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रविवार, 16 नवंबर 2008

स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया




महाकवि का महाप्रयाण: पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया नहीं रहे



धरती धोरां री !
आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,
धरती धोरां री !
सूरज कण कण नै चमकावै,
चन्दो इमरत रस बरसावै,
तारा निछरावल कर ज्यावै,
धरती धोरां री !
काळा बादलिया घहरावै,
बिरखा घूघरिया घमकावै,
बिजली डरती ओला खावै,
धरती धोरां री !

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लुळ लुळ बाजरियो लैरावै,
मक्की झालो दे’र बुलावै,
कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै,
धरती धोरां री !
पंछी मधरा मधरा बोलै,
मिसरी मीठै सुर स्यूं घोलै,
झीणूं बायरियो पंपोळै,
धरती धोरां री !
नारा नागौरी हिद ताता,
मदुआ ऊंट अणूंता खाथा !
ईं रै घोड़ां री के बातां ?
धरती धोरां री !

११ सितम्बर १९१९ : ११ नवम्बर 2008

महाकवि के महाप्रयाण पर हार्दिक श्रद्धांजलि


प्रकाश चंडालिया और शम्भु चौधरी द्वारा

आप हमें अपने संस्मरण ईमेल या डाक से भेज सकते हैं जो इसी अंक में जोड़ दिये जायेगें।
ehindisahitya@gmail.com
Shambhu Choudhary, Editor: Katha-Vyatha, FD-453, Salt Lake City, Kolkata-700106

कोलकाता 11 नवम्बर'2008 , मंगलवार;
हिन्दी और राजस्थानी भाषा के लब्ध प्रतिष्ठित कवि श्री कन्हैयालाल सेठिया आज मौन हो गए। वे ९० वर्ष के थे। भारत सरकार ने साहित्य के क्षेत्र में उनके अवदानों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा था। सेठियाजी के निधन पर देश भर से शोक संवाद प्राप्त हो रहे हैं। पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत, राजस्थान की मुख्या मंत्री वसुंधरा राजे ने अपने संदेशों में सेठिया जी के साहित्यिक अवदानों के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर उनके कार्यों को मील का पत्थर कहा है। व्यापारिक घराने से होने के बावजूद श्री सेठिया ने कभी भी साहित्य के साथ समझौता नही किया। उनका जन्म राजस्थान के सुजानगढ़ में ११ सितम्बर १९१९ को हुआ था। उनके पिता का नाम छगनमल सेठिया और माता का नाम मनोहारी देवी सेठिया था। सेठिया जी की प्रारम्भिक पढ़ाई कलकत्ता में हुई। स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने के कारण कुछ समय के लिए आपकी शिक्षा बाधित हुई, लेकिन बाद में आपने राजस्थान विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। दर्शन, राजनीती और साहित्य आपका प्रिय विषय था। राजस्थान में सामंतवाद के ख़िलाफ़ आपने जबरदस्त मुहीम चलायी और पिछड़े वर्ग को आगे लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय आप कराची में थे। १९४३ में सेठियाजी, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आए। सेठियाजी को ज्ञानपीठ की ओर से मूर्तिदेवी साहित्य पुरास्कार १९८८ में दिया गया। उसके बाद आपकी विविध कृतियों के लिए साहित्य अकादमी सहित देश की असंख्य संस्थाओं ने सम्मानित किया।

सेठिया जी की अमर कृतियों में धरती धोरा री राजस्थान का वंदना गीत है, जो करोड़ों राजस्थानी लोगों के ह्रदय की आवाज है। राणाप्रताप पर उनकी लिखी कविता- पातल'र पीथल काफ़ी लोकप्रिय रही। 'कुन जमीं रो धनि' जैसी सैकड़ों कविताओं के मध्यम से सेठिया जी ने आम आदमी के उत्थान का कार्य किया।


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मनीषी, कर्म-प्रतिभा एवं संवेदनशीलता की त्रिवेणी के साकार प्रतीक


मंगलवार 11 नवम्बर 2008; कोलकाता: 89 वर्षिय महामनीषी पद्मश्री श्री कन्हैयालाल सेठिया का आज सुबह निधन हो गया। अपने पीछे पत्नी धापू देवी, पुत्र जयप्रकाश, विनय प्रकाश, पुत्री संपत दूगड़ पौत्र-पौत्रि सहित भरा पूरा परिवार छोड़ गये। 2004 में पद्मश्री से सम्मानित श्री सेठिया के अंतिम दर्शन को सारा साहित्य जगत उमड़ पड़ा। श्री हरीश भादानी अपनी अस्वस्थता के बावजूद नीमतल्ला घाट पहूँच कर श्री सेठियाजी के पार्थीव शरीर को पुष्पमाला अर्पित की। इनकी मृत्यु पर भारतीय भाषा परिषद के निदेशक श्री विजय बहादुर सिंह ने कहा कि इनके जाने से राजस्थानी और हिन्दी साहित्य जगत को भारी क्षति हुई है।


मनीषी, कर्म-प्रतिभा एवं संवेदनशीलता की त्रिवेणी के साकार प्रतीक, करोड़ों राजस्थानियों की धड़कनों के प्रतिनिधि गीत ‘धरती धौरां री’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ के यशस्वी रचियता, श्री कन्हैयालाल सेठिया का जन्म 11 सितम्बर 1919 ई0 को राजस्थान के सुजानगढ़ शहर में एक सुप्रसिद्ध व्यवसायी परिवार में हुआ था । माता श्रीमती मनोहरी देवी व पिता छगनमल जी दोनों ही शिक्षाप्रमी थे । महाकवि श्री सेठिया जी का विवाह लाडनू के चोरड़िया परिवार में श्रीमती धापूदेवी के साथ सन् 1939 ई0 में हुआ । आपके परिवार में दादाश्री स्वनामधन्य स्व.रूपचन्द सेठिया का तेरापंथी ओसवाल समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। इनको श्रावकश्रेष्ठी के नाम से संबोधित किया जाता है। श्री जयप्रकश सेठिया इनके बड़े पुत्र हैं, छोटे पुत्र का नाम श्री विनय प्रकाश सेठिया है और एक सुपुत्री सम्पतदेवी दूगड़ है ।


जब आप आठ वर्ष के थे, तभी से पद्य-रचना करने लगे । उस समय इनकी कविता का विषय भारत के स्वाधीनता-संग्राम से जुड़े लोगों की गौरवगाथा लिखना था । इनकी पहली कृति राजस्थानी में ‘रमणिये रा सोरठा’ 1940 में प्रकाशित हुई । हिन्दी की प्रथम कृति ‘वनफूल’ भी इसके बाद 1941 में प्रकाशित हुई । उसकी भूमिका डॉ.हरिवंश राय ‘बच्चन’ ने लिखी थी । तब से अब तक कवि चिन्तक, दार्शनिक सेठियाजी अनवरत लिखते रहे हैं । आपकी दो दर्जन से अधिक काव्य-रचनाओं में प्रमुख हैं-हिन्दी काव्य


कृतियाँ ‘वनफूल’, ‘मेरायुग’, ‘अग्निवीणा’, ‘प्रतिबिम्ब’, ‘अनाम’, ‘निर्गन्थ’, ‘दीपकिरण’, ‘मर्म’, ‘आज हिमालय बोला’, ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते’, ‘प्रणाम’, ‘त्रयी’ आदि और राजस्थानी काव्य-कृतियाँ हैं- ‘मींझर’, ‘गळगचिया’, ‘रमणिये रा सोरठा’, ‘धर कूंचा धर मजलाँ’, ‘कूँ कूँ’, ‘लीलटांस’ आदि ।
श्री सेठिया जी के साथ लेखक शम्भु चौधरी


1942 में जब गांधीजी ने ‘करो या मरो’ का आह्नान किया, तब इनकी कृति ‘अग्निवीणा’ प्रकाशित हुई । जिस पर बीकानेर राज्य में इनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चला और बाद में राजस्थान सरकार ने आपको स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी के रूप में सम्मानित भी किया । महात्मा गांधीजी की मृत्यु पर भी आपकी एक कृति प्रकाशित हुई थी । इसमें देश बंटवारे के दौरान हुई लोमहर्षक व वीभत्स घटनाओं से जुड़ी रचनाएं संग्रहीत हैं । इसके बाद 1962 में हिन्दी-कृति ‘प्रतिबिम्ब’ का प्रकाशन हुआ । इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है । इसकी भूमिका हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने लिखी है ।


आपकी ‘लीलटांस’ को 1976 में साहित्य अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा की उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत किया गया एवं ‘निर्ग्रन्थ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला । 1987 में आपकी राजस्थानी कृति ‘सबद’ पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च ‘सूर्यमल्ल मिश्रण शिखर पुरस्कार’ प्राप्त हुआ । सन् 2004 में आपको ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया । आपके समस्त साहित्य को ‘राजस्थान परिषद’ ने चार खंडों में ‘समग्र’ के रूप में प्रकाशित किया है । एक खंड में राजस्थानी की 14 पुस्तकें, दो खंडो में हिन्दी एवं उर्दू की 20 पुस्तकें समाहित हैं । चौथा खंड इनके 9 ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद का है जिसमें मूल पाठ भी साथ है ।


