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रविवार, 21 दिसंबर 2008

हमारी सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह

शम्भु चौधरी


परिचय: शम्भु चौधरी जन्म कटिहार (बिहार) 4 मार्च 1956, आपकी एक पुस्तक ‘‘मारवाड़ी देस का न परदेस का’’ प्रकाशित, कई सामाजिक आन्दोलनों को नेतृत्व प्रदान। मूल निवासी: फतेहपुर ‘शेखावाटी’। पिताः स्व.काशी प्रसाद चौधरी, पत्नी श्रीमती इन्दिरा चौधरी। सम्प्रतिः समाज विकास के सहयोगी सम्पादक। पताः एफ.डी.-453,साल्टलेक सिटी, सेक्टर-3 कोलकाता - 700106 फोनः 09831082737
हम प्रायः समाज सुधार की बातें आपस में करते रहते हैं। समाज का यह दावा भी रहा है कि समाज में विधवा विवाह को मान्यता देकर समाज की बहुत बड़ी समस्या का समाधान कर दिया। यह बात सही है कि जब हम किसी एक समस्या का समाधान खोज लेते हैं तो साथ ही हमारे सामने दो नई समस्यायें खड़ी हो जाती है।
एक समय पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह जैसी कुरीतियों पर प्रहार चलाया, तो हमारे सामने दहेज नामक बीमारी सामने आकर खड़ी हो गयी। कई परिवारों में दहेज के चलते हो रही हत्या को कानून व समाज के सहयोग से हम आज भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकें। इसका और विकृत रूप हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। दहेज रूपी सुरक्षा कानून का गलत प्रयोग धड़ल्ले से होने लगा। समाज सेवी संस्थाओं के कई पदाधिकारियों को इसके गलत प्रयोग में लिप्त पाया गया। धीरे-धीरे कानून ने जब यह बात खुले तौर पर स्वीकार कर ली। की इस कानून का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है तो कुछ राहत मिली, नहीं तो समाज बुरी तरह से पीस सा गया था।
यह समस्या अभी समाप्त ही नहीं हो पाई थी कि तो हमारे सामने तलाक, बिखरते व टूटते परिवार की समस्या के साथ ही भ्रूण हत्या की समस्या ने विकराल रूप लेकर समाज के ताने बाने को तार-तार कर दिया। यह समस्या किसी एक समाज की न होकर समस्त भारतीय समाज की हो चुकी हैं।
हम देखते हैं कि किसी एक समस्या का जब तक हम समाधान खोजते है, विचार मंथन करते है; हमारे सामने नई और नई समस्या आ खड़ी होती है। बच्चों की उच्च शिक्षा से हमारा समाज जहाँ काफी प्रगती कर रहा है वहीं बड़े-बड़े बच्चों के शादी विवाह में उनके मेल मिलने असंभव से लगने लगे। फिर भी हमारा समाज एक अंहकार के वश में जी रहा है। आडम्बर करना अपना धर्म समझने लगा है। जब तक कोई एक नई बीमारी शुरू नहीं कर देता तब तक विवाह की रस्में पूरी नहीं होती। हर जगह बुराईयों को जन्म देने वाले ठेकेदार पनपते जा रहे हैं।
इस समस्याओं को हम सावधानी से पहल कर समाधान खोज सकते हैं। परन्तु ऐसा लगता है कि समाजिक संस्थाओं के पदाधिकारियों में इच्छा शक्ति का भारी अभाव हो चुका है। समाज का हर व्यक्ति सम्मान प्राप्त करने की दौड़ में समाज के सम्मान को ताख पर रखने को तैयार खड़ा है।
जिससे हमारे विचारों का समाज पर प्रभाव समाप्त होता जा रहा है। हम एक समस्या से कई नई समस्या पैदा करने में अपनी शान समझने लगे हैं। यह कितना घातक है यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर हाँ हमारी सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह तो खड़ा करता ही है ।

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