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शनिवार, 3 अगस्त 2013

तलाकः ससुराल नहीं स्वभाव बदलें - शम्भु चौधरी

संस्कार हीनता के परिणाम स्वरूप छोटी-छोटी बातें भी ‘‘तील का ताड़’’ बन जाती है। आगे चलकर यही आदत दांपत्य जीवन में जहर का काम करती है। इन पहलुओं पर ना सिर्फ हमें सोचने की जरूरत है, जिस तलाक को समाज के युवावर्ग समाधान मानतें हैं कहीं यही समाधान हमारे-आपके बच्चों के लिए समस्या तो नहीं बनती जा रही? क्या यह संभव नहीं हो सकता कि ‘‘समाज बच्चों को ससुराल बदलने की सलाह देने की जगह उनको खुद का स्वभाव बदलने की सलाह दे पाते और दांपत्य जीवन में पनपते दरार को पाटने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर पाते’ क्या यह भी संभव नहीं हो सकता जो समझौता दोनों पक्ष पूनर्विवाह के समय करने की सोचते हैं वही समझौता पहले ही क्यों न कर लिया जाए, ताकी परिवार के टूटने की नौबत ही ना आए।’’

इन दिनों वैवाहिक सम्बन्धों में खटास या दरार की बातें आम होती जा रही है। ऐसा नहीं कि ये सभी बातें पहले के जमाने में नहीं थी। पहले के समय में छोटी-मोटी बातों को पति-पत्नी का आपसी तकरार कहा जाता था। सुख-दुःख के खट्टे-मीठे सपनों के साथ परिवार के ताने-बाने बनते चले जाते और देखते ही देखते ना जाने कैसे पलकों में बच्चे बड़े हो जाते, पता भी नहीं चलता किसी को। बच्चों के लाड़-प्यार में सबकुछ भूल जाते थे मां-बाप। पति चाहे जैसा भी क्यों न हो, पत्नी उन्हें अपना धर्म समझकर अपना लेती थी। दादी सास के खट्टे-मीठे अनुभवों, सास-ससुर के ताने-बाने, ननद-देवर की छेड़-छाड़ के बीच पत्नी अपना घर कैसे बसा लेती कि किसी को पता तक नहीं चलता। पति-पत्नी के कई आपसी झगड़ों को तो, परिवार के अन्दर भी जानने तक नहीं दिया जाता था भीतर ही भीतर सभी बातों को दफ़ना दिया जाता था। कभी लड़के को डांटा या समझाया जाता तो कभी बहु को समझाकर आपसी विवादों को सलटा दिया जाता था। घर के बड़े लोग एकबार जो बात कह दी सो कह दी, बस किसी की हिम्मत तक नहीं होती की कोई वैसी गलती दोबारा करे। परिवार कैसे बस जाता समय का पता ही नहीं चलता था। बहु, मां बन जाती, फिर दादी। जीवन के ये अनुभव आज याद करना भी दुर्लभ सा लगता है। मां-बाप बेटी की बिदाई कर खुद को पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्ति का अनुभव करने लगते। बेटी को बिदाई देते वक्त मां-बाप बेटी को प्रायः यही शिक्षा देते कि अब ससुराल का घर ही तेरा घर है।

आज चारों तरफ शिक्षा का माहौल है परन्तु हर तरफ शिक्षा का अभाव ही अभाव नजर आता है। मां-बाप खासकर मां हर पल अपनी बेटी की चिन्ता करती रहती है। संचार माध्यम ने भी इसको सरल बना दिया फिर क्यों न चिन्ता करे? दाल में नमक कम हो गया कि ज्यादा पलक झपकते ही मां को इसकी सूचना मिल जाती है और शुरू हो जाती है पारिवारिक दखल की एक नई कहानी। बीच-बचाव या गलती से सबक लेने की बातें तो कम, मानसिक तनाव को हवा देने जैसी बातें जो ‘‘आग में घी का काम करे’’ वैसी बातों से दोनों तरफ के परिवार के सदस्य जलने लगते हैं। लड़की पक्ष जहां इन सब बातों के लिए सास-ससुर को गलत ठहराता नजर आता है, तो दूसरी तरफ लड़के वाले लड़की के व्यवहार या उसके आचरण पर अंगूली दिखाने लगते हैं यहीं से बात बढ़ने लगती है जिसका अन्त तलाक से ही होता है। प्रायः ऐसा देखने को मिला है कि 100 में कुछेक मामलें ही तलाक योग्य होतें हैं जिसमें अधिकतर मानसिक रोगी या मेडिकल संबंधित मामले और कुछ अन्य कारणों से होते हैं। जिसमें मुख्यतः
1. बेटी के ससुराल में बेटी के परिवारवालों की तरफ से अनावश्यक हस्तक्षेप।
2. सास या पति के द्वारा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार या टिप्पणी करना।
3. बहू को हर बात में अपनी बेटी (ननद) के सामने नीचा दिखाना।
4. समाजिक समारोह के अवसर पर बहू को ऊचित सम्मान ना देना।
5. दहेज को लेकर तुलनात्मक ताने कसना इत्यादि।
बाकी अधिकांश प्रतिशत मामले ईगो या छोटी-मोटी बातों से जूड़े होतें हैं। जिसमें अधिकतर मामलों में ‘498ए’ के झूठे मुकदमें तक हो जाते या कर दिए जाते हैं। परिणामतः परिवार को जोड़ने की प्रक्रिया ना सिर्फ बाधित हो जाती है, समाज या परिवार का कोई भी प्रभावशाली सदस्य इनके बीच हस्तक्षेप करने से भी घबड़ातें हैं। सबको लगने लगता है कि इस तरह पूरे परिवार को बलि का बकरा ना बनाकर वैवाहिक रिश्ते को ही क्यों न विक्षेद कर दिया जाए। दोनों पक्षों के वरिष्ठ सदस्य इसका सरल उपाय ‘तलाक’ बताते हैं जो जन्म दे देती है कई नई समस्याओं को। जिसका आंकलन यदि किया जाय तो हम पातें हैं कि लड़के या लड़के पक्ष के बनिस्पत कहीं ज्यादा समस्या लड़की या लड़की पक्ष के सामने आती है। जिसमें प्रमुख्यतः
1. लड़की के पुनर्विवाह के पूर्व व बाद की समस्या।
2. तलाक के उपरान्त लड़की को अपने ही घर में रहने की समस्या।
3. यदि संतान साथ हो तो उसके देख-रेख व उसकी शिक्षा खर्च की समस्या।
4. यदि लड़की कामकाजी महिला ना हो तो दैनिक जीवनयापन की समस्या।
5. पुनर्विवाह करने की स्थिति में अपने पूर्व के स्वभाव से समझौता करना।
6. इच्छानुसार वर का ना मिलना।
जबकि लड़के को उपरोक्त में सिर्फ कुछ ही समस्याओं का सामना करना पड़ता है वह भी कुछ दिनों के लिए फिर वही ‘‘ठाक के तीन पात’’ वाली कहावत लागू हो जाती है।
1. पुनर्विवाह करने की स्थिति में अपने पूर्व के स्वभाव से समझौता करना।
2.अपनी गृहस्थी पुनः बसाने की चिन्ता।
3. परिवार के सदस्यों को अपनी पसंदगी या नापंसदगी से समझौता करना। जिसमें अपने से कमजोर घर-घराना या अन्य कोई छोटी-मोटी अड़चनें जैसे लड़की की उम्र, शिक्षा या विकलांगता आदि को अनदेखा करना।