श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्षों से ज्यादा समय से बंगाल में है । पहले इनका परिवार 199/1 हरीसन रोड में रहा करता था । सन् 1973 से सेठियाजी का परिवार भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20 के प्रथम तल्ले में निवास कर रहा है। ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित।
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इनकी दो अमर रचना


पातल’र पीथल


रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।

हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो, मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में, बैर्यां री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदी घाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,

पण आज बिलखतो देखूं हूँ, जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ, भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मैं’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,

ऐ हाय जका करता पगल्या,फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया,हिंदवाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिख स्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,

मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं, कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट, आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेषो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,

कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो, कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो, आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,

बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै, रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो, राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो,धावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो, राणा री हार बंचावण नै,

म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में, बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो, तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी, राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई, आंख्यां में आयो भर पाणी,

पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं, राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं, आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो, स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो, बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो, धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो, कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम, अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में, तरवार रवैली अब सूती,

तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही, राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ, नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं, मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ां में भटकूं, पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री, जो रोकै सूर उगाळी नै,

सिंघां री हाथळ सह लेवै,बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी, चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी, हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां, कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री, छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,

राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी, लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ , उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेष गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।


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धरती धोरां री !


धरती धोरां री !
आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,
धरती धोरां री !
सूरज कण कण नै चमकावै,
चन्दो इमरत रस बरसावै,
तारा निछरावल कर ज्यावै,
धरती धोरां री !
काळा बादलिया घहरावै,
बिरखा घूघरिया घमकावै,
बिजली डरती ओला खावै,
धरती धोरां री !
लुळ लुळ बाजरियो लैरावै,
मक्की झालो दे’र बुलावै,
कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै,
धरती धोरां री !
पंछी मधरा मधरा बोलै,
मिसरी मीठै सुर स्यूं घोलै,
झीणूं बायरियो पंपोळै,
धरती धोरां री !
नारा नागौरी हिद ताता,
मदुआ ऊंट अणूंता खाथा !
ईं रै घोड़ां री के बातां ?
धरती धोरां री !
ईं रा फल फुलड़ा मन भावण,
ईं रै धीणो आंगण आंगण,
बाजै सगळां स्यूं बड़ भागण,
धरती धोरां री !
ईं रो चित्तौड़ो गढ़ लूंठो,
ओ तो रण वीरां रो खूंटो,
ईं रे जोधाणूं नौ कूंटो,
धरती धोरां री !
आबू आभै रै परवाणै,
लूणी गंगाजी ही जाणै,
ऊभो जयसलमेर सिंवाणै,
धरती धोरां री !
ईं रो बीकाणूं गरबीलो,
ईं रो अलवर जबर हठीलो,
ईं रो अजयमेर भड़कीलो,
धरती धोरां री !
जैपर नगर्यां में पटराणी,
कोटा बूंटी कद अणजाणी ?
चम्बल कैवै आं री का’णी,
धरती धोरां री !
कोनी नांव भरतपुर छोटो,
घूम्यो सुरजमल रो घोटो,
खाई मात फिरंगी मोटो
धरती धोरां री !
ईं स्यूं नहीं माळवो न्यारो,
मोबी हरियाणो है प्यारो,
मिलतो तीन्यां रो उणियारो,
धरती धोरां री !
ईडर पालनपुर है ईं रा,
सागी जामण जाया बीरा,
अै तो टुकड़ा मरू रै जी रा,
धरती धोरां री !
सोरठ बंध्यो सोरठां लारै,
भेळप सिंध आप हंकारै,
मूमल बिसर्यो हेत चितारै,
धरती धोरां री !
ईं पर तनड़ो मनड़ो वारां,
ईं पर जीवण प्राण उवारां,
ईं री धजा उडै गिगनारां,
धरती धोरां री !
ईं नै मोत्यां थाल बधावां,
ईं री धूल लिलाड़ लगावां,
ईं रो मोटो भाग सरावां,
धरती धोरां री !
ईं रै सत री आण निभावां,
ईं रै पत नै नही लजावां,
ईं नै माथो भेंट चढ़ावां,
भायड़ कोड़ां री,
धरती धोरां री !


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स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया की कालजयी रचनायें



कन्हैयालाल सेठिया
११ सितम्बर १९१९ : ११ नवम्बर 2008


आज हिमालय बोला


जागो, जीवन के अभिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
लील रहा मधु-ऋतु को पतझर,
मरण आ रहा आज चरण धर,
कुचल रहा कलि-कुसुम,
कर रहा अपनी ही मनमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
साँसों में उस के है खर दव,
पद चापों में झंझा का रव,
आज रक्त के अश्रु रो रही-
निष्ठुर हृदय हिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
हुआ हँस से हीन मानसर,
वज्र गिर रहे हैं अलका पर,
भरो वक्रता आज भौंह में,
ओ करुणा के दानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !


कुँआरी मुट्ठी !


युद्ध नहीं है नाश मात्र ही
युद्ध स्वयं निर्माता है,
लड़ा न जिस ने युद्ध राष्ट्र वह
कच्चा ही रह जाता है,
नहीं तिलक के योग्य शीश वह
जिस पर हुआ प्रहार नहीं,
रही कुँआरी मुट्ठी वह जो
पकड़ सकी तलवार नहीं,


हुए न शत-शत घाव देह पर
तो फिर कैसा साँगा है?
माँ का दूध लजाया उसने
केवल मिट्टी राँगा है,
राष्ट्र वही चमका है जिसने
रण का आतप झेला है,
लिये हाथ में शीश, समर में
जो मस्ती से खेला है,
उन के ही आदर्श बचे हैं
पूछ हुई विश्वासों की,
धरा दबी केतन छू आये
ऊँचाई आकाशों की,
ढालों भालों वाले घर ही
गौतम जनमा करते हैं,
दीन-हीन कायर क्लीवों में
कब अवतार उतरते हैं?


नहीं हार कर किन्तु विजय के
बाद अशोक बदलते हैं
निर्दयता के कड़े ठूँठ से
करुणा के फल फलते हैं,


बल पौरुष के बिना शन्ति का
नारा केवल सपना है,
शन्ति वही रख सकते जिनके
कफन साथ में अपना है,
उठो, न मूंदो कान आज तो
नग्न यथार्थ पुकार रहा,
अपने तीखे बाण टटोलो
बैरी धनु टंकार रहा।


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श्री कन्हैयालाल सेठियाः क्रान्तिकारी और परिवर्तनशील युग के साक्षी


