आपणी भासा म आप’रो सुवागत

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शनिवार, 21 सितंबर 2013

परिचयः सज्जन भजनका

‘‘भगवान कुछ ऐसा वरदान देना कि मैं सुबह से शाम तक व्यस्त रहूँ। बस पढ़ाई के तुरन्त बाद ही भगवान ने कुछ ऐसा कर दिया, कि फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा।’’ -सज्जन भजनका
हरियाणा के बुबानी खेड़ा गाँव में 3 जून 1952 को सज्जन भजनका जी का जन्म हुआ। जन्मदाता पिता महावीर प्रसाद भुवानीवाला [भजनका] से उनके बड़े भाई रामस्वरूपदास भजनका को जन्म के दो माह की उम्र में ही गोद में चले गए। रामस्वरूपदास भजनका जी को कोई संतान नहीं थी। दत्तक माता व पिता उनको साथ लेकर अपने तत्कालीन निवास स्थान असम के तिनसुकिया शहर में आ गये, इस शहर में रामस्परूपदास जी का गल्ले का कारोबार था। बालकाल की कोमलता अभी शेष भी नहीं हुई थी कि साढ़े पाँच वर्ष की अल्पायु में ही सज्जन जी के दत्तक पिता श्री रामस्वरूप जी का स्वर्गवास हो गया। पिता के असमय देहान्त ने सज्जन जी के बाल्यकाल को कठिन बना दिया। कारोबार बन्द हो गया, एकमात्र साधन भाड़े की आय था, भजनका जी की आँखों में वेदना के पल झलक पड़ते हैं, बताते हैं कि ‘‘मेरी माँ (माताजी का नाम श्रीमती लाली देवी) एक अनपढ़ एवं धार्मिक महिला थी, पिताजी की मृत्यु के पश्चात माँ ने अपने पीहर इत्यादि से कोई सम्बन्ध नहीं रखते हुए इनके लालन-पालन को ही अपना लक्ष्य बना लिया । बताते हैं कि, सीमित साधनों के बावजूद भी उनको कोई हीन भावना नहीं होने दीं।’’ हिन्दी इंग्लिस हाई स्कूल तिनसुकिया [असम] से आपने शिक्षा प्राप्त की । आप बताते हैं कि इस विद्यालय का रिजल्ट शत-प्रतिशत होता था । चौथी कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू होती थी। विद्यालय का जिक्र आते ही आपकी बचपन की कई बातें ताजा हो गईं, बचपन के दोस्त, खेलकूद आदि-आदि, बचपन के दोस्तों में श्री विष्णु खेमानी, जो इन दिनों मद्रास रहते हैं एवं उनके साझीदार श्री संजय अग्रवाल के बड़े भाई श्री मधुकर अग्रवाल भी थे। आपने तिनसुकिया कॉलेज से बी.काम. किया। आप बताते हैं कि उन दिनों आपके पास कोई कारोबार नहीं था। उस समय मैं भगवान से मनाता था कि ‘‘भगवान कुछ ऐसा वरदान देना कि मैं सुबह से शाम तक व्यस्त रहूँ। बस पढ़ाई के तुरन्त बाद ही भगवान ने कुछ ऐसा कर दिया, कि फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा।’’ बचपन से ही आप सामाजिक संस्थाओं से जुड़ते चले गए, जिनमें प्रमुख हैं- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मारवाड़ी सम्मेलन, मारवाड़ी युवा मंच, लियो क्लब, एवरग्रीन क्लब ;तिनसुकिया का स्पोर्टस क्लबद्ध, नवयुवक संघ, राष्ट्रीय हिन्दी पुस्तकालय, आदर्श हिन्दी विद्यालय, विवेकानन्द केन्द्र आदि। सभी छोटी-बड़ी सामाजिक संस्थाओं में आप बचपन से ही भाग लेने लगे थे, जब आपके पास साधन सीमित थे तब भी, और आज भी, आपके मन में सामाजिक कार्यों के प्रति काफी रुझान देखने को मिलता है। बी.काम. करने के पहले ही आपकी सगाई और तुरत बाद ही शादी हो गई, शादी होते ही एक नई जिम्मेदारी के एहसास ने काम की तरफ मोड़ दिया, सबसे पहले खाद की एजेंसी लेकर काम शुरू किया, फिर ताऊजी के साथ मिलकर टीचेस्ट प्लाइवुड का एक कारखाना लगाया, जिसमें काफी घाटा लगा एवं उस समय तक की सारी जमा-पूँजी खतम हो गई। परन्तु हिम्मत नहीं हारते हुए पुनः अक्टूबर 1976 में इन्होंने अपना अलग से एक छोटी-सी विनियर मिल ( प्लाइवुड पते बनाने की मिल ) सात हजार रुपये सालान भाड़े में लेकर नया काम शुरू कर दिया। भजनका जी साथ ही यह भी बताते हैं कि ‘‘उस समय मेरी कुल पूँजी (5000/=) थी। 80000/- की देनदारी और जमा मात्र 75000/-, प्रमाणिकता से बिना समझौता किये एवं क्षति को पूरा करने का दृढ़ निर्णय ने मन को भीतर से झकझोर कर रख दिया ।’’ सच है कि आज श्री भजनका जी जिस मुकाम पर आ खड़े हैं इसके पीछे है, कठिन श्रम एवं इमानदारी। - शम्भु चौधरी

शनिवार, 3 अगस्त 2013

तलाकः ससुराल नहीं स्वभाव बदलें - शम्भु चौधरी

संस्कार हीनता के परिणाम स्वरूप छोटी-छोटी बातें भी ‘‘तील का ताड़’’ बन जाती है। आगे चलकर यही आदत दांपत्य जीवन में जहर का काम करती है। इन पहलुओं पर ना सिर्फ हमें सोचने की जरूरत है, जिस तलाक को समाज के युवावर्ग समाधान मानतें हैं कहीं यही समाधान हमारे-आपके बच्चों के लिए समस्या तो नहीं बनती जा रही? क्या यह संभव नहीं हो सकता कि ‘‘समाज बच्चों को ससुराल बदलने की सलाह देने की जगह उनको खुद का स्वभाव बदलने की सलाह दे पाते और दांपत्य जीवन में पनपते दरार को पाटने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर पाते’ क्या यह भी संभव नहीं हो सकता जो समझौता दोनों पक्ष पूनर्विवाह के समय करने की सोचते हैं वही समझौता पहले ही क्यों न कर लिया जाए, ताकी परिवार के टूटने की नौबत ही ना आए।’’

इन दिनों वैवाहिक सम्बन्धों में खटास या दरार की बातें आम होती जा रही है। ऐसा नहीं कि ये सभी बातें पहले के जमाने में नहीं थी। पहले के समय में छोटी-मोटी बातों को पति-पत्नी का आपसी तकरार कहा जाता था। सुख-दुःख के खट्टे-मीठे सपनों के साथ परिवार के ताने-बाने बनते चले जाते और देखते ही देखते ना जाने कैसे पलकों में बच्चे बड़े हो जाते, पता भी नहीं चलता किसी को। बच्चों के लाड़-प्यार में सबकुछ भूल जाते थे मां-बाप। पति चाहे जैसा भी क्यों न हो, पत्नी उन्हें अपना धर्म समझकर अपना लेती थी। दादी सास के खट्टे-मीठे अनुभवों, सास-ससुर के ताने-बाने, ननद-देवर की छेड़-छाड़ के बीच पत्नी अपना घर कैसे बसा लेती कि किसी को पता तक नहीं चलता। पति-पत्नी के कई आपसी झगड़ों को तो, परिवार के अन्दर भी जानने तक नहीं दिया जाता था भीतर ही भीतर सभी बातों को दफ़ना दिया जाता था। कभी लड़के को डांटा या समझाया जाता तो कभी बहु को समझाकर आपसी विवादों को सलटा दिया जाता था। घर के बड़े लोग एकबार जो बात कह दी सो कह दी, बस किसी की हिम्मत तक नहीं होती की कोई वैसी गलती दोबारा करे। परिवार कैसे बस जाता समय का पता ही नहीं चलता था। बहु, मां बन जाती, फिर दादी। जीवन के ये अनुभव आज याद करना भी दुर्लभ सा लगता है। मां-बाप बेटी की बिदाई कर खुद को पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्ति का अनुभव करने लगते। बेटी को बिदाई देते वक्त मां-बाप बेटी को प्रायः यही शिक्षा देते कि अब ससुराल का घर ही तेरा घर है।

आज चारों तरफ शिक्षा का माहौल है परन्तु हर तरफ शिक्षा का अभाव ही अभाव नजर आता है। मां-बाप खासकर मां हर पल अपनी बेटी की चिन्ता करती रहती है। संचार माध्यम ने भी इसको सरल बना दिया फिर क्यों न चिन्ता करे? दाल में नमक कम हो गया कि ज्यादा पलक झपकते ही मां को इसकी सूचना मिल जाती है और शुरू हो जाती है पारिवारिक दखल की एक नई कहानी। बीच-बचाव या गलती से सबक लेने की बातें तो कम, मानसिक तनाव को हवा देने जैसी बातें जो ‘‘आग में घी का काम करे’’ वैसी बातों से दोनों तरफ के परिवार के सदस्य जलने लगते हैं। लड़की पक्ष जहां इन सब बातों के लिए सास-ससुर को गलत ठहराता नजर आता है, तो दूसरी तरफ लड़के वाले लड़की के व्यवहार या उसके आचरण पर अंगूली दिखाने लगते हैं यहीं से बात बढ़ने लगती है जिसका अन्त तलाक से ही होता है। प्रायः ऐसा देखने को मिला है कि 100 में कुछेक मामलें ही तलाक योग्य होतें हैं जिसमें अधिकतर मानसिक रोगी या मेडिकल संबंधित मामले और कुछ अन्य कारणों से होते हैं। जिसमें मुख्यतः
1. बेटी के ससुराल में बेटी के परिवारवालों की तरफ से अनावश्यक हस्तक्षेप।
2. सास या पति के द्वारा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार या टिप्पणी करना।
3. बहू को हर बात में अपनी बेटी (ननद) के सामने नीचा दिखाना।
4. समाजिक समारोह के अवसर पर बहू को ऊचित सम्मान ना देना।
5. दहेज को लेकर तुलनात्मक ताने कसना इत्यादि।
बाकी अधिकांश प्रतिशत मामले ईगो या छोटी-मोटी बातों से जूड़े होतें हैं। जिसमें अधिकतर मामलों में ‘498ए’ के झूठे मुकदमें तक हो जाते या कर दिए जाते हैं। परिणामतः परिवार को जोड़ने की प्रक्रिया ना सिर्फ बाधित हो जाती है, समाज या परिवार का कोई भी प्रभावशाली सदस्य इनके बीच हस्तक्षेप करने से भी घबड़ातें हैं। सबको लगने लगता है कि इस तरह पूरे परिवार को बलि का बकरा ना बनाकर वैवाहिक रिश्ते को ही क्यों न विक्षेद कर दिया जाए। दोनों पक्षों के वरिष्ठ सदस्य इसका सरल उपाय ‘तलाक’ बताते हैं जो जन्म दे देती है कई नई समस्याओं को। जिसका आंकलन यदि किया जाय तो हम पातें हैं कि लड़के या लड़के पक्ष के बनिस्पत कहीं ज्यादा समस्या लड़की या लड़की पक्ष के सामने आती है। जिसमें प्रमुख्यतः
1. लड़की के पुनर्विवाह के पूर्व व बाद की समस्या।
2. तलाक के उपरान्त लड़की को अपने ही घर में रहने की समस्या।
3. यदि संतान साथ हो तो उसके देख-रेख व उसकी शिक्षा खर्च की समस्या।
4. यदि लड़की कामकाजी महिला ना हो तो दैनिक जीवनयापन की समस्या।
5. पुनर्विवाह करने की स्थिति में अपने पूर्व के स्वभाव से समझौता करना।
6. इच्छानुसार वर का ना मिलना।
जबकि लड़के को उपरोक्त में सिर्फ कुछ ही समस्याओं का सामना करना पड़ता है वह भी कुछ दिनों के लिए फिर वही ‘‘ठाक के तीन पात’’ वाली कहावत लागू हो जाती है।
1. पुनर्विवाह करने की स्थिति में अपने पूर्व के स्वभाव से समझौता करना।
2.अपनी गृहस्थी पुनः बसाने की चिन्ता।
3. परिवार के सदस्यों को अपनी पसंदगी या नापंसदगी से समझौता करना। जिसमें अपने से कमजोर घर-घराना या अन्य कोई छोटी-मोटी अड़चनें जैसे लड़की की उम्र, शिक्षा या विकलांगता आदि को अनदेखा करना।

इसप्रकार जब हम दोनों पक्षों की मानसिक स्थिति का अध्ययन कर पातें हैं कि जहां लड़के पक्ष को जो क्षति या परेशानियों का सामना करना पड़ता है उससे कई गुना ज्यादा परेशानियों का सामना लड़की व उसके पक्ष को ना सिर्फ करना पड़ता है आर्थिक परेशानियां भी साथ-साथ में झेलनी पड़ती है। इसमें भले ही कुछ अपवाद या सक्षम परिवार के सदस्य हो सकते हैं। परन्तु अधिकांशतः मामले समान रूप से एक ही माने जा सकते हैं, जो कहीं न कहीं उन बातों को जिम्मेवार मानती है जो दोनों पक्षों को तलाक से पूर्व समझाने में असफल रहती है।

समाज के सामने सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि जो समझौता तलाक के बाद हम करने में अपनी तत्परता व सामथ्र्य दिखातें हैं, काश! वही तत्परता और बुद्धिमानी व सहिष्णुशीलता तलाक के पूर्व दिखा सकते तो कम से कम हम कुछ परिवारों का टूटने से बचाया जा सकता है। विवाह के चन्द दिनों के ही पश्चात जिस प्रकार तलाक के मामले तेजी से सामने आ रहें हैं। यह ना सिर्फ लड़का-लड़की व दोनों परिवारों के बीच भी तनाव का कारण बनती जा रही है। साथ ही ‘तलाक’ समाज में एक विकराल समस्या का रूप धारण करती जा रही है। जिसको थोड़ी सी सावधानी से कुछ हद तक रोकने में हम अपनी अहम् भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। आज जहां बच्चों में सहिष्णुता का जबर्दस्त अभाव खटकता है। मां-बाप तक अपने बच्चों की ‘गारण्टी’ लेने में हिचकते हैं। ना तो मां-बाप अपने ही बच्चों में संस्कार देने में खुद को सक्षम मानते हैं। ना बच्चे में भी जरा सा भी प्रतिरोध सहने की क्षमता दिखाई पड़ती है। ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों की शिक्षा में जितना फासला बनता जा रहा है, बच्चों के बीच भी उनकी सोच में उतना ही बड़ा फासला बनता जा रहा है। शहरी शिक्षा के उद्योग ने हमारे बच्चों को रुपया पैदा करने की मशीन बनाने में जरूर सफलता तो प्राप्त कर ली, परन्तु उनको विद्यालयों में संस्कारित करने के कोई प्रयास नहीं किये गए जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में आज भी संस्कार जीवित है। संस्कार हीनता के परिणाम स्वरूप छोटी-छोटी बातें भी ‘‘तील का ताड़’’ बन जाती है। आगे चलकर यही आदत दांपत्य जीवन में जहर का काम करती है। इन पहलुओं पर ना सिर्फ हमें सोचने की जरूरत है, जिस तलाक को समाज के युवावर्ग समाधान मानतें हैं कहीं यही समाधान हमारे-आपके बच्चों के लिए समस्या तो नहीं बनती जा रही? क्या यह संभव नहीं हो सकता कि ‘‘समाज बच्चों को ससुराल बदलने की सलाह देने की जगह उनको खुद का स्वभाव बदलने की सलाह दे पाते और दांपत्य जीवन में पनपते दरार को पाटने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर पाते’ क्या यह भी संभव नहीं हो सकता जो समझौता दोनों पक्ष पूनर्विवाह के समय करने की सोचते हैं वही समझौता पहले ही क्यों न कर लिया जाए, ताकी परिवार के टूटने की नौबत ही ना आए।’’ आयें हम सोचें और हमसब मिलकर एक नई राह निकालें।

