शेखावाटी प्रदेश के नवलगढ़ नगर में २१ फरवरी सन् १९२४ ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम शीतलप्रसाद तथा माता का नाम वसन्ती देवी था। उनके पिता के अग्रज रायसाहब सुरजूलालजी ने उन्हें गोद ले लिया था। उनके पूर्वज राजस्थान के मंडावा से बिहार के गया में आकर बस गये थे। कालान्तर में गुलाबजी प्रतापगढ़, उ.प्र. में कुछ वर्ष बिताने के पश्चात अब अमेरिका के ओहियो प्रदेश में रहते हैं तथा प्रतिवर्ष भारत आते रहते हैं।
[चित्र में बांयें श्री जुगलकिशोर जैथलिया बीच में श्री गुलाब खंडेलवालजी एवं दायें लेखक शंभु चौधरी,
दिनांक 01.12.2011 कोलकाता।]
श्री गुलाब खंडेलवाल की प्रारम्भिक शिक्षा गया (बिहार) में हुई तथा उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९४३ में बी. ए. किया। काशी विद्या, काव्य और कला का गढ़ रहा है। अपने काशीवास के दौरान गुलाबजी बेढब बनारसी के सम्पर्क में आये तथा उस समय के साहित्य महारथियों के निकट आने लगे। वे वय में कम होने पर भी उस समय के साहित्यकारों की एकमात्र संस्था प्रसाद-परिषद के सदस्य बना लिये गये जिससे उनमें कविता के संस्कार पल्लवित हुए। महाकवि गुलाब खंडेलवाल, साहित्य की अजस्र मंदाकिनी प्रवाहित करनेवाले प्रथम कोटि के साहित्यकारों की पंक्ति में अग्रणी हैं। पिछले छः-सात दशकों से प्रयाग, दिल्ली, बंबई, कोलकाता, मद्रास, भारत, अमेरिका और कनाडा आदि देशों के साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन को गुलाबजी अपनी सारस्वत-साधना से गौरव-मंडित कर रहे हैं। उनका ’सौ गुलाब खिले’ हिन्दी की अपनी कही जाने योग्य स्तरीय ग़ज़लों का पहला संकलन है। इसके बाद उन्होंने ’पंखुरियाँ गुलाब की’, ’कुछ और गुलाब’, ’हर सुबह एक ताजा गुलाब’ जैसी अन्य कृतियों में ३६५ ग़ज़लें लिखकर इस प्रयोग को पूर्णता तक पहुँचा दिया। उत्तरप्रदेश-सरकार ने उनकी छः रचनाओं - उषा, रूप की धूप, सौ गुलाब खिले, कुछ और गुलाब, हर सुबह एक ताज़ा गुलाब और अहल्या को पुरस्कृत करके कवि के साथ-साथ साहित्य-साधना को भी सम्मानित किया है। पिछले दो दशकों में उन्होंने न केवल छन्दमुक्त रचना के विविध प्रयोग ही किये हैं, तुलसी, सूर, मीरा की भक्तिगीतों की धारा में प्रायः एक सहस्र गीतों का सृजन करके साहित्य से संगीत को पुनः जोड़ने का महान कार्य भी संपादित किया है। इसके अतिरिक्त गुलाबजी ने ’गीत-वृन्दावन’, ’सीता-वनवास’ तथा ’गीत-रत्नावली’ जैसे गीति-काव्यों की रचना करके राधा, सीता और रत्नावली के जीवन की त्रासदी को भी नये परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इधर की ही लिखी हुई उर्दू मसनवी की शैली में उनकी नवीन रचना, ’प्रीत न करियो कोय’, हिन्दी के काव्य-साहित्य में एक नया आयाम जोड़ती है। जहाँ इस रचना द्वारा वे उर्दू के प्रमुख मसनवी-लेखक, मीर हसन और दयाशंकर ’नसीम’ की श्रेणी में आ गये हैं वहीं अपने भक्तिगीतों की सुदीर्घ श्रृंखला द्वारा उन्होंने कबीर, सूर, तुलसी और मीरा की परंपरा में अपना स्थान सुरक्षित करा लिया है।
1941 ई. में उनके गीतों और कविताओं का संग्रह ‘कविता’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका महाकवि निराला जी ने लिखी और तब से अब तक उनके 46 काव्यग्रंथ और 2 गद्य-नाटक प्रकाशित हो चुके है। उन्होंने हिन्दी में गीत, दोहा, सॉनेट, रुबाई, गज़ल, नया शैली की कविता और मुक्तक, काव्य नाटक, प्रबंधकाव्य, महाकाव्य आदि के सफल प्रयोग किये हैं। गुलाबजी पिछले 10 वर्षों ‘अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के सभापति हैं।
अपनी कविताओं से लोकमानस को अपनी ओर आकर्षित करते हुये उनकी साहित्यिक मित्रमंडली तथा शुभचिन्तकों का दायरा बढने लगा। सर्वश्री हरिवंश राय बच्चन, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, डॉ॰ रामकुमार वर्मा, आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, न्यायमूर्ति महेश नारायण शुक्ल, प्राचार्य विश्वनाथ सिंह, माननीय गंगाशरण सिंह, शंकरदयाल सिंह, कामता सिंह 'काम' आदि इनके दायरे में आते गये।
मित्र मंडली में कश्मीर के पूर्व युवराज डॉ॰ कर्ण सिंह, डॉ॰शम्भुनाथ सिंह, आचार्य विश्वनाथ सिंह, डॉ॰ हंसराज त्रिपाठी, डॉ॰ कुमार विमल, प्रो॰ जगदीश पाण्डेय, प्रो॰ देवेन्द्र शर्मा, श्री विश्वम्भर ’मानव’, श्री त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ मिश्र ’प्रभात’, भवानी प्रसाद मिश्र, नथमल केड़िया, शेषेन्द्र शर्मा एवं इन्दिरा धनराज गिरि, डॉ॰ राजेश्वरसहाय त्रिपाठी, पं॰ श्रीधर शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र, अर्जुन चौबे काश्यप आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। आजकल कवि गुलाब अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के अध्यक्ष है।
किस सुर में मैं गाऊँ?