स्वतंत्रता-संग्रामी व क्रान्तिकारी: पद्मश्री श्री कन्हैयालाल सेठिया भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम से उत्प्रेरित गांधीयुग की एक उपलब्धि हैं, जो न सिर्फ क्रान्तिकारी और परिवर्तनशील युग के साक्षी रहे हैं वरन् क्रान्तिचेत्ता के रूप में दिशा-दर्षक भी रहे हैं। श्री सेठिया राजस्थान के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और लोकनायक श्री जयनारायण व्यास, श्री सुमनेश जोशी, श्री रघुवर दयाल गोयल, श्री गौरीशंकर आचार्य आदि अनेक राष्ट्र-सेवियों के सहकर्मी रहे हैं। आपने समाज की जर्जर रूढ़ियों से बगावत करते हुए क्रान्तिकारी वातावरण का निर्माण किया और आवश्यकता हुई, वहाँ संघर्ष भी किया । प्रारम्भ में आपने आजादी के पूर्व और पश्चात् राजनैतिक क्षेत्र में भी सक्रिय रूप में कार्य किया था । राजनीति से सन्यास ग्रहण कर अपना जीवन सामाजिक सुधार के कार्यों, लोकसेवा, साहित्य-संरचना, काव्य-रचना, राजस्थानी भाषा के विकास- प्रसार व उसकी मान्यता हेतु समर्पित कर दिया । वे व्यापारिक झंझटों से परे एक सामाजिक संत हैं । देश व मातृभूमि को समर्पित हैं । ऐसा उदाहरण अन्य राजनीतिज्ञ का पद्मश्री शायद ही मिले! दलितोत्थान के क्षेत्र में सेठियाजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आपके व्यक्तित्व की एक विशेषता रही कि आप में कभी किसी संस्था का मोह व्याप्त नहीं हुआ । आप परिग्रह प्रकृति से कोसों दूर रहे। आप दलितों के मसीहा तथा असहायों के सहायक हैं । आपकी कथनी एवं करनी में कभी भी कोई अन्तर नहीं रहा । धर्म, जाति, समुदाय का बिना ख्याल किए आप सदा पीड़ित मानव मात्र की सेवा में लगे रहे। इस सेवा-कार्य में आप अपनी साधन-सुविधा को भी भूल जाते, खान-पान, रहन-सहन का दुराव भी इनके व्यवहार में कभी नहीं रहा। कार्यक्षेत्र में वे खूब पैदल घूमे और बाजरे की रूखी रोटी, लाल मिर्च के साथ प्रेम से खाई। आप सदा सेवा और सेवक की एकरूपता में रहे। सेवा-कार्य में तल्लीनता, सेवापरायणता, निःस्वार्थ भाव इनकी विशेषता है। इसी कारण खान-पान, रहन-सहन असुविधा का ध्यान भी नहीं रहता था, जो जैसा था, उसी में रस लेते रहे। इसी का परिणाम था कि किसानों, मजदूरों, हरिजनों में खूब लोकप्रिय रहे। आप एक स्वाभिमानी पर संकोची व्यक्ति हैं। आपका व्यक्तित्व अपनत्व से भरा है। इसलिए सब इनके अपने हैं। कहीं दुराव, छलाव, अभिमान नहीं है। गांधीजी के जीवन-दर्शन और इनके विचारों में बहु साम्य है। जो भी इनके सम्पर्क में आया, सीधे या इनके द्वारा रचित पुस्तकों के माध्यम से, वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। उसके हृदय-पटल पर इनके प्रकाण्ड व्यक्तित्व की एक अटल छवि अवश्य अंकित हो गई। इनका व्यक्तित्व ही निराला है जिसे बहुआयामी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्री सेठियाजी समय-समय पर धर्मान्धता, कुपरम्परा एवं कुरीति पर तीव्र प्रहार कर धर्म के मूल स्वरूप को आत्मसात करने की सदैव प्रेरणा देते रहते हैं। निष्काम सेवाभावी कार्यकत्र्ताओं के लिए तो आप एक आलोक स्तम्भ ही हैं। सामाजिक रूप से भी आप अत्यंत जागरूक हैं। समाज में बढ़ रही कुरीतियों को आप तत्काल समाप्त किए जाने के पक्षधर हैं आपका मानना है कि अगर इन बढ़ती कुरीतियों को रोका न गया तो राजस्थान की महान परंपरा, संस्कार और गौरव हमेशा-हमेशा के लिए कालकवलित हो जायगा। आप सर्व-धर्म समन्वय की जीवन्त मूर्ति हैं और साथ ही भगवान महावीर के महान् सिद्धान्त ‘‘अपरिग्रह’’ में अटूट निष्ठा रखने वाले महान ऋषि भी।


लोक प्रचेताः श्री सेठिया जी आधुनिक राजस्थान के उन साहित्यवेत्ताओं में हैं, जिन्होंने अपने कवित्व से राजस्थानी साहित्य को न सिर्फ प्रकाशमान किया है, वरन् गौरवन्वित भी किया है। जिन्होंने परिवर्तनशील युग की धारा को काव्यगंगा से प्रवाहित कर राजस्थान के लोकजीवन को उद्बोधित किया। इनके द्वारा रचित युग निर्माणकारी साहित्य इसका ज्वलन्त प्रमाण है। एक तरफ आप जहाँ हिन्दी-जगत के जाज्वल्यमान कवि हैं, वहीं आप राजस्थानी साहित्य के लोक प्रचेता भी। श्री सेठियाजी सुजानगढ़ में जन्मे, राजस्थान में बढ़े कोलकात्ता को अपनाया, आपका कार्यक्षेत्र सुजानगढ़ और राजस्थान से अधिक कलकत्ता हो गया है। सुजानगढ़ तहसील चुरू जिला व बीकानेर संभाग एवं फिर राजस्थान की राजनैतिक गतिविधियों में आजादी के पहले व बाद के वर्षों में अपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बीकानेर संभाग ही नहीं, राजस्थान के विकास हेतु कलकत्ता में बैठे-बैठे वे बराबर चिंतित रहते हैं और अनेक बिन्दुओं पर नेताओं, मंत्रियों व जन प्रतिनिधियों से पत्राचार द्वारा व प्रत्यक्ष में वार्ता करके प्रयास करते रहे हैं।


राजस्थानी भाषा: राजस्थानी भाषा और संस्कृति भारतीय राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण अंग बने, इस आवाज को सशक्त रूप से बुलन्द करने का प्रथम श्रेय इन्ही को जाता है। राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता दिलाने के लिए बहुत कम लोगों ने ईमानदारी से गंभीरता दिखाई। न देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाले प्रवासी राजस्थानियों ने और न राजस्थान के नागरिकों ने। कई बार यह सुनने को मिलता है कि राजस्थान में किसी वर्ग विशेष ने राजस्थानी को मान्यता देने का विरोध किया है। इस परिस्थिति में गहरी वेदना होती है और सेठियाजी की ये पंक्तियां सहज ही ध्यान में आ जाती हैः


‘‘मायड़ भाषा बोलतां जिणनैं आवै लाज ।
इस्या कपूतां सैं दुखी आखों देस-समाज ।’’

‘‘मायड़ भासा’’ के प्रति ऐसी तड़प बहुत कम लोगों में है । कुछ लोगों को इनकी इस तड़प से कई बार अरुचि भी होने लगती है लेकिन वे यह अलख......

‘‘बिन भाषा बिन पाणी, बिलखै राजस्थानी’’

निरंतर और बेहिचक अलापते रहते हैं। इसके लिए पत्राचार, फैक्स, तार का एक बड़ा जखीरा इनके पास है । एक बार तो इन्होंने राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने की मांग को लेकर अनशन करने की धमकी राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत को दे दी थी।


काव्ययात्राः इसमें कोई दो मत नहीं कि श्री सेठियाजी की साहित्य-यात्रा राजस्थानी साहित्य के विकास को भी प्रतिबिंबित करती है। उनकी रचनाएं बताती हैं कि राजस्थानी का साहित्य धीरे-धीरे गंभीर हो रहा है, उसका दायरा व्यापक हो रहा और समाज की नवीनताओं को उसी तरह आत्मसात कर रहा है । आपकी काव्ययात्रा, युवा अवस्था में लिखे गीत और काव्य जनभाषा और जन-आन्दोलनों से जुड़े हुऐ हैं। उस वक्त सेठियाजी ने धरती, किसान, मजदूर, ऐतिहासिक वीरों, देशभक्तों, जन-नेताओं और देशाभिमान के गीत लिखे और गाये ।
कई लोग इनसे वैचारिक स्तर पर एकमत न होते हुए भी इनकी काव्य-शैली से अति प्रभावित रहते हैं। क्योंकि इस अणु युग में इनके द्वारा शब्दों का चुनाव बड़ा ही कौशलपूर्ण व मार्मिक है। प्रत्येक शब्द मानस पर एक रंगीन रेखाचित्र खींच, अपनी अमिट छाप छोड़ देता है। स्वभाव से श्री सेठियाजी बहुत संवेदनशील और भाव प्रवण व्यक्ति हैं। मानवमात्र का उत्पीड़न, शोषण, उपेक्षा और अनादर इनके संवेदनशील हृदय को झकझोर देता है। उनकी भावनाओं के उद्वेग ने ही शायद इनको कवि का हृदय दिया। गद्य और पद्य में इनकी अभिव्यक्ति समान रूप से प्रभावपूर्ण रही है।
श्री सेठियाजी को अपनी मातृभाषा राजस्थानी और मातृभूमि अभावों से पीड़ित रेतीले धोरों की धरती से असीम प्यार है। वह उनकी प्रेरणा का आधार रही हैं। कई काव्य-रचनाएँ और ‘धरती धोरां री’ का अमर गान इसका प्रतीक है। श्री सेठियाजी राजस्थानी और हिन्दी के उच्चकोटि के कवि और साहित्यकार हैं। साहित्य की कई विधाओं में इन्होंने उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ की हैं। इनके साहित्य में गंभीर भाव-प्रवणता, उच्चकोटि की अभिव्यक्ति एवं उत्कृष्ट रचना कौशल है। इनकी रचनाएँ व्यक्ति के मानस एवं विचारों को छूती हैं ।


‘धरती धोरां री’, इसे बहुत से व्यक्ति एक अमर रचना मानते है, वस्तुतः ऐसा ही नहीं यह तो राष्ट्र गान है। ‘पातल और पीथल’ मरुभूमि के दुरूह जीवन, राजपूताने के शौर्य एवम् बलिदान, वहां के कण-कण में बिखरे सौन्दर्य की प्रखर वाणी है। ‘धरती धोरां री’ ऐसी वाणी जिसे सुन सार्थकता पाई कृष्ण के रंग में रंगी मीरा ने, धधकती ज्वाला का वरण करने वाली पद्मिनियों ने, पत्थरों में प्राण फूंक देने वाले शिल्पियों ने, ढोला मारू ने और संभवतः यही कारण है कि शहरों, नगरों को छोड़ राजस्थानी की ढाणी-ढाणी में अंकित है, महाकवि कन्हैयालाल सेठिया जी का नाम, कभी-कभी तो इन पंक्तियों को देख ऐसा लगता ही नहीं है कि ये मानव रचित है बल्कि आभास होता है मानों स्वयं माँ शारदे ने वरण किया हो सेठियाजी को, कुछ अनछुई भावाभिव्यक्तियों हेतु !
सेठियाजी की हर पंक्ति में एक ईमानदार दिल धड़कता है जिसमें किसी दूसरे की खुशी और उसके सपने शामिल होते हैं, जो कि दर्द को बांट सके ।