-लेखक एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता व चिंतक हैं।


गुरुवार, 6 जून 2013

Modia (Mahajani) Lipi Sample-2


By- Ansuhuman Pandey

Modia (Mahajani) Lipi Sample-1


By Shambhu Choudhary

गुरुवार, 30 मई 2013

Amboo Sharma

जन्म: झुंझनूं 1/11/1934 (कार्तिक कृष्ण-पक्ष दशमी, 1991) पिता:पण्डित प्रह्लादरायजी महमिया शिक्षा: एम.ए.हिन्दी, साहित्य-रत्न, बेसिक शिक्षा-प्रशिक्षित। बी.ए.भूगोल, उदयपुर एम.ए. डिंगळ (राजस्थानी) 76% अंक। वृत्ति: राजस्थान में 1954-62 राजकीय अध्यापक, कोलकाता में 1963-99 ज्ञानभारती-विद्यापीठ में अध्यापन। सम्पादन: तीन पत्रिकाएं राजस्थान में। कोलकाता में सम्पादन:- 1. 1962 से राजस्थान-समाज (पाक्षिक) 2. 1963 से राजस्थान-स्टैण्डर्ड (साप्ताहिक) 3. लाडेसर (पाक्षिक) 1967 में। 4. 1971 से म्हारो देस (पाक्षिक) 5. 1971 में सरवर (पाक्षिक) 6. 1972 से अब तक निजी पत्रिका नैणसी (मासिक)

[प्रख्यात साहित्यकार,शिक्षक व पत्रकार अम्बू शर्मा पंचतत्व में विलीन
कोलकाता में राजस्थानी के एकमात्र शिक्षक, शोधकर्ता, डिंगल के अधिकारी विद्वान, कवि श्री अम्बूजी शर्मा का आज (06 06 2018 ) सुबह 8 बजे देहावसान हो गया। सायंकाल नीमतल्ला श्मशान घाट में उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर काफ़ी संख्या में समाज के विशिष्ट जन, साहित्यकार, पत्रकार, हितैषी, प्रशंसक वगैरह मौजूद थे।
 उनका निधन, राजस्थानी भाषी समाज की अपूरणीय क्षति है। अम्बूजी ने आजीवन, त्रैमासिक पत्रिका *नैणसी* का सम्पादन-प्रकाशन किया। अम्बु रामायण और कृष्णायन उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ थीं। वर्षों तक वे एशिएटिक सोसायटी से जुड़े रहे और डिंगल साहित्य के शोधकार्यों में योगदान देते रहे। वे वर्षों तक ज्ञानभारती विद्यापीठ से जुड़े हुए थे। वहीं वे राजस्थानी भाषा की शिक्षा भी देते थे।]
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अम्बु-रामायण का लेखन प्रारम्भ 1947 में। 1949 तक, प्रारम्भ की 5000 पंक्तियाँ (दोहा-चैपाई) लिखी गई । ये पंक्तियाँ पुस्तक रूप में प्रथम संस्करण 1979 में झुंझनूं में छपीं। दूसरा संस्करण राम नवमी 1985 को, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता में लोकार्पित हुआ । एक ही जिल्द में सम्पूर्ण रामायण, श्री प्रदीप ढेडिया की प्रेस में 1997 में झुंझनूं प्रगति संघ ने छपवाई। इसमें 22000 पंक्तियाँ तथा 837 पृष्ठ हैं ।
सम्मानः- झुंझनूं प्रगति संघ द्वारा, 14 अगस्त 1994 को ज्ञानमंच में। ‘अर्चना’ द्वारा 6 नवम्बर 2005 को रोटरी-क्लब में। कानपुर के हजारीमलजी बाँठिया द्वारा कोलकाता के कला-मन्दिर (तलकक्ष) में 23 जनवरी 2005 को। हनुमानगढ़ के हरिमोहनजी सारस्वत द्वारा 13/12/05 को सम्मान-सामग्री कोलकाता आई। ‘पारिजात’ की रजत-जयन्ती पर सम्मान, भारतीय भाषा-परिषद में 12/5/06 को जलज भादुड़ी द्वारा ।
रेडियो एवं टीवी परः- तीस वर्षों तक कहानियाँ, गीत, कविताएँ, वार्ताएँ, वार्तालाप आदि के प्रसारण में अकेले एवं सामूहिक रूप में भी सम्मिलित। विश्वम्भरजी नेवर ने ताजा-टीवी पर ‘सागर-मन्थन’ में प्रस्तुत किया।
 
Sri Ambhoo Sharmaji and his Wife मानद डॉक्टरेटः-‘राजस्थानी विकास-मंच जालौर ने मानद डी.आर.लिट् उपाधि दी।
विवाह-गीत-लेखनः- फोटोग्राफर प्रदीपजी दम्माणी ने कुछ विवाहों के गीत लिखवाए और गवाए भी। नन्दलालजी शाह की सौभाग्यवती भार्या सरोजिनी देवी ने घनश्यामदासजी शाह की सुपुत्री सौ. नीलू (पुत्रवधू: रामावतारजी सराफ) के मंगळ परिणय हेतु 23 विवाह गीत लिखवाए। गवाए एवं स्वयं ही 3 घण्टे के महिला-गीत-सम्मेलन का संचालन किया। सुशीलजी चाँगियाँ के सुपुत्र के विवाह में। सज्जन झुनझुनवाला के सुपुत्र के परिणय पर। 5 प्रीटोरिया-स्ट्रीट के प्रभुदयालजी कन्दोई की आत्मजा के विवाह में संगीत-निर्देशक कश्यपजी व्यास (गुजराती) ने विवाह-गीत लिखवाए। सौ0 सरोजिनी देवी शाह ने ही महेशजी शाह की आत्मजा सौ0 ऋचा के तथा स्वीयात्मज चि0 किसलय के विवाह हेतु गीत लिखवाए। जगमोहनदासजी मूँधड़ा के घर में निर्भीकजी जोशी के साथ, विवाह गीत लिखे ।
एशियाटिक सोसाइटीः- बंगाल में श्रीरामपुर-ग्राम में ईसाई-मिशनरीज ने, जाॅब चार्नोक द्वारा 1698 में कोलकाता बसाने से पूर्व ही, चर्च बना लिया था; कॉलेज स्थापित कर लिया था तथा निजी मुद्रणालय भी चलाते थे। उसी से उन्होंने बीकानेरी-बोली (राजस्थानी-भाषा) में हिब्रू-भाषा की बाइबिल के टिप्पणीकार सेण्ट ल्यूक की गोस्पेल का अनुवाद हमारी देव- नागरी-लिपि में 1736 में गद्य में छाप लिया था। इसी कारण, एशियाटिक सोसाइटी ने भी अपने स्थापना-वर्ष 1784 से ही, 122 भाषाओं के निजी भाषा-विभागों में, राजस्थानी-विभाग भी (हिन्दी-विभाग से विलग) स्थापित कर लिया था। सिन्धी, डोगरी, कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी, बोडो, सन्थाली, मैथिली इत्यादि अत्यन्त न्यून जन-संख्यावाली भाषाओं को तो, 8वीं सूची में जोड़ लिया गया है और हम 10 करोड़ राजस्थानियों की मातृ-भाषा को नहीं ।
राजस्थानियों की सक्रियताः- 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक (1891-1900) में कोलकाता के कुछ तरुण राजस्थानी एशियाटिक सोसाइटी के राजस्थानी-विभाग में रुचि लेने लगे थे; जैसेः-घनश्यामदासजी बिड़ला, प्रभुदयालजी हिम्मतसिंहका, भूरामलजी अग्रवाल इत्यादि। उन्हीं के प्रयास से, सोसाइटी के राजस्थानी-पाण्डुलिपि-विभाग में, जोधपुर से आए पं0 राम- कर्णजी आसोपा को 1894 में नियुक्ति मिली। तब सोसाइटी सर जार्ज गियर्सन के प्रधान-संपादकत्व में पृथ्वीराज-रासो का मुद्रण करने लगी थी। पृथ्वीराज रासो का मुद्रण, अधूरा ही, स्थगित कर दिया। आसोपाजी की विद्वत्ता से प्रभावित होकर, कोलकाता विश्व-विद्यालय में, सर आशुतोष मुखर्जी ने, रामकरणजी को ही इंचार्ज बना दिया जहाँ पण्डितजी ने कक्षा-प्रथम से लेकर पंचम तक की राजस्थानी-पाठ्य-पुस्तकें, व्याकरण एवं शब्द-कोश का निर्माण किया।
हरप्रसादजी शास्त्रीः- 1904 में एशियाटिक सोसाइटी ने, राजस्थानी भाषा विभाग, हरप्रसादजी शास्त्री को सौंपा। उन्होंने राजस्थान की यात्रा की; शताधिक पाण्डुलिपियाँ लाए और सूची-पत्र (विवरणात्मक) अंग्रेजी- भाषा में प्रकाशित हुआ जिसका हिन्दी अनुवाद, पश्चात्-क्रम में, जोधपुर की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘परम्परा’ में, विशेषांक स्वरूप में प्रकाशित हुआ।
लुईज पियाओ टेस्सीटोरीः-यूरोप के इटली-देश के उड़ीपी-ग्राम के एक तेजस्वी तरुण को 1908 में फ्रांसीसी-भाषा में रामचरित-मानस एवं वाल्मीकीय रामायण के तुलनात्मक अध्ययन पर डाक्टरेट मिली। भारत-भर में डाक्टरेट की डिग्री का यह श्रीगणेश था। उन्हें भी पूर्वी-विश्व की विभिन्न सांस्कृतिक भाषाओं के गहन अध्ययन में उसी भाँति रुचि थी जिस भाँति, एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक एवं भारत के सर्वोच्च जज, विलियम जोन्स को थी। विलियम जोन्स की मृत्यु भी भाषा सीखने की थकान से ही हुई क्यों कि कलकत्ता-निवास में वे प्रति दिवस, न्यूनतम पाँच भाषाओं के विद्वान गुरुओं से, अनेक घण्टों तक, भाषाएँ ही सीखते रहते थे। लुईज पियाओ टेस्सीटोरी की मृत्यु भी राजस्थानी-भाषाओं की पाण्डुलिपियाँ संग्रह की रुचि ने ही, बीकानेरी के निकट चारणी-ढाणी में, लू से ग्रसित हुए और 4/5 मास पश्चात् सन् 1919 में, मात्र 31 वर्ष की अवस्था में, 22 नवम्बर को उनका निधन, बीकानेर में हुआ जहाँ उनकी विशाल समाधि एवं उसमें स्फटिक प्रतिमा, कानपुर में बड़ा व्यवसाय करनेवाले बीकानेरी सेठ हजारीमलजी बाँठिया द्वारा विनिर्मित है और प्रत्येक वर्ष वहाँ उस पुण्य-तिथि पर मायड-भाषा प्रेमियों का विराट मेला आयोजित होता है जिसमें विश्व-भर के सहस्रों राजस्थानी-भाषा-प्रेमी, कत्र्तव्यपूर्वक नियमित सम्मिलित होते हैं। बाँठियाजी ने 1988 में, सपत्नीक, 8 दिवसों तक, टेस्सीटोरीजी के जन्म-ग्राम उडीपी (इटली) में व्यतीत किए जहाँ वे, जोधपुर पोलो-2 के ठिकाने पर रहने वाले परम विद्वान डॉ0 शक्तिदानजी कविया को भी, साथ में ले गए थे।
एशियाटिक सोसाइटी में टेस्सीटोरीजीः- 1912 में एशियाटिक सोसाइटी ने उन्हें कोेलकाता बुलाया। 500 मासिक वेतन दिया रहने को विशाल भवन एवं घोड़ा-गाड़ी का वाहन दिया तथा 5/7 नौकर-दइया भी दिए। टेस्सीटोरीजी का सोसाइटी में कार्य था- राजस्थानी-पाण्डुलिपियों का अंग्रेजी-भाषा में Descriptive catalogue बनाना। वह तो छपा ही किन्तु 4/5 वर्ष यहीं कार्य किया तब राजस्थानी-भाषा की व्याकरण लिखी और 2/3 महत्त्वपूर्ण राजस्थानी-ग्रन्थों का वैसा ही विशाल सुसम्पादन किया जैसा हिन्दी में रामचन्द्रजी शुक्ल ने तुलसीदासजी तथा सूरदासजी के ग्रन्थों का सुसम्पादन कर, उन्हें धार्मिक-क्षेत्र से साहित्य-क्षेत्र में प्रस्थापित ही नहीं, किया अपितु 1929 में छपे अपने ‘हिन्दी-साहित्य का इतिहास’ में इन दोनों धार्मिक महात्माओं को हिन्दी-साहित्याकाश में चाँद-सूरज ही बना दिया।
टेस्सीटोरीजी राजस्थान मेंः- फिर तो टेस्सीटोरीजी को राजस्थानी-भाषा की साहित्यिक समृद्धि के प्रति इतनी अधिक श्रद्धा जागी कि वे संस्कृत एवं लेटिन-भाषा को छोड़कर, विश्व की सभी भाषाओं की अपेक्षा, राजस्थानी को अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा मानने लगे और अंग्रेजी-भाषा का स्तर भी, उनकी दृष्टि में राजस्थानी-भाषा की साहित्यिक गरिमा से, अत्यन्त निम्न रह गया।
अन्तिम चार वर्षों में, टेस्सीटोरीजी ने सहस्रो पाण्डुलियाँ राजस्थान के नगर एवं ढ़ाणियों में, घूम-घूम कर जोड़ी एवं कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी में भिजवाते रहे। वहीं राजस्थान की पवित्र भूमि में ही, पाण्डुलिपियों की शोध में, प्राणों की आहुति भी दे दी। धन्य है मात्र 31 वर्ष की अवस्था में, टेस्सीटोरीजी का, राजस्थानी-भाषा की सेवा में बलिदान होकर, अजर-अमर हो जाना।
विपिन-बिहारीजी त्रिवेदीः- सोसाइटी में राजस्थान से, पाण्डुलिपियों का आना, आज तक भी है क्यों कि जी.डी.बिड़ला एवं कृष्णकुमारजी बिड़ला ने, इसी कार्य हेतु, सोसाइटी को प्रभूत धन-राशि दे रखी है, उनसे, Descriptive Catalogue (अंग्रेजी में) बनाने का कार्य, 1957 में बनारस से, हिन्दी-पढ़ने आए, कोलकाता- युनिवर्सिटी के छात्र, विपिनबिहारीजी त्रिवेदी ने भी सँभाला। उन्होंने 114 पाण्डुलिपियाँ पढ़ी। पुस्तक भी छपी; किन्तु प्रायः आधी प्रवृष्टियाँ अशुद्ध रह गई क्यों कि वे, राजस्थान के विभिन्न सम्भागों की भिन्न-भिन्न वर्णमाला के 8/10 अक्षर ही नहीं समझ पाए। तो भी उन्हें व्यक्तिगत लाभ हुआ कि ग्रियर्सन के अधूरे ‘‘पृथ्वीराज-रासो की प्रामाणिकता’’ पर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा की विरोध-सामग्री उन्हें, सोसाइटी में सहजतया ही उपलब्ध हो गई जिसकी सहायता से उन्होंने, ‘डाक्टरेट’ की डिग्री प्राप्त की। एक उदाहरण:- विपिनबिहारीजी के सूचीपत्र में पुस्तक ‘बिदर-बतीसी’ है। उन्होंने ‘बिदर’ का अर्थ ‘बहादुर’ किया और सभी बत्तीसों छन्द की टिप्पणी, वीर सैनिक के पक्ष में, प्रशंसापूर्ण कर दी जबकि ‘बिदर’ का अर्थ ‘कायर’ होता है और ये सभी बत्तीसों छन्द, कायर की विगर्हणा में हैं, न कि प्रशंसा में।
अम्बुशर्मा: सोसाइटी में :- 1957 से 11 वर्षों तक सोसाइटी में Rajasthani Catalogue का पद उसी भाँति रिक्त रहा जिस भाँति लुईज पियाओ टेस्सीटोरी के पश्चात् 40 वर्षों तक रिक्त रहा था क्योंकि 1957 से पूर्व, साक्षात्कार में, एक भी विद्वान, राजस्थानी-पाण्डुलिपि पढ़ने में सफल नहीं हुआ था अतः 1968 नवम्बर में हुए 40 विद्वानों के साक्षात्कार में से अम्बुशर्मा का चयन कर लिया गया।
साक्षात्कार-विधि, यों रहती थी कि चारों निर्णायक गण, विलग स्थानों पर, 100 वर्षों के अन्तर से, चार पाण्डुलिपियाँ खोल कर रखते थे। उस निश्चित पृष्ठ से एक निश्चित प्रघट्टक (अर्थात 5/7 पंक्तियाँ) वे चिन्हित करके, उनका अनुवाद स्वीय-भाषा (प्रायः बँगला या अंग्रेजी) में लिख कर रखते थे। हमें भी वे ही पंक्तियाँ पढ़ाकर अंग्रेजी में उनका अर्थ, मौखिक ही सुनते थे। बस मैं ही राजस्थानी होने के कारण तथा झुंझनूं पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की नौकरी करने के कारण, राजस्थानी पाण्डुलिपियों को भी थोड़ी बहुत उलट-पुलट कर देख चुका था। दूसरे, कोलकाता में 1962 में आते ही तीन वर्षों में, पद्मावतीजी झुनझुनूंवाला के पास करपात्रीजी के प्रवचनों को ग्रुण्डिंग (जर्मन) टेप-रिकार्डर से सुन कर कागजों पर उतारने से, थकान मिटाने हेतु, उनके पुस्तक-संग्रह में रखी राजस्थानी पाण्डुलिपियों को पलटता रहता था क्योंकि वे मीराबाई के साहित्य पर आधिकारिक शोधकर्ता मानी गई है। पद्मावतीजी एशियाटिक सोसाइटी की सदस्या भी थीं सो उनके साथ; सोसाइटी में इन राजस्थानी पाण्डुलिपियों के दर्शन कर चुका था।
पाण्डुलिपियाँ पढ़ने में कठिनाईः- हम खड़ी-बोली हिन्दी में, देवनागरी-लिपि की शिक्षा लेने वाले व्यक्ति, राजस्थानी-भाषा की पुरानी पाण्डुलिपियाँ पढ़ने में, प्रारम्भ में अत्यन्त दुविधा अनुभव करेंगे क्योंकि तब, हाथ से बने कागजों एवं स्याही, साँठी (लेखनी इत्यादि सामग्रियों में मितव्ययिता हेतु, पृष्ठ के चारों ओर कहीं भी एक-डेढ इंच स्थान, रिक्त नहीं छोड़ा जाता था (2) सभी पुस्तकें, प्रायः डिंगळ-शैली के अपरिचित छन्दों में (अर्थात्) कविता में ही लिखी जाती थीं। गद्य तो पारस्परिक पत्राचार में अथवा राजकीय अध्यादेशों अथवा पट्टे-परवानों, शिला-लेखों, प्रमाण-पत्रों व्यापारिक बहियों, विरोध-पत्रों, स्वीकृति-पत्रों, जन्म-पत्रों, पंचागों, इतिहास-ग्रन्थों में (यदाकदा) आदि में ही प्रयोग होता था। राजस्थान में सभी छोटे-बड़े राजा महाराजाओं के आश्रय में ही श्रेष्ठ साहित्यिक काव्य ग्रन्थों की रचना, निरन्तर होती थी। वे लाखों की संख्या में आज भी भूतपूर्वक राजाओं के गोदामों में सड़ी-गली अवस्था में प्रयत्नपूर्वक प्राप्त हैं और लाखों पाण्डुलिपियाँ काल-कवलित भी हो चुकी हैं (3) कहीं भी विरामादि-चिन्हों का प्रयोग नहीं होता था अतः एक ही पंक्ति में कविता की 2.5 पंक्ति भी हो सकती थी; साढ़े-तीन भी और साढ़े चार पंक्तियाँ भी (4) वाक्यों में, शब्दों के मध्य में रिक्त स्थान नहीं होता सो आज की खड़ीबोली हिन्दी में छपा समाचार-पत्र भी हम नहीं पढ़ पाएँगे यदि शब्दों मे मध्य का रिक्त स्थान, लुप्त कर दिया जाए। वैसी अवस्था में प्रत्येक वर्ण, लम्बी रेलगाड़ी तो बन जाएंगे किन्तु डिब्बों की लम्बाई नहीं जान पाएंगे। जैसेः-उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है को पाण्डुलिपियों में लिखा रहता है और हम वर्ण भी नहीं जानते एवं डिंगल के छन्द भी नहीं; तो पढ़ेंगेः-
उसका मुखचन् द्रमाके समा नसुन्द रहै इसी कारण, मेरे साक्षात्कार-काल में अन्य 39 विद्वान तो शून्य प्रतिशत अंक प्राप्त कर सके और मैं, अल्प-मात्रा में, पूर्वानुभव के बल पर भी मात्र 10 प्रतिशत अंक ही ला सका था। (5) चयन के पश्चात् मुझे भी पाण्डुलिपि, संभालकर पढ़ने का प्रशिक्षण, थोड़े-दिवसों तक तो दिया ही गया कि (क) पृष्ठ पुराना है तो अंगुलियों की असावधान छुअन से, वह तत्काल ही चूर्ण बन जाएगा (ख) मुँह मे श्वास से उस स्थान की स्याही उड़ जाएगी (ग) पृष्ठ को अधिक सूँघते रहेंगे तो हमारे श्वास में पुराने पृष्ठों के कीटाणु (विष) खिंच कर, रक्त में मिस जाएंगे (घ) सावधानी से भी, पृष्ठ अंगुलियों में पकड़ने में नहीं आए तो उस पुस्तक को Cellophene Paper (Trasparent paper) चिपकाने वाले विभाग में भेज देना चाहिए। फिर उन्हें चिमटी से पकड़कर उलटने में सुविधा होगी और पढ़ते समय भी उतनी कठिनाई नहीं रहेगी (ङ) लिपि एवं डिंगल भाषा तथा काव्य के छन्द समझने में तत्परता नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि उन पाण्डुलिपियों में, आधुनिक अंग्रेजी विद्यालयों में, हिन्दी-भाषा के माध्यम से भी विद्यार्जन करने वाले सज्जन को सभी कुछ अपरिचित है और क्रमशः कई मास व्यतीत होते-होते ही, पठन सम्भव है सो 122 भाषाओं के इस पाण्डुलिपि विभाग में, कोई भी किसी का गुरु या मार्ग-दर्शन करने वाला नहीं है क्यों कि वे अपनी-अपनी भाषाओं की पाण्डुलिपियाँ ही पढ़ने और समझने में सफलता प्राप्त कर लेंगे-वही पर्याप्त है।
अम्बु शर्मा ने, सोसाइटी में, तीन वर्ष में 522 ग्रन्थ पढ़े और । A descriptive catalogue of Rajasthani Manuscript, Part-II तैयार कर दिया था 1972 में जिसे शान्ति निकेतन के हिन्दी-भवनाध्यक्ष रामसिंहजी तोमर ने प्रति तीसरे मास आकर जाँचा और प्रकाशन हेतु OK कर दिया किन्तु सोसाइटी की सुस्ती के कारण यह 2003 जनवरी में छपा 606 पृष्ठों में 1200 मूल्य में जो तभी इण्टरनैट पर भी आ गया थाः-
Rajasthani Manuscripts, Asiatic Society Part-II,
Edited-by-Ambika charan-Mhamia
किन्तु अब 5 वर्षों के पश्चात् दिल्ली की एक अन्य प्रकाशन संस्था ने भी मूल्य बढ़ाकर, अन्य इण्टरनैट की संख्या भी प्रदान की है जो इसे 1200/- के स्थान पर, 1800/- रुपयों में विक्रय कर रही है। इस सूचीपत्र को मेरी हस्तलिपि में, दो बड़े रजिस्टरों में, 1976 में जोधपुर विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभागाध्यक्ष डॉ0 कल्याणसिंहजी शेखावत ने, पूरे दो दिन देखा और प्रशंसित किया। कल्याणसिंहजी 8/1/05 को पुनः कोलकाता आए तो अम्बुशर्मा से बोले ‘‘चलिए एशियाटिक सोसाइटी से वह आपका अंग्रेजी सूचीपत्र 1200/- रुपयों में क्रय करें।’’ मेरी इस नियुक्ति में, साक्षात्कार में कल्याणमलजी लोढ़ा भी बैठे थे ।
यह अम्बुशर्मा की काव्य-संग्रह पुस्तिका है जिसमें 23 राजस्थानी एवं 42 हिन्दी-गीत/कविताएँ है। 1987 में छपी इस में प्रत्येक कविता के साथ ही रचना-तिथि भी दी गई है जो 1946 से प्रारम्भ होकर 1987 तक चली आई है। 750-पृष्ठों की ‘अम्बु-कृष्णायण’। 8वीं कक्षा (1948) में दो घटनाएँ प्रधान हुई (1) जयपुर, सीकर आदि की पत्रिकाओं में अम्बुशर्मा की कविताओं का नियमित और बहुशः प्रकाशन प्रारम्भ हो गया (2) दूसरे, आस-पास के स्कूलों और सार्वजनिक कवि-सम्मेलनों (बगड़, पिलानी, डूँडळोद, रघुनाथगढ़, बिसाऊ, अलवर, मण्डेला, बीकानेर अजमेर, उदयपुर, लक्ष्मणगढ़, मुकुन्दगढ़, खेतड़ी, नूआ, झुंझुणूं, सीकर, नवलगढ़ श्यामजी खाटू, अलिपुर, सलामपुर, किशनगढ़ बख्तावरपुरा, नूनिया गोठड़ा सुल्ताना-इत्यादि ग्रामों) मंे भी सैकड़ो कविताएँ सुना चुके थें 12वीं कक्षा में आने तक (1954 में) ।
इससे पूर्व 1953 में किशोरजी कल्पनाकान्त कोलकाता से ‘सागर’ नामक हिन्दी-मासिक निकालते थे। उसके प्रत्येक अंक में अम्बुशर्मा की कविता कहानी निबन्ध भी छपे तथा दिल्ली एवं ऋषिकेश की पत्रिकाओं में भी छपी। 1954 से 1962 तक झुंझनूं-जनपद की 6 स्कूलों में अम्बु शर्मा राजकीय अध्यापक भी रहे। विद्यार्थियों को एकांकी भी लिखकर देते। पूरा नाटक लिखा और प्रत्येक उत्सव पर बीसों कविताएं विभिन्न छात्रों हेतु लिखकर देते थे। उनके स्मारिकाओं, स्मृति-ग्रन्थों, अभिनन्दन- ग्रन्थों का सम्पादन भी किया। बीकानेर रामपुरिया जैन कॉलेज के हिन्दी-
विभागाध्यक्ष डॉ0 मदनजी सेनी ने निजी वृहत शोध-ग्रन्थ ‘राजस्थानी में रामकाव्य’ में अम्बु-रामायण की विस्तृत चर्चा की है। राष्ट्रीय पुस्तकालय मेंः- अम्बुशर्माकृत 18 ग्रन्थ हैं संख्याः-H891.4318/s8691a पर। राम-मन्दिर, कुमार-सभा, बड़ा बाजार-लाइबे्रेरी तथा एशियाटिक सोसाइटी में भी हैं। अम्बुशर्मा, केन्द्रीयाकादेमी की चारों बिबलियोग्राफी (1983,1985,1990 एवं 2000) में भी संकलित हैं। राजस्थानी के बड़े पुरस्कारों में निर्णायक भी रहे हैं।
सम्पर्क:
Amboo Sharma,
Flat No. 4C, Geet, Merlin Estate,
25/8, Diamond Harbour Road,
Near Behala Chourastha
Kolkata-700008
Mobile No. 7439177768

