बाबोसा रो बख्तर ल्याद्यो
बो खूनी खांडो मंगवाद्यो
म्हारै घुड़ळै जीन कसाद्यो
रजपूती रा ठाठ सजाद्यो।
अब लड़बा मरबा जास्यूं मा,
खूनां रा समंद बहास्यूं मा
मैं रणखेतां जास्यूं।
बखतर यो बादळ बण ज्यासी
यो खांडो बीजळ चमकासी
पून वेग म्हारो घुड़लो जासी
या रजपूती प्रळै मचासी।
बैर्यां रा सीस झुकास्यूं मा,
जीवण रो फळ जद पास्यूं मा
मैं रणखेतां जास्यूं।
बहनड़ अकनकंवार उतारो
आरतड़ो रजवंती म्हारो
ओ रोळी टीको म्थारो
लोही मांगैलो लाखां रो।
टीकै री लाज रखास्यूं मा,
बहनड़ रो प्यार चुकास्यूं मा
मैं रणखेतां जास्यूं।
स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी का संक्षिप्त परिचय:
स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी का जन्म राजस्थान के चूरू गांव में 22 जनवरी, 1922ई. में श्री हनुमानप्रसाद सारस्वत के यहां हुआ। आपकी प्राथमिक पढ़ाई बागला स्कूल, चूरू और ग्रेज्यूएट तक की शिक्षा डूंगर कॉलेज, बीकानेर से की आगे चलकर आपने एम.ए. एलएल.बी. की परिक्षाएं भी दी।
डूंगर कॉलेज, बीकानेर में पढ़ाई करते वक्त राजस्थानी भाषा के विद्वान के संपर्क में रहने के चलते आपमें भी राजस्थानी भाषा की सेवा का भाव जग उठा। सन् 1947-48 आपने बीकानेर से जयपुर आकर रेडक्रॉस सोसायटी में सेक्रेट्री पद पर कार्य करने लगे, आप सेवानिवृत्त तक इसी संस्था में ही कार्य करते रहे। इस संस्था में रहते-रहते ही आपने राजस्थानी भासा पर अपना कार्य जारी रखा। इस दौरान आपने ‘मरुवाणी’ मासिक का प्रकाशन भी करने लगे जो 1953 से लगभग 20 सालों तक लगातार प्रकाशित होती रही। इस पत्रिका के प्रकाशन के साथ-साथ आपने ‘राजस्थान भासा प्रचार सभा’ की भी स्थापना कर इस संस्था के माध्यम से कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन किया। श्री सारस्वत सभा की तरफ से वर्ष में चार बार राजस्थानी भाषा की परिक्षाएं लेते जिसमें हर वर्ष हजारों छात्र भाग लेते रहे। आपके द्वारा राजस्थान के सैकडों साहित्यकारों को सामने आने का अवसर मिला औ उनको प्रसिद्धि भी मिली।
आप में राजस्थानी भाषा के प्रति गजब का प्रेम था, कई बार आप अपनी मासिक तनखाह से पुस्तकें खरीद लाते और बच्चों का भूखा ही पालते रहते। आप कवि, नाटककार, निबंधकार, समीक्षक, संपादन, अनुवादक, कोषकार एवं शोधकार की प्रतिभा से पूर्ण थे। राजस्थानी भासा मान्यता के प्रबल समर्थक आपको कई सम्मानों से भी नवाजा जा चुका है। 16 दिसम्बर, सन् 1988ई. को आप इस संसार से भावपूर्ण विदाई लेकर खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दिए।
आपकी उपरोक्त कविता में वीर राजपुत युवा अपनी मां से आर्शीवाद मांग रहा है और कह रहा है कि मां मुझे अब युद्ध में जाने दो मेरे माथे पर बहन से कहो कि वो रोळी के लहू जैसे चंदन से टीका करे और मुझे खांडो अर्थात तलवार से सजा दे। राजस्थान के कण-कण में इस तरह की गाथाएं छुपी पड़ी है। मरूभूमि का शायद ही ऐसा कोई कवि होगा जिसने इन वीर गाथाओं से अपनी रचनाओं का श्रृंगार न किया हो। उपरोक्त कविता राजस्थान के महान भासा प्रेमी स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी की ‘‘बखत रै परवाण ’’ से ली गई है। -संपादक
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