सभी साहित्यकार, पत्रकार, राजस्थानी उद्यमी और प्रवासी राजस्थानी सेठियाजी को अपने-अपने दृष्टिकोण से भले ही देखते हों लेकिन इस बारे में सभी एकमत हैं कि वे अकेले ही राजस्थानी की तुरही तड़प के साथ बजाते हैं ।
काव्य-मनीषी, साहित्य-मर्मज्ञ, दार्शनिक, सामाजिक कार्यकत्र्ता, संस्कृति के पोषक श्री सेठियाजी समाज, संस्कृति व मातृभूमि को समर्पित हैं । वे आज इस उम्र व अवस्था में भी आशा से अधिक सक्रिय और कर्मठ हैं।
आप राजस्थानी (अपनी मातृभाषा) बोलना गौरव समझते है और प्रत्येक को इसी भाषा में बोलने पर जोर व प्रेरणा देते हैं। ऐसे हैं श्री सेठियाजी राजस्थानी धरती के सपूत, जिन्हें अपनी संस्कृति, भाषा, मातृभूमि व देश पर नाज है। राजस्थानी भाषा में उन्होंने काफी काव्य-रचनाएँ की हैं जो एक से एक बढ़कर हैं । इनकी कोई भी कविता या गीत को ले लीजिए, प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहेगी । इनमें सरस्वतीजी विराजमान हैं, जिन्होंने आपको महाकवि बना दिया । ‘‘धरती धोरां री’’ इनके यौवनकाल में ही अमर हो चुका था यदि माने तो आज यह गीत लोकगीत का स्थान ग्रहण कर चुका है, जो घर-घर में, समारोह-समारोह में गुनगुनाया व गौरव से गाया जाता है और विशेषता यह कि इसके रचीयता श्री सेठियाजी का नाम भी साथ-साथ सबकी जबान पर चढ़ चुका है। ऐसा सम्मान दुष्कर है जो श्री सेठियाजी को प्राप्त हुआ है। आप धन्य हैं। ‘‘धरती धोरां री’’ में जो राजस्थान का सरस गौरवशाली वर्णन, कल्पना, भाव, आनन्द व रस तथा अलंकारिता है वह आज तक किसी अन्य गीत में सुनने को नहीं मिला । प्रत्येक राजस्थानी इनके इस गीत पर गर्व करता है, सिर्फ राजस्थानी ही क्यों, अन्य प्रदेशवाले भी जब इस सुरीले गीत को सुनते हैं वे इसके भावों में खो जाते हैं, वे ईर्ष्या करने लगते हैं कि ऐसा सुन्दर वर्णन उनके प्रदेश के गीतों में क्यों नहीं हुआ? उपरोक्त गीत को श्रवण करने से मन में शान्ति व प्रसन्नता की ऐसी लहर दौड़ जाती है कि ‘मरुधर’ देश देव-रमण का स्थान व सिरमौर लगने लगता है। यह अकेला ही ऐसा उदाहरण नहीं है जो श्री सेठियाजी को अमर बना देगा - न जाने इनके कितने ही गीत व गद्य, कविताएँ आदि पुस्तकों में प्रकाशित हुई हैं जो जन-जन को सदा याद रहेंगी। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम को लक्ष्य करते हुए उनकी काव्य-रचना ‘‘पातल और पीथल’’ भी एक ऐसी ही मौलिक कृति है जो एक बार सुनने पर बार-बार सुनने को जी करता है । उनकी काव्य-प्रतिभा, प्रकाण्डता निराली, सौम्य, सटीक व ऐसी गरिमा-मण्डित है जो इन्हें महाकवि बना देती है । इन्होंने राजस्थानी, हिन्दी व उर्दू भाषा (जिसका आपने कभी अध्ययन नहीं किया) में उच्चकोटि की काव्य-रचनाएँ की हैं। इनकी गद्य-रचना भी उत्तम साहित्यिक होते हुए भी नैतिक सन्देश देती हैं। आप उच्चकोटि के गद्यकार व साहित्यकार हैं। आधुनिकता की अंधी होड़ से आपने कभी समझौता नहीं किया और यह छाप इनकी रचनाओं में भी स्पष्टतया उजागर होती है।


महामनीषी: महामनीषी सेठियाजी अध्यात्म के मूर्त रूप हैं। आपके हृदय की धड़कन अध्यात्म की धड़कन है। आपके उर्ध्वमुखी चिन्तन में जीवन को समझने का विशेष दृष्टिकोण है। भोग नहीं, त्याग की चिंतनशीलता है। सहिष्णुता की मूर्ति महामनीषी पद्मश्री श्री सेठियाजी के व्यक्तित्व की, चिन्तन की गहराई, उन्मुक्तता, विचारों का खुलापन, भाषा की प्रांजलता, वर्णन शैली की स्पष्टता, आचार की सरलता, अकृत्रिम मुस्कुराहट एवं सहज स्नेहिल मुखाकृति हम सबको आकृष्ट एवं प्रभावित करती है । इनके गीतों में राजस्थान के पशु-पक्षी, निर्झर, राजपथ, पहाड़ सभी जैसे बोलते हैं। वह स्वभावतः कवि हैं और न केवल राजस्थानी को अपितु समस्त हिन्दी साहित्य को भी उन पर गर्व है ।
आपके गहन चिंतन और अद्भुत रचना कौशल का प्रमाण हैं आपकी कविताएँ । जहाँ विद्वानों और समालोचकों को प्रभावित करती हैं, वहीं जन-सामान्य के बीच इनकी लोकप्रियता बेमिशाल है ।
श्री सेठियाजी वसुधैवकुटुम्बकम् की भावना से विश्व के कल्याण की चिन्ता रखते हैं । राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत श्री सेठियाजी गृहस्थ में होते हुए भी ऋषि की तरह सादगी के साथ सदा सार्वजनिक प्रवृत्तियों व कार्यों मे लगे रह हैं।
श्री सेठियाजी साहित्य-मनीषी के रूप में देश मे सर्वत्र जाने जाते हैं। राजस्थान व प्रवासी राजस्थानियों में इनका नाम बड़े सम्मान व आदर से लिया जाता है। गोधन की रक्षा, अकाल निवारण, कला व संस्कृति, संगीत व रगमंचीय प्रवृत्तियों, पत्रकारिता, संस्थाओं के गठन व विकास- सब में आप समर्पित भाव से योग देते रहे हैं। आप एक अच्छे ओजस्वी वक्ता व चिंतक हैं।
वणिक परिवार में जन्म लेकर भी आप प्रारंभ से ही सार्वजनिक व लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में तथा साहित्य सृजन में लगे रहकर व्यापार से दूर रहे। साधक की तरह जीने वाले श्री सेठियाजी हर एक को सदा सुलभ रहते हैं और हर एक को देशहित व सामाजिक कार्यों में लगे रहने व सृजन की प्रेरणा उनसे मिलती रहती है। भारतीय ज्ञानपीठ एवं हिन्दी साहित्य सम्मेलन, राजस्थानी भाषा-साहित्य व संस्कृति अकादमी एवं अन्य अनेक संस्थाओं द्वारा पुरस्कारों से आपको सम्मानित किया जा चुका है।
इनके साहित्य की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन्होंने अपने साहित्य में समाज के वास्तविक स्वरूप का चित्रांकन निष्पक्ष रूप से किया है। श्री सेठियाजी ने राजस्थानी भाषा के साथ ही हिन्दी भाषा को भी अपने साहित्य का आधार बनाया है। राजस्थानी भाषा को अपना गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कराने में श्री सेठियाजी की सफल भूमिका रही है।
सेठियाजी का व्यक्तित्व एक ऐसा चुम्बकीय व्यक्तित्व है कि जो भी इनके निकट आता है, इनसे आकर्षित हुए बिना नहीं रहता । सरलता, सहृदयता तथा निश्छलता की वे जीवन्त प्रतिमूर्ति हैं । निर्भीकता, स्पष्टता एवं अनाग्रहता ने इनके व्यक्तित्व को जो उदारता प्रदान की है, वह अन्यत्र विरल है। अनेक उदीयमान एवं प्रतिभा सम्पन्न कवि इनसे प्रेरणा पाकर अपने को धन्य-धन्य तथा कृतकृत्य मानते हैं।