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

कवि ‘मस्त दम्माणी’ नहीं रहे

संजय बिन्नाणी

S Narayan Dammani


राजस्थान के सांस्कृतिक शहर बीकानेर में जन्मे और कोलकाता में कवि-गीतकार, आधुनिक हिन्दी कविता में 'चित्रक’ शैली के जन्मदाता के रूप में प्रसिद्ध हुए कवि एस. नारायण दम्माणी 'मस्त’ को याद किया उनके साथियों, प्रशंसकों ने। स्थानीय फ्रैण्ड्स युनियन क्लब में, माहेश्वरी पुस्तकालय व परचम के संयुक्त तत्वावधान में कवि एस. नारायण दम्माणी की स्मृति में आयोजित सभा में, क्लब के वरिष्ठ सदस्य सूरज रतन कोठारी ने उनकी एक रचना की आवृत्ति करते हुए बताया कि वे हमेशा ही अपनी फक़ीराना और इश्किया मस्ती में रहते थे। मोतीचन्द कासट ने क्लब के एक कोने को दर्शाते हुए कहा कि यही उनका प्रिय व निश्चित स्थान था। यहाँ बैठकर उन्होंने कई रचनाएँ रचीं। क्लब सदस्य चाचा राठी ने उनके साथ बिताए क्षणों को याद करते हुए कहा कि वे हमेशा कविता की रौ में ही रहते और बैठे-बैठे ही किसी भी बात पर कविता रच दिया करते।
कवि आलोक शर्मा ने उनका स्मरण करते हुए कहा कि उनकी रचनाएँ पैनी व धारदार होती थीं। हम स्वयं कवि होते हुए भी दम्माणीजी की रचनाओं की आवृत्ति किया करते थे।
इस अवसर पर बीकानेर से भेजे गए अपने संदेश में कवि श्रीहर्ष ने एस. नारायण को अपने बड़े भाई के रूप में याद करते हुए लिखा कि वे सीधे, सरल एवं अपनी धुन में मस्त रहने वाले थे। अपनी बात वे बिना लाग-लपेट के कहते। अपने गीतों को गाते वक्त वे उसकी लय से एकाकार हो जाते। उन्होंने मुक्त छंद की गंभीर कविताएँ भी लिखी हैं। कवि नवल ने उन्हें हिन्दी का पहला 'डी-मैट’ कवि बताते हुए, उनकी कई रचनाओं का उल्लेख अपने लेख में किया है।
प्रधान वक्ता के रूप में रचनाकार संजय बिन्नाणी ने 'मस्त’ के साथ अपनी भेंट-मुलाकातों की चर्चा करते हुए कहा कि वे अकादमिक दृष्टि से पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी काव्य प्रतिभा जन्मजात थी। शास्त्रीय संगीत की उन्हें अच्छी जानकारी थी। इसीलिए गीतों और ग़ज़लों के उनके तरन्नुम विविधता भरे होते। मौज में आने पर कहीं भी शुरू हो जाते। लोहिया से प्रभावित होकर, युवावस्था में वे आन्दोलनों की राह पर भी चले। रोजी-रोटी के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे। अलग-अलग कालखण्डों में उन्होंने रचा तो बहुत, लेकिन उनके प्रकाशन की ओर सक्रिय नहीं हो पाए।
उनकी जिन रचनाओं से उन्हें प्रसिद्धि मिली, वे उस काल (सन् 195०-55 के आसपास) के लिए सर्वथा नई भंगिमा लिए हुए थीं। उस समय उन्होंने इन रचनाओं में 'हिंगलिश’ भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से किया। वे उन रचनाओं को 'चित्रक’ कहते थे। इन 'चित्रकों’ में उन्होंने जीवन के हर पक्ष को अभिव्यक्ति दी। राजनीति पर पैने और धारदार कटाक्ष किए। आधुनिक काल में क्षणिकाएँ, हँसिकाएँ, व्यंगिकाएँ आदि में मुझे 'चित्रक’ का ही विकास हुआ दिखता है। ऐसे सैकड़ों चित्रकों, गीतों, ग़ज़लों और 'प्रसाद शतक’ के रचयिता, एस. (सूरज) नारायण दम्माणी का देहावसान भले ही हो गया, वे अपनी रचनाओं में अमर हैं, अमर रहेंगे।
स्मृति सभा की अध्यक्षता, पुस्तकालय के अध्यक्ष दाऊलाल कोठारी ने की तथा संचालन मुकुन्द राठी ने किया।

