अय जरा आवाज कम करो! - शंभु चौधरी
15 अक्टूबर 2011 शनिवार, कोलकाता।
कहीं ईंट-पत्थर तौड़ने की आवाज आती हो तो हमें समझ लेना चाहिए कि कोई निर्माण कार्य चल रहा है जो हमारे सपने को साकार करने में लगा होगा। हमारी मजबूरी यह है कि हम उन्हें मजदूर समझ बैठे। जिस कड़वाहट भरी आवाज से हमारी नींद में खलल पैदा हो जाती है और अनायास ही हम उन पर चिल्ला पड़ते हैं -
‘‘अय जरा आवाज कम करो!’’ शायद हम यह समझने में भूल कर देते हैं कि यही ठक-ठक की आवाज हमारे भविष्य का निर्माण कर रही है। इस भागदौड़ भरे जीवन के बीच कल में कोलकाता शहर की एक छोटी सी गली से गुजरता हुआ मारवाड़ी समाज के सुपरिचित कवि, शायर एवं गीतकार श्री चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’
जी के घर जा पँहुचा। दोपहर के लगभग तीन बज चुके थे आपके निवास स्थल 49/2ए, बीडन रो, कोलकाता-700006 में उनसे एक संक्षिप्त मुलाकात हुई। इस दौरान आपसे जो बातें हुई इसे आप सभी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
श्री चम्पालाल जी का परिचय आपकी ही इन पंक्तियों के साथ शुरू करना चाहूँगा-
जीवन देने वाले मुझको जीने के अधिकार तो देते
झोली भर कर दर्द दिए हैं, मुट्ठी भर कर प्यार तो देते
होने को वीरान हमारी बगिया तो ये हो जाएगी
वीराने से पहले लेकिन थोड़ी बहुत बहार तो देते। -‘‘अनोखा कवि से’’
मारवाड़ी समाज के विख्यात गीतकार श्री चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’ (77 वर्ष) मूल रूप से कोलकाता के बड़ाबाजार अंचल के राजस्थानी गणगौर गीतों के रूप में जाने जाते रहें हैं। राजस्थान की सांस्कृतिक राजधानी बीकानेर में सन् 1934-35 में श्री चंपा लाल मोहता स्व. मानक लाल मोहता एवं श्रीमती इमारती देवी मोहता के पुत्र रूप में जन्में। जन्म के ठीक 19 दिन पहले ही आपके पिताश्री का स्वर्गवास हो गया। 9 वर्ष के होते होते ममतामई माँ भी चल बसी। बड़े भाई मोहनलाल एवं भाभी रतनी देवी ने माता-पिता की भूमिका निभाई प्राथमिक शिक्षा बीकानेर में ही हुई। सन् 1942 के आस-पास द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आपका कोलकाता आना हुआ परन्तु उस समय भगदड़ के चलते वापिस बीकानेर लौट गए। इसी दौरान माँ की मृत्यु हुई सन् 1945-46 में वापिस कोलकाता आये और तब से यहीं के होकर रह गए सन् 1946 में श्री महेश्वरी विद्यालय में प्रवेश लिया भाई साहब जितना कमाते थे उसमें स्कूल की फीस देना संभव नहीं था। चम्पालाल जी पढ़ना चाहते थे विद्यालय व्यवस्थापकों से फीस माफ करवा कर, किसी तरह दसवीं कक्षा तक आपने अपनी पढाई पूरी की।
विद्यार्थी जीवन में ही उनकी रचनाएँ महेश्वरी विद्यालय की पत्रिका ‘भारती’ में प्रकाशित होने लगी विद्यालय के उप प्रधानाध्यापक श्री वी.एन.टी. ने चम्पालाल जी की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें ‘अनोखा’ कहा तो उसे ही उन्होंने अपने उपनाम के रूप में अपना लिया।