एक स्वर मेरा मिला लो: कृष्ण प्रेम में पगी मीरां ने तो घुँघरू बाँध अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति दे दी लेकिन जिस माटी को उसने ललाट पर लगाया, उसके दर्द की कौन कहे? पद्मिनी ने तो जौहर का आलिंगन कर अपनी अस्मत, अपनी मर्यादा बचा ली, लेकिन उसकी माटी की अस्मिता की बात कौन कहे? रण बाँकुरे साँगा, बलिदानों के पुरोधा प्रताप ने आक्रान्ताओं से तो अपना लोहा मनवा लिया मगर उनकी माटी के शौर्य की गाथा जन-जन तक कौन कहे? ढोला मरवण, पातल-पीथल, अगणित इतिहास पुरुषों की इस रत्न प्रसू मरुधरा को पहली बार मुखरित किया महाकवि ने, इससे पहले तो राजस्थान को केवल बालू के टीलों और रेत के अनन्त विस्तार के रूप में या फिर ज्यादा से ज्यादा पश्चिमी सीमान्त के सजग व प्रबल प्रहरी के रूप में जाना था ।
उनकी रचनाओं से पहली बार विश्व ने जाना कि अतीत को जीवन और प्रकाश से रंजित कर देनेवाले राजस्थान में जीवन के सभी इन्द्रधनुषी रंग खिलते हुए देखे जा सकते हैं।
भले ही यह अतिशयोक्तिपूर्ण लगे मगर धुव्र सत्य यही है कि आपने राजस्थान की माटी की चेतना को सशक्त अभिव्यक्ति ही नहीं दी बल्कि उसे सार्थकता प्रदान की है।
आपकी समस्त रचनाओं का अभी मूल्यांकन होना बाकी है। शायद अगली सदी इस मनीषी की अद्भुत मेधा को ज्यादा बेहतर समझ सकने में सक्षम हो।
सेवा, श्रम, संवेदना, ज्ञान, आचरण और अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति श्री सेठियाजी के विषय में इतना ही लिखना काफी है कि 20वीं शताब्दी में ये सब गुण एक साथ विरले ही मनीषियों में किसी ने अनुभूत किये हों । शायद नहीं, कारण भी स्पष्ट है कि सेठियाजी, कवि होने के साथ-साथ, मनीषी भी हैं और उनके मस्तिष्क में जो गहन चिन्तन चलता है उस समुद्र-मन्थन के पश्चात् उनके हृदय में जो अमृत-तत्व निथर कर आ जाता है, उसका वे किसी तटस्थ तृतीय व्यक्ति की भाँति, ‘दर्शन’ भी कर लेते हैं - जो सामान्य कवियों के वश की बात नहीं होती।
सेठियाजी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भाँति, स्वयं के चाहे चित्र नहीं बनाए हों, किन्तु चित्रकला में, राजस्थानी कलम का उन्हें बारीक ज्ञान है । मो.रफी साहब ने ‘धरती धोरां री’ की रचना पर धुनें बनाई और राजस्थानी-प्रकृति की पृष्ठभूमि प्रदान करते हुए, उस पर एक अति भव्य वृत्त-चित्र भी बना है, उसी भाँति उन्होंने जिन सैकड़ों छन्दबद्ध कविताओं में उत्तम गीति-तत्त्व पिरोया है यदि इनके कविताओं को संगीत-शास्त्र की स्वर-लिपि प्रदान की जाय तो रवीन्द्र संगीत की भाँति, राजस्थानियों के गौरव स्वरूप ‘सेठिया-संगीत’ भी सहज ही हमें प्राप्त हो सकता है।


विशेषता: इन्होंने युवावस्था में हरिजनों एवं दलितों को सवर्णों के बराबर अधिकार दिलाने के लिये परिवार और समाज के साथ सतत संघर्ष किया, इनकी प्रेरणा से हरिजन बच्चों के लिये प्रथम पाठशाला स्थापित हुई, इन्होंने ‘‘अग्निवीणा’’ का प्रखर स्वर घर-घर में गुंजा कर स्वाधीनता-संग्राम के दौरान राजद्रोह के अभियोग का सामना किया और इनकी प्रबल प्रेरणा से महाराणा प्रताप के अप्रतिम साहस एवं शौर्य की साक्षी हल्दीघाटी की पुण्य पावन माटी को पुनः शीर्ष स्थान मिला । स्मरण रहे कि श्री सेठिया जी ने हल्दीघाटी की पावन माटी को छाटी-छोटी काव्य मंजुषाओं में भर कर देश के शीर्ष राजनेताओं को भेंट कर उनसे आग्रह किया था कि इस पावन परिसर को गरिमामय रूप दिया जाए । इसका प्रभाव हुआ एवं हल्दीघाटी के सौंदर्यकरण की योजना स्वीकृत हुई ।
कवि सेठियाजी की विशेषता है कि ये मरुधरा की मिट्टी की सोंधी सुवास से जुड़े हैं । माटी से जुड़नेवाला कवि जन-मानस से अनायास जुड़ जाता है । यही कारण है कि ‘धरतीं धोरा री’ के बाद सेठियाजी की ‘पातल और पीथल’ सर्वाधिक चर्चित राजस्थानी कविता है । इसको राजस्थान के पाठ्यक्रम में संकलित कर लिया गया। उनका राजस्थानी गीत ‘धरती धोरां री’ तो जन-जन का कण्ठहार बन गया है । सेठियाजी की प्रथम राजस्थानी काव्यकृत ‘रमणियां रा सोतठा’ जिसका प्रकाशन 1940 ई0 में हुआ एवं प्रथम हिन्दी काव्यकृति ‘बनफूल’ है जिसका प्रकाशन 1941 में हुआ था । तब से अब तक कवि चिन्तक, दार्शनिक सेठियाजी अनवरत लिखते रहे हैं। आपकी दो दर्जन से अधिक काव्य-रचनाओं में प्रमुख हैं-हिन्दी काव्य कृतियाँ ‘वनफूल’, ‘मेरा युग’, ‘अग्निवीणा’, ‘प्रतिबिम्ब’, ‘अनाम’, ‘निर्गन्थ’, ‘दीपकिरण’, ‘मर्म’, ‘आज हिमालय बोला’, ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते’, ‘प्रणाम’, ‘त्रयी’ आदि और राजस्थानी काव्य-कृतियाँ हैं-‘मींझर’, ‘गलगचिया’, ‘रमणिये रा सोरठा’, ‘धर कूंचा धर मजलाँ’, ‘कूँ कूँ’, ‘लीलटांस’ आदि।


इनका चिन्तन सदैव विराट से जुड़ने, उसे आत्मसात करने की ओर उन्मुख करता है, जिसमें जातिगत संकीर्णता या धर्मगत संकीर्णता या भाषायी वैमनस्य को कोई स्थान नहीं है । यह सब मानव को एक-दूसरे से मिलने में बाधक है । सत्य किसी छोटे दायरे में आबद्ध नहीं होता, उसकी अपार भंगिमाएं, संभावनाएँ युग-युग में व्यक्त होती रहती हैं । अतः ‘‘अपना अनुभूत सत्य ही जीवन में प्रमुखता रखता है ।’’ इस तथ्य को वे सदा संस्थापित करते हैं । इसलिए जो व्यक्ति इनसे मिलने जाते हैं, वे सदा उत्साहित एवं प्रेरणा प्राप्त कर लौटतें हैं।


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विख्यात कवि के रूप आपने हिन्दी एवं राजस्थानी में अनेक पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें इनकी कविताएं जन-जन में सदा गाई जाती है । आपकी कृति ‘‘लीलटांस’’ (राजस्थानी) साहित्य अकादमी द्वारा एवं ‘निर्ग्रन्थ’ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित की गई हैं । इसके अतिरिक्त आपको साहित्य वाचस्पति के रूप में अलंकृत भी किया गया है ।
आपका मानना है कि जैसे चेहरे बिना व्यक्ति की पहिचान नहीं हो पाती, वैसे ही प्रान्त के व्यक्तित्व की अस्मिता मातृभाषा या मायड़ भाषा के बिना स्थापित नहीं होती ।
आपके हिन्दी और राजस्थानी लिखे काव्यों का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है । आपकी प्रेरणा और सहयोग से देशभर में साहित्य, संस्कृति और सेवा की अनेकों संस्थाएँ चल रही हैं । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपने कभी भी किसी पद और अधिकार को नहीं स्वीकारा है । व्यवहार में सदैव उदार, निश्छल और साफ रहे हैं । आप विशाल जनसमूह के सुख-दुःख, घर-परिवार, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े हुए हैं । आपका व्यक्तित्व इतना सरल और विशाल है कि प्रत्येक कार्य को करने के उपयुक्त सेवाभावी आपके सामने आते रहते हैं ।आज ये राष्ट्रकवि के रूप में सर्वत्र स्वीकृत हैं । निस्संदेह यह राजस्थान की एक धरोहर हैं, जिनकी काव्य-विरासत को पाकर राजस्थानी समाज गौरवान्वित है। एक युगकवि हैं, राष्ट्रकवि हैं और राजस्थानी के प्रेरणादायी उद्घोषक हैं । वे क्या नहीं हैं? वे हमारे हैं, यही हमारे लिए प्रेरणात्मक है । इसके लिये आपका नाम भारत और राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा ।