सोमवार, 12 मार्च 2012

मोडिया लिपि

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

आपणी भासा राजस्थानी

भाषा दिवस के अवसर पर विशेष लेख

शम्भु चौधरी


Marwari Lipi
एक वक्त था जब ब्रज भाषा का साहित्य में काफी महत्व था। धीरे-धीरे यह भाषा आज विलुप्त होने की कगार पर आ खड़ी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार दुनिया भर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने व जानने वाले दर्जन भर भी लोग नहीं रह गए। भारत सहित विश्व भर में 147 भाषाएं ऐसी भी हैं जिनको आने वाले समय में जानने वाला कोई नहीं रह जाएगा। आज भारत में भी भारत सरकार की उपेक्षा के परिणाम स्वरूप राजस्थानी (मारवाड़ी/मोडिया), मैथिली, भोजपुरी, मालवी, हरियाणवी, अवधि, कैथी सहित कई छोटी-छोटी उपजातिय भाषाएं हैं जो कालांतर विलुप्त होते जा रही है।
एक समय पूर्वी पाकिस्तान ( आज बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है।) कहलाने वाला देश जब अपनी बंगला भाषा के संरक्षण के लिए सड़कों पर उतरा तो पाकिस्तानी हकुमत ने उन्हें गोलियों से भून डाला था। जिसका परिणाम 30 सालों बाद ही बंगाली मुसलमानों ने पाकिस्तानियों को अपनी जमीन से खदेड़ डाला। निश्चय ही इसकी बहुत बड़ी कीमत इनको चुकानी पड़ी थी। बंग्लादेश की 50 प्रतिशत बंगाली महिलाओं के साथ पाकिस्तानी सेनाओं ने बलात्कार तक किया। लाखों लोगों को उनके बच्चों के सामने ही नंगा कर मार डाला। परन्तु वे भाषा की आवाज को दबा नहीं पाए।
राजपूताना अर्थात राजपुतों का देश, ‘धरती धोरां री, मीरा, राणा प्रताप, सांगा, रानी पद्मणी और पदमावती का देश राजस्थान, वीरों के कण-कण से चमके, जौहर से धरती जो थड़के, आन-बान और शान जो देश में भर दे। ऐसा राजस्थान! आज अपनी भाषा की पहचान के लिए तड़फता राजस्थान!
‘धरती धौरां री..’ एवं ‘पातल और पीथल’ की रचना करने वाले अमर स्व॰ कन्हैयालाल सेठियाजी अपने जीवन काल राजस्थानी भाषा की अळख जगाने के लिए कई गीतों की रचना की और जीवनपर्यन्त राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए सैकड़ों पत्र राजनेताओं को देते रहे। पिछले दिनों मुझे राजस्थान जाने का काम पड़ा। इस यात्रा के दौरान मेरे राजस्थानी भाषा के अनुभव को एक कविता के माध्यम से कुछ इस प्रकार व्यक्त किया -


बोबां’रो दूध पिलायो सैंणै / मांचा म खुब खिलायो सैं’णै / बाबू’री फाट’री धोती,
पोतड़ा में सुलांयो सैं’णै / आज मेरी साड़ी भी अब / गई सग्ळी फाट...।
रुक’रे बोली... / सुण मेरी इक बात!
अन्तिम सांसां लेती बोळी / आपणी भासा राजस्थानी।


इस संदर्भ में देश के प्रख्यात भाषाविद स्व॰ डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी ने अपने एक व्याख्यान में कहा-
‘‘मेरी मातृभाषा बांग्ला के इतिहास का विचार करने के लिए उसकी बहनों के इतिहास का झांकी-दर्शन करना भी आवश्यक हुआ। माँ की सेवा के लिए योग्यता को प्राप्त करते समय मौसीओं के चरणों में प्रणाम निवेदन किये बिना काम नहीं चला।....आपने राजस्थानी भाषा व बांग्ला भाषा से कई उदाहरण प्रस्तुत किये हिन्दी में ‘‘का, के, की’’ के प्रयोग व राजस्थानी में इसी संबंध वाचक का व्यवहार ‘‘ रा, रे, री’’ औ बंगला के ‘एर्’ या ‘र्’ प्रत्यय जैसे कोथाई’रे तुमी? - किधर हो तुम? या ‘‘किएरे् तुमी की कोरछो’’ - ‘‘क्या रे तुम क्या करते हो’’ से जोड़ते हुए अपने व्याख्यान में कई उदाहरण प्रस्तुत किए।’’
डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी के अनुसार ‘‘पुरानी मारवाड़ी’’ से तात्पर्य ‘मुडिया’ जिसका शाब्दिक अर्थ मारवाड़ी भाषा अथवा ‘महाजनी’ से था और जिसकी लिपि ‘‘मुडिया’’ मानी जाती थी, हालांकि सन् 1990 के आस-पास या इसके बाद इसका प्रचलन प्रायः लुप्त सा हो चुका है। कारण कम्प्यूटर युग का तेजी से प्रवेश हो जाने से मारवाड़ी प्रतिष्ठानों से ‘मुनिम’ अर्थात खाता-बही लिखने वाले लोगों की परम्परा का समाप्त होना माना जाना चाहिए। इससे पूर्व देश के हजारों मारवाड़ी प्रतिष्ठानों में इसका ‘खाता-बही’ जिसे मारवाड़ी में ‘बसणा’ कहा जाता है अर्थात एकाउन्टस् लिखने की ‘बही’ जिसे पीले रंग के कागज पर लाल कपड़े से जिल्द चढ़ाकर बनाया जाता, साथ ही इसे दो या अधिकतम तीन बार मोड़ा (फोल्ड) किया जा सकता था।
इन दिनों इस तरह के बही-खातों के साथ-साथ मोडिया लिपि का प्रचलन भी प्रायः समाप्त हो चुका है। मुडिया लिपि में एक समय ‘स्वर’ का वर्गीकरण सही नहीं थे जिससे व्यंजनों का कई बार अर्थ निकालना असाध्य कार्य हो जाता था। मोडिया लिपि की प्रचिनता के विषय में कई विद्वान इसे ‘राजा टोडरमल’ की देन मानते हैं। आज भी जमीनों के पुराने पट्टे मोडिया में लिखे मिल जाते हैं। मोडिया की प्रचिनता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि इसके बाद जो भाषायें विकसित हुई जैसे गुजराती, मराठी आदि उसमें देवनागरी के सभी स्वरों का प्रयोग पाये जाते हैं जबकि मोडिया लिपि में ‘स्वर’ का प्रमाण नहीं मिलता। हाँ! धीरे-धीरे इसमें भी स्वरों का प्रवेश होने लगा और 19वीं सदी के अंत होते-होते मोडिया में जमकर स्वर का प्रयोग मिलने लगे। आधुनिक राजस्थानी भाषा के स्व॰ शिवचन्द्र भरतिया के लेख व नाटक इस बात के प्रमाण स्वरूप हम रख सकते हैं।


आज हम जिस राजस्थानी भाषा की बात करते हैं उसमें ‘मुडिया लिपि’ की जगह ‘देवनागरी लिपि’ वर्ण माला का प्रयोग होने लगा है।
वर्तमान में जिसे आधुनिक राजस्थानी कही जाती है इनमें देवनागरी लिपि का प्रचलन हो चुका है फिर भी राजस्थान के लिपि विद्वानों व शोधकर्ताओं का मानना है कि मोडिया लिपि में सुधार कर इसके प्रचलन पर ही काम किया जा सकता है। जिस प्रकार गुजराती या मराठी लिपि में हुआ है।
मेरे मन में लगातार एक प्रश्न उठ रहा था कि ऐसी क्या बात है जो राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं सूची में मान्यता देने से रोकती है। हमें इसके उन पहलुओं को देखना और उसके समाधान के रास्ते निकालने की जरूरत पहले है ना कि भाषा के मान्यता की बात। यदि मान्यता हल्ला करने या आंदोलन से मिल सकती तो पिछले 65 सालों में अब तक कई भाषा जिसमें देवनागरी प्रयुक्त नेपाली भाषा भी एक है को जब मान्यता मिल गई तो राजस्थानी भाषा को तो मान्यता मिल ही जानी चाहिए थी। परन्तु कहीं न कहीं कोई अड़चन है जिसे हमें दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके प्रकाश में राजस्थान विधानसभा द्वारा 25 अगस्त 2003 को इस विवादित प्रस्ताव में जरूरी संशोधन करने की जरूरत है।
‘‘राजस्थान विधानसभा द्वारा 25 अगस्त 2003 को, राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने का एक संकल्प रूपी प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया कि ‘‘राजस्थान विधानसभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यह संकल्प करते हैं कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जिलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी आदि शामिल हैं।’’
यदि हम इस प्रस्ताव की गम्भीरता पर विचार करें तो, हम पाते हैं कि यह प्रस्ताव खुद में अपूर्ण और विवादित है। ‘‘इसमें कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि हम किस भाषा को राजस्थानी भाषा के रूप में मान्यता दिलाना चाहते हैं।’’ एक साथ बहुत सारी बोलियों को मिलाकर विषय को अधिक उलझा दिया गया है।
इस संदर्भ में राजस्थान के ही राजस्थान के भाषा विद्वान डा॰ उदयवीर शर्मा ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘‘राजस्थानी भासा री एकता दीढ सूं देखां जणां कैवणो बणै कै खरा-खरी में मारवाड़ी नै ही खरी-सम्पूरी राजस्थानी समझणो-मानणो चाइजै क्यूं कै इण में प्रचुर मात्रा में साहित्य-सामग्री परम्परा सूं ही मौजूद है। ’’
(लेखक मोडिया लिपि पर शोधकार्य कर रहे हैं।)

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

राजस्थानी भाषा: चिन्ता का विषय -शम्भु चौधरी


Shambhu Choudhary

इस दिशा में जब जैसे-जैसे में गहराई से अध्यन करने लगा मेरा मन किया कि अब सिर्फ भाषा पर या इसके मान्यता से काम नहीं चलेगा क्यों कि राजस्थानी भाषा न सिर्फ एक गहरी साजिश की शिकार हो चुकी है इसके खुद के अन्दर भी कई विवाद जन्म ले चुके हैं। जो इस भाषा की मान्यता के रास्ते में बाधक बनी हुई है। जिसमें जिन तीन कारणों की तरफ मेरा ध्यान जाता है उसमें प्रमुख है। -
1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र
2. मोडिया लिपि का विलुप्त होना
3. राजस्थान की बोलियों में आपसी अंहकार।


यह विषय हमें जहाँ चिन्तीत करता है वहीं हमें सचेत भी करता है कि आखिर में हमारा समाज कर क्या रहा है? आये दिन धन की बर्वादी में सबसे आगे रहने वाले मारवाड़ी समाज के पास इतना भी धन और समय नहीं कि हम अपनी धरोहर को, अपनी भाषा को बचा सके। मेरी क्षमता इस कार्य को करने की नहीं है ना ही मैं भाषा का विद्वान ही हूँ कि जो कुछ मैं लिख दूगाँ उसे पूरा समाज स्वीकार कर लेगा। हाँ! यह तो जरूर होगा कि जिस दिशा में मेरे कदम बढ़ने लगे हैं। शायद इसमें मुझे कुछ हद तक सफलता जरूर मिलेगी ताकी आने वाली पीढ़ी को समाज की कुछ सामाग्री प्राप्त हो सके जो एकदम से समाप्त के कगार पर आ चुकी है। आज हम जिस कड़ी में यह बात लिख रहा हैं उनमें मोडिया भाषा के जानकारी रखने वाली पीढ़ी प्रायः समाप्त हो चुकी है। पिछले दिनों जब मैं कोलकाता से प्रकाशित एक हिन्दी मासिक पत्रिका ‘समाज विकास’ जो कि आखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन का मुखपत्र है का संपादन कार्य को देख रहा था उस कार्यकाल के दौरान सम्मेलन के तत्कालिन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नन्दलाल रुंगटा जी ने एक सादा पन्ना मेरे हाथ में थमा दिया जिसपर कुछ अक्षर लिखे हुए थे। उस वक्त मुझे लगा कि यह पन्ना मेरे क्या काम आयेगा, परन्तु पिछले माह राजस्थान से लौटकर मैं अपने सारे कागजात में उस सादे कागज को खोजने लगा। श्री रुंगटाजी, श्री सीताराम शर्माजी, श्री रतन शाहजी, श्री आत्माराम सोंथलिया जी, श्री जुगलकिशोर जैथलियाजी, श्री विजय गुजरवासिया जी और मेरे कई पारिवारिक मित्रों से यह अनुरोध किया कि वे मुझे मोडिया लिपि के कुछ पुराने दस्तावेज जिसमें खाते-बही, जमीन के पुराने पट्टे या चिट्ठी-पत्री आदि जो भी मिल सके देने की कृपा करें। श्री नन्दलालजी रुंगटा जी ने मुझसे लगातार मेरे कार्य के प्रगति के बारे में फोनकर पुछने भी लगे। इससे मेरे कार्य करने की क्षमता में काफी बृद्धि होने लगी। इससे पूर्व ही कोलकाता में मारवाड़ी युवा मंच की उत्तर मध्य कोलकाता शाखा द्वारा आयोजित ‘अवलोकन-2011’ में असम के श्री विनोद रिंगानिया, भाईजी श्री प्रमोद्ध सराफ और श्री रतन शाह जी के विचारों ने मुझे काफी झकझोर सा दिया था। हांलाकि उस गोष्ठी में श्री विनोद जी का मन मात्र एक वेवसाईट बनाने का था जिसमें राजस्थानी भाषा की कहावतें व समाज का इतिहास आदि को डालने पर कार्य करने का था जबकि श्री प्रमोद्ध सराफ जी चाहते थे कि समाज की तरफ से कोई एक ऐसा केन्द्र की स्थापना पर ध्यान देने की जरूरत है जिसमें समाज के महत्वपूर्ण दस्तावेजों को पुस्तकों व समाज की अन्य साहित्यिक, सांस्कृतिक जानकारियों को एकत्रित करना जिससे विश्वभर से आने वाले शोधार्थि छात्र-छात्राओं को वह समस्त सामाग्री एक ही जगह, एक छत के नीचे उपलब्ध कराया जा सके। वहीं श्री रतनजी शाह ने राजस्थानी भाषा की मान्यता पर किए जा रहे अपने प्रयासों की जानकारी दी। मेरे मन में लगातार एक प्रश्न उठ रहा था कि ऐसी क्या बात है जो राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आंठवीं सूची में मान्यता देने से रोकती है। हमें इसके उन पहलुओं को देखना और उसके समाधन के रास्ते निकालने की जरूरत पहले है ना कि भाषा के मान्यता की बात। यदि मान्यता हल्ला करने या आंदोलन से मिल सकती तो पिछले 40-45 सालों में अब तक कई छोटी-छोटी भाषा जिसमें नेपाली भाषा है को जब मान्यता मिल गई तो राजस्थानी भाषा तो मिल ही जानी चाहिए थी। इसके प्रकाश में श्री नन्दलाल रुंगटा जी का एक अध्यक्षीय लेख मुझे पढ़ने को मिला जिसमें भाषा विवाद का हल निकालने के लिए काफी महत्वपूर्ण सूझाव आपने दिये थे। देखें उनका लेख-
‘‘राजस्थान विधानसभा द्वारा 25 अगस्त 2003 को, राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने का एक संकल्प रूपी प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया कि ‘‘राजस्थान विधानसभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यह संकल्प करते हैं कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जिलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी आदि शामिल हैं।’’
यदि हम इस प्रस्ताव की गम्भीरता पर विचार करें तो, हम पाते हैं कि यह प्रस्ताव खुद में अपूर्ण और विवादित है। ‘‘इसमें कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि हम किस भाषा को राजस्थानी भाषा के रूप में मान्यता दिलाना चाहते हैं।’’ एक साथ बहुत सारी बोलियों को मिलाकर विषय को अधिक उलझा दिया गया है। इस प्रस्ताव से ही राजस्थान में पल रहे भाषा विवाद की झलक मिलती है। हम चाहते हैं कि राजस्थान सरकार अपनी बात को तार्किक रूप से स्पष्ट करे कि वो आखिर में केन्द्र सरकार से चाहती क्या है?’