सन् 1952-54 के मध्य कवि सम्मेलनों-मुशायरों में शिरकत करते हुए, एक उभरते हुए सितारे के रूप में स्थापित हुआ युवा शायर चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’ हिन्दुस्तान के तमाम बड़े और मशहूर कवियों, शायरों के साथ ‘अनोखा’ ने अपने अनोखे रंग-ढंग में काव्य-पाठ किया। उस समय कोलकाता और आस-पास के अंचलों में प्रायः सभी कवि सम्मेलनों में उनकी उपस्थिति दर्ज होती मूनलाईट थियेटर के लिए भी ‘अनोखा’ गीत लिखते रहे कोलकाता बाल परिषद के प्रकाशन नई-किरण, खिलते कमल में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हुई।
अनिरुद्ध कर्मशील के संपादन में, साप्ताहिक विश्वमित्र में सर्वप्रथम रचनाएँ प्रकाशित हुई लगातार सिलसिला चला देश भर में कई पत्र पत्रिकाओं ने ‘अनोखा’ को प्रकाशीत किया सन् 1955 में पुरूलिया निवासी ‘कशी’ से विवाह के बाद, नौकरी के सिलसिले में वे राऊरकेला चले गए 18 मार्च सन 1957 को एक हृदय विदारक अगलगी की घटना ने जीवन साथी छीन लिया उस घटना में ‘अनोखा’ भी इतने गंभीर रूप से जख्मी हुए की छः महीने अस्पताल में रहे। संकटमय जीवन यापन करते हुए आपने अपना दूसरा विवाह श्रीमती पुतली देवी जो आगरा शहर की, से अन्तर्जातीय-अंतरवर्णीय विवाह कर पुनः अपना संसार बसा लिया। आपको तीन बेटे क्रमशः रवीन्द्र (52), मनोज (49) एवं विनोद (41) हुए। वर्तमान में आप सबसे छोटे बेटे श्री विनोद मोहता के साथ रह रहे है।
दुविधाओं के एक दौर से जीवन गुज़र रहा है
बसे-बसाए घर का तिनका-तिनका बिखर रहा है
पग-पग पसरी है। पीड़ायें, पल-पल है चिन्तायें
सच तो ये है-अब साँसे लेना भी अखर रहा है। -‘‘अनोखा कवि से’’
उनके भाई साहब को अब यह चिंता सताने लगी कि कहीं यह लड़का भटक न जाए रोजी रोटी के जुगाड में कोलकाता आये साहसी युवक कविताई के चक्कर में भूखों न मरे इसलिए एक उपन्यास, ‘मधुशाला’ के प्रत्युत्तर में 125 छंदों में रचित ‘रणशाला’ सहित ढेरों गीत-गजलों की पांडुलिपियाँ तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं का रजिस्टर भाई साहब ने चार-आने किलो के भाव कबाड़ी को दे दिया अस्पताल से लौटे ‘अनोखा’ पर यह भीषण वज्रपात साबित हुआ वह विद्रोही हो गये।
मारवाड़ी समाज की दशा पर आपने अपने दर्द का इजहार कुछ इस प्रकार बयान किया - ‘‘इस आकाश को हिस्सों में मत बांटों। कोई अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल, जैन क्यों नहीं सभी अपने को मारवाड़ी कहते अब समय आ गया है कि इन जातियता के भेद को हमें समाप्त कर देना चाहिए’’.... बोलते-बोलते कुछ सोचने लगे फिर बोले दुष्यन्त कुमार जी एक गज़ल समाज के लिए आपको सुनाता हूँ -
‘‘तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं।
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।।’’
