Dear Sir,Please Visit the May 2008 Issue Of Samaj Vikas
" Kanhaiyalal Sethia Visheshank "
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Yours
Shambhu Choudhary
Co-editor
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Dear Sir,किसीने सही कहा है कि किसी समाज विशेष को जानना है तो उसका साहित्य पढ़ना चाहिए । साहित्य से ही उस समाज का सही चित्रण हो जाता है। समाज में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उसके विकास, उनमें बसे मनुष्यों चिंतन, उनकी सभ्यता पर साहित्य का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता हैं। वहीं साहित्यकारों को समाज का प्राण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । समाज बिना साहित्यकारों के उस देह के समान हैं जिसमें सब कुछ हैं परन्तु प्राण नहीं । समाज की सोच, संस्कृति, विकास व कला को साहित्यकार ही अग्रणी हो मार्गदर्शन करते हैं । साहित्य चाहे किसी भाषा व मजहब का हो वह महान ही होता हैं और सदैव वंदनीय है । साथ ही समाज उनके अति महत्वपूर्ण योगदान का सदैव ऋणी ही रहता है । राजस्थानी पीपुल्स गजट के संपादक श्री तेजकरण हर्ष के इस प्रयास को हम एक कदम अरगे बढ़ाते हुए एवं इसी मानसिकता से ओतप्रोत हो हम यह अंक श्री कन्हैयालाल सेठिया को समर्पित कर रहे हैं। वैसे तो राजस्थान-हरियाणा में कला, संस्कृति और साहित्य की खान हैं यहाँ साहित्यकार रूपी मूर्तियों से पूर्ण रूपेण भरा समुद्र बसता है, परन्तु जैसे ही हम प्रवासी राजस्थानी-हरियाणवीं की तरफ नजर घुमाते हैं, हमें बड़ी निराशा हाथ लगती है। ऐसा नहीं कि प्रवासी राजस्थानी-हरियाणवीं जिन्हें हम ‘मारवाड़ी’ शब्द से जानते हैं। इनमें साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति कोई लगाव नहीं है, जिन्हें है, उनकी समाज में कद्र नहीं । यह लिखने में मुझे दर्द महसूस होता है, कि इस प्रवासी समाज में कला-साहित्य के प्रति रुचि समाप्त सी हो गयी है। धन और सिर्फ धन कमाने में खोया हुआ यह समाज साथ ही साथ अपनी संस्कृति को भी खोते जा रहा है, संस्कृति के नाम पर आडम्बर, धर्म के नाम पर दिखावा, कला के नाम पर अश्लीलता, समाजसेवा के नाम पर व्यवसाय, साहित्य के नाम पर प्रचार को माध्यम बनाने की नाकाम कोशिशें जारी है।
परन्तु हम इनके इन प्रयासों को बदल देगें, ‘समाज विकास’ सही रूप में समाज की परम्परा को बचाये रखने में आपके साथ है। आयें हम सब मिलकर समाज की सोच को बदल डालें, समाज विकास के इन्टरनेट संस्करण में हम राजस्थान-हरियाणा से जुड़े वासी-प्रवासी साहित्यकारों का परिचय एकत्र करें । आप सभी से मेरा अनुरोध रहेगा कि आप इस यज्ञ में अपनी सहभागिता जरूर लेवें । योग्य राष्ट्रीय, प्रान्तीय, और स्थानिक साहित्यकारों, कलाकारों को उनकी योग्यतानुसार नेट पर प्रकाशित किया जायेगा ।
मुझे पूर्ण वि’वास हैं कि हमारा यह प्रयास आपको जरूर पसन्द आएगा ।
- शम्भु चौधरी, सह-संपादक
आज यहाँ हम एक ऐसे युगपुरुश के विषय में बात करेगें जिन्होंने न सिर्फ धर्मयुग तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में अनेक निबंध लिखे, बाद में वे पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हुए। वग्मिता, इतस्ततः तथा काकपथ - ये तीन संग्रह तो प्रसिद्ध हैं। अन्य भी चर्चित हैं। जी हाँ! इनका नाम है - प्रो. कल्याणमल जी लोढ़ा। इनके निबंधों में वैविध्य है, साथ ही कलकत्ता पर लिखे गए इनके निबंध नई जानकारियों से भरे हुए हैं।लोढ़ाजी कलकत्ता और बंगभूमि के प्रेमी है। अतः जब वे उसके इतिहास या उसकी र्दुगति को दिखाते हैं नगर प्रदूषण वगैरह, तो उनमें एक कसक, एक दर्द उभरता है। जब ये कलकत्ता के गौरव का वर्णन करते हैं, महिमा बखानते हैं, हिन्दी के विकास और पत्रकारिता के अभ्युदय की चर्चा करते हैं, तो उन्हें गौरव सा अनुभव होता है। वास्तव में इनके लेखों में कोलकाता महानगर का चित्र तात्विक हो उठता हैं। बंगला साहित्य में भी कोलकाता का इतना सुन्दर वर्णन देखने को नहीं मिलता।जीवन के सत्य और असत्य दोनों के प्रतिरूप ।
मैं तुम्हारी ही कहानी सुनना चाहता हूँ ।
पतझड़ की झकझोर आँधियों में क्या तुम्हारा हृदय निराश नहीं हुआ ।
एक के बाद एक अपनी लालसाओं को मिटते देख-क्या तुम हताश नहीं हुए । - शम्भु चौधरी
http://samajvikas.in/hindifile/april08.pdf