(संदर्भ अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन का मुखपत्र जून 2009 वर्ष 59 अंक 6)
इस दिशा में जब जैसे-जैसे में गहराई से अध्यन करने लगा मेरा मन किया कि अब सिर्फ भाषा पर या इसके मान्यता से काम नहीं चलेगा क्यों कि राजस्थानी भाषा न सिर्फ एक गहरी साजिश की शिकार हो चुकी है इसके खुद के अन्दर भी कई विवाद जन्म ले चुके हैं। जो इस भाषा की मान्यता के रास्ते में बाधक बनी हुई है। जिसमें जिन तीन कारणों की तरफ मेरा ध्यान जाता है उसमें प्रमुख है। -
1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र
2. मोडिया लिपि का विलुप्त होना
3. राजस्थान की बोलियों में आपसी अंहकार।



1. भारतीय जनगणना का षड़यंत्र

भारत सरकार की ओर से हुई 1861 में जनगणना के आंकड़ों के अनुसार सिंधी बोलने वाले लोग 13,71,932 थे, नेपाली 10,21,102, कोंकणी के 13,52,363 और राजस्थानी के 1,49,33,016 लोग बोलने वाले थे। इसप्रकार सर्वाधिक राजस्थानी बोलने वालों की संख्या 1961 तक हर दस बरसों बाद की गई जनगणना में राजस्थानी भाशा को स्वतंत्र भाशा माना है परंतु इसके बाद हुई जनगणना में 1971, 1981, 1991, 2001 और अब 2011 में राजस्थान को हिन्दी प्रांत मान कर इस जनसंख्या को भी हिन्दी भाषियों के साथ न सिर्फ जोड़ दिया गया वरन प्रवासी राजस्थानियों को तो जनगणना में हिन्दी भाषी ही माना गया है। यदि राजस्थान की जनसंख्या को ही गैर हिन्दीभासी प्रान्त मान लिया जाए तो इसकी जनसंख्या 2001 के जनगणनानुसार आठ करोड़ है। इसमें प्रवासी मारवाड़ियों की संख्या का अनुमान लगया जाए तो शेष भारत में 3 करोड़ से अधिक ही मानी जाएगी। इसी प्रकार वर्ष 2011 के आंकड़े का अनुमान लगाया जाये तो राजस्थानी बोलने और समझने वालों की जनसंख्या वर्तमान में 13 करोड़ के कुल आंकड़े को पार कर चुकी है। जबकि जनगणना विभाग की माने तो पुरे देश में सन् 2001 तक मारवाड़ी या राजस्थानी बोलने वालों की जनसंख्या मात्र 79,36,183 है जिनमें 62,79,105 राजस्थान में और शेष पूरे भारत में जिसमें महाराष्ट्र-1076739, गुजरात में - 206895, कर्नाटका में - 60731, मध्यप्रदेश में - 50754, पश्चिम बंगाल में -48113, आंध्रप्रदेश में - 43195 एवं झारखण्ड में 40854 इसमें यु.पी., असम, उड़ीसा और बिहार का नाम ही दर्ज नहीं है। देश के अन्य महत्वपूर्ण प्रदेश व वर्ष 2001 के पहले बने प्रान्तों को भी छोड़ दिया गया है। अर्थात मारवाड़ी अथवा राजस्थानी भाषा बोलने वालों की जनसंख्या सन् 1861 की जनगणना 1,49,33,016 से घटकर मात्र 79,36,183 रह गई है।
जारी...

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

भविष्य के लिए नये संकल्प बुनें

-ललित गर्ग-


Lalit Gargएक वर्ष का विदा होना सिर्फ कैलेन्डर का बदल जाना भर नहीं है। छोटा ही सही लेकिन यह हमारे जीवन का एक अहम पड़ाव तो होता ही है, जो हमें थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों की तैयारी का अवसर देता है। एक व्यक्ति की तरह एक समाज, एक राष्ट्र के जीवन में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। नये वर्ष की दस्तक जहां आह्वान कर रही है, वहीं बीते वर्ष की अलविदा हमें समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है।
अलविदा और अगवानी के इस संगम के अवसर पर हम जहां अतीत को खंगालें वहीं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनें। हमें यह देखना है कि बीता हुआ वर्ष हमें क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है। जो अच्छी घटनाएं बीते वर्ष में हुई हैं उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति का माहौल बना-
एक अन्ना क्रांति का सूत्रपात हुआ। लेकिन जाते हुए वर्ष ने अनेक घाव दिये हैं, महंगाई एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंची, जहां आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है। राजनीतिक स्तर पर केन्द्रीय मंत्रियों एवं अन्य बड़ी हस्तियों के घोटालों की त्रासदी को उजागर किया और उन्हें तिहाड़ पहुंचा दिया वहीं लोकपाल बिल के लिये सकारात्मक वातावरण का निर्माण होना एक क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है। ऐसा भी प्रतीत हुआ कि बीते साल में राजनीति और सत्ता गरीब विरोधी दिशा में अधिक गतिशील बनी। गरीब अधिक गरीब और अमीर अधिक अमीर बने हैं। समतामूलक समाज का सपना धुंधलाया है।
पुराना कैलेंडर बदलते वक्त हमेशा उस पर वक्त के कई निशान दिखाई देते हैं- लाल, काले और अनेक रंगों के। इस बार लगा जैसे वक्त ने ज्यादा निशान छोड़े हैं। देश-विदेश में बहुत घटित हुआ है। अनेक राष्ट्र आर्थिक कर्ज में बिखर गये तो अनेक बिखरने की तैयारी में हैं। अच्छा कम, बुरा ज्यादा। यह अनुपात हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। शांति और भलाई के भी बहुत प्रयास हुए है। पर लगता है, अशांति, कष्ट, विपत्तियां, हिंसा, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और अन्याय महामारी के रूप में बढ़ रहे हैं। सब घटनाओं का जिक्र इस लेख के कलेवर में समा ही नहीं सकता। बीते साल की आर्थिक घटनाओं के संकेत हैं कि हम न सिर्फ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं बल्कि किसी भी तरह का झटका झेलने में सक्षम है। इस साल सेंसेक्स ने लगातार ज्वारभाटा की स्थिति बनाए रखी हालांकि पेट्रोल की कीमतों एवं बैंक की बढ़ी ब्याज दरों ने काफी परेशान किया। जब दुनिया की बड़ी आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ताएं धराशायी हुई तब भी भारत ने स्वयं को संभाले रखा।
सबसे बड़ी बात उभरकर आई है कि झांेपड़ी और फुटपाथ के आदमी से लेकर सुपर पावर का नेतृत्व भी आज भ्रष्ट है। भ्रष्टाचार के आतंक से पूरा विश्व त्रस्त है। शीर्ष नेतृत्व एवं प्रशासन में पारदर्शी व्यक्तित्व रहे ही नहीं। सबने राजनीति, कूटनीति के मुखौटे लगा रखे हैं। सही और गलत ही परिभाषा सब अपनी अलग-अलग करते हैं। अपनी बात गिरगिट के रंग की तरह बदलते रहते हैं। कोई देश किसी देश का सच्चा मित्र होने का भरोसा केवल औपचारिक समारोह तक दर्शाता है।
खेल के मैदान से लेकर पार्लियामेंट तक सब जगह अनियमितता एवं भ्रष्टाचार है। गरीब आदमी की जेब से लेकर बैंक के खजानों तक लूट मची हुई है। छोटी से छोटी संस्था से लेकर यू.एन.ओ. तक सभी जगह लाबीवाद फैला हुआ है। साधारण कार्यकर्ता से लेकर बड़े से बडे़ धार्मिक महंतों तक में राजनीति आ गई है। पंच-पुलिस से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक निर्दाेष की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। भगवान की साक्षी से सेवा स्वीकारने वाला डाक्टर भी रोगी से व्यापार करता है। जिस मातृभूमि के आंगन में छोटे से बड़े हुए हैं, उसका भी हित कुछ रुपयांे के लालच में बेच देते हैं। पवित्र संविधान की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठने वाला करोड़ों देशवासियों के हित से पहले अपने परिवार का हित समझता है। नैतिक मूल्यों की गिरावट की सीमा लांघते ऐसे दृश्य रोज दिखाई देते हैं। इन सब स्थितियों के बावजूद हमें बदलती तारीखों के साथ अपना नजरिया बदलना होगा। जो खोया है उस पर आंसू बहाकर प्राप्त उपलब्धियों से विकास के नये रास्ते खोलने हैं। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना है कि अच्छाइयां किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं होतीं। उसे जीने का सबको समान अधिकार है। जरूरत उस संकल्प की है जो अच्छाई को जीने के लिये लिया जाये। भला सूरज के प्रकाश को कौन अपने घर में कैद कर पाया है?
बीते वर्ष में न केवल देश की अस्मिता एवं अस्तित्व पर ग्रहण लगा बल्कि चन्द्रमा पर भी जाते-जाते वर्ष में ग्रहण लगा, वह भी पूर्णिमा की रोशनीभरी रात में अंधकार की ओट में आ गया। यह चन्द्र ग्रहण भी मनुष्य जीवन के घोर अंधेरों की ही निष्पत्ति कही जा सकती है। यहां मतलब है मनुष्य की विडम्बनापूर्ण और यातनापूर्ण स्थिति से। दुःख-दर्द भोगती और अभावों-चिन्ताओं में रीतती उसकी हताश-निराश जिन्दगी से। आज किसी भी स्तर पर उसे कुछ नहीं मिल रहा। उसकी उत्कट आस्था और अदम्य विश्वास को राजनीतिक विसंगतियों, सरकारी दुष्ट नीतियों, सामाजिक तनावों, आर्थिक दबावों, प्रशासनिक दोगलेपन और व्यावसायिक स्वार्थपरता ने लील लिया है। लोकतन्त्र भीड़तन्त्र में बदल गया है। दिशाहीनता और मूल्यहीनता बढ़ रही है, प्रशासन चरमरा रहा है। भ्रष्टाचार के जबड़े खुले हैं, साम्प्रदायिकता की जीभ लपलपा रही है और दलाली करती हुई कुर्सियां भ्रष्ट व्यवस्था की आरतियां गा रही हैं। उजाले की एक किरण के लिए आदमी की आंख तरस रही है और हर तरफ से केवल आश्वासन बरस रहे हैं। सच्चाई, ईमानदारी, भरोसा और भाईचारा जैसे शब्द शब्दकोषों में जाकर दुबक गये हैं। व्यावहारिक जीवन में उनका कोई अस्तित्व नहीं रह गया है।
आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में मेरी अभिव्यक्ति का आधार छुपा है। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत हो, अजंता के चित्र हों, वाल्ट व्हिटमैन की कविता हो, कालिदास की भव्य कल्पनाएं हों, प्रसाद का उदात्त भाव-जगत हो... सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होते, रंगों-रेखाओं, शब्दों-ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होता, तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनी, थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव-जाति ने जो कुछ रचा है, उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव-नस्ल की सामूहिक विरासत है। एक व्यक्ति किसी सुंदर पथ पर एक स्वप्न देखता है और वह स्वप्न अपने डैने फैलाता, समय और देशों के पार असंख्य लोगों की जीवनी-शक्ति बन जाता है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त है, सुंदर है, सार्थक और रचनामय है, वह सब जीवन दर्शन है और इसी जीवन दर्शन में भविष्य के सपनें बुनें जा सकते हैं।
नये वर्ष की ओर कदम बढ़ाते हुए हमें सकारात्मक होना होगा। तमाम तरह की तकलीफों एवं परेशानियों के बावजूद लोगों की आमदनी कई गुना बढ़ी है। वे बेहतर खा-पहन रहे हैं, बेहतर तालीम पा रहे हैं, गरीबी की मार कम हुई है, गांवों में भी कुछ तो रोशनी दिखाई देती है। अब भी आप कहते हो कि ये सब तो ठीक, लेकिन भाई, अमीर-गरीब का पफासला तो बढ़ा है, पल्यूशन कितना बढ़ चुका है, जिंदगी का मतलब टेंशन हो गया है और अब तो पूरी दुनिया खतरे में आ गई है... तो कोफ्त होना लाजिमी है। लेकिन कब तक हम-आप तरक्की को सराहने से बचने के लिए खामियां तलाशते रहेंगे? मैं समझता हूं, तारीफ से बचने और खामियां खोजने का यह बेमिसाल जज्बा इस मुल्क का कोई निराला गुण है। आखिर हम ऐसे क्यों है?
सदियों की गुलामी और स्वयं की विस्मृति का काला पानी हमारी नसों में अब भी बह रहा है। भारत ने पता नहीं कितनी सदियों से खुद को आगे बढ़ता नहीं देखा। यह लंबा इतिहास, जो हमारी परम्पराओं में पैठ चुका है, हमें भविष्य को लेकर ज्यादा आशावादी होने से बचना सिखाता है। यह जंगल का सरवाइकल मंत्र है कि डर कर रहो, हर आहट पर संदेह करो, हर चमकती चीज को दुश्मन समझो और नाराजगी कायम रखो। इसलिए अगर आमदनी बढ़ रही है, तो उसमें जरूर कोई दमघोंटू फंदा छिपा होगा। तरक्की जरूर बर्बादी की आहट होगी, आजादी में गुलामी के बीज जरूर मौजूद होंगे। इन मानसिकताओं से उबरे बिना हम वास्तविक तरक्की की ओर अग्रसर नहीं हो सकते । जीवन की तेजस्विता के लिये हमारे पास तीन मानक हैं- अनुभूति के लिये हृदय, चिन्तन और कल्पना के लिये मस्तिष्क और कार्य के लिये मजबूत हाथ। यदि हमारे पास हृदय है पर पवित्रता नहीं, मस्तिष्क है पर सही समय पर सही निर्णय लेने का विवेकबोध नहीं, मजबूत हाथ हैं पर क्रियाशीलता नहीं तो जिन्दगी की सार्थक तलाश अधूरी है।
आज देश के जो जटिल हालात बने हुए है, उनमें निम्न प्रसंग हमारे लिये प्रेरणा बन सकता है। बहुत पुरानी बात है। एक राजा ने एक पत्थर को बीच सड़क पर रख दिया और खुद एक बड़े पत्थर के पीछे जाकर छिप गया। उस रास्ते से कई राहगीर गुजरे। किन्तु वे पत्थर को रास्ते से हटाने की जगह राजा की लापरवाहियों की जोर-जोर से बुराइयां करते और आगे बढ़ जाते। कुछ दरबारी वहां आए और सैनिकों को पत्थर हटाने का आदेश देकर चले गए। सैनिकों ने उस बात को सुना-अनसुना कर दिया, लेकिन पत्थर को किसी ने नहीं हटाया।
उसी रास्ते से एक किसान जा रहा था। उसने सड़क पर रखे पत्थर को देखा। रुककर अपना सामान उतारा और उस पत्थर को सड़क के किनारे लगाने की कोशिश करने लगा। बहुत कोशिशों के बाद अंत में उसे सफलता मिल गई। पत्थर को हटाने के बाद जब वह अपना सामान वापस उठाने लगा तो उसने देखा कि जहां पत्थर रखा हुआ था वहां एक पोटली पड़ी है। उसने पोटली को खोलकर देखा। उसमें उसे हजार मोहरें और राजा का एक पत्र मिला। जिसमें लिखा था- यह मोहरें उसके लिए हैं, जिसने मार्ग की बाधा को दूर किया। यह प्रसंग हर बाधा में हमें अपनी स्थिति को सुधारने की प्रेरणा देती है।
समय के इस विषम दौर में आज आवश्यकता है आदमी और आदमी के बीच सम्पूर्ण अन्तर्दृष्टि और संवेदना के सहारे सह-अनुभूति की भूमि पर पारस्परिक संवाद की, मानवीय मूल्यों के पुर्नस्थापना की, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और चारित्रिक क्रांति की। आवश्यकता है कि राष्ट्रीय अस्मिता के चारों ओर लिपटे अंधकार के विषधर पर आदमी अपनी पूरी ऊर्जा और संकल्पशक्ति के साथ प्रहार करे तथा वर्तमान की हताशा में से नये विहान और आस्था के उजालों का आविष्कार करे।


प्रेषकः
ललित गर्ग
संपादक
समृद्ध सुखी परिवार
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25 आई पी एक्सटेंसन, पटपड़गंज, दिल्ली-110092
फोनः-22727486, मोबाईल:- 9811051133

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

राजस्थानी-मोड़िया फॉन्ट

Modiya Font
राजस्थानी-मोड़िया फोन्ट रो निर्माण कार्’य जारी है। आपां संगळा’णै यो पैळो दर्शन को अवसर मिळो है।
[script: मोड़िया फॉन्ट, मोड़ीया फॉन्ट, मोडीया फॉन्ट, Modiya Font, Modia, Rajasthani Font]

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

राजस्थानी’री लिपि-

Rajasthani Bhasha


घणा दिनां सूं राजस्थानी लिपि बनाणै’री चेष्टा जारी ही। मोडिया लिपि (MURIA LIPI) खोजी, अभ्यास कियो। अब जा’र कुछ रूपक त्यार कर पाऊं हूँ। संतोष तो घणो कोणी होयो। पर एक छोटो सो प्रयास कियो है, जो आप सबां’रे सामणै है। कि-बोर्ड’री फान्ट भी बनाने’री घणी चेष्टा करी। सफल कोणी हो पायो। आपां सैं मिल’र फान्ट निर्माण रो प्रयास कर सकां हां। यदि कोई जानकार मित्र मिल जावै तो यो काम आसान हो जासी। -आपणी भासा णै समर्पित।