किस सुर में मैं गाऊँ?
भाँति-भाँति के राग छिड़े हैं, किससे तान मिलाऊँ?
गाऊँ मिल मोरों के गुट में
चिड़ियों की टी, वी, टुट, टुट में?
या गाते सरसिज सम्पुट में
मधुकर-सा सो जाऊँ!
मान यहाँ हर ध्वनि का होता
किसके बस न हुए हैं श्रोता!
यदि मैं गहरे में लूँ गोता
मोती कहाँ न पाऊँ!
पर जो छवि बैठी इस मन में
नव-नव धुन रचती क्षण-क्षण में
क्यों न उसीका करूँ वरण मैं
जग से दृष्टि फिराऊँ
किस सुर में मैं गाऊँ?
भाँति-भाँति के राग छिड़े हैं, किससे तान मिलाऊँ?
[तिलक करें रघुवीर]
नाम लेते जिनका दुख भागे
नाम लेते जिनका दुख भागे
मिला उन्हें तो जीवन-भर दुख ही दुख आगे-आगे
छूटा अवध साथ प्रिय-जन का
शोक असह था पिता-मरण का
देख कष्ट मुनियों के मन का
वन के सुख भी त्यागे
वन-वन प्रिया-विरह में फिरना
'कैसे हो सागर का तिरना?'
भ्राता का मूर्छित हो गिरना
नित नव-नव दुख जागे
गूँजी ध्वनि जब कीर्ति-गान की
फिर चिर-दुख दे गयी जानकी
माँग उन्हीं-सी शक्ति प्राण की
मन! तू सुख क्या माँगे!
नाम लेते जिनका दुख भागे
मिला उन्हें तो जीवन-भर दुख ही दुख आगे-आगे
[सीता वनवास से]
तुम खेल रहे......
तुम खेल सरल मन के सुख से, अब छोड़ मुझे यों दीन-हीन
मलयानिल-से जा रहे, निठुर! कलिका की सौरभ-राशि छीन!
पढ़ विजन-कुमारी के उर की गोपन भाषा सहृदय स्वर से
अब व्यंग्य हँसी लिखते हो तुम पंखुरियों पर निर्दय कर से
उपकारों का प्रतिकार यही! आभार यही आभारी का!
तुम खेल रहे अंगार-सदृश ले हृदय हाथ में नारी का
चंचल लावण्य-प्रभा जिसकी पाती हो प्रात न स्नेह-स्फूर्ति
निष्प्रभ थी दीपशिखा-सी ही नारी निशि की श्रृंगार-मूर्ति
अंचल फैलाये सरिता की तट लाँघ सिसकती लहरी-सी
उड़ायाद्रि-क्षितिज पर ज्यों कोई तारिका विनत-मुख ठहरी-सी
करुणा, दुख, ईर्ष्या, रोष-विभा परिवर्तित जिसके क्षण-क्षण की
भावों के अभिनय में चित्रित नैराश्य-व्यथा-सी जीवन की
[कच-देवयानी से]
ग़ज़ल
उन्हें बाँहों में बढ़कर थाम लेंगे
कभी दीवानेपन से काम लेंगे
ग़ज़ल में दिल तड़पता है किसीका
उन्हें कह दो, कलेजा थाम लेंगे
ये माना ज़िन्दगी फिर भी मिलेगी
नहीँ हम ज़िन्दगी का नाम लेंगे
अँधेरे ही अँधेरे होंगे आगे
पड़ाव अगला जहां कल शाम लेंगे
मिला दुनिया से क्या, मत पूछ हमसे
तुझीमें, मौत! अब आराम लेंगे
गुलाब! इस बाग़ की रंगत थी तुमसे
वे किस मुँह से मगर यह नाम लेंगे!
[ सौ गुलाब खिले से]
संपर्क: 56, जय अपार्टमेन्ट, आई.पी.एक्सटेंशन-102, पडपडगंज, नई दिल्ली - 110092 दूरभाषः 011 2726934/2450525
[script code-Gulab Khandelwal]
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