- शम्भु चौधरी
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श्री कन्हैयालाल सेठिया से एक ऐतिहासिक मुलाकात


श्री सेठिया जी के साथ लेखक शम्भु चौधरी, एक दम से बायें श्री सरदारमल कांकरिया, सेठिया ही के ठीक पीछे उनके पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया

कोलकात्ता 15.5.2008: आज शाम पाँच बजे श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के कोलकात्ता स्थित उनके निवास स्थल 6, आशुतोष मखर्जी रोड जाना था। ‘समाज विकास’ का अगला अंक श्री सेठिया जी पर देने का मन बना लिया था, सारी तैयारी चल रही थी, मैं ठीक समय पर उनके निवास स्थल पहुँच गया। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया जी से मुलाकत हुई। थोड़ी देर उनसे बातचीत होने के पश्चात वे, मुझे श्री सेठिया जी के विश्रामकक्ष में ले गये। बिस्तर पर लेटे श्री सेठिया जी का शरीर काफी कमजोर हो चुका है, उम्र के साथ-साथ शरीर थक सा गया है, परन्तु बात करने से लगा कि श्री सेठिया जी में कोई थकान नहीं। उनके जेष्ठ पुत्र भाई जयप्रकाश जी बीच में बोलते हैं, - ‘‘ थे थक जाओसा....... कमती बोलो ! ’’ परन्तु श्री सेठिया जी कहाँ थकने वाले, कहीं कोई थकान उनको नहीं महसूस हो रही थी, बिल्कुल स्वस्थ दिख रहे थे। बहुत सी पुरानी बातें याद करने लगे। स्कूल-कॉलेज, आजादी की लड़ाई, अपनी पुस्तक ‘‘अग्निवीणा’’ पर किस प्रकार का देशद्रोह का मुकदमा चला । जयप्रकाश जी को बोले कि- वा किताब दिखा जो सरकार निलाम करी थी, मैंने तत्काल दीपज्योति (फोटोग्राफर) से कहा कि उसकी फोटो ले लेवे । जयप्रकाश जी ने ‘‘अग्निवीणा’’ की वह मूल प्रति दिखाई जिस पर मुकदमा चला था । किताब के बहुत से हिस्से पर सरकारी दाग लगे हुऐ थे, जो इस बात का आज भी गवाह बन कर सामने खड़ा था । सेठिया जी सोते-सोते बताते हैं - ‘‘ हाँ! या वाई किताब है जीं पे मुकदमो चालो थो....देश आजाद होने...रे बाद सरकार वो मुकदमो वापस ले लियो ।’’ थोड़ा रुक कर फिर बताने लगे कि आपने करांची में भी जन अन्दोलन में भाग लिया था । स्वतंत्राता संग्राम में आपने जिस सक्रियता के साथ भाग लिया, उसकी सारी बातें बताने लगे, कहने लगे ‘‘भारत छोड़ो आन्दोलन’’ के समय आपने कराची में स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ.चौइथराम गिडवानी जो कि सिंध में कांग्रेस बड़े नेताओं में जाने जाते थे, उनके साथ कराची के खलीकुज्जमा हाल में हुई जनसभा में भाग लिया था, उस दिन सबने मिलकर स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ.चौइथराम गिडवानी के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला था, जिसे वहाँ की गोरी सरकार ने कुचलने के लिये लाठियां बरसायी, घोड़े छोड़ दिये, हमलोगों को कोई चोट तो नहीं आयी, पर अंग्रेजी सरकार के व्यवहार से मन में गोरी सरकार के प्रति नफरत पैदा हो गई । आपका कवि हृदय काफी विचलित हो उठा, इससे पूर्व आप ‘‘अग्निवीणा’’ लिख चुके थे। बात का क्रम टूट गया, कारण इसी बीच शहर के जाने-माने समाजसेवी श्री सरदारमल कांकरियाजी आ गये। उनके आने से मानो श्री सेठिया जी के चेहरे पे रौनक दमकने लगी हो। वे आपस में बातें करने लगे। कोई शिथिलता नहीं, कोई विश्राम नहीं, बस मन की बात करते थकते ही नहीं, इस बीच जयप्रकाश जी से परिवार के बारे में बहुत सारी बातें जानने को मिली। श्री जयप्रकश जी, श्री सेठिया जी के बड़े पुत्र हैं, छोटे पुत्र का नाम श्री विनय प्रकाश सेठिया है और एक सुपुत्री सम्पतदेवी दूगड़ है। महाकवि श्री सेठिया जी का विवाह लाडनू के चोरड़िया परिवार में श्रीमती धापूदेवी के साथ सन् 1939 में हुआ।

आपके परिवार में दादाश्री स्वनामधन्य स्व.रूपचन्द सेठिया का तेरापंथी ओसवाल समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। इनको श्रावकश्रेष्ठी के नाम से संबोधित किया जाता है। इनके सबसे छोटे सुपुत्र स्व.छगनमलजी सेठिया अपने स्व. पिताश्री की भांति अत्यन्त सरल-चरित्रनिष्ठ-धर्मानुरागी, दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी थे। समाज सेवा में अग्रणी, आयुर्वेद का उनको विशेष ज्ञान था।


श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्षों से ज्यादा समय से बंगाल में है । पहले इनका परिवार 199/1 हरीसन रोड में रहा करता था । सन् 1973 से सेठियाजी का परिवार भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20 के प्रथम तल्ले में निवास कर रहा है। इनके पुत्र ( श्री सेठियाजी से पूछकर ) बताते हैं कि आप 11 वर्ष की आयु में सुजानगढ़ कस्बे से कलकत्ता में शिक्षा ग्रहन हेतु आ गये थे। उन्होंने जैन स्वेताम्बर तेरापंथी स्कूल एवं माहेश्वरी विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा ली, बाद में रिपन कॉलेज एवं विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा ली। 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय शिक्षा अधूरी छोड़कर पुनः राजस्थान चले गये, वहाँ से आप कराची चले गये। इस बीच हमलोग उनके साहित्य का अवलोकन करने में लग गये। सेठिया जी और सदारमल जी आपस में मन की बातें करने में मसगूल थे, मानो दो दोस्त कई वर्षों बाद मिले हों । दोनों अपने मन की बात एक दूसरे से आदान-प्रदान करने में इतने व्यस्त हो गये कि, हमने उनके इस स्नेह को कैमरे में कैद करना ही उचित समझा। जयप्रकाश जी ने तब तक उनकी बहुत सारी सामग्री मेरे सामने रख दी, मैंने उन्हें कहा कि ये सब सामग्री तो राजस्थान की अमानत है, हमें चाहिये कि श्री सेठिया जी का एक संग्राहलय बनाकर इसे सुरक्षित कर दिया जाए, बोलने लगे - ‘म्हाणे कांइ आपत्ती है’ मेरा समाज के सभी वर्गों से, सरकार से निवेदन है कि श्री सेठियाजी की समस्त सामग्री का एक संग्राहल बना दिया जाना चाहिये, ताकि हमारी आनेवाली पीढ़ी उसे देख सके, कि कौन था वह शख्स जिसने करोड़ों दिलों की धड़कनों में अपना राज जमा लिया था।


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किसने ‘धरती धौरां री...’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ की रचना की थी!
कुछ देर बाद श्री सेठिया जी को बिस्तर से उठाकर बैठाया गया, तो उनका ध्यान मेरी तरफ मुखातिफ हुआ, मैंने उनको पुनः अपना परिचय बताने का प्रयास किया, कि शायद उनको याद आ जाय, याद दिलाने के लिये कहा - शम्भु! - मारवाड़ी देस का परदेस वालो - शम्भु....! बोलने लगे... ना... अब तने लोग मेरे नाम से जानगा- बोले... असम की पत्रिका म वो लेख तूं लिखो थो के?, मेरे बारे में...ओ वो शम्भु है....तूं.. अपना हाथ मेरे माथे पर रख के अपने पास बैठा लिये। बोलने लगे ... तेरो वो लेख बहुत चोखो थो। वो राजु खेमको तो पागल हो राखो है। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती बोल रही हो। शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा लगता है। फिर अपनी बात बताने लगे- ‘आकाश गंगा’ तो सुबह 6 बजे लिखण लाग्यो... जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी। हम तो बस उनसे सुनते रहना चाहते थे, वाणी में सरस्वती का विराजना साक्षात् देखा जा सकता था। मुझे बार-बार एहसास हो रहा था कि यह एक मंदिर बन चुका है श्री सेठियाजी का घर। यह तो कोलकाता वासी समाज के लिये सुलभ सुयोग है, आपके साक्षात् दर्शन का, घर के ठीक सामने 100 गज की दूरी पर सामने वाले रास्ते में नेताजी सुभाष का वह घर है जिसमें नेताजी रहा करते थे और ठीक दक्षिण में 300 गज की दूरी पर माँ काली का दरबार लगा हो, ऐसे स्थल में श्री सेठिया जी का वास करना महज एक संयोग भले ही हो, परन्तु इसे एक ऐतिहासिक घटना ही कहा जा सकता है। हमलोग आपस में ये बातें कर रहे थे, परन्तु श्री सेठियाजी इन बातों से बिलकुल अनजान बोलते हैं कि उनकी एक कविता ‘राजस्थान’ (हिन्दी में) जो कोलकाता में लिखी थी, यह कविता सर्वप्रथम ‘ओसवाल नवयुवक’ कलकत्ता में छपी थी, मानो मन में कितना गर्व था कि उनकी कविता उस समय ‘ओसवाल नवयुवक’ में छपी थी। एक पल मैं सोचने लगा मैं क्या सच में उसी कन्हैयालाल सेठिया के बगल में बैठा हूँ जिस पर हमारे समाज को ही नहीं, राजस्थान को ही नहीं, सारे हिन्दुस्थान को गर्व है।