Rajasthani Script


राजस्थानी अक्षरों का संयुक्त प्रयोग

‘र’ अक्षर का संयुक्त प्रयोग में ‘कृ’ को ‘क्री’ लिखा जाता रहा है। परन्तु इन दिनों इसका दोनों प्रयोग स्वीकार है। उदाहरण के तौर पर ‘पृथ्वी’ को प्रिथ्वी या ‘परथवी’ भी लिखा जाता रहा है। ‘र’ अक्षर को तीन प्रकार से जोड़ा जाता है। देखें-
कारय - कार्य, [ यहाँ ‘र’ के साथ ‘य’ को संयुक्त किया गया है। ]
करम - क्रम [ यहाँ ‘क’ के साथ ‘र’ को संयुक्त किया गया है।]
किरति - कृति [ यहाँ ‘कि’ के साथ ‘र’ को संयुक्त किया गया है।]

राजस्थानी भासा में अक्षरों का संयुक्त प्रयोग आधुनिक राजस्थानी भासा के जनक ‘शिवचंद्र भरतिया’ जो कि 19वीं शताब्दी के प्रथम उपन्यासकार लेखक माने जाते हैं से माना जा सकता है। आपने अपने राजस्थानी नाटकों में संयुक्त अक्षरों का प्रयोग खुलकर किया है।
यहाँ हम राजस्थानी भासा में संयुक्त अक्षरों के प्रयोग को देखेगें।
ज्ञ को ग्य, जैसे ज्ञान - ग्यान
‘ज्ञ’ के बदले ग्य का प्रयोग राजस्थान की लिपि में अक्षरों के कमी के चलते था। चुकि अब देवनागरी के ‘ज्ञ’ को राजस्थानी लिपि में ग्रहित कर चुकी है इसलिए इसके दोनो विकल्प सही माने जाते है, फिर अभी भी बहुत सारे साहित्यकार ‘ग्य’ अक्षर को ही सही मानते हैं। उनका मानना है कि ‘ग्य’ अर ‘ज्ञ’ दोनों के उच्चारण करने में कोई अंतर नहीं रहते हुए भी आधुनिक साहित्यकारों ने अभी तक का जो साहित्य रचा है उसमें ‘ग्य’ अक्षर का ही प्रयोग जारी रखा है।
इसी प्रकार देवनागरी या हिन्दी में ‘र् यो’ शब्द को राजस्थानी में ‘र् अर य’ को ‘र्य’ की तरह न दिखाकर ‘‘र् अर य ’’ को जुड़ा दिखया जाता है। इनमें पधार्+योड़ा, पड़्यो, पढ़्या आदि शब्दों की तरफ सहज ही आपका ध्यान चला जायेगा। ‘ऋतु’ को ‘रितु’ और ‘ऋषि’ को ‘रिसी’ का प्रयोग राजस्थानी भाषा में आम प्रचलन है। इसीप्रकार ‘संस्कृति’ शब्द को ‘संस्क्रति’ , ‘प्रगट’ को ‘परगट’ और ‘सर्वसम्मति’ को ‘सरबसम्मति’ किया जाता है।
इस विषय में राजस्थानी में प्रयोग को हम नीचे दिये गये चित्र में देखेगें।
Rajasthani Joint Latter


यहाँ मोडीया में ‘क’ अक्षर के बदलते स्वरूप को नीचे दिये गये चित्र में देखेगें।

Changing in Modia 'K' Latter


तुलनात्मक अध्यनः
गुजराती, पंजाबी और बंगाल की लिपि में अंतर -

गुजराती, पंजाबी और बंगाल की लिपि में अंतर -
राजस्थानी लिपि पर काम करते वक्त इस बात पर भी ध्यान दिया कि राजस्थान प्रान्त से लगे दो प्रान्त और बंगाल प्रान्त जो राजस्थान की भासा व संस्कृति से काफी प्रभावित रहा है उनकी लिपि में व राजस्थान की लिपि, देखने में कैसे नजर आतें हैं। देखें चित्र-


Difrences With Other Scrpit


संशोधन सूझाव प्राप्त:
मोड़ीया / मुडिया लिपि (MURIA LIPI)लिपि के कुछ अक्षरों का हुबहु नकल नीचे बनाये गये हैं। राजस्थानी लिपि बनाते समय ये दानों अक्षरों को ध्यान में रखा जाना है। जैसे-जैसे सूचना सार्वजनिक होती जा रही है मेरे पास कुछ सूचनाऐं विभिन्न स्त्रोंतो से आनी शुरू हो गई है। यदि आप इसमें कोई सूझाव देना चाहें अथवा कोई जानकारी भेजना चाहें तो मेरे ईमेल पते पर आप भी संपर्क कर सकते हैं।
ehindisahitya(@)gmail.com

Modia Lipi


Marathi "Modi" Script Vs Rajasthani "Modiya" Script:


Modi-vs-Modiya

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

श्री गुलाब खंडेलवालजी का संक्षिप्त परिचयः


Sri Jugal Kishore Jaithelia, Gulab Khandelwal and Shambhu-Choudhary
श्री गुलाब खंडेलवाल का जन्म अपने ननिहाल राजस्थान के शेखावाटी प्रदेश के नवलगढ़ नगर में २१ फरवरी सन्‌ १९२४ ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम शीतलप्रसाद तथा माता का नाम वसन्ती देवी था। उनके पिता के अग्रज रायसाहब सुरजूलालजी ने उन्हें गोद ले लिया था। उनके पूर्वज राजस्थान के मंडावा से बिहार के गया में आकर बस गये थे। कालान्तर में गुलाबजी प्रतापगढ़, उ.प्र. में कुछ वर्ष बिताने के पश्‍चात अब अमेरिका के ओहियो प्रदेश में रहते हैं तथा प्रतिवर्ष भारत आते रहते हैं।
[चित्र में बांयें श्री जुगलकिशोर जैथलिया बीच में श्री गुलाब खंडेलवालजी एवं दायें लेखक शंभु चौधरी,
दिनांक 01.12.2011 कोलकाता।]


Gulab Khandelwalश्री गुलाब खंडेलवाल की प्रारम्भिक शिक्षा गया (बिहार) में हुई तथा उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९४३ में बी. ए. किया। काशी विद्या, काव्य और कला का गढ़ रहा है। अपने काशीवास के दौरान गुलाबजी बेढब बनारसी के सम्पर्क में आये तथा उस समय के साहित्य महारथियों के निकट आने लगे। वे वय में कम होने पर भी उस समय के साहित्यकारों की एकमात्र संस्था प्रसाद-परिषद के सदस्य बना लिये गये जिससे उनमें कविता के संस्कार पल्लवित हुए। महाकवि गुलाब खंडेलवाल, साहित्य की अजस्र मंदाकिनी प्रवाहित करनेवाले प्रथम कोटि के साहित्यकारों की पंक्ति में अग्रणी हैं। पिछले छः-सात दशकों से प्रयाग, दिल्ली, बंबई, कोलकाता, मद्रास, भारत, अमेरिका और कनाडा आदि देशों के साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन को गुलाबजी अपनी सारस्वत-साधना से गौरव-मंडित कर रहे हैं। उनका ’सौ गुलाब खिले’ हिन्दी की अपनी कही जाने योग्य स्तरीय ग़ज़लों का पहला संकलन है। इसके बाद उन्होंने ’पंखुरियाँ गुलाब की’, ’कुछ और गुलाब’, ’हर सुबह एक ताजा गुलाब’ जैसी अन्य कृतियों में ३६५ ग़ज़लें लिखकर इस प्रयोग को पूर्णता तक पहुँचा दिया। उत्तरप्रदेश-सरकार ने उनकी छः रचनाओं - उषा, रूप की धूप, सौ गुलाब खिले, कुछ और गुलाब, हर सुबह एक ताज़ा गुलाब और अहल्या को पुरस्कृत करके कवि के साथ-साथ साहित्य-साधना को भी सम्मानित किया है। पिछले दो दशकों में उन्होंने न केवल छन्दमुक्त रचना के विविध प्रयोग ही किये हैं, तुलसी, सूर, मीरा की भक्तिगीतों की धारा में प्रायः एक सहस्र गीतों का सृजन करके साहित्य से संगीत को पुनः जोड़ने का महान कार्य भी संपादित किया है। इसके अतिरिक्त गुलाबजी ने ’गीत-वृन्दावन’, ’सीता-वनवास’ तथा ’गीत-रत्नावली’ जैसे गीति-काव्यों की रचना करके राधा, सीता और रत्नावली के जीवन की त्रासदी को भी नये परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इधर की ही लिखी हुई उर्दू मसनवी की शैली में उनकी नवीन रचना, ’प्रीत न करियो कोय’, हिन्दी के काव्य-साहित्य में एक नया आयाम जोड़ती है। जहाँ इस रचना द्वारा वे उर्दू के प्रमुख मसनवी-लेखक, मीर हसन और दयाशंकर ’नसीम’ की श्रेणी में आ गये हैं वहीं अपने भक्तिगीतों की सुदीर्घ श्रृंखला द्वारा उन्होंने कबीर, सूर, तुलसी और मीरा की परंपरा में अपना स्थान सुरक्षित करा लिया है।
1941 ई. में उनके गीतों और कविताओं का संग्रह ‘कविता’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका महाकवि निराला जी ने लिखी और तब से अब तक उनके 46 काव्यग्रंथ और 2 गद्य-नाटक प्रकाशित हो चुके है। उन्होंने हिन्दी में गीत, दोहा, सॉनेट, रुबाई, गज़ल, नया शैली की कविता और मुक्तक, काव्य नाटक, प्रबंधकाव्य, महाकाव्य आदि के सफल प्रयोग किये हैं। गुलाबजी पिछले 10 वर्षों ‘अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के सभापति हैं।
अपनी कविताओं से लोकमानस को अपनी ओर आकर्षित करते हुये उनकी साहित्यिक मित्रमंडली तथा शुभचिन्तकों का दायरा बढने लगा। सर्वश्री हरिवंश राय बच्चन, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, डॉ॰ रामकुमार वर्मा, आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, न्यायमूर्ति महेश नारायण शुक्ल, प्राचार्य विश्वनाथ सिंह, माननीय गंगाशरण सिंह, शंकरदयाल सिंह, कामता सिंह 'काम' आदि इनके दायरे में आते गये।
मित्र मंडली में कश्मीर के पूर्व युवराज डॉ॰ कर्ण सिंह, डॉ॰शम्भुनाथ सिंह, आचार्य विश्वनाथ सिंह, डॉ॰ हंसराज त्रिपाठी, डॉ॰ कुमार विमल, प्रो॰ जगदीश पाण्डेय, प्रो॰ देवेन्द्र शर्मा, श्री विश्वम्भर ’मानव’, श्री त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ मिश्र ’प्रभात’, भवानी प्रसाद मिश्र, नथमल केड़िया, शेषेन्द्र शर्मा एवं इन्दिरा धनराज गिरि, डॉ॰ राजेश्वरसहाय त्रिपाठी, पं॰ श्रीधर शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र, अर्जुन चौबे काश्यप आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। आजकल कवि गुलाब अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के अध्यक्ष है।


Gulab Khandelwal

किस सुर में मैं गाऊँ?


किस सुर में मैं गाऊँ?
भाँति-भाँति के राग छिड़े हैं, किससे तान मिलाऊँ?

गाऊँ मिल मोरों के गुट में
चिड़ियों की टी, वी, टुट, टुट में?
या गाते सरसिज सम्पुट में
मधुकर-सा सो जाऊँ!

मान यहाँ हर ध्वनि का होता
किसके बस न हुए हैं श्रोता!
यदि मैं गहरे में लूँ गोता
मोती कहाँ न पाऊँ!

पर जो छवि बैठी इस मन में
नव-नव धुन रचती क्षण-क्षण में
क्यों न उसीका करूँ वरण मैं
जग से दृष्टि फिराऊँ

किस सुर में मैं गाऊँ?
भाँति-भाँति के राग छिड़े हैं, किससे तान मिलाऊँ?
[तिलक करें रघुवीर]

नाम लेते जिनका दुख भागे


नाम लेते जिनका दुख भागे
मिला उन्हें तो जीवन-भर दुख ही दुख आगे-आगे

छूटा अवध साथ प्रिय-जन का
शोक असह था पिता-मरण का
देख कष्ट मुनियों के मन का
वन के सुख भी त्यागे

वन-वन प्रिया-विरह में फिरना
'कैसे हो सागर का तिरना?'
भ्राता का मूर्छित हो गिरना
नित नव-नव दुख जागे

गूँजी ध्वनि जब कीर्ति-गान की
फिर चिर-दुख दे गयी जानकी
माँग उन्हीं-सी शक्ति प्राण की
मन! तू सुख क्या माँगे!

नाम लेते जिनका दुख भागे
मिला उन्हें तो जीवन-भर दुख ही दुख आगे-आगे
[सीता वनवास से]


तुम खेल रहे......
तुम खेल सरल मन के सुख से, अब छोड़ मुझे यों दीन-हीन
मलयानिल-से जा रहे, निठुर! कलिका की सौरभ-राशि छीन!

पढ़ विजन-कुमारी के उर की गोपन भाषा सहृदय स्वर से
अब व्यंग्य हँसी लिखते हो तुम पंखुरियों पर निर्दय कर से

उपकारों का प्रतिकार यही! आभार यही आभारी का!
तुम खेल रहे अंगार-सदृश ले हृदय हाथ में नारी का

चंचल लावण्य-प्रभा जिसकी पाती हो प्रात न स्नेह-स्फूर्ति
निष्प्रभ थी दीपशिखा-सी ही नारी निशि की श्रृंगार-मूर्ति

अंचल फैलाये सरिता की तट लाँघ सिसकती लहरी-सी
उड़ायाद्रि-क्षितिज पर ज्यों कोई तारिका विनत-मुख ठहरी-सी

करुणा, दुख, ईर्ष्या, रोष-विभा परिवर्तित जिसके क्षण-क्षण की
भावों के अभिनय में चित्रित नैराश्य-व्यथा-सी जीवन की
[कच-देवयानी से]

ग़ज़ल
उन्हें बाँहों में बढ़कर थाम लेंगे
कभी दीवानेपन से काम लेंगे

ग़ज़ल में दिल तड़पता है किसीका
उन्हें कह दो, कलेजा थाम लेंगे

ये माना ज़िन्दगी फिर भी मिलेगी
नहीँ हम ज़िन्दगी का नाम लेंगे

अँधेरे ही अँधेरे होंगे आगे
पड़ाव अगला जहां कल शाम लेंगे

मिला दुनिया से क्या, मत पूछ हमसे
तुझीमें, मौत! अब आराम लेंगे

गुलाब! इस बाग़ की रंगत थी तुमसे
वे किस मुँह से मगर यह नाम लेंगे!
[ सौ गुलाब खिले से]


संपर्क: 56, जय अपार्टमेन्ट, आई.पी.एक्सटेंशन-102, पडपडगंज, नई दिल्ली - 110092 दूरभाषः 011 2726934/2450525
[script code-Gulab Khandelwal]

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

राजस्थानी कहावतां- 2


खाट पड़े ले लीजिये, पीछे देवै न खील।
आं तीन्यां रा एक गुण, बेस्या बैद उकील।

बैस्या, बैद्यराज अर्थात डाक्टर, वकील इन तीनों की एक ही समानता है कि जब आदमी को जरूरत होती है तभी उनको याद करता है। काम हो जाने के बाद वह पलटकर भी इनको नहीं देखने आता।
कहावत का तात्पर्य है -
जब आदमी को काम पड़े उसी वक्त उससे अपना लेन-देन कर लेना चाहिए। -आपणी भासा


गरबै मतना गूजरी, देख मटूकी छाछ।
नव सै हाथी झूंमता, राजा नळ रै द्वार।।

राजा नळ के दरवाजे पर 900 हाथियों का झूंड खड़ा रहता था वह भी समाप्त हो गया। पर तुम अपनी एक हांडी छाछ पर इतराता है।
कहावत का तात्पर्य है -
अपनी संपत्ति पर इतना मत घमंड करो। एक दिन सब समाप्त हो जाता है। -आपणी भासा


ग्यानी सूं ग्यानी मिलै, करै ग्यान री बात।
मूरख सूं मूरख मिलै, कै जूता कै लात।।

इस कहावत का भावार्थ बहुत सरल है। संगत जैसी वैसी करनी। -आपणी भासा

चोदू जात मजूर री, मत करजे करतार।
दांतण करै नै हर भजै, करै उंवार-उंवार।।

मजदूरी करने वाला आदमी न तो कभी ठीक से भजन-किर्तन करता है ना ही ठीक से नहाता-खाता है बस जब उससे बात करो तो बोलता है कि बहुत समय हो गया।
कहावत का तात्पर्य है -
जो अस्त-व्यस्त रहता है उसी के पास समय नहीं रहता। -आपणी भासा


