स्व॰ श्री कन्हैयालाल सेठियाजी की पुण्य तिथि 11 नवम्बर पर विशेष लेख
कोलकात्ता सन् 2008 की बात है उन दिनों मैं ‘समाज विकास’ पत्रिका का संपादन देख रहा था। अचानक मेरे एक मित्र ने फोन पर मुझे बताया कि श्री सेठिया जी काफी अस्वस्थ्य चल रहे हैं उसी दिन मैंने उनके निवास पर जाने का मन बना लिया। मई का महिना था कोलकाता में वैसे भी काफी गर्मी पड़ती थी सो शाम पाँच बजे श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के निवास स्थल 6, आशुतोष मखर्जी रोड पंहुच गया। ‘समाज विकास’ का अगला अंक श्री सेठिया जी पर देने का मन बना लिया था, सारी तैयारी चल रही थी, मैं ठीक समय पर उनके निवास स्थल पहुँच गया। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया जी से मुलाकत हुई। थोड़ी देर उनसे बातचीत होने के पश्चात वे, मुझे श्री सेठिया जी के विश्रामकक्ष में ले गये । बिस्तर पर लेटे श्री सेठिया जी का शरीर काफी कमजोर हो चुका था, उम्र के साथ-साथ शरीर थक सा गया था, परन्तु बात करने से लगा कि श्री सेठिया जी में कोई थकान नहीं । उनके जेष्ठ पुत्र भाई जयप्रकाश जी बीच-बीच में बोलते रहे - ‘‘ थे थक जाओसा.... कमती बोलो ! ’’ परन्तु श्री सेठिया जी कहाँ थकने वाले, कहीं कोई थकान उनको नहीं महसूस हो रही थी, बिल्कुल स्वस्थ दिख रहे थे। बहुत सी पुरानी बातें याद करने लगे। स्कूल-कॉलेज, आजादी की लड़ाई, अपनी पुस्तक ‘‘अग्निवीणा’’ पर किस प्रकार का देशद्रोह का मुकदमा चला । जयप्रकाश जी को बोले कि- वा किताब दिखा जो सरकार निलाम करी थी, मैंने तत्काल दीपज्योति (फोटोग्राफर) से कहा कि उसकी फोटो ले लेवे । जयप्रकाश जी ने ‘‘अग्निवीणा’’ की वह मूल प्रति दिखाई जिस पर मुकद्दमा चला था । किताब के बहुत से हिस्से पर सरकारी दाग लगे हुऐ थे, जो इस बात का गवाह बन कर सामने खड़ा था । सेठिया जी सोते-सोते बताते हैं - ‘‘हाँ! या वाई किताब है जीं पे मुकद्दमो चालो थो...देश आजाद होने’रे बाद सरकार वो मुकदमो वापस ले लियो।’’ थोड़ा रुक कर फिर बताने लगे कि आपने करांची में भी जन अन्दोलन में भाग लिया था। स्वतंत्राता संग्राम में आपने जिस सक्रियता के साथ भाग लिया, उसकी सारी बातें बताने लगे, कहने लगे ‘‘भारत छोड़ो आन्दोलन’’ के समय आपने कराची में स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ० चौइथराम गिडवानी जो कि सिंध में उन जमाने में कांग्रेस के बड़े नेताओं में जाने जाते थे, उनके साथ कराची के खलीकुज्जमा हाल में हुई जनसभा में भाग लिया था, उस दिन सबने मिलकर स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ० चौइथराम गिडवानी के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला था, जिसे वहाँ की गोरी सरकार ने कुचलने के लिये लाठियां बरसायी, घोड़े छोड़ दिये, हमलोगों को कोई चोट तो नहीं आयी, पर अंग्रेजी सरकार के व्यवहार से मन में गोरी सरकार के प्रति नफरत पैदा हो गई। आपका कवि हृदय काफी विचलित हो उठा, इससे पूर्व आप ‘‘अग्निवीणा’’ लिख चुके थे। उनके चेहरे पर कोई शिथिलता नहीं, कोई विश्राम नहीं, बस मन की बात करते थकते ही नहीं।