आपने समाज में साहित्य के प्रति आई उदासीनता पर अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए कहा कि एक समय था जब स्व. भंवरमल सिंघी, सीताराम सेक्सरिया, राम निवास ढंढारिया, रमणलाल बिन्नाणी, भागीरथजी कानोड़िया, राम निवास जाजू, बुधमल श्यामसुखा ने इस दिशा में बहुत ही सराहनीय प्रयास किये थे उनको बहुत हद तक सफलता भी मिली परन्तु धन की चकाचौंध में हम सब कुछ खोते जा रहे हैं मनी ओरियेन्टेट समाज होता जा रहा है अब। अच्छी बात है परन्तु सिर्फ पैसा...पैसा...पैसा... इससे समाज की छवि खराब भी होती जा रही है...थोड़ा रुके... बड़ाबाजार पुस्तकालय, कुमारसभा पुस्तकालय के कार्यक्रमों में समाज के लोगों की कमी इस स्थिति का जीता जागता उदाहरण हमारे सामने है। श्री प्रमोद शाह का नाम लेते हुए आगे कहने लगे गोपाल कलवानी, केशव भट्ठड़, संजय बिन्नाणी अभी भी समाज में इस अलख को जगाये हुए परन्तु इनको समाज का सहयोग नहीं के बराबर है।’’
‘अनोखा’ के नाम से जाने व पहचाने जाने वाले कवि इन दिनों गले के केंसर से ग्रसित है। डाक्टरों ने उनको कम बोलने की सलाह दी है। मुझे पास पाकर वे कहाँ रूकते पास में उनकी पत्नी श्रीमती पुतली देवी मोहता जी ने उनके स्वभाव के बारे में मुझे कुछ बताने लगी, इलाज में कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ा था पर उनको यह सब कहाँ सुनना पसंद बीच में ही टोक दिए ....शंभुजी आएं हैं चाय तो पिलाओ! भाभीजी उठकर किंचन चाय बनाने चली गई। तब तलक श्री संजय विन्नानी जी भी आ गए थे और हमारी बातों का नया दौर शुरू हो गया।
आपने अपनी पहली रचना माहेश्वरी विद्यालय के तुलसी जयन्ती के कार्यक्रम में सन् 1950 में सुनाई थी उसके बाद तो आपको जो उत्साह मिला तब से आजतक आप लगातार लिखतें और कुछ नये सृजन में लगे रहते है। आप कोलकाता में मूनलाइट थियेटर के लिए भी कई राजस्थानी गीत लिखे थे।
सन् 1961-62 में आपकी लिखी एक राजस्थानी गीत-
‘‘चम-चम चमकै चाँद, चाँदनी रस बरसावै रे।
थारे बिना ओ बालम म्हारे जी घबरावै रै’’
शे’र, गज़ल, रुबाई, कत्आत, होली गीत, गणगौर गीतों आदि में प्रायः सभी जगह आपने कई जगह राजस्थानी शब्दों का मिश्रण इनकी रचनाओं की पहचान बन चुकी है। अनोखा जी का सिर्फ नाम ही नहीं इनकी पहचान भी ‘अनोखा’ है। एक गज़ल को देखें -
‘‘आने को सब आये लेकिन वो नहीं आये
मुद्दत से दिल जिनकी बाट उडीक रहा है।’’
यहाँ ‘‘बाट उडीक’’ राजस्थानी शब्द है जिसका अर्थ है बैचेनी से किसी का इंतजार करना। आपकी इस अलग पहचान ने प्रायः सभी कवि मंचों पर आपकी एक विशिष्ठ पहचान हो जाती थी। श्री गजानन वर्मा, विश्वनाथ शर्मा ‘‘विमलेश जी’’, डाॅ॰ शम्भुनाथ सिंह, भारत भूषण, गोपाल सिंह ‘‘नेपाली’’, जानकी वल्लभजी शास्त्री, नागार्जुन, अनवर मिर्जापुरी, सोज सिकन्दरपुरी, हकीम झुनझुनवी, वसीम बरेलवी, कैफ़ी आजमी, अली सरदार जाफ़री कई महान हस्तियों के साथ आपने कवि सम्मेलनों, मुशायरों, महफिलों की शान बढ़ाई है। डा॰ कृष्ण बिहारी मिश्र जी लिखते है। ‘‘ शेरो-शायरी की महफिल से जुड़े ‘अनोखा’ जी’ मेरे मन इतने करीब कैसे पहुँच गये? सोचता हूँ तो उनका प्रेम-पागल रूप मेरी आँखों के सामने खड़ा हो जाता है।’’ श्री मृत्युंजय उपाध्याय जी एक जगह आपके संस्मरण का जिक्र करते हुए लिखा कि ‘‘ आपकी एक कविता बम्बई से प्रकाशित ‘गौरी’ को छपने भेजी जो सधन्यवाद वापस लौट आयी थीं पुनः आपने इसी कविता को ‘चम्पा मोहता’ के नाम से भेज दी संपादक ने किसी लड़की का नाम समझा और अगले ही अंक में कोभर पृष्ठ के अंदर वाले पृश्ठ पर छाप दी, इस संपादकीय आईने ने संपादक की कलाई तो खोलकर रख ही दी, संपादक महोदय को इसके लिए जब उन्हें यह पता चला कि उन्होंने इसी रचना को पहले अस्वीकृत कर दिया था माफी भी मांगनी पड़ी’’
आप अपने बारे में लगातार कुछ न कुछ सुनाते जा रहे थे चाय आ चुकी थी हम तीनों चाय पीने लगे तभी आपने सुनाना शुरू किया-
‘‘कोई बुलंदियों में तो कोई अभाव में
हर शख़्स जी रहा है यहाँ पर तनाव में
कल तक जो उठाते थे ज़माने पे उंगलियाँ
वो आज कठघरे में हैं अपने बचाव में।’’
प्रकाशन: कोलकाता शहर की एक जानी पहचानी संस्था ‘अकृत’ ने इनकी बिखरी हुई प्रायः सभी रचनाओं (वर्ष 2010 तक की) को एकत्रित कर एक काव्य ग्रंथ ‘‘अनोख कवि’’ के रूप में प्रकाशित किया है जिसका मूल्य: रु0 500 मात्र, जिसका संपादन श्री केशव भट्ठड़ एवं श्री संजय बिन्नाणी ने किया है।
प्रकाशक: अकृत, 4, तनसुख लेन, कोलकाता- 700007.
चम्पालाल मोहता की कुछ रचनाएं -
राजस्थानी गीत
चम-चम चमकै चाँद, चाँदनी रस बरसावै रे।
थारै बिना ओ बालम म्हारो जी घबरावै रे।।
खिली म्हारी जोबन री फुलवारी
पिया मैं सुध-बुध भूला सारी
रहे नहीं मन अब मेरो इस में
जवानी नाच रही नस-नस में
सारी-सारी रात सजनवा नींद न आवै रै! थारै बिना.....
जुल्फ लहरावै काळी-काळी
आँख म्हारी हिरणी सी मतवाली
गाल म्हारा गोरा, होठ गुलाबी
कमर पतली लचके ज्यूँ डाली
घड़ी-घड़ी म्हारी छाती स्यूँ आँचल उड़ जावै रे! थारै बिना.....
पिया घर जल्दी वापस आणा
नहीं पल भर भी देर लगाणा
लग्या सै म्हारै लै’र जमाणा
कठै लुट जावै ना म्हारा खजाणा
पाड़ोसी को छोरो म्हाँसू आँ लड़ावै रे! थारै बिना.....
(मूनलाइट थियेटर के लिए सन् 1961-62 में रचित)
अपना मुकद्दर है तू.....
अंधेरों में बन रोशनी की किरन
हक जो ना मिले, कर शिकवे ना गिले
राहें नई, खुद ही बना
अपना मुकद्दर है तू
तेरी हिम्मत के सदके, तेरी मेहनत के सदके
तेरी फितरत के सदके, तेरी गैरत के सदके
परेशानियों से तू झुकना नहीं
घबरा के ख़तरों से रुकना नहीं
आसाँ हो जाएगी मुश्किल तेरी
कदमों को चुमेगी मंजिल तेरी
उठ हर बुलन्दी को छू - अपना मुकद्दर है तू.....
दिलों से दिलों की कड़ी जोड़ तू
आँधी-ओ-तूफाँ का रूख मोड़ तू
ज़मीं है तेरी आस्माँ है तेरा
सारा का सारा जहाँ है तेरा
सितारों से कर गुफ्तगू - अपना मुकद्दर है तू.....
हिम्मत के लिख तू फसाने नये
उल्फ़त के गा तू तराने नये
दिन भी तेरे हों रातें तेरी
सब की जुबाँ पे हो बातें तेरी
हर दिल का बन तू सुकूँ - अपना मुकद्दर है तू.....
ख़्वाबों को अपने हक़ीक़त बना
बेहतर से बेहतर जहाँ तू बना
अंधेरों में बन रोशनी की किरन
ज़माना भी देखे जऱा तेरा फ़न
नया इक सफ़र कर शुरू - अपना मुकद्दर है तू.....
शे’र
कांटों की हो चुभन या अंगार का दहकना
मिल-जुल के आओ बाँटे, हम दर्द अपना-अपना
जीने का हक जहाँ में सबको मिले बराबर
उजड़े न कोई बगिया, टूटे न कोई सपना। -‘‘अनोखा कवि से’’
तूँ ढूँढ़ता फिरे है जिस दर-ब-दर अय दोस्त
तुझको ख़बर नहीं वो तेरे आस-पास है
हमको ये तेरी व़ज्म का अंदाज ‘‘अनोखा’’
भाया न एक पल, न कभी आया रास है। -‘‘अनोखा कवि से’’
दुविधाओं के एक दौर से जीवन गुज़र रहा है
बसे-बसाए घर का तिनका-तिनका बिखर रहा है
पग-पग पसरी है। पीड़ायें, पल-पल है चिन्तायें
सच तो ये है-अब साँसे लेना भी अखर रहा है। -‘‘अनोखा कवि से’’
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है-
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है-
महका-महका सा आज हमारा आँगन है।
गृहलक्ष्मी आओ, स्वागत है अभिनन्दन है।।
बाबुल के घर छोड़ पिया के घर आई।
डोली में खुशियाँ ही खुशियाँ भरकर लाई
सुख सबको पहुँचाने की अनुपम अभिलाषा
सजनी के नैनों में है साजन की भाषा
पग-पग पर बिखरा कुंकुम्, केसर, चंदन है।
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है....
मन से मन का यह सुखद सुहाना मधुर मिलन
धरती से मानो आज मिला हो नील गगन,
कल तक जो अनजाने थे आज हुए अपने
साकार हो गए जीवन के सुन्दर सपने
जग में सबसे पावन परिणय का बंधन है।
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है....
उर में चिंतन की, सागर सी गहराई हो
मासूम विचारों में नभ की ऊँचाई हो
कर्तव्य-परायणता ही मानस का दर्पण
श्रद्धा में अन्तर्निहित ही मथुरा-वृन्दावन है।
गृहलक्ष्मी आओ स्वागत है....
गजल
सन्नाटे का शोर हवा में चीख रहा है
तनहाई में भीड़ का मंज़र दीख रहा है।
रंजो-अलभ से अब तो अपना है याराना
रफ़्ता रफ़्ता ग़म सहना दिल सीख रहा है।
नहीं कोई गुंजाइस अब कहने सुनने की
उसका कहना इक पत्थर की लीक रहा है।
अच्छे बुरे दिनों की चर्चा है बेमानी
मेरे लिए हर लम्हा इक तौफ़ीक़ रहा है।
उसका दिल अच्छा, उसकी बातें भी अच्छी
साफ बयानी में बस थोड़ा तीख रहा है।
वो बदनाम गली-कूचे का रहनेवाला
दोज़ख़ में रहकर भी बिलकुल ठीक रहा है।
दूर भले ही रहा नज़र से मेरी लेकिन
वो मेरे दिल के हरदम नज़दीक रहा है।
उन दोनों का साथ था जैसे चोली दामन
एक काफ़िया था तो एक रदीफ़ रहा है।
मार दिया बेमौत उसे अपने लोगों ने
जो उनके सुख दुःख में सदा शरीक रहा है।
गिरगिट जैसा रंग बदलता उसका चेहरा
कभी रक़ीबों सा है कभी रफ़ीक़ रहा है।
आने को सब आये लेकिन वो नहीं आये
मुद्दत से दिल जिनकी बाट उडीक रहा है।
खुद ही मुज़रिम, खुद फ़रियादी, खुद ही हाकिम
खुद ही अपने जुर्म का वो तस्दीक़ रहा है।
धुंध-धुंए से परे एक झुरमुट के पीछे
दूर खड़ा वो अलग ‘‘अनोखा’’ दीख रहा है।
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