जायो नांव जलम को रैणौ किस विध होय?
जन्म लेने वाले बच्चे को 'जायो' कहा जाता है तो वह अमर कैसे हुआ?
कहावत का तात्पर्य है - एक दिन सबको जाना तय है। जन्म लेने के साथ ही मौत तय निष्चित हो जाती है। -आपणी भासा


ज्यूं-ज्यूं भीजै कामळी, त्यूं-त्यूं भारी होय।
कपास, रुई या कम्बल जैसे-जैसे पानी में भींगती है वह किसी काम के लायक नहीं रह जाती।
कहावत का तात्पर्य है -
जैसे-जैसे आदमी में किसी भी बात का घमंड बढ़ने लगता है वह समाज से कट जाता है।
इस कहावत को कुछ लोग यह अर्थ भी लगाते हैं- जैसे-जैसे धन आने लगता है उस आदमी की कर्द समाज में होने लगती है। -आपणी भासा

रविवार, 27 नवंबर 2011

आपणी भासा राजस्थानी - शम्भु चौधरी


म्हारी दो दिनां’री राजस्थानी यात्रा में
मिलगी म्हाणै एक कहानी,
कमरा में पड़ी-पड़ी सड़गी
आपणी भासा राजस्थानी।
समाचारपतरां म कोणी दिखी
दिवाळा में कोणी दिखी
बातां में भी खोती दिखी
नेता’रे फोटूआं म भी कोणी दिखी
टी.वी चैनला म भी खोगी
आपणी भासा राजस्थानी।

पर
एक छोटी सी कोठरी में
दम तौड़ती, खांसती
हिम्मतां हारती
फाटड़ा गाबां म
ईलाज रे अभाव म
अन्तिम सांसां लेती
दिखगी मणै
आपणी भासा राजस्थानी।

ताना कसी
थे अब आया हो?
अब कै लैणै आया हो?
म तो अब मरण’हाळी हूँ।
मणै आपरी छाती से चिपका’र
फैंरुं बोली-
देख आ मेरी वसीयत है
जिकी तेरे नाम कर दी है।
अब तो बस मेरी सांस बची है
जिकी मेरे सागै ही अब जासी।
लालसाजी अर सेठीया जी चळग्या,
रावतजी भी छोड़ चळग्या।
तेरे बस’रीं बात कोणी
अब कि’रीं मणै आस कोणी।
हाँ!
बा छिपा (बर्तन) में कुछ रोटी बचगी
भाया म सै बांट’रे खालै
ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, णै देदे आधी
ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, णै देदे म्हारी लोटी
(बचा-कुचा समान)
मारवाड़ी, मालवी, देदे आ खटिआ (मचान)
शेखावटी देदे सारी बकिया(कर्ज)
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।

आंखां म आंसू झलकाया
सर पर मेरे हाथ फिराया
मणै पूछी
तेरा डाबर कंईयां है?
मेरी आस तो कोणी बची
औळ्यां सैं’री आवै है।
देख आ माटी पर
कुछ पड़ी किताबां
पाणी में भींगी जावै है।
किड़ा खाग्या,
ढीळ लाग्गी,
किनारे से पूरी फाटगी,
बाबूसा बोल्यां करता था
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।

म तो अब चालन लागी हूँ
अंतिम सांसां गिण रही हूँ
सैं’णै मेरो राम-राम कहियो।
घणी डिक(इंतजार) लगाई सैं’रीं
काफी आस जगाई सैं’रीं
सैंका सैं नालायक निकला
लायक भी नालायक निकला
बोबा’रो दूध पिलायो सैंणै
मांचा म खुब खिलायो सैं’णै
बाबू’री फाट’री धोती
पोतड़ा में सुलांयो सैं’णै
आज मेरी साड़ी भी अब
गई सग्ळी फाट...
रुक’रे बोली...
सुण मेरी इक बात!
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।

मेरे एक काम करोगो तू!
बी कोणा में जा
देख बठै है मेरी पोथी
‘मायड़ भासा राजस्थानी’
राख संभाल काम जद आसी
कोई काम न आसी।
अन्तिम सांसां लेती बोळी
आपणी भासा राजस्थानी।


(आपणी भासा राजस्थानी - शम्भु चैधरी,
स्वतंत्र प्रकाशन अधिकार के साथ,
रचना निर्माण दिनांक 27 नवंबर 2011)

शनिवार, 26 नवंबर 2011

राजपूत रा डावड़ो - स्व॰ रावत सारस्वत

मा, मैं रणखेतां जास्यूं
बाबोसा रो बख्तर ल्याद्यो
बो खूनी खांडो मंगवाद्यो
म्हारै घुड़ळै जीन कसाद्यो
रजपूती रा ठाठ सजाद्यो।
      अब लड़बा मरबा जास्यूं मा,
      खूनां रा समंद बहास्यूं मा
      मैं रणखेतां जास्यूं।

बखतर यो बादळ बण ज्यासी
यो खांडो बीजळ चमकासी
पून वेग म्हारो घुड़लो जासी
या रजपूती प्रळै मचासी।
      बैर्यां रा सीस झुकास्यूं मा,
      जीवण रो फळ जद पास्यूं मा
      मैं रणखेतां जास्यूं।

बहनड़ अकनकंवार उतारो
आरतड़ो रजवंती म्हारो
ओ रोळी टीको म्थारो
लोही मांगैलो लाखां रो।
      टीकै री लाज रखास्यूं मा,
      बहनड़ रो प्यार चुकास्यूं मा
      मैं रणखेतां जास्यूं।



स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी का संक्षिप्त परिचय:
स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी का जन्म राजस्थान के चूरू गांव में 22 जनवरी, 1922ई. में श्री हनुमानप्रसाद सारस्वत के यहां हुआ। आपकी प्राथमिक पढ़ाई बागला स्कूल, चूरू और ग्रेज्यूएट तक की शिक्षा डूंगर कॉलेज, बीकानेर से की आगे चलकर आपने एम.ए. एलएल.बी. की परिक्षाएं भी दी।
डूंगर कॉलेज, बीकानेर में पढ़ाई करते वक्त राजस्थानी भाषा के विद्वान के संपर्क में रहने के चलते आपमें भी राजस्थानी भाषा की सेवा का भाव जग उठा। सन् 1947-48 आपने बीकानेर से जयपुर आकर रेडक्रॉस सोसायटी में सेक्रेट्री पद पर कार्य करने लगे, आप सेवानिवृत्त तक इसी संस्था में ही कार्य करते रहे। इस संस्था में रहते-रहते ही आपने राजस्थानी भासा पर अपना कार्य जारी रखा। इस दौरान आपने ‘मरुवाणी’ मासिक का प्रकाशन भी करने लगे जो 1953 से लगभग 20 सालों तक लगातार प्रकाशित होती रही। इस पत्रिका के प्रकाशन के साथ-साथ आपने ‘राजस्थान भासा प्रचार सभा’ की भी स्थापना कर इस संस्था के माध्यम से कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन किया। श्री सारस्वत सभा की तरफ से वर्ष में चार बार राजस्थानी भाषा की परिक्षाएं लेते जिसमें हर वर्ष हजारों छात्र भाग लेते रहे। आपके द्वारा राजस्थान के सैकडों साहित्यकारों को सामने आने का अवसर मिला औ उनको प्रसिद्धि भी मिली।
आप में राजस्थानी भाषा के प्रति गजब का प्रेम था, कई बार आप अपनी मासिक तनखाह से पुस्तकें खरीद लाते और बच्चों का भूखा ही पालते रहते। आप कवि, नाटककार, निबंधकार, समीक्षक, संपादन, अनुवादक, कोषकार एवं शोधकार की प्रतिभा से पूर्ण थे। राजस्थानी भासा मान्यता के प्रबल समर्थक आपको कई सम्मानों से भी नवाजा जा चुका है। 16 दिसम्बर, सन् 1988ई. को आप इस संसार से भावपूर्ण विदाई लेकर खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दिए।

आपकी उपरोक्त कविता में वीर राजपुत युवा अपनी मां से आर्शीवाद मांग रहा है और कह रहा है कि मां मुझे अब युद्ध में जाने दो मेरे माथे पर बहन से कहो कि वो रोळी के लहू जैसे चंदन से टीका करे और मुझे खांडो अर्थात तलवार से सजा दे। राजस्थान के कण-कण में इस तरह की गाथाएं छुपी पड़ी है। मरूभूमि का शायद ही ऐसा कोई कवि होगा जिसने इन वीर गाथाओं से अपनी रचनाओं का श्रृंगार न किया हो। उपरोक्त कविता राजस्थान के महान भासा प्रेमी स्व॰ श्री रावत सारस्वतजी की ‘‘बखत रै परवाण ’’ से ली गई है। -संपादक

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

अ.भ. मारवाड़ी युवा मंच : दशम राष्ट्रीय अधिवेशन

अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच का
राष्ट्रीय अधिवेशन
भव्य आडम्बर युक्त पंडाल में शुरू हुआ।


कोलकातः 16 नवम्बर 2011- रिर्पोट मंच सदस्यों द्वाराः
अखिल भारतीय मारवाड़ी युवामंच का दशम् राष्ट्रीय अधिवेशन भव्य आडम्बर युक्त पंडाल में अव्यवस्था और हंगामे के साथ संपन्न हुआ। नासिक में संपन्न हुए इस चार दिवसीय दशम राष्ट्रीय अधिवेशन के आयोजन पर जहाँ आयोजकों ने समाज के धन को पानी की तरह बहाया, वहीं मंच के सदस्यों को ठहरने के लिए सही व्यवस्था भी नहीं कर पाये, सारी व्यवस्था पैसे के जोर पर या ‘‘इभेन्ट मेनेजमेंट’’ के जिम्में सौंप कर आयोजकों ने देश भर से आये मंच के हजारों सदस्यों को रात भर ठहरने की जगह खोजने में ही लगावा दिया। भूखे-प्यासे सदस्य शहर में बच्चों व समान को लेकर भटकते रहे।
जैसे-जैसे मंच के सदस्य नासिक स्टेशन पंहुचते गये उनकी व्यवस्था चरमराने लगी, मानो सब कुछ हवा में चल रहा था। रात को ग्यारह बजे पंहुचे कुछ सदस्यों ने बताया कि उसे घंटों शहर के चक्कर लगाने के बाद भी ठहरने की जगह नहीं मिल पाई। छः छः घंटे मंच के सदस्य अपनी ठहरने की जगह तलाशते रहे। होटल में जो व्यवस्था थी वह भी बड़ी अजिबों-गरीब स्थिति का बयान कर रही थी। एक रूम में 5-6 सदस्यों को ठहराया गया दो-तीन को पलंग पर और तीन को जमीन पर सोने को मजबूर होना पड़ा। दो करोड़ रुपिये के बजट के इस आडम्बर में मंच सदस्यों को सिर्फ निराशा ही हाथ लगी। आयोजक प्रान्त की तरफ से सभी सदस्यों को होटल में ठहराने की बात शुरू से प्रचारित की गई थी। रहने, ठहराने व स्थानिय यातायात के नाम पर प्रति सदस्य 1500/- रुपया बतौर शुल्क भी चार्ज किया गया था।
दशम् राष्ट्रीय अधिवेशन की झलकः
1. अव्यवस्था को आलम यह था कि अधिकतर मंच सदस्यों अपने आवास को लेकर परेशान दिखे। कईयों को जगह नहीं मिली तो, वे आपा खो बैठे और राष्ट्रीय सभा के दौरान जम के हंगामा किए। जिसके चलते राष्ट्रीय सभा भी कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी व पुनः 10-15 मिनट में ही सभा को समाप्त कर दी गई।
2. अधिवेशन स्थल के मंच पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं था। जिसे जो मन में आया आकर माईक से कुछ घोषणा कर जाता था एक महोदय तो उद्घाटनकर्ता की सीट खाली देख जाकर मंच पर ही बैठ गये।
3. पुर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों को किनारे एक कोने में धकेल दिया गया।
4. मंच के एक सदस्य को ‘‘मंच के संस्थापक’’ बताया जाता रहा जबकि मंच के इतिहास में इस महान पुरुष का कोई अता-पता नहीं है। उस व्यक्ति का नाम बार-बार मंच के संस्थापक के रूप में प्रचारित किया जाता रहा।
6. उद्घाटन सत्र दो बार हुआ
1) श्री जगन्नाथ पाहड़िया जी माननीय राज्यपाल जी, हरियाणा द्वारा 2) श्री नितिन गडकरी जी द्वारा।
7. ‘राष्ट्रीय सभा’ जो कि मंच का प्राण सभा मानी जाती है इसे 15 मिनट में समाप्त कर दिया गया।
8. ट्रेडफेयर: जमीन के व्यापारियों से ही सिर्फ अटा-पटा है।
9. विश्व मारवाड़ी सम्मेलन:
विश्व मारवाड़ी सम्मेलन के नाम से जो प्रचार किया गया इसका कोई भी स्वरूप देखने को नहीं मिला।
10. मंच के सदस्यों ने आपा खोयाः
रजिस्ट्रेशन के दौरान आयोजकों के व्यवहार से खफा होकर मंच के कुछ सदस्यों ने आयोजकों की तरफ की एक सदस्य के साथ हाथा-पाई तक कर डाली।
11. ‘शौच’ की पूरी व्यवस्था अधिवेशन स्थल पर नहीं थी। सदस्यों को सड़कों पर शौच करने जाना पड़ा।

टिप्पणीः
पाणी-पाणी हो ग्यो, भींग ग्यो सैं ळाज।
पाणी सां’रो सूं ग्यो, तिंस ग्या म्हें आज।।

जैसे-जैसे मंच के सदस्य जिस आशा और उत्साह से इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए नासिक पहुचने लगे। वैसे-वैसे ही फोन पर सदस्यों की पीड़ा और चीख सुनाई देने लगी। मानो मंच का यह दशम् अधिवेशन, अधिवेशन ना हो कर कोई राजनैतिक मंच हो गया हो। जहाँ गांव से भैंड़-बकरियों को बुलाकर खुद का प्रोजेक्सन करना मात्र इस अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य रह गया हो। जिस प्रकार धन की बर्वादी इस अधिवेशन में की गई इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि व्यवस्थापक समूह केवल लिफाफेबाजी कर चकाचौंध तामझाम को ही अधिवेशन मान बैठे हैं।
राष्ट्रीय सभा को 15-20 मिनट में समाप्त कर देना, खुलेसत्र में किसी को बोलने न देना, आवास की अव्यवस्था, पीने के पानी की कमी, प्रभात रैली तीन-चार घंटा सिर्फ नेता ना आने के करण विलम्ब कर देना इस बीच चाय-नास्ते की व्यवस्था का न होना, बाथरूम का पानी पीने के जार में डाल कर देना। अधिवेशन स्थल तक आने-जाने का कोई साधन आयोजकों द्वार उपलब्ध ना करा सकना। ठंठा भोजन, अधिनेशन स्थल पर चाय-पानी की कोई व्यवस्था का ना होना। आखिर यह चंदा जो जमा किया गया वह खर्च हुआ तो हुआ किधर?
मंच के सदस्यों के लिए अलग खाने की व्यवस्था और खुद के मेहमानों लिए अलग व्यवस्था। यह भांत किस बात के लिए?
विश्व मारवाड़ी सम्मेलन के नाम पर जितना हल्ला हुआ, वैसा कुछ भी तो नहीं दिखा इस अधिवेशन में।
नासिक शाखा के साथ हमारी पूरी सहानुभूती है। मंच के सदस्य इन तकलिफों के बाबजूद उनको भरपूर सहयोग देते रहे, परन्तु आयोजकों ने अपनी अभर्दता दिखाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी।
जगजीत सिंह की एक गजल है-
मुहं की बात कहे हर कोई,
दिल का दर्द ना जाने कौन
आवाजों के बाजारों में,
खामोशी पहचाने कौन?