श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्शों से ज्यादा समय से बंगाल में है। आप बताते हैं कि आप 11 वर्श की आयु में सुजानगढ़ कस्बे से कलकत्ता में शिक्षा ग्रहन हेतु आ गये थे। उन्होंने जैन स्वेताम्बर तेरापंथी स्कूल एवं माहेश्वरी विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा ली, बाद में रिपन कॉलेज एवं विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा ली थी।
‘धरती धौरां री..’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ की रचना करने वाले अमर व्यक्तित्व के सामने मुझे तो ऐसा लग रहा था कि मैं अपने पिता के पास हूँ। सारी बातें राजस्थानी में हो रही थी सो अपनापन का ऐहसास तो हो ही रहा था मुझे। उनके अपनत्व से भी मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती मां उनके मुख से स्वयं बोल रही हो। शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा लग रहा था मुझे ये सब। फिर अपनी बात बताने लगे- ‘‘ ‘आकाश गंगा’ तो सुबह 6 बजे लिखण लाग्यो जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी।’’ मैं तो बस उनसे सुनते रहना चाहते था, वाणी में मां सरस्वती का विराजना साक्षात देखा जा सकता था। मुझे बार-बार एहसास हो रहा था कि मैं किसी मंदिर में हूँ जहां ईश्वर से साक्षात दर्शन हो रहे हैं। यह तो मेरे लिये सुलभ सुयोग ही था कि मैं उनके शहर में ही रहता था।
इस ऐतिहासिक मुलाकात के बाद ही श्री सेठिया जी चन्द दिनों बाद ही 11 नवम्बर 2008 को अनन्त में लील हो गये। यह एक महज संयोग ही था।
करोड़ों राजस्थानियों की धड़कनों का प्रतिनिधि गीत ‘धरती धोरां री’ एवं अमर लोकगीत ‘पातल और पीथल’ के रचयिता, राजस्थानी अकादमी, उदयपुर द्वारा ‘साहित्य- मनीषी’ की उपाधि से विभूषित पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया का जन्म राजस्थान के सुजानगढ़ शहर में 11 सितम्बर, 1919 ई0 को हुआ और इनकी मृत्यु 11 नवम्बर 2008 को कोलकाता में हुई। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा सुजानगढ़ में एवं स्नातकीय शिक्षा कलकत्ता में हुई। साहित्यसेवा एवं सहृदयता आपको अपने पिता छगनमलजी एवं माता मनोहरी देवी से विरासत में प्राप्त हुई। आपकी प्रथम हिन्दी काव्य पुस्तक ‘वनफूल’ 1940 में प्रकाशित हुई एवं शीध्र ही क्रान्तिकारी विचारों का प्रस्फुटन करती हुई दूसरी पुस्तक ‘अग्निवीणा’ लोगों के सामने आई। यह पुस्तक जमींदारी उत्पीड़न के विरुद्ध एक सशक्त स्वर की बुलन्दी थीं, अतः आप पर मुकद्दमा, चला एवं भारत स्वाधीन होने के बाद ही उससे राहत मिली। 1976 ई0 में आपकी राजस्थानी काव्यकृति ‘लीलटांस’ साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा उस वर्श की सर्वश्रेष्ठ राजस्थानी कृति के नाते पुरस्कृत की गई। 1981 ई0 में आपको राजस्थानी में उत्कृष्ट रचनाओं के हेतु लोक संस्कृति शोध संस्थान, चुरू द्वारा प्रवर्तित ‘डॉ० तेस्सीतोरी स्मृति स्वर्णपदक’ प्रदान किया गया। सेठियाजी को मूर्तिदेवी साहित्य पुरस्कार उनके काव्य ग्रन्थ ‘निर्ग्रन्थ’ पर दिया गया है। ‘निर्ग्रन्थ’ में कवि की 82 कविताएं संकलित हैं। प्रत्येक कविता के साथ दर्शन जुड़ा है।
