राष्ट्रीय अधिवेशन
भव्य आडम्बर युक्त पंडाल में शुरू हुआ।
कोलकातः 16 नवम्बर 2011- रिर्पोट मंच सदस्यों द्वाराः
अखिल भारतीय मारवाड़ी युवामंच का दशम् राष्ट्रीय अधिवेशन भव्य आडम्बर युक्त पंडाल में अव्यवस्था और हंगामे के साथ संपन्न हुआ। नासिक में संपन्न हुए इस चार दिवसीय दशम राष्ट्रीय अधिवेशन के आयोजन पर जहाँ आयोजकों ने समाज के धन को पानी की तरह बहाया, वहीं मंच के सदस्यों को ठहरने के लिए सही व्यवस्था भी नहीं कर पाये, सारी व्यवस्था पैसे के जोर पर या ‘‘इभेन्ट मेनेजमेंट’’ के जिम्में सौंप कर आयोजकों ने देश भर से आये मंच के हजारों सदस्यों को रात भर ठहरने की जगह खोजने में ही लगावा दिया। भूखे-प्यासे सदस्य शहर में बच्चों व समान को लेकर भटकते रहे।
जैसे-जैसे मंच के सदस्य नासिक स्टेशन पंहुचते गये उनकी व्यवस्था चरमराने लगी, मानो सब कुछ हवा में चल रहा था। रात को ग्यारह बजे पंहुचे कुछ सदस्यों ने बताया कि उसे घंटों शहर के चक्कर लगाने के बाद भी ठहरने की जगह नहीं मिल पाई। छः छः घंटे मंच के सदस्य अपनी ठहरने की जगह तलाशते रहे। होटल में जो व्यवस्था थी वह भी बड़ी अजिबों-गरीब स्थिति का बयान कर रही थी। एक रूम में 5-6 सदस्यों को ठहराया गया दो-तीन को पलंग पर और तीन को जमीन पर सोने को मजबूर होना पड़ा। दो करोड़ रुपिये के बजट के इस आडम्बर में मंच सदस्यों को सिर्फ निराशा ही हाथ लगी। आयोजक प्रान्त की तरफ से सभी सदस्यों को होटल में ठहराने की बात शुरू से प्रचारित की गई थी। रहने, ठहराने व स्थानिय यातायात के नाम पर प्रति सदस्य 1500/- रुपया बतौर शुल्क भी चार्ज किया गया था।
दशम् राष्ट्रीय अधिवेशन की झलकः
1. अव्यवस्था को आलम यह था कि अधिकतर मंच सदस्यों अपने आवास को लेकर परेशान दिखे। कईयों को जगह नहीं मिली तो, वे आपा खो बैठे और राष्ट्रीय सभा के दौरान जम के हंगामा किए। जिसके चलते राष्ट्रीय सभा भी कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी व पुनः 10-15 मिनट में ही सभा को समाप्त कर दी गई।
2. अधिवेशन स्थल के मंच पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं था। जिसे जो मन में आया आकर माईक से कुछ घोषणा कर जाता था एक महोदय तो उद्घाटनकर्ता की सीट खाली देख जाकर मंच पर ही बैठ गये।
3. पुर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों को किनारे एक कोने में धकेल दिया गया।
4. मंच के एक सदस्य को ‘‘मंच के संस्थापक’’ बताया जाता रहा जबकि मंच के इतिहास में इस महान पुरुष का कोई अता-पता नहीं है। उस व्यक्ति का नाम बार-बार मंच के संस्थापक के रूप में प्रचारित किया जाता रहा।
6. उद्घाटन सत्र दो बार हुआ
1) श्री जगन्नाथ पाहड़िया जी माननीय राज्यपाल जी, हरियाणा द्वारा 2) श्री नितिन गडकरी जी द्वारा।
7. ‘राष्ट्रीय सभा’ जो कि मंच का प्राण सभा मानी जाती है इसे 15 मिनट में समाप्त कर दिया गया।
8. ट्रेडफेयर: जमीन के व्यापारियों से ही सिर्फ अटा-पटा है।
9. विश्व मारवाड़ी सम्मेलन:
विश्व मारवाड़ी सम्मेलन के नाम से जो प्रचार किया गया इसका कोई भी स्वरूप देखने को नहीं मिला।
10. मंच के सदस्यों ने आपा खोयाः
रजिस्ट्रेशन के दौरान आयोजकों के व्यवहार से खफा होकर मंच के कुछ सदस्यों ने आयोजकों की तरफ की एक सदस्य के साथ हाथा-पाई तक कर डाली।
11. ‘शौच’ की पूरी व्यवस्था अधिवेशन स्थल पर नहीं थी। सदस्यों को सड़कों पर शौच करने जाना पड़ा।
टिप्पणीः
पाणी-पाणी हो ग्यो, भींग ग्यो सैं ळाज।
पाणी सां’रो सूं ग्यो, तिंस ग्या म्हें आज।।
जैसे-जैसे मंच के सदस्य जिस आशा और उत्साह से इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए नासिक पहुचने लगे। वैसे-वैसे ही फोन पर सदस्यों की पीड़ा और चीख सुनाई देने लगी। मानो मंच का यह दशम् अधिवेशन, अधिवेशन ना हो कर कोई राजनैतिक मंच हो गया हो। जहाँ गांव से भैंड़-बकरियों को बुलाकर खुद का प्रोजेक्सन करना मात्र इस अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य रह गया हो। जिस प्रकार धन की बर्वादी इस अधिवेशन में की गई इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि व्यवस्थापक समूह केवल लिफाफेबाजी कर चकाचौंध तामझाम को ही अधिवेशन मान बैठे हैं।
राष्ट्रीय सभा को 15-20 मिनट में समाप्त कर देना, खुलेसत्र में किसी को बोलने न देना, आवास की अव्यवस्था, पीने के पानी की कमी, प्रभात रैली तीन-चार घंटा सिर्फ नेता ना आने के करण विलम्ब कर देना इस बीच चाय-नास्ते की व्यवस्था का न होना, बाथरूम का पानी पीने के जार में डाल कर देना। अधिवेशन स्थल तक आने-जाने का कोई साधन आयोजकों द्वार उपलब्ध ना करा सकना। ठंठा भोजन, अधिनेशन स्थल पर चाय-पानी की कोई व्यवस्था का ना होना। आखिर यह चंदा जो जमा किया गया वह खर्च हुआ तो हुआ किधर?
मंच के सदस्यों के लिए अलग खाने की व्यवस्था और खुद के मेहमानों लिए अलग व्यवस्था। यह भांत किस बात के लिए?
विश्व मारवाड़ी सम्मेलन के नाम पर जितना हल्ला हुआ, वैसा कुछ भी तो नहीं दिखा इस अधिवेशन में।
नासिक शाखा के साथ हमारी पूरी सहानुभूती है। मंच के सदस्य इन तकलिफों के बाबजूद उनको भरपूर सहयोग देते रहे, परन्तु आयोजकों ने अपनी अभर्दता दिखाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी।
जगजीत सिंह की एक गजल है-
मुहं की बात कहे हर कोई,
दिल का दर्द ना जाने कौन
आवाजों के बाजारों में,
खामोशी पहचाने कौन?
हमें राजनेताओं के भाषण से जो गर्व होता है वह एक चिन्ता का विषय भी है कि क्या अब समाज के कार्यों का प्रमाण-पत्र इन भ्रष्ट राजनेताओं से लेना होगा? इससे तो बेहतर होता मराठी भाषा के साहित्यकारों, कुछ सामाजिक हस्थियों को भी इनके साथ-साथ इस अधिवेशन का हिस्सा बनाते और उनके श्रीमुख निकले हुए संदेश देश भर में हमें गर्व का अहसास तो कराते ही साथ ही अमर हो जाते वे शब्द, परन्तु अफसोस इस बात रहा है कि ‘‘घर फूंक तमाशा देखें’’ वाली कहावत चिरथार्त लगती है। इतनी बड़ी धनराशि खर्च होने के बाद भी हम सिर्फ बदनामी ही ले पाये। समाज के लोग जब धन का अवव्यय करते हैं तो हम उन पर दोषारोपन करते नहीं थकते। आज मंच के सदस्य इस प्रवृति को ही सही ठहरा देगें तो समाज के बीच कौन सा मुंह लेकर जाएंगें ये लोग अब? अपरोक्ष रूप से मुझे धमकी मिल चुकी है।
समीक्षाः मंचिका अधिवेशन विशेषांक -
मंच के अन्दर अब नई जेनेरेशन को नेतृत्व कैसे मिले इस विषय पा चर्चा करनी जरूरी है। पुराने लोगों की दादागीरी तभी समाप्त होगी जब हम उनके विचारों को हम मानने से इन्कार कर देगें। नासिक अधिवेशन की 'मंचिका' तो भाई उनके विचारों का आईना है। मंच शाखाओं की कोई सामग्री इनको मिली ही नही। मंच-दर्शन, मंच का इतिहास, पूर्व अध्यक्षों के सूझाव व लेख कुछ भी तो नहीं है इस स्मारिका में। फिर यह स्मारिका किस रूप से हुई। स्मारिका के शाब्दीक अर्थ का भी ज्ञान संपादक जी को नहीं है। उन्हें पता ही नहीं कि युवा मंच क्या है। इसका क्या इतिहास रहा है। लगता है कोई जोड़-तोड़ लेखक है जिसने समाज की बहुत सारी सामग्री एकत्रित कर छाप दी हो। हां! संपादक जी ने अपने संपादकीय में यह जरूर ईमानदारी बरती है कि उनको किसने यह भार दिया है।
राजस्थानी व मराठी भासा के महान नाटक/निबंधकार स्व॰ शिवचंद्र भरतिया को तो शायद इनका समाज जानता तक नहीं होगा। मंचिका के संपादक को या दैनिक लोकमत, नासिक के संपादक श्री हेमंत कुलकर्णीजी को तो पता होना ही चाहिए था। संभतः इनको मेरी बात बुरी लगे, परन्तु जब मारवाड़ी समाज के ‘रेफरेंस बुक’ की बात करते हैं तो इस बात का ज्ञान तो रहना ही चाहिए कि ‘रेफरेन्स बुक’ का अर्थ क्या होता है। केवल रंगीन पृष्ठ छाप देने से स्मारिका या जोड़-तोड़ से कोई किताब ‘रेफ्रन्स बुक' जैसा की इन्होंने दावा किया है, नहीं बन जाती है। इस प्रवृति पर कैसे रोक लगे पर विचार करना होगा। इस बार मंचिका का मूल्य भी अंकित किया गया है 200/- यदि किसी को डाक से मंगवानी हो तो 50/- पोस्टेज चार्य अतिरिक्त देय होगा। - शंभु चौधरी
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