इसप्रकार जब हम दोनों पक्षों की मानसिक स्थिति का अध्ययन कर पातें हैं कि जहां लड़के पक्ष को जो क्षति या परेशानियों का सामना करना पड़ता है उससे कई गुना ज्यादा परेशानियों का सामना लड़की व उसके पक्ष को ना सिर्फ करना पड़ता है आर्थिक परेशानियां भी साथ-साथ में झेलनी पड़ती है। इसमें भले ही कुछ अपवाद या सक्षम परिवार के सदस्य हो सकते हैं। परन्तु अधिकांशतः मामले समान रूप से एक ही माने जा सकते हैं, जो कहीं न कहीं उन बातों को जिम्मेवार मानती है जो दोनों पक्षों को तलाक से पूर्व समझाने में असफल रहती है।

समाज के सामने सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि जो समझौता तलाक के बाद हम करने में अपनी तत्परता व सामथ्र्य दिखातें हैं, काश! वही तत्परता और बुद्धिमानी व सहिष्णुशीलता तलाक के पूर्व दिखा सकते तो कम से कम हम कुछ परिवारों का टूटने से बचाया जा सकता है। विवाह के चन्द दिनों के ही पश्चात जिस प्रकार तलाक के मामले तेजी से सामने आ रहें हैं। यह ना सिर्फ लड़का-लड़की व दोनों परिवारों के बीच भी तनाव का कारण बनती जा रही है। साथ ही ‘तलाक’ समाज में एक विकराल समस्या का रूप धारण करती जा रही है। जिसको थोड़ी सी सावधानी से कुछ हद तक रोकने में हम अपनी अहम् भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। आज जहां बच्चों में सहिष्णुता का जबर्दस्त अभाव खटकता है। मां-बाप तक अपने बच्चों की ‘गारण्टी’ लेने में हिचकते हैं। ना तो मां-बाप अपने ही बच्चों में संस्कार देने में खुद को सक्षम मानते हैं। ना बच्चे में भी जरा सा भी प्रतिरोध सहने की क्षमता दिखाई पड़ती है। ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों की शिक्षा में जितना फासला बनता जा रहा है, बच्चों के बीच भी उनकी सोच में उतना ही बड़ा फासला बनता जा रहा है। शहरी शिक्षा के उद्योग ने हमारे बच्चों को रुपया पैदा करने की मशीन बनाने में जरूर सफलता तो प्राप्त कर ली, परन्तु उनको विद्यालयों में संस्कारित करने के कोई प्रयास नहीं किये गए जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में आज भी संस्कार जीवित है। संस्कार हीनता के परिणाम स्वरूप छोटी-छोटी बातें भी ‘‘तील का ताड़’’ बन जाती है। आगे चलकर यही आदत दांपत्य जीवन में जहर का काम करती है। इन पहलुओं पर ना सिर्फ हमें सोचने की जरूरत है, जिस तलाक को समाज के युवावर्ग समाधान मानतें हैं कहीं यही समाधान हमारे-आपके बच्चों के लिए समस्या तो नहीं बनती जा रही? क्या यह संभव नहीं हो सकता कि ‘‘समाज बच्चों को ससुराल बदलने की सलाह देने की जगह उनको खुद का स्वभाव बदलने की सलाह दे पाते और दांपत्य जीवन में पनपते दरार को पाटने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर पाते’ क्या यह भी संभव नहीं हो सकता जो समझौता दोनों पक्ष पूनर्विवाह के समय करने की सोचते हैं वही समझौता पहले ही क्यों न कर लिया जाए, ताकी परिवार के टूटने की नौबत ही ना आए।’’ आयें हम सोचें और हमसब मिलकर एक नई राह निकालें।

-लेखक एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता व चिंतक हैं।


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