राजस्थानी में 14 एवं उर्दू में दो पुस्तक प्रकाशित है। इनमें से कुछ पुस्तकें अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई हैं। यद्यपि समय की आवश्यकता एवं पुकार पर उन्होंने कई पुस्तकें क्रान्तिधर्मा स्वर की लिखी यथा ‘अग्नि वीणा’ एवं ‘आज हिमालय बोला’ पर उनके अधिकांश साहित्य का या ठीक कहें तो उत्तरकाल के साहित्य का मूल स्वर आध्यात्मिक चिन्तन पर आधारित सनातन सत्य का प्राकट्य ही है। दर्शन पर आधारित उनकी रचनाओं में ‘प्रणाम’, ‘मर्म’, ‘अनाम’, ‘निर्ग्रन्थ’, ‘देह-विदेह’ एवं ‘निष्पत्ति’ (हिन्दी में) तथा ‘कूंकूं’, ‘लीलटांस’, ‘दीठ’ एवं ‘कक्को कोड रो’ ‘लीक लकोळिया’ (राजस्थानी) रचनाएँ हैं। इनमें से प्रत्येक पर एक-एक स्वतन्त्र समालोचनात्मक ग्रन्थ लिखा जा सकता है । ‘दीपकिरण’ (हिन्दी) में भी उनके 160 एक-से-एक उत्तम गीत हैं।
हिन्दी में आपकी 15 ग्रन्थ - बनफूल, अग्निवीणा, मेरा युग, दीपकिरण, प्रतिबिम्ब, आज हिमालय बोला, खुली खिड़कियां चौड़े रास्ते, प्रणाम, मर्म, अनाम, निर्ग्रन्थ, स्वगत, देह-विदेह और आकाश गंगा, राजस्थानी में- मींझर, गळगचिया, कूंकूं, धर कूंचा धर मजलां, लीलटांस एवं रमणिये रा सोरठा सहित 10 ग्रन्थ, उर्दू में ‘ताजमहल’ एवं अंग्रेजी में ‘रिफलेक्शन्स इन ए मिरर’ (अनुवाद) प्रकाशित हुए हैं। ‘निर्ग्रन्थ’ का बांग्ला में एवं ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते, का मराठी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। आपके साहित्य में भारतीय जीवन-दर्शन का गहन तत्त्व जिस सहजता से प्रकट हुआ है, आधुनिक युग में उसकी मिसाल मिलना कठिन है।
आपकी मान्यता था कि राजस्थानी जैसी समृद्ध भाषा की, जिसके कोश में सर्वाधिक शब्द हैं, उपेक्षा घातक है। राजस्थानी के व्यवहार के पक्ष में आपकी लिखित पुस्तक ‘मायड रो हेलो’ एक सशक्त दस्तावेज है।
‘प्रतिबिम्ब’ भी उनके गीतों की एक और भावपूर्ण पुस्तक है जिसमें विविधता भरी है। ‘लीलटांस’ को 1976 में साहित्य अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा की उस वर्श की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत किया गया एवं ‘निर्ग्रन्थ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला। 1987 में आपकी राजस्थानी कृति ‘सबद’ पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च ‘सूर्यमल्ल मिश्रण शिखर पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। 2004 में आपको ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया है। नोटः आपके समस्त साहित्य को ‘राजस्थान परिषद’ कोलकाता ने ने चार खंडों में ‘समग्र’ के रूप में प्रकाशित किया है । एक खंड में राजस्थानी की 14 पुस्तकें, दो खंडो में हिन्दी एवं उर्दू की 20 पुस्तकें समाहित हैं। चौथा खंड इनके 9 ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद का है। 8
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