हमें राजनेताओं के भाषण से जो गर्व होता है वह एक चिन्ता का विषय भी है कि क्या अब समाज के कार्यों का प्रमाण-पत्र इन भ्रष्ट राजनेताओं से लेना होगा? इससे तो बेहतर होता मराठी भाषा के साहित्यकारों, कुछ सामाजिक हस्थियों को भी इनके साथ-साथ इस अधिवेशन का हिस्सा बनाते और उनके श्रीमुख निकले हुए संदेश देश भर में हमें गर्व का अहसास तो कराते ही साथ ही अमर हो जाते वे शब्द, परन्तु अफसोस इस बात रहा है कि ‘‘घर फूंक तमाशा देखें’’ वाली कहावत चिरथार्त लगती है। इतनी बड़ी धनराशि खर्च होने के बाद भी हम सिर्फ बदनामी ही ले पाये। समाज के लोग जब धन का अवव्यय करते हैं तो हम उन पर दोषारोपन करते नहीं थकते। आज मंच के सदस्य इस प्रवृति को ही सही ठहरा देगें तो समाज के बीच कौन सा मुंह लेकर जाएंगें ये लोग अब? अपरोक्ष रूप से मुझे धमकी मिल चुकी है।

समीक्षाः मंचिका अधिवेशन विशेषांक -
मंच के अन्दर अब नई जेनेरेशन को नेतृत्व कैसे मिले इस विषय पा चर्चा करनी जरूरी है। पुराने लोगों की दादागीरी तभी समाप्त होगी जब हम उनके विचारों को हम मानने से इन्कार कर देगें। नासिक अधिवेशन की 'मंचिका' तो भाई उनके विचारों का आईना है। मंच शाखाओं की कोई सामग्री इनको मिली ही नही। मंच-दर्शन, मंच का इतिहास, पूर्व अध्यक्षों के सूझाव व लेख कुछ भी तो नहीं है इस स्मारिका में। फिर यह स्मारिका किस रूप से हुई। स्मारिका के शाब्दीक अर्थ का भी ज्ञान संपादक जी को नहीं है। उन्हें पता ही नहीं कि युवा मंच क्या है। इसका क्या इतिहास रहा है। लगता है कोई जोड़-तोड़ लेखक है जिसने समाज की बहुत सारी सामग्री एकत्रित कर छाप दी हो। हां! संपादक जी ने अपने संपादकीय में यह जरूर ईमानदारी बरती है कि उनको किसने यह भार दिया है।
राजस्थानी व मराठी भासा के महान नाटक/निबंधकार स्व॰ शिवचंद्र भरतिया को तो शायद इनका समाज जानता तक नहीं होगा। मंचिका के संपादक को या दैनिक लोकमत, नासिक के संपादक श्री हेमंत कुलकर्णीजी को तो पता होना ही चाहिए था। संभतः इनको मेरी बात बुरी लगे, परन्तु जब मारवाड़ी समाज के ‘रेफरेंस बुक’ की बात करते हैं तो इस बात का ज्ञान तो रहना ही चाहिए कि ‘रेफरेन्स बुक’ का अर्थ क्या होता है। केवल रंगीन पृष्ठ छाप देने से स्मारिका या जोड़-तोड़ से कोई किताब ‘रेफ्रन्स बुक' जैसा की इन्होंने दावा किया है, नहीं बन जाती है। इस प्रवृति पर कैसे रोक लगे पर विचार करना होगा। इस बार मंचिका का मूल्य भी अंकित किया गया है 200/- यदि किसी को डाक से मंगवानी हो तो 50/- पोस्टेज चार्य अतिरिक्त देय होगा। - शंभु चौधरी

मोडीया लिपि ‘महाजनी’ / Modiya Script

एक समय में राजस्थान अंचल में ‘मोडीया लिपि’ का प्रचलन था। इसको देश भर में ‘महाजनी’ के नाम से भी इसे जाना जाता था। इन दिनों इसका प्रचलन समाप्त को चुका है। देश भर के मारवाड़ी व्यापारी इसका प्रयोग खाता-बही लिखने व हुण्डी काटने आदि में प्रयोग करते थे। महाजनी में अंक को ‘पहाडा’ कहा जाता है। जिसमें एक आणा, दो आणा या एक, दो, तीन, चार बोला जाता था। इसके विषय में अगले लेख में जानकारी दूंगा। आज आपको यहाँ पर मोडभ्या लिपि देखने में कैसी होती थी इसका नमूना नीचे चित्र में दे रहा हूँ। - शंभु चौधरी


Modiya Script "Mahajani"

Modiya Script

बुधवार, 9 नवंबर 2011

राजस्थानी भासा साथै धोखो?

राजस्थान विधानसभा रे माथै 25 अगस्त 2003 णै एक प्रस्ताव ‘राजस्थानी भाषा’री मान्यता खातिर भारत रे संविधान’रि आठवीं अनुसूची में सामिळ करै ताणी एक प्रस्ताव पारित कियो ग्यो थो। जिमें कह्यौ ग्यौ कि
‘‘राजस्थान विधानसभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यो संकल्प ळैवै है कि राजस्थानी भाषा णै संविधान रि आठवीं अनुसूची में सम्मिलित कियो जावै। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जिलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूँढ़ाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी आद सामिल है।’’

अठै आपं ईं प्रस्ताव रि गम्भीरता पर विचार करैगां कि राजस्थानी भासा साथै धोखो कियो ग्यो है कै? जिं टैम यौ प्ररसताव विधानसभा में लियो ग्यो थो विं टैम भी असोकजी’रि सरकार थी। बिणासै पुछो जावै कि ये प्रस्ताव थो कि जैर?
http://samajvikas.blogspot.com/2009/06/blog-post_844.html

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

धरती धौरां री... से मुलाकात - शम्भु चौधरी


स्व॰ श्री कन्हैयालाल सेठियाजी की पुण्य तिथि 11 नवम्बर पर विशेष लेख


Kanhaiyallal setia
कोलकात्ता सन् 2008 की बात है उन दिनों मैं ‘समाज विकास’ पत्रिका का संपादन देख रहा था। अचानक मेरे एक मित्र ने फोन पर मुझे बताया कि श्री सेठिया जी काफी अस्वस्थ्य चल रहे हैं उसी दिन मैंने उनके निवास पर जाने का मन बना लिया। मई का महिना था कोलकाता में वैसे भी काफी गर्मी पड़ती थी सो शाम पाँच बजे श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के निवास स्थल 6, आशुतोष मखर्जी रोड पंहुच गया। ‘समाज विकास’ का अगला अंक श्री सेठिया जी पर देने का मन बना लिया था, सारी तैयारी चल रही थी, मैं ठीक समय पर उनके निवास स्थल पहुँच गया। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया जी से मुलाकत हुई। थोड़ी देर उनसे बातचीत होने के पश्चात वे, मुझे श्री सेठिया जी के विश्रामकक्ष में ले गये । बिस्तर पर लेटे श्री सेठिया जी का शरीर काफी कमजोर हो चुका था, उम्र के साथ-साथ शरीर थक सा गया था, परन्तु बात करने से लगा कि श्री सेठिया जी में कोई थकान नहीं । उनके जेष्ठ पुत्र भाई जयप्रकाश जी बीच-बीच में बोलते रहे - ‘‘ थे थक जाओसा.... कमती बोलो ! ’’ परन्तु श्री सेठिया जी कहाँ थकने वाले, कहीं कोई थकान उनको नहीं महसूस हो रही थी, बिल्कुल स्वस्थ दिख रहे थे। बहुत सी पुरानी बातें याद करने लगे। स्कूल-कॉलेज, आजादी की लड़ाई, अपनी पुस्तक ‘‘अग्निवीणा’’ पर किस प्रकार का देशद्रोह का मुकदमा चला । जयप्रकाश जी को बोले कि- वा किताब दिखा जो सरकार निलाम करी थी, मैंने तत्काल दीपज्योति (फोटोग्राफर) से कहा कि उसकी फोटो ले लेवे । जयप्रकाश जी ने ‘‘अग्निवीणा’’ की वह मूल प्रति दिखाई जिस पर मुकद्दमा चला था । किताब के बहुत से हिस्से पर सरकारी दाग लगे हुऐ थे, जो इस बात का गवाह बन कर सामने खड़ा था । सेठिया जी सोते-सोते बताते हैं - ‘‘हाँ! या वाई किताब है जीं पे मुकद्दमो चालो थो...देश आजाद होने’रे बाद सरकार वो मुकदमो वापस ले लियो।’’ थोड़ा रुक कर फिर बताने लगे कि आपने करांची में भी जन अन्दोलन में भाग लिया था। स्वतंत्राता संग्राम में आपने जिस सक्रियता के साथ भाग लिया, उसकी सारी बातें बताने लगे, कहने लगे ‘‘भारत छोड़ो आन्दोलन’’ के समय आपने कराची में स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ० चौइथराम गिडवानी जो कि सिंध में उन जमाने में कांग्रेस के बड़े नेताओं में जाने जाते थे, उनके साथ कराची के खलीकुज्जमा हाल में हुई जनसभा में भाग लिया था, उस दिन सबने मिलकर स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ० चौइथराम गिडवानी के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला था, जिसे वहाँ की गोरी सरकार ने कुचलने के लिये लाठियां बरसायी, घोड़े छोड़ दिये, हमलोगों को कोई चोट तो नहीं आयी, पर अंग्रेजी सरकार के व्यवहार से मन में गोरी सरकार के प्रति नफरत पैदा हो गई। आपका कवि हृदय काफी विचलित हो उठा, इससे पूर्व आप ‘‘अग्निवीणा’’ लिख चुके थे। उनके चेहरे पर कोई शिथिलता नहीं, कोई विश्राम नहीं, बस मन की बात करते थकते ही नहीं।
श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्शों से ज्यादा समय से बंगाल में है। आप बताते हैं कि आप 11 वर्श की आयु में सुजानगढ़ कस्बे से कलकत्ता में शिक्षा ग्रहन हेतु आ गये थे। उन्होंने जैन स्वेताम्बर तेरापंथी स्कूल एवं माहेश्वरी विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा ली, बाद में रिपन कॉलेज एवं विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा ली थी।
‘धरती धौरां री..’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ की रचना करने वाले अमर व्यक्तित्व के सामने मुझे तो ऐसा लग रहा था कि मैं अपने पिता के पास हूँ। सारी बातें राजस्थानी में हो रही थी सो अपनापन का ऐहसास तो हो ही रहा था मुझे। उनके अपनत्व से भी मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती मां उनके मुख से स्वयं बोल रही हो। शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा लग रहा था मुझे ये सब। फिर अपनी बात बताने लगे- ‘‘ ‘आकाश गंगा’ तो सुबह 6 बजे लिखण लाग्यो जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी।’’ मैं तो बस उनसे सुनते रहना चाहते था, वाणी में मां सरस्वती का विराजना साक्षात देखा जा सकता था। मुझे बार-बार एहसास हो रहा था कि मैं किसी मंदिर में हूँ जहां ईश्वर से साक्षात दर्शन हो रहे हैं। यह तो मेरे लिये सुलभ सुयोग ही था कि मैं उनके शहर में ही रहता था।
इस ऐतिहासिक मुलाकात के बाद ही श्री सेठिया जी चन्द दिनों बाद ही 11 नवम्बर 2008 को अनन्त में लील हो गये। यह एक महज संयोग ही था।
करोड़ों राजस्थानियों की धड़कनों का प्रतिनिधि गीत ‘धरती धोरां री’ एवं अमर लोकगीत ‘पातल और पीथल’ के रचयिता, राजस्थानी अकादमी, उदयपुर द्वारा ‘साहित्य- मनीषी’ की उपाधि से विभूषित पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया का जन्म राजस्थान के सुजानगढ़ शहर में 11 सितम्बर, 1919 ई0 को हुआ और इनकी मृत्यु 11 नवम्बर 2008 को कोलकाता में हुई। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा सुजानगढ़ में एवं स्नातकीय शिक्षा कलकत्ता में हुई। साहित्यसेवा एवं सहृदयता आपको अपने पिता छगनमलजी एवं माता मनोहरी देवी से विरासत में प्राप्त हुई। आपकी प्रथम हिन्दी काव्य पुस्तक ‘वनफूल’ 1940 में प्रकाशित हुई एवं शीध्र ही क्रान्तिकारी विचारों का प्रस्फुटन करती हुई दूसरी पुस्तक ‘अग्निवीणा’ लोगों के सामने आई। यह पुस्तक जमींदारी उत्पीड़न के विरुद्ध एक सशक्त स्वर की बुलन्दी थीं, अतः आप पर मुकद्दमा, चला एवं भारत स्वाधीन होने के बाद ही उससे राहत मिली। 1976 ई0 में आपकी राजस्थानी काव्यकृति ‘लीलटांस’ साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा उस वर्श की सर्वश्रेष्ठ राजस्थानी कृति के नाते पुरस्कृत की गई। 1981 ई0 में आपको राजस्थानी में उत्कृष्ट रचनाओं के हेतु लोक संस्कृति शोध संस्थान, चुरू द्वारा प्रवर्तित ‘डॉ० तेस्सीतोरी स्मृति स्वर्णपदक’ प्रदान किया गया। सेठियाजी को मूर्तिदेवी साहित्य पुरस्कार उनके काव्य ग्रन्थ ‘निर्ग्रन्थ’ पर दिया गया है। ‘निर्ग्रन्थ’ में कवि की 82 कविताएं संकलित हैं। प्रत्येक कविता के साथ दर्शन जुड़ा है।
राजस्थानी में 14 एवं उर्दू में दो पुस्तक प्रकाशित है। इनमें से कुछ पुस्तकें अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई हैं। यद्यपि समय की आवश्यकता एवं पुकार पर उन्होंने कई पुस्तकें क्रान्तिधर्मा स्वर की लिखी यथा ‘अग्नि वीणा’ एवं ‘आज हिमालय बोला’ पर उनके अधिकांश साहित्य का या ठीक कहें तो उत्तरकाल के साहित्य का मूल स्वर आध्यात्मिक चिन्तन पर आधारित सनातन सत्य का प्राकट्य ही है। दर्शन पर आधारित उनकी रचनाओं में ‘प्रणाम’, ‘मर्म’, ‘अनाम’, ‘निर्ग्रन्थ’, ‘देह-विदेह’ एवं ‘निष्पत्ति’ (हिन्दी में) तथा ‘कूंकूं’, ‘लीलटांस’, ‘दीठ’ एवं ‘कक्को कोड रो’ ‘लीक लकोळिया’ (राजस्थानी) रचनाएँ हैं। इनमें से प्रत्येक पर एक-एक स्वतन्त्र समालोचनात्मक ग्रन्थ लिखा जा सकता है । ‘दीपकिरण’ (हिन्दी) में भी उनके 160 एक-से-एक उत्तम गीत हैं।
हिन्दी में आपकी 15 ग्रन्थ - बनफूल, अग्निवीणा, मेरा युग, दीपकिरण, प्रतिबिम्ब, आज हिमालय बोला, खुली खिड़कियां चौड़े रास्ते, प्रणाम, मर्म, अनाम, निर्ग्रन्थ, स्वगत, देह-विदेह और आकाश गंगा, राजस्थानी में- मींझर, गळगचिया, कूंकूं, धर कूंचा धर मजलां, लीलटांस एवं रमणिये रा सोरठा सहित 10 ग्रन्थ, उर्दू में ‘ताजमहल’ एवं अंग्रेजी में ‘रिफलेक्शन्स इन ए मिरर’ (अनुवाद) प्रकाशित हुए हैं। ‘निर्ग्रन्थ’ का बांग्ला में एवं ‘खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते, का मराठी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। आपके साहित्य में भारतीय जीवन-दर्शन का गहन तत्त्व जिस सहजता से प्रकट हुआ है, आधुनिक युग में उसकी मिसाल मिलना कठिन है।
आपकी मान्यता था कि राजस्थानी जैसी समृद्ध भाषा की, जिसके कोश में सर्वाधिक शब्द हैं, उपेक्षा घातक है। राजस्थानी के व्यवहार के पक्ष में आपकी लिखित पुस्तक ‘मायड रो हेलो’ एक सशक्त दस्तावेज है।
‘प्रतिबिम्ब’ भी उनके गीतों की एक और भावपूर्ण पुस्तक है जिसमें विविधता भरी है। ‘लीलटांस’ को 1976 में साहित्य अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा की उस वर्श की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत किया गया एवं ‘निर्ग्रन्थ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला। 1987 में आपकी राजस्थानी कृति ‘सबद’ पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च ‘सूर्यमल्ल मिश्रण शिखर पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। 2004 में आपको ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया है। नोटः आपके समस्त साहित्य को ‘राजस्थान परिषद’ कोलकाता ने ने चार खंडों में ‘समग्र’ के रूप में प्रकाशित किया है । एक खंड में राजस्थानी की 14 पुस्तकें, दो खंडो में हिन्दी एवं उर्दू की 20 पुस्तकें समाहित हैं। चौथा खंड इनके 9 ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद का है। 8

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