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मैंने सुना है, कि कवि का हृदय बहुत ही मार्मिक व सूक्ष्म होता है, कवि के भीतर प्रकाश से तेज जगमगता एक अलग संसार होता है, उसकी लेखनी ध्वनि से भी तेज रफ्तार से चलती है, उसके विचारों में इतने पड़ाव होते हैं कि सहज ही कोई उसे नाप नहीं सकता, श्री सेठियाजी को देख ये सभी बातें स्वतः प्रमाणित हो जाती हैं। सच है जब बंगलावासी रवीन्द्र संगीत सुनकर झूम उठते हैं, तो राजस्थानी श्री कन्हैयालाल सेठिया के गीतों पर थिरक उठता है, मयूर की तरह अपने पंख फैला के नाचने लगता है। शायद ही कोई ऐसा राजस्थानी आपको मिल जाये कि जिसने श्री सेठिया जी की कविता को गाया या सुना न हो । इनके काव्यों में सबसे बड़ी खास बात यह है कि जहाँ एक तरफ राजस्थान की परंपरा, संस्कृति, ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक चित्रण का अनुपम भंडार है, तो वीररस, श्रृंगाररस का अनूठा संगम भी जो असाधारण काव्यों में ही देखने को मिलता है। बल्कि नहीं के बराबर ही कहा जा सकता है। हमारे देश में दरबारी काव्यों की रचना की लम्बी सूची पाई जा सकती है, परन्तु, बाबा नागार्जुन, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, निराला, हरिवंशराय बच्चन, भूपेन हजारिका जैसे गीतकार हमें कम ही देखने को मिलते हैं। श्री सेठिया जी के काव्यों में हमेशा नयापन देखने को मिलता है, जो बात अन्य किसी में भी नहीं पाई जाती, कहीं कोई बात तो जरूर है, जो उनके काव्यों में हमेशा नयापन बनाये रखने में सक्षम है। इनके गीतों में लय, मात्राओं का जितना पुट है, उतना ही इनके काव्यों में सिर्फ भावों का ही नहीं, आकांक्षाओं और कल्पनाओं की अभिनव अभिव्यक्ति के साथ-साथ समूची संस्कृति का प्रतिबिंब हमें देखने को मिलता है। लगता है कि राजस्थान का सिर गौरव से ऊँचा हो गया हो। इनके गीतों से हर राजस्थानी इठलाने लगता हैं। देश-विदेश के कई प्रसिद्ध संगीतकारों-गीतकारों ने, रवींद्र जैन से लेकर राजेन्द्र जैन तक, सभी ने इनके गीतों को अपने स्वरों में पिरोया है।
‘समाज विकास’ का यह अंक यह प्रयास करेगा कि हम समाज की इस अमानत को सुरक्षित रख पाएं । श्री कन्हैयालाल सेठिया न सिर्फ राजस्थान की धरोहर हैं बल्कि राष्ट्र की भी धरोहर हैं। समाज विकास के माध्यम से हम राजस्थान सरकार से यह निवेदन करना चाहेगें कि श्री सेठियाजी को इनके जीवनकाल तक न सिर्फ राजकीय सम्मान मिले, इनके समस्त प्रकाशित साहित्य, पाण्डुलिपियों व अन्य दस्तावेजों को सुरक्षित करने हेतु उचित प्रबन्ध भी करें। स


- शम्भु चौधरी




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स्मृति शेष: जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो....



श्री सेठिया जी के काव्यों पर हिन्दी जगत के विचारों की एक झलक:
आपकी कविता तथा कला का मणि-कांचन संयोग मुझे बहुत पसन्द आया । ऐसे संयोजित रूप से अपनी भावनाओं तथा चिन्तन स्फुरणों को काव्याभिव्यक्ति देकर आपने रचना सौष्ठव का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है। आपकी रचनाओं को पढ़कर स्वतः ही लगता है कि कविता इस युग में मरी नहीं है बल्कि और भी गहन गंभीर होकर जीवन के निकट आ गई है। - सुमित्रानन्दन पन्त


आप अन्तर्मुखी कलाकार हैं। अन्तर्जगत में प्रवेश कर वस्तुवादी जगत की जो व्याख्या करते हैं, उससे सत्य शतमुखी होकर उजागर होता है । छोटी-छोटी अभिव्यक्तियां मधु की वे बूंदे हैं जिनमें अनेक पुष्पों के पराग की सुगन्ध समाहित है। मैं अपनी श्रद्धा व्यक्त करता हूँ। - डॉ.रामकुमार वर्मा


प्रणाम- ‘प्रणाम’ पढ़ने बैठा, तो इसके गीत मुझे लिपट गये और तीन दिन की बैठकों में ही इसे पूरा पढ़ गया। आप चिन्तन के कलाकार हैं । चिन्तन को विवेचन। विश्लेषण का रूप देना आसान है, गंभीर बात गंभीर विधा पर उसे गीत का रूप देना और गीत में तितली की सी जो सकुमारता अनिवार्य है उसे बचाये रखना बहुत-बहुत मुष्किल है। आप इस मुश्किल काम में इतने सफल हुए है कि गीतकारों में मुझे कोई दूसरा नाम ही याद नहीं आ रहा है कि जिसने इस कार्य में, आपके समकालीन काव्य में ऐसी सफलता पाई हो । आपके चिन्तन की पृष्ठभूमि संस्कृति-धर्म-दर्शन है इससे आपकी सफलता का मूल्य और भी बढ़ गया है।
मर्म- ‘मर्म’ मिला। एक-एक हीरा बार-बार देखा, परखा, पहचाना, माना । मेरा अभिवादन ।
अनाम- रत्नकृति ‘अनाम’ मिली । आपने एक नई विधा की ही सृष्टि नहीं की। एक नया विधान भी साहित्य को दिया जिसके द्वारा आपके गीत भी अनुशासित हैं और दूसरी कृतियां भी। आप अमर कार्य कर रहे हैं।
‘ताजमहल’- मिला, जैसे मजदूर को भला मालिक मजदूरी से निबटते ही शरबत पिला दे, वाह ।
- कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’


प्रणाम- ‘प्रणाम’ की कविताएं मेरे मर्म पर बड़ी शक्ति से रेखापात कर गई ।
खुली खिड़कियां चैड़े रास्ते- नयापन और काव्यत्व दोनो से समृद्ध है । - कुबेरनाथ राय


प्रतिबिम्ब- ‘प्रतिबिम्ब’ के गीत पढ़कर हिन्दी के उज्जवल भविष्य की आशा बंधती है ।
प्रणाम- ‘प्रणाम’ के सभी गीत उच्च कोटि के हैं । - रामधारीसिंह ‘दिनकर’


प्रतिबिम्ब-‘प्रतिबिम्ब’ आप के सुन्दर हृदय का प्रतिबिम्ब है। - मैथिलीशरण गुप्


मर्म- ‘मर्म’ गहरे में स्पर्ष करनेवाली कृति है । - जैनेन्द्रकुमार जैन


अनाम- चिन्तन का यह नया आयाम है । हम लोगों के लिये यह चिन्तन बोध का विशेष दिशा निर्देष है । बहुत कुछ नया प्रयोग किया है । - बालकवि बैरागी


तुमुल साहित्यिक कलह के कोलाहल में श्रद्धा की ऐसी सहज अभिव्यक्ति, ऐसी नपी-तुली भाषा, ऐसी तन्मयता, यह तो आश्चर्य की बात है । ‘प्रणाम’ के गीतों में सहज समर्पण का स्वर है । - विष्णुकांत शास्त्री


आपके लिखने में जो गहराई है, वह असामान्य है, विरल है। - भवानी प्रसाद मिश्र
कन्हैयालाल सेठिया का उर्दू काव्य ताजमहल के सौन्दर्य पर चमकता हुआ प्रदीप्त हीरा है । - अली सरदार जाफरी


महाकवि सेठिया शब्द ब्रह्म के साधक हैं ।- प्रो0 सिद्धेश्वर प्रसाद


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राजस्थान पत्रिका 12 नवम्बर,जयपुर संस्करण:

'शान्त हुई अग्निवीण'
राजस्थान पत्रिका ने लिखा कि महात्मा गांधी द्वारा 1942 में 'करो और मरो'के आह्वान पर जगी कन्हैयालाल सेठिया की 'अग्निवीणा' मंगलवार को शान्त हुई तो राजस्थानी साहित्य जगत शोक सागर में डूब गया। जब कन्हैयालाल की राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण कालजयी कृति 'अग्निवीणा' प्रकाशित हुई तो बीकानेर राज्य ने इन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। उन्हैं जेल जाना पड़ा। माउण्ड आबू के राजस्थान विलय में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे स्वतंत्रा आंदोलन के योद्धा भी थे।


दैनिक भास्कर 12 नवम्बर,जयपुर संस्करण:


दैनिक भास्कर, जयपुर ने बुधवार 2008 के एक पेज के स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया जी पर विशेष अंक निकाला, इसमें लिखा है कि ' 'धरती धोरां री' और 'अरै घास री रोटी' जैसे अमर गीतों को रचकर राजस्थान को एक नई पहचान और गरिमा दिलाने वाले कवि कन्हैयालाला सेठिया नहीं रहे। वे राजस्थान ही नहीं बल्कि देश के इने-गिने कवियों में थे, जिनकी रचना 'धरती धोरां री' को तो इतना सम्मान प्राप्त हुआ कि वह राजस्थान ही नहीं बल्कि विश्वभर के राजस्थानी भाषा प्रेमियों के लिए प्राणगीत के समान बन गई है। उनका काव्य केवल हिंदी व राजस्थानी तक ही सीमित नहीं था उर्दू भाषा पर भी उनका अधिकार चमकृत करने वाला था।"


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श्री श्यामजी आचार्य ने राजस्थान से लिखा:

प्रयाग में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के हीरक जयंती समारोह में कन्हैयालाल सेठिया ने हिन्दी भाषा-भाषियों के भूखंड में एक सांस्कृतिक महासंघ की कल्पना की थी। उन्होंने कहा था कि "हिन्दी के विशाल वट-वृ्क्ष की शाखाएं सुदूर देशों में भी पल्लवित-पुष्पित और फलित हो रही हैं। वह दिन दूर नहीं जब विश्व के हिन्दी भाषा-भाषी भूखण्ड एक सांस्कृतिक महासंघ के रूप में गठित होकर अपने वर्चस्व को प्रतीति विश्व को करा सकेंगे।"
उन्होंने इसी हीरक जयंती समारोह में हिन्दी लेखन के बारे में कहा था- 'हिन्दी के अधिकांश लेखक शाश्वत सत्य की अन्वेषक ऋषि-प्रज्ञा की उपेक्षा कर पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। सतत विकाशशील चेतना को वादों के नागपाश में आबद्ध करने का जो विश्व-व्यापी षड्यंत्र चल रहा है उससे हम हिन्दी के लेखकों को बचाएं और समग्र सत्य के प्रति ही हमारा लेखन प्रतिबद्ध रहे, यही हिन्दी की अस्मिता और समृद्धि के लिए श्रेय है। केवल परिस्थितियों से जुड़ा हुआ साहित्य कालक्रम में मात्र घटना बनकर रह जाता है और वह जीवंत मूल्यों से कट जाता है।' उनका सृजन आत्म-दर्शन करने वाला और पाठक को भी भीतर क्षांकने की प्रवृत्ति पैदा करने वाला था। 'सृजन' शीर्षक से अनकी कविता पढ़िए -



मुझे है शब्द की प्रतिष्ठा का ध्यान,
वही जहां जिसका स्थान
अनुशासित मेरे भावाकुल छन्द,
उनमें परस्पपर रक्त का संबंध,
नहीं सृजन मेरे लिए व्यसन,
वह संजीवन प्राण का स्पन्दन।


उनकी कविताओं में मानव-मात्र के लिये अगाध स्नेह, प्यार और संवेदना का स्पंदन था। अनकी कविता 'सबसे मेरी प्रेम सगाई" पढ़िए-



मेरा है संबंध सभी से
सबसे मेरी स्नेह सगाई।
मैं अखण्ड हूं, खंडित होना
मेरे मन को नहीं सुहाता
पक्ष विपक्ष करूं मैं किसका
मैं निष्पक्ष सभी से नाता
मेरे सन्मुख सभी बराबर
राजा, रंक, हिमालय, राई।।

सबके कुशलक्षेम का इच्छुक
सब में सत है, मुझे प्रतिष्ठा
सब ही मेरे सखा बंधु हैं
मैं सबके मन की परछाई।।

सबकी पद-रज चंदन मुझको
सबके सांस सुरभिमय कुंकुम
सबका मंगल मेरा मंगल
गाता मेरी प्राण विहंगम
जीवन का श्रम ताप हरे, यह
मेरे गीतों की अमराई
सबसे मेरी प्रेम सगाई।


राजस्थानी, हिन्दी, उर्दू और संस्कृत में मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाले दार्शनिक कवि सेठिया की स्मृतियां राजस्था की धरा को उनके गीतों से गुंजाती रहेगी। चाहे वह 'धरती धोरां री' या 'अरे घास की रोटी' हो या कि 'कुण जमीन को धणी' ये गीत ही इस प्रदेश की प्रेरक शक्ति बन गए हैं। साभार: दैनिक भास्कर, राजस्थान: 12 नवम्बर 2008
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समाचार पत्रों की नजर में










दैनिक पूर्वोदय,असम


पूर्वांचल प्रहरी, असम



पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत:


पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ने स्व. सेठिया के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए फैक्स संदेश में कहा कि - " साहित्य मनीषी कन्हेयालाल सेठिया के निधन का समाचार पाकर मैं स्तब्ध रह गया। उन्होंने अपनी कालजयी रचनओं से राजस्थानी साहित्य, कला व संस्कृति की जो सेवा की है, वह सदैव स्मरण की जायेगी। उन्होंने अपनी काव्य रचना "धरती धोरां री...." के जरिये राजस्थान की समृद्धि व सांस्कृतिक पहचान पूरे देश व विदेश में पहुंचाई। उनके निधन से पूरे राजस्थान व साहित्य जगत की ऐसी क्षति हुई है जिसकी पूर्ति करना असंभव है। सेठियाजी के साथ मेरे वर्षों से व्यक्तिगत संबंध थे। राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने के प्रश्न को लेकर वे कई बार मुझसे मिले और ये उनके प्रास का ही फ़ल था कि राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने का संकल्प विधानसभा में 2003 में पारित किया गया।"




वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण बिहारी मिश्र


हिन्दी जगत के वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण बिहारी मिश्र ने कहा कि- " कवि सेठिया राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में सम्मानित थे। राजस्थानी भाषा को उन्होंने आजीवन प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करते रहे। पिछले कुछ दिनों से वयजनित निष्क्रियता उनमें आ गयी थी। अपनी साहित्य साधना से उन्होंने लोक यात्रा की कृतार्थरा आयोजित की। किसी भी व्यक्ति के लिये यह बड़ी उपलब्धी है।




मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे


जयपुर, 11 नवम्बर। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने राजस्थानी भाषा के यशस्वी कवि एवं साहित्यकार श्री कन्हैयालाल सेठिया के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है।
श्रीमती राजे ने अपने शोक संदेश में कहा कि " श्री सेठिया ने मायड़ भाषा एवं राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में जीवनपर्यंत अमूल्य योगदान दिया। मुख्यमंत्री ने कहा कि राजस्थानी गीत " धरती धोरां री" उनकी अमर रचना है, जिसके बोल जन-जन के मन में प्रदेश के गौरव एवं स्वाभिमान को जगाता है। मुख्यमंत्री ने ईश्वर से दिवगंत आत्मा की शान्ति एवं शोक संतप्त परिजनों को यह आघात सहन करने की शक्ति देने की प्रार्थना की है।"



श्री सीताराम महर्षि ने गहरा शोक प्रकट करते हुए कहा कि:


राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर के अध्यक्ष श्री सीताराम महर्षि ने गहरा शोक प्रकट करते हुए कहा कि सेठिया का निधन राजस्थानी भाषा के लिए एक अपूरणीय क्षति है। वे राजस्थानी साहित्यकारों के आदर्श थे तथा राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए सदैव अग्रपंक्ति में खड़े रहे और अनेक कविताओं के द्वारा राजस्थानी के महत्त्व को प्रतिपादित किया।



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[Script code: Kanhaiyalal Sethia कन्हैयालाल सेठिया]
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