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गुरुवार, 26 मई 2011

लोकतंत्र की भाषा - शम्भु चौधरी


Shambhu Choudharyमारवाड़ी समाज का एक बड़ा घड़ा राजनैतिक विचारधारा को सिर्फ व्यापारी नजरिये से देखने का प्रयास करता रहा है जिसका परिणाम यह हुआ कि एक समय समाज का नेतृत्व करने वाले तपस्वी राजनीति व्यक्तित्व यतः डाॅ.राममनोहर लोहिया, स्व. बृजलाल बियाणी, जमनालाल बजाज, सेठ गोविन्ददास मालपाणी, विजयसिंह नाहर, स्व. श्रीमती इन्दुमती गोयनका, स्व.ईश्वरदास जालान, सीताराम सेक्सरिया, प्रभूदयाल हिम्मतसिंहका की राजनीति जमीन को दरकिनार कर पीछे दरवाजे की राजनीति को समाज ने अपना लिया। ऐसे लोग राज्यसभा के सदस्य बनाये जाने लगे, जिसका समाज से काई सरोकार नहीं रहा। किसी ने खुद के धनबल पर तो किसी ने उद्योग घराने के सहयोग से समाज की छवि को राज्यसभा में नीलाम करते रहे। समाज इस तमाशे को तमाशबीन बन देखता रहा। जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज के आम राजनैतिक कार्यकर्ताओं का मनोबल धीरे-धीरे कमजोर होता गया। इसमें से कुछ अपनी स्थिती को बनाये रखने के लिए राजनैतिक दलों के खजांची बन गये, अर्थात समाज से धन उगाहने का कार्य करने लगे। मारवाड़ी समाज को इस सब से काई सरोकार नहीं रहा, चुनाव के समय कुछ नेताओं से दोस्ती बनाना एवं जब वे मंत्री बन जाय तो कुछ लागों को इसका लाभ कैसे मिले इस कार्य के संपादन में खुद की प्रतिष्ठा समझना तो दूसरी तरफ समाज अपने मतदान को महत्वहीन समझने लगा। मतदान के दिन को अवकाश का दिन मानकर ताश या अन्य किसी मनोरंजन को माध्यम अपना कर समय गुजार देते। कुछ तो राजनीति के पण्डित बन जाते, तो कुछ अपनी पंहुच का बखान करने से नहीं चुकते।


एक समय बंगाल के विधानसभा में मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधि का होना आवश्यक माना जाता था, आज 2011 के विधानसभा में समाज की उपस्थिती शून्य हो चुकी है। इस राजनीतिक शून्यता व हमारी राजनीतिक प्रतिवद्धता को राजनैतिक दलों ने न सिर्फ इसका मूल्यांकन नेगेटिभ रखा बल्की साथ ही साथ बन्द कमरे में समाज को दया का पात्र भी समझा। जहाँ एक तरफ इतर समाज के किसी भी संकट पर ये दल जो सजगता दिखाते हैं वहीं समाज के साथ होने वाली घटनाओं का राजनैतिक लाभ लेने में भी नहीं चुकते। कुल मिलाकर मारवाड़ी समाज दया का पात्र बन चुका है। हमारा आत्मसम्मान चन्द राजनैतिज्ञों के लिए दया का पात्र बन चुका है। समाज में सामाजिक व राजनैतिक कार्यकर्ताओं का इस दिशा में लगातार यह
प्रयास रहते हुए भी, कि किस तरह से समाज की इस उदासीनता को बदला जा सके, साकारत्मक पहल के कोई संकेत दूर-दूर तक हमें नहीं दिखाई दे रहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि राजनीति में समाज का प्रतिनिधित्व सिमटा जा रहा है।


जब हम अपने खुद के राजनैतिक मूल्यांकन पर सोचते हैं तो हमें बड़ी निराशा हाथ लगती है, भला कोई भी राजनैतिक दल आपकी सुरक्षा क्यों और किसलिए करेगा? समाज के किसी कार्यकर्ता को जब उसके खुद के प्रयास से किसी राजनैतिक दल की टिकट मिलती है तो हम उसके चुनाव प्रचार में सहयोगी होने की बात तो दूर, हम अपना वोट तक देने नहीं जाते। जिससे समाज के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी कमजोर हुआ है। हमें आज यह बात समझनी होगी कि राजनीति हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। लोकतंत्र में बोलने की भाषा सिर्फ और सिर्फ आपका मतदान है। जो समाज एकजुट होकर अपने मताधिकार का प्रयोग करेगा, उसी समाज की बात विधानसभा या संसद तक सुनी जायेगी, धन के बल पर की जाने वाली राजनीति भले ही किसी वर्ग विशेष को लाभ पंहुचाती हो परन्तु इससे समाज का कतई भला न तो हुआ है न होगा। जो समाज अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करेगा उसे लोकतंत्र की भाषा में गूंगा समाज समझा